- पूनम यादव एवं बृजराज सिंह
शोध सार : लांगुरिया लोकगीतों में मुख्यतः ब्रज जीवन के विविध अनुभवों की अभिव्यक्ति है। ब्रजनारियाँ इन लोकगीतों के माध्यम से नीरस जीवन में रस घोलने का काम करती हैं। ब्रज जीवन का रंग लांगुरिया लोकगीतों में स्पष्ट रूप से झलकता है। महिलाएं जीवन की निजी अनुभूतियों को इन लांगुरिया लोकगीतों में अभिव्यक्त करती आ रही हैं। लांगुरिया गीत भक्ति से शुरू होकर जीवन के विविध पहलुओं से जुड़ते हैं,
जिनमें जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों का विनोदपूर्ण वर्णन है।
ब्रज की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का परिचय भी हमें मिलता है।
इन्हीं
लांगुरिया गीतों के विविध रूपों का अध्ययन-विश्लेषण
इस
शोध
पत्र
पत्र
में
किया
गया
है।
बीज शब्द : ब्रज, ब्रजक्षेत्र, लोकजीवन, लोक, संस्कृति, जात, गीत, लांगुरिया, भक्ति, ब्रज संस्कृति।
मूल आलेख : लांगुरिया ब्रज
क्षेत्र
में
गाया
जाने
वाला
लोकगीत
है।
यह
मुख्यतः
देवी
की
जात
अर्थात
यात्रा
करते
हुए
गाया
जाता
है।
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
मुख
सुख
के
कारण
यात्रा
शब्द
जात्रा
में
फिर
‘जात’ में परिवर्तित
हो
गया।
ब्रज
क्षेत्र
में
कोई
भी
मांगलिक
कार्य
होने
पर
या
अनिष्ट
के
निवारण
हेतु
'जात' करने
को
बोला
जाता
है।
कोई
मनोकामना
जैसे-
घर
में
पुत्र
प्राप्ति
के
बाद
बच्चे
का
पहला
मुंडन
किसी
धार्मिक
स्थान
पर
ही
कराया
जाता
है।
इस
प्रकार
हम
कह
सकते
हैं
कि
इच्छित
कामना
की
प्राप्ति
के
बाद
जो
धार्मिक
यात्रा
की
जाती
है।
उसे
ही
'जात' कहा जाता
है,
जिसमें
देवी
स्थान
की
यात्रा
की
जाती
है।
लांगुरिया लोकगीत राजस्थान
के
पूर्वी
भाग
एवं
उत्तर
प्रदेश
के
पश्चिमी
भाग
की
संस्कृति
का
प्रमुख
अंग
है।
राजस्थान
के
करौली
जिले
में
लांगुरिया
को
हनुमान
जी
का
लोक
स्वरूप
माना
गया
है।
करौली
क्षेत्र
में
कैला
मैया
अंजना
मां
का
अवतार
मानी
जाती
हैं।
नवरात्र
के
दिनों
में
करौली
क्षेत्र
में
लांगुरिया
लोकगीत
एवं
लोक
नृत्य
का
आयोजन
होता
है। आगरा
क्षेत्र
में
लगभग
प्रत्येक
हिंदू
परिवार
विवाह
होने
के
बाद
पुत्रवधू
को
लेकर
तथा
शिशु
का
मुंडन
कराने
हेतु
यहाँ
आते
हैं।
कैला
गांव
को
'लहुरा गाँव' भी कहा
जाता
है।
ब्रजभाषा
में
लहुरा
का
अर्थ
होता
है
लड़का
जो
अंजना
के
पुत्र
हनुमान
जी
की
ओर
संकेत
करता
है।
ऐसी
मान्यता
है
कि
करौली
वंश
के
शासक
कृष्ण
के
वंशज
थे।
यह
मैया
अंजना
को
कुल
देवी
मानते
थे।
हनुमान
जी
अग्रवाल
समुदाय
के
कुल
देवता
हैं
तथा
अंजना
माता
अग्रवालों
की
कुलदेवी
हैं।
इस
कारण
न
केवल
राजस्थान
से
अपितु
पश्चिमी
उत्तर
प्रदेश
के मथुरा, बुलंदशहर, आगरा, अलीगढ़ आदि
जिलों
से
भी
कई
भक्तगण
उल्लास
के
साथ
करौली
मंदिर
की
यात्रा
करते
हैं।
लांगुरिया
लोकगीत
अब
सिर्फ
भक्ति
तक
सीमित
न
रहकर
धीरे-धीरे
जीवन
के
विभिन्न
पहलुओं
से
जुड़ा
है।
लोक
जीवन
में
महिलाएं
लांगुरिया
को
माध्यम
बनाकर
अपनी
इच्छाओं
को
अभिव्यक्त
करने
लगीं।
सामाजिक
जीवन
में
महिलाओं
को
अभिव्यक्ति
का
अवसर
प्राप्त
नहीं
था
तो
वह
गीतों
के
माध्यम
से
अपने
भावों
को अभिव्यक्त करती
हैं।
लांगुरिया
गीतों
को
सुनने
से
ज्ञात
होता
है
कि
इनका
चरित्र
विविधताओं
से
भरा
हुआ
है।
कहीं
महिलाएं
लांगुरिया
को
बाल
रूप
में
मनाती
हैं
तो
कहीं
श्रृंगारिक
व्यक्ति
के
रूप
में
हास्यात्मक
प्रवृत्ति
इन
गीतों
में
दिखाई
देती
है।
लांगुरिया
के
संबंध
में
विद्वानों
ने
अलग-अलग
मत
दिए
हैं।
डॉ॰
विद्यानिवास
मिश्र
के
अनुसार
“लांगुरिया का संबंध वैदिक इंद्राणी और ऋषा के संबंध को स्मरण करने का माध्यम बताया है”।1 डॉ. सत्येंद्र
का
मानना
है
कि
कैला
देवी
के
सामने
जो
हनुमान
जी
का
मंदिर
है।
वही
लंगूर
है।
लांगुर
शब्द
बंदर
के
लिए
प्रयुक्त
शब्द
है।
उसी
से
लंगूर
शब्द
बना।
इन
मतों
के
आधार
पर
लांगुरिया
की
उत्पत्ति
के
विषय
में
प्रमाणिक
जानकारी
प्राप्त
नहीं
होती
है।
कुछ
लोकगीतों
में
लांगुर
स्वयं
को
तुलसी
से
उत्पन्न
बताता
है।
यहाँ पर लांगुर
स्वयं
को
ब्राह्मण
का
लड़का
बताकर
तुलसी
के
पेड़
से
जन्मा
बताता
है
किंतु
यह
बात
तर्कसंगत
नहीं
जान
पड़ती। यह
ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए
रखने
का
षड्यंत्र
जान
पड़ता
है। जिस
किसी
की
भी
समाज
मेँ
व्यापक
स्वीकृति
होती
है। उसे
ब्राह्मणवादी घोषित करने का
प्रयास
किया
जाता
रहा
है
जबकि
अन्यत्र
यह
बात
सुनाई
नहीं
देती
है
कि
लांगुर
का
ब्राह्मण
से
कोई
संबंध
रहा
है। क्या वह
समाज
में
निम्न
समझी
जाने
वाली
जाति
में
पैदा
नहीं
हो
सकता।
समाज
में
ब्राह्मण
वर्ग
का
वर्चस्व
बना
रहे
इसीलिए
जो
भी
व्यक्ति
जिसका
बौद्धिक
स्तर
ऊंचा
हो
उसे
ब्राह्मणवादी घोषित करने का
प्रयास
किया
जाता
है
जबकि
कहीं
भी
यह
बात
सुनाई
नहीं
देती
कि
लांगुर
ब्राह्मण
था। अब
प्रश्न
यह
उठता
है
कि
लांगूर
कौन
है? उसकी उत्पत्ति
कैसे
हुई?
उसका
इतिहास
क्या
रहा?
जनश्रुति
के
अनुसार
ऐसा
माना
जाता
है
कि
शिवजी
की
उपासना
पद्धति
में
दो
संप्रदाय
प्रचलित
थे।
लिंगायत
और
लकुलीश।
लिंगायत
संप्रदाय
के
प्रवर्तक
लकुलीश
माने
जाते
थे।
लकुलीश
को
स्वयं
शिव
का
अवतार
माना
गया
है।
शिव
की
उपासना
में
जो
शक्ति
का
समावेश
हुआ
वह
यहीं
से
हुआ।
लकुलीश
संप्रदाय
का
प्रचार-प्रसार
राजस्थान
में
हुआ।
यहाँ
बप्पा
रावल
प्रसिद्ध
हुए।
रावल
लकुलीश
संप्रदाय
के
थे।
यह
जो
रावल
शब्द
है।
इस
शब्द
का
उल्लेख
हमें
गोरखनाथ
की
वाणी
में
मिलता
है।
इन्हीं
के
नाम
पर
रावलपिंडी
नामक
नगर
बसा।3
संभवतः
रावल
शब्द
ही
धीरे-धीरे
लावल
और
फिर
लंगुरिया
में
परिवर्तित
हो
गया
हो। यह
अवधारणा
भी
तर्कसंगत
प्रतीत
नहीं
होती।
एक जनश्रुति के
आधार
पर
यह
भी
ज्ञात
हुआ
कि
देवी
जब
गर्भवती
थीं
तब
इस
अवस्था
में
एक
राक्षस
देवी
की
ओर
भागा।
उस
राक्षस
को
देखकर
देवी
गुफा
में
प्रवेश
कर
गईं।
पीछे
से
राक्षस
भी
गुफा
के
अंदर
चला
आया।
जहां
देवी
ने
राक्षस
का
वध
कर
दिया।
इस
समय
का
प्रसव
लांगुर
कहलाया।
प्रतीत
होता
है
कि
लांगुर
का
संबंध
हनुमान
से
ही
है।
करौली
वाली
कहानी
और
करौली
के
वंशज
श्री
कृष्ण
के
वंशज
थे।
इन
दोनों
तथ्यों
को
एक
साथ
मिलाकर
रखते
हैं
तब
तालमेल
ठीक
बैठ
जाता
है
क्योंकि
देवी
कैला
को
अंजनी
मां
का
स्वरूप
बताया
जाता
है
और
गुफा
में
जो
शिशु
पैदा
हुआ
वह
लांगुर
कहलाया
तो
यह
कड़ी
हनुमान
से
जुड़
जाती
है।
हनुमान
का
बाल्यकाल
देखें
तो
बहुत
शरारत भरा रहा
है।
यह
घटना
सर्वविदित
है
कि
हनुमान
ने
सूर्य
को
खिलौना
समझकर
निगल
लिया
था।
लँगूर
(बंदर
की
एक
प्रजाति)
की
तरह
उछलकूद
करने
के
कारण
हो
सकता
है
उन्हें
लांगुर
नाम
से
पुकारा
जाने
लगा
हो।
आज
भी
ब्रजक्षेत्र
में
नवरात्रों
में
कन्या
पूजन
के
साथ-साथ
लांगुर
को
भी
भोजन
कराने
की
परंपरा
है।
आज
भी
ब्रज
क्षेत्र
में
नवरात्रों
में
लांगुरिया
गीत
समाप्त
होने
पर
'लांगुरा बलवीर
की
जै' जयकारा लगाया
जाता
है।
संम्भवतः करौली क्षेत्र
के
लोग
कृष्ण
के
वंशज
बताए
जाते
हैं
जैसा
कि
बताया
जा
चुका
है
कि
गूजर,
अभीरों
की
महिलाओं
का
स्वभाव
हँसी-ठिठोली
वाला
रहा
है। उनकी
वाग्विदग्धता प्रसिद्ध रही है। तो
वह
लांगुर
को
माध्यम
बनाकर
ब्रजनारियाँ
सामाजिक
परिवेश
की
अनुभूतियों
का
वर्णन
इन
गीतों
में
करती
हैं
तब
लांगुरिया
लोकगीत
श्रृंगारिकता से जुड़ जाते
हैं।
ब्रजनारियाँ
वाकपटु
और
वाचाल
हैं।
इसका
प्रमाण
हमें
सूरदास
के
साहित्य
में
भी
मिलता
है।
व्यंग्य
में
गोपियों
को
महारत
हासिल
है।
उद्धव
जैसे
ज्ञानी
को
वे
अपने
व्यंग्य
वाणों
से
परास्त
कर
देती
हैं।
लांगुरिया
गीतों
में
यह
प्रभावी
और
स्वाभाविक
रूप
से
अभिव्यक्त
होता
है।
गीतात्मकता : लोकगीतों का
गायन
मुख्यतः
नारी
कंठ
द्वारा
ही
किया
जाता
रहा
है
लेकिन
कभी-कभी
पुरुषों
कि
भागीदारिता
किसी
विशेष
अवसर
पर
जैसे
होली
पर
गाये
जाने
वाले
फाग
में
देखा
जा
सकता
है। लांगुरिया
लोकगीत
सामुहिक
रूप
से
गाये
जाते
हैं। ब्रज
लोकगीतों
में
भैना
शब्द
का
प्रयोग
करते
हैं। लांगुरिया
लोकगीत
एक
साथ
निरर्थक
शब्द
का
भी
प्रयोग
होता
दिखाई
देता
है
किन्तु
ये
निरर्थक
शब्द
धुनों
को
बनाए
रखने
में
सहायक
होते
हैं
जैसे-
ओऽऽऽ, ओऽऽऽ, जीऽऽऽ, जीऽऽऽ, जीऽऽऽ, आं, आं, आं, हम्बे-हम्बे आदि निरर्थक शब्द ध्वनियाँ हैं किन्तु इनका प्रयोग आज भी होता चला आ रहा है। इन ध्वनियों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है, क्योंकि लोकगीत लिखित नहीं थे। उन्हें याद कर सहेजना पड़ता था। अतः उसके लिए निरर्थक शब्द ध्वनियों ने बड़ी सहायता की। इन ध्वनियों के सहारे लोकगीतों की तर्ज याद रखी जा सकीं। लोकसंगीत ने लोकगीत के प्राण को बनाए रखा है। इन गीतों को गाने के साथ-साथ स्त्रियाँ नृत्य भी करती हैं। लांगुरिया ढोलक की थाप के साथ-साथ मजीरे की धुन पर गाए जाते हैं। मनोरंजनपरक होने के कारण लांगुरिया लोकगीत स्त्रियों को मानसिक तनाव से दूर रखते हैं। आकार में ये गीत छोटे भी होते हैं और बड़े भी।
लांगुरिया लोकगीतों की
व्यापकता
को
देखते
हुए
उसके
वैविध्य
को
ध्यान
में
रखते
हुए
अध्ययन
की
सुविधा
हेतु
इसका
वर्गीकरण
इस
प्रकार
किया
जा
सकता
है-
1 भक्तिपरक
गीत
2. श्रृंगारिक
गीत
3. राजनैतिक
गीत
भक्तिपरक लांगुरिया गीत : लांगुरिया गीतों
को
गाते
समय
नायक
को
लांगुरिया
और
नायिका
को
जोगिनी
कह
कर
संबोधित
किया
जाता
है। नवरात्रों
में
देवी
की
जात
की
जाती
है।
देवी
की
जात
करने
से
पहले
हवन
पूजा
करते
समय
सभी
देवी-देवताओं
को
मनाने
का
विधान
है।
'देवन कूँ लेउ रे मनाय हृदय बैठो लांगुरिया’4 ब्रज प्रदेश
में
नगर
और
गांव
में
क्वार
और
चैत्र
के
महीने
में
समूह
के
समूह
देवी
की
जात
करने
के
लिए
निकल
पड़ते
हैं।
इस
दौरान
एक
नायिका
अपने
पति
से
करौली
जात
पर
जाने
के
लिए
आग्रह
करती
है
और
कहती
है
'बारे लांगुरिया दर्शन कूँ आना-कानी मत करे' 5 वह
कहती
है
कि
मुझे
कैला
मैया
के
दर्शन
करने
हैं।
मुझे
कैला
मइया
की
जात
करने
के
लिए
ले
चलें।
मैंने
करौली
जात
करने
की
मन्नत
मांगी
थी।
लांगुरिया
का
संबोधन
वे
लांगुर
और
अपने
नायक
के
लिए
भी
कर
लेती
है।
कैला
मैया
के
भवन
में
पहुंचने
से
पहले
वह
लांगुर
को
मनाती
हैं।
स्त्रियों
द्वारा
लांगुर
को
फल,
बर्फी का
भोग
लगाया
जाता
है।
भोग
लगाने
के
बाद
लांगुर
को
मनाती
हैं
और
कहती
है- 'बर्फी कौ मांगे पीस लंगुरिया रुठौ-रुठौ डोले' 6 लोक में
इस
लांगुरिया
का
संबंध
घर
के
किसी
भी
सदस्य
से
जोड़
देती
हैं।
मईया के
भवन
में
लांगुर
कुछ
वस्तुओं
के
लिए
जिद
करता
है।
एक अन्य लांगुरिया
में
अपने
घर
के
सदस्य
के
लिए
यह
संबोधन
करती
हैं
जैसे-
'थेई-थेई करे नंद कौ लाल, छमाछम बीतै लांगुरिया'7
इस
लांगुरिया
में
एक
स्त्री
अपने
ननद
के
लड़के
को
देखकर
कह
रही
है
कि
मेरी
ननद
का
लड़का
बाल
स्वभाविक
क्रिया
कर
रहा
है।
वह
नाच
रहा
है।
मेरे
ससुर,
जेठ,
देवर
बहुत
शौकीन
हैं।
वह
उस
बच्चे
विभिन्न
वस्तुएँ
देते
हैं
लेकिन
बच्चा
वस्तुओं
को
गिरा
देता
है।
बच्चे
के
इस
दृश्य
को
देखकर
घर
के
अन्य
लोग
हर्षित
हो
रहे
हैं।
एक अन्य लांगुरिया
में
माँ
की
विवशता
का
वर्णन
किया
गया
है।
वह
धन
के
अभाव
में
अपने
बच्चे
के
जन्म
के
अवसर
पर
किसी
तरह
का
आयोजन
कराने
में
असमर्थ
दिखाई
देती
है।
वह
कहती
है-'कैसे करूँगी दष्ठोंन लंगुरिया टोटे में कन्हैया पैदा है गए' 8 इस लांगुरिया
में स्त्री
के
आत्मनिर्भर
न
होने
के
कारण
परिवार
के
अन्य
सदस्यों
पर
निर्भर
है।
भारतीय
परिवारों
में
महिलाएं
घरेलू
कामकाज
में
ही
लगी
रहतीं
थीं। उनके
पास
संपत्ति
होती
ही
नहीं
थी। इस
वजह
से
उन्हें
आर्थिक
समस्याओं
का
सामना
करना
पड़ता
था।
श्रृंगारपरक गीत-
ब्रज
नारियां
अपनी लोकजीवन
की
अनुभूतियों
का
वर्णन
लांगुरिया
लोकगीतों
में
करने
लगीं
तब
इन
लोकगीतों
में
श्रृंगारिकता का समावेश हो
जाता
है।
वह
अपने
सामाजिक
परिवेश
का
चित्रण
इन
लोकगीतों
में
करने
लगती
हैं।
एक
लांगुरिया
में
एक
स्त्री
अपने
पति
से
कहती
है-
'कैसे आयौ महल जनाने में बताय दै लांगुर मोय' 9 स्त्री अपने
पति
से
कहती
कि
आप
इस
जनाने
महल
(जहाँ
सिर्फ
महिलाओं
का
निवास)
में
कैसे
आए
और
व्यंग्य
करके
कहती
है।
आपको
इस
अपराध
के
लिए
मैं
अपने
ससुर
की
जेल
में
सजा
करा
सकती
हूं।
पिछले
समय
में
पति-पत्नी
का
स्वतंत्र
रूप
से
बात
करना
समाज
में
ठीक
नहीं
समझा
जाता
था।
इसलिए
पति-पत्नी
को
अधिकतर
आपस
में
समय
व्यतीत
करने
के
लिए
कोई
ना
कोई
माध्यम
खोजना
पड़ता
था।
लांगुरिया
गीतों
का
मुख्य
वर्ण्य-विषय
तो
भक्ति
ही
है, लेकिन समय
के
साथ
एवं
उसकी
लोकप्रियता
के
कारण
कालांतर
में
उसमें
श्रृंगारपरक
गीत
भी
गाये
जाने
लगे। इन
गीतों
में
कहीं-
कहीं
लांगुर
स्वयं
नायक
है
तो
कहीं
वह
दूत
अथवा
सखा
के
रूप
में
आया
है। ऐसे
ही
एक
लांगुरिया
में
जोगिनी
कहती
है-
भावार्थ यह कि
लांगुर
जिस
भी
जोगिनी
पर
अपनी
प्रिय
वस्तु
को
देखेगा
तो
वह
उसी
से
प्रणय
संबंध
स्थापित
करेगा।
दैनिक
जीवन
में
जब
घर
में
छोटे
से
छोटे
आपसी
विवाद
जैसे
सब्जी
मन
पसंद
की
न
बनना
तो
नायक
का
रूठ
जाना
तब
नायिका
अपने पति
से
कहती
है-
'मैंने राँधो है चना कौ साग लंगुरिया
बलम रूठ गए सब्जी पै' 11
बलम रूठ गए सब्जी पै' 11
ग्रामीण घरों में
अधिकतर
सब्जी
का
विकल्प
नहीं
रहता
था
तब
घर
की
स्त्री
खेत
से
जाकर
चना
का
साग
या
पालक
आदि
तोड़
लाती
थी।
यदि
घर
में
गाय
या
भैंस
हो
तब
तो
दूध
से
या
दही
से
या
घी
से
ही
रोटी
दी
जाती
हैं।
तब
घर
के
सदस्यों
के
बीच
अनबन
हो
ही
जाती
थी।
तब
नायिका
लांगुरिया
को
माध्यम
बनाकर
अपने
पति
से
कहती
है
मैंने
चना
का
साग
बनाया
है।
साग
का
अर्थ
हरी
पत्तेदार
सब्जी
से
होता
है
लेकिन
अर्थ
विस्तार
के
कारण
साग
का
अर्थ
सभी
सब्जियों
के
लिए
किया
जाने
लगा। मेरे
पति
को
सब्जी
चाहिए
फिर
वह
कहती
है
कि
मेरी
सास
या
ननद
होती
तो
मना
लेती
लेकिन
मैं
मान-मनौवल
नहीं
करूँगी।
इस
प्रकार
पति-पत्नी
के
बीच
होने
वाली
पारिवारिक
नोंक-झोंक
इन
लोकगीतों
में
दिखाई
देती
है।
इसी
प्रकार
एक
लांगुर
अपनी
पत्नी
से
इसलिए
परेशान
है
कि
वह
फिजुल
खर्च
करती
है।
नायक
कहता
है-
‘जा चट्टो ने फरपट्टो कर डारौ लांगुरिया’ 12
नायक कहता है
इस
चट्टो
ने
मेरे
घर
का
सारा
धन
ऐसे
ही
उड़ा
दिया
है।
घर
के
सदस्य
जब
काम
करने
बाहर
निकल
जाते
हैं
तब
जोगनी
घर
से
अनाज
देकर
बनिया
से
खाद्य
वस्तु
ले
आती
है।
पति-पत्नी
का
रिश्ता
इस
प्रकार
का
होता
है।
इसमें
जीवन
के
खट्टे-मीठे
अनुभव
दिखाई
देते
हैं।
एक
अन्य
लांगुरिया
में
नायिका
अपने
नायक
से
ठिठोली
करते
हुए
दूसरा
विवाह
करने
की
सलाह
देती
है।
नायिका पर घर
का
कार्य
करना
नहीं
आता
है।
वह
कहती
है
कि
मुझे
न
तो
घर
लीपना न
ही
चक्की
चलाना
नहीं
आता।
भोजन
बनाना
भी
नहीं
आता।
वह
खेत
का
काम
भी
नहीं
करना
चाहती
है।
चैत्र महीने में
गेहूं
की
कटाई
के
समय
किसान
अपनी
पत्नी
को
साथ
ले
जाकर
खेत
की
कटाई
करने
के
लिए
कहता
है
तो
किसान
पत्नी
कहती
है-”मुझसे
खेत
का
काम
नहीं
होगा।
मेरा
गोरा
शरीर
काला
पड़
जाएगा”-
हम पै चैत लामनी ना होय लांगुरिया
गोरो सो बदन कारो पर जाएगौ। 13
यहाँ नारी की
गृहस्थी
के
कार्यों
के
प्रति
उदासीनता
दिखाई
देती
है।
उसका
जीवन
एकरस
हो
गया
है। वह
बदलाव
चाहती
है। नायिका
अपने
नायक
से
कहती
है। मेरा
घर
के
कार्यों
में
मन
नहीं
लगता
है।
मुझे
मसूरी
घुमा
लाओ-
'मेरौ घर में जिया घबराय
मसूरी लै चल लांगुरिया।'14
नायिका
का
घर
के
कार्यों
के
प्रति
मन
नहीं
लगता
वह
घर
से
बाहर
जाकर
घूमना
चाहती
है
लेकिन
नायक-नायिका
के
स्वभाव
के
विपरीत
कार्य
करता
है।
नायक
घर
के
कार्यों
को
करने
के
दौरान
नायिका
को
तंग
करता
है।
नायिका
कहती
है
कि
लांगुर
ने
मुझे
पीसने
के
लिए
बाजरा
दे
दिया
है।
जब
बाजरा
को
फटकने
बैठती
है
तो
मूसर
टेढ़ा
कर
जाता
है
तब
नायिका
अपनी
ननद
से
शिकायत
करते
हुए
कहती
है
–
'अरे जीजी मोय अकेली कर गयौ
लांगुरिया बाजरा धर गयौ।' 15
एक
अन्य
लोकगीत
में
नायक
घर
के
दैनिक
क्लेश
से
परेशान
होकर
परदेश
चला
जाता
है
तो
नायिका
कहती
है। मुझे
न्यारे
होने
का
शौक
नहीं
है
लेकिन
मेरे
पति
मुझे
न्यारी
करके
परदेश
चले
गए
हैं।
उसके
जाने
के
बाद
उसकी
सास
उससे
घर
के
कार्य
कराती
है।
अगर
काम
ठीक
प्रकार
नहीं
करती
हूँ
तो
वह
मुझे
मारती
है।
मेरी
सास
और
जिठानी
रोटी
बनाती
हैं
लेकिन
मुझे
आटा
गूथना
भी
नहीं
आता
है।
जिसकी
वजह
से
बेलन
की
मार
पड़ती
है।
पिछले
समय
में
अधिकांश
झगड़े
घर
के
कामों
को
लेकर
होते
थे।
घरेलू
स्त्रियों
का
दु:ख
समान
है। हालांकि
उनमें
बहनापा
दिखाई
देता
है। ससुराल
में
वह
पति
से
परेशान
होती
है
तब
ननद
अथवा
जेठानी, देवरानी से
बचकर
उनकी
शिकायत
उससे
करती
है।
लांगुरिया लोकगीतों में
अधिकांशतः
सास-जिठानी
ननद
पर
व्यंग्य
किया
गया
है।
कोई
काम
बिगड़ने
की
स्थिति
में
पुरुष
वर्ग
कुछ
नहीं
कहेंगे
लेकिन
सास,
ननद,
जेठानी
बदनाम
करेंगी
नायिक
कहती
है-
मेरे मायके में फुलकिया धोवादार लांगुरिया
बाजरा की रोटी पल्ले पर गई। 16
कहीं-कहीं समाज
में
यह
विषमता
देखने
को
मिलती
है
कि
एक
महिला
अपने
ससुराल
में
सामंजस्य
नहीं
कर
पाती
है। इससे
बहुत
से
परिवार
टूट
जाते
हैं।
राजनैतिक चेतना संबंधी लोकगीत
: लांगुरिया लोकगीत
अपनी
लोकप्रियता
के
कारण
जीवन
के
विविध
पहलुओं
से
जुड़ते
चले
गए।
लांगुरिया
गीतों
में
साम्राज्यवाद के प्रति गहरा
असंतोष
दिखाई
देता
है। प्रजातन्त्र
आने
के
बाद
भी
जब
वास्तविक
प्रजा
को
कुछ
खास
नहीं
दिखा
तो
उन्हें
असंतोष
होना
स्वाभाविक
है
जो
आज़ादी
सोची
गई
वह
नहीं
मिली। इन
असंतोष
को
लोकगीतों
ने
बड़े
ही
मार्मिक
ढंग
से
प्रस्तुत
किया
है।
कैसौ अलबेलो प्रजातंत्र है आयौ लांगुरिया 17
यहां साम्राज्यवाद की
कलई
खोल
दी
गई
है।
इस
लांगुरिया
के माध्यम
बताया
गया
है
कि
निराला
लोकतंत्र
आ
गया
है।
समाज
में
बेईमानी,
कालाबाजारी
अवैध
खरीद
बिक्री
प्रतिदिन
बेरोजगारी
प्रतिदिन
बढ़ती
जा
रही
है।
अवैध
कार्य
खुले
रूप
से
हो
रहे
हैं।
किसी
भी
व्यक्ति
को
राज्य
के
कानून
का
भय
नहीं
है।
चोरी
लूट, जुआ जैसे
अवैध
काम
खुले
रूप
में
हो
रहे
हैं।
किसी
भी
व्यक्ति
का
जीवन
सुरक्षित
नहीं
रह
गया
है।
अन्य
लांगुरिया
लोकगीत
बताया
गया
है
कि
नेताओं
का
आचरण
बहुत
भ्रष्ट
हो
गया
है
–
लांगुरिया गाँव-गाँव नेता बने
कर रहे हैं जनता कूँ हैरान।। लांगुरिया।। 18
राजनीति में आकर
अधिकांश
मनुष्यों
का
चरित्र
भ्रष्ट
हो
जाता
है।
जनता
अनाज
को
लेकर
परेशान
है।
घर
में
एक
अन्न
का
दाना
नहीं
है।
कैसे
गुजर
होगी
जो
नेता
वोट
लेते
समय
वादा
करते
हैं
अपनी
जनता
को
एक
अच्छा
जीवन
जीने
के
लिए
मदद
करेंगे
लेकिन
सत्ता
में
आने
के
बाद
वह
सभी
वादों
को
भूल
जाते
हैं।
लांगुरिया में गांधी
जी
के
विचारों
के
प्रति
भारतवासियों
का
दीवानापन
और
आस्था
दिखाई
देती
है। ब्रजवासी गाँधी
जी
को
याद
करके
कहते
हैं
कि
गाँधी
जी
ने
देश
को
बचाने
के
लिए
अपने
प्राण
न्यौछावर
कर
दिए-
गांधी बाबा ने बचाय लई बारे लांगुरिया’ 19
देशवासी कहते हैं
गाँधी
जी
ने
देश
को
बचा
लिया।
गांधी
जी
आज
भी
जनमानस
की
अभिव्यक्ति
में
जीवित
हैं। पारंपरिक
लांगुरिया
गीतों
में
समय-समय
पर
समसामयिक
मुद्दे
घटनाएँ
आदि
जुड़ते
चले
गए। स्वाधीनता
आंदोलन
के
समय
लोकगीतों
में
ब्रिटिशराज
के
प्रति
असंतोष
एवं
आज़ादी
के
लिए
जनमानस
की
चेतना
को
अनायास
ही
स्थान
मिल
गया। लांगुरिया
गीतों
में
भी
तत्कालीन
घटनाओं
एवं
परिस्थितियों के साथ-साथ
स्वाधीनता
आंदोलन
के
नेताओं
मुख्यतः
महात्मा
गांधी
के
प्रति
विश्वास
एवं
उनके
नेतृत्व
के
प्रति
आस्था
भी
अभिव्यक्त
हुयी
है। लांगुरिया
गीतों
में
भी
गांधी
के
प्रति
अपने
उद्गार
प्रकट
किए
गए
हैं।
निष्कर्ष : निष्कर्षतः हम देखते
हैं
कि
लांगुरिया
का
प्रयोग
संकुचित
अर्थ
में
न
होकर
व्यापक
अर्थ
में
हो
रहा
है।
लांगुरिया
सिर्फ
भक्ति
तक
सीमित
नहीं
रह
गया।
वह
लोक
में
श्रृंगार
की
अभिव्यक्ति
के
लिए
अवसर
प्रदान
करता
है। लांगुरिया
कहीं
में
नायक
के
लिए
प्रयुक्त
हुआ
है। कहीं
वह
अन्य
अर्थ
में
अपनी
भाव
की
अभिव्यक्ति
करने
के
लिए
हुआ
है
जिस
प्रकार
गोपियाँ
उद्धव
से
प्रत्यक्ष
रूप
से
संवाद
न
करके
वहीं
पास
मे
उड़ते
हुए
भँवरे
को
माध्यम
बनाकर
अपने
भावों
की
अभिव्यक्ति
करती
हैं।
उसी
प्रकार
ब्रज
नारियाँ
अपने
भावों
की
अभिव्यक्ति
लांगुरिया
को
माध्यम
बनाकर
करती
हैं।
कभी
ब्रजनारियां
अपने
पति
के
लिए
लांगुरिया
शब्द
का
प्रयोग
करती
हैं।
कभी
वह
बालक
रूप
में
उसे
मनाती
हैं।
‘कारी सिल
पै
रूठ
गयो
लांगुर
मेरो
छोटो
सो’।
कभी
वह
किसी
अन्योक्ति
के
लिए
लांगुरिया
शब्द
का
प्रयोग
करती
हैं। ‘मैंने रान्धो
है
चना
कौ
साग
लंगुरिया
बलम
रूठ
गए
सब्जी
पे’ और कहीं
सामाजिक
विसंगतियों
को
बताते
हुए
लांगुरिया
को
माध्यम
बनाती
हैं
‘कैसो अलबेलो
प्रजातंत्र
है
आयो’।
जब
हम
अपनी
भावाभिव्यक्ति स्वतंत्र रूप में
नहीं
कर
पाते
हैं
तब
हम
कोई
माध्यम
ढूँढते
हैं।
इस
प्रकार
लांगुरिया
में
सामाजिक
जीवन
की
अभिव्यक्ति
होने
लगी। ब्रज
क्षेत्र
में
राजनैतिक
चेतना
संबंधी
लांगुरिया
गीतों
का
अभाव
देखा
गया
है। खासतौर
पर
स्त्रियों
के
लिए
अपनी
अभिव्यक्ति
के
लिए
अवसर
कम
ही
उपलब्ध
हो
पाता
है। ऐसे
में
स्वाभाविक
है
कि
उन्हें
किसी
माध्यम
या
प्रतीक
की
भी
आवश्यकता
पड़ती। लांगुरिया
गीत
पहले
से
प्रचलित
थे
ही
इसलिए
स्त्रियों
ने
अपनी
नौंक-झोंक, असंतोष, दुख-दर्द
आदि
को
हंसी
के
माध्यम
से
अभिव्यक्त
करने
लग
गईं। धीरे-धीरे
लांगुरिया
लोकगीतों
का
विषय
विस्तृत
होता
चला
गया। उसमें
निजी
के
साथ-साथ
सामाजिक
जीवन
के
विभिन्न
पहलूओं
को
भी
शामिल
किया
जाने
लगा। हालाँकि
सामाजिक
मुद्दों
पर
ऐसे
गीत
कम
ही
मिलते
हैं।
सन्दर्भ :
1.रा. गौड़, ब्रज लोकसाहित्य
और
लोक
संस्कृति(2016),
अनिल
प्रकाशन
दिल्ली,
पृष्ठ
संख्या- 57
2. डॉ.
सीमा
मोरवाल (संपा०), ब्रज
लोक
के
दई
देवता
व
उनके
गीत(2022),
वृंदावन
शोध
संस्थान,
पृष्ठ
संख्या-
83
3.मनमोहन
सहगल
और
ओमप्रकाश
शास्त्री (संपा०), मध्यकालीन
हिन्दी
साहित्य
पंजाब, सन्मार्ग प्रकाशन
दिल्ली
प्रथम
संस्करण
1985, पृष्ठ संख्या-
13,14
4. टी. शर्मा,
ये
गाती
है
ब्रज
की
धरती(2006), कासगंज:सूकरक्षेत्र
संस्थान,
पृष्ठ
संख्या-
59
5. निज़ी संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
आरती
देवी,
हनुमान
नगर
आगरा।
6. निज़ी संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
सावित्री
देवी
धौलपुर।
7. निज़ी संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
मछला
देवी
ऐत्मादपुर
आगरा।
8 निज़ी
संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
वचन
देवी
मथुरा।
9. निज़ी संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
मालती
देवी,
हनुमान
नगर
आगरा।
10. राजेंद्र चतुर्वेदी (संपा०), ब्रज
लोकगीत(1989),
पृष्ठ
संख्या-
19
11. निज़ी संग्रह
आरती
यादव,(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
हनुमान
नगर
आगरा।
12. निज़ी
संग्रह,(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
रामवती
देवी,प्रकाश
नगर
आगरा।
13. निज़ी संग्रह
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
वचन
देवी,
सुशील
नगर
आगरा।
14. रा.
गौड़,
ब्रज
लोकसाहित्य
और
लोक
संस्कृति(2016),
अनिल
प्रकाशन
दिल्ली,
पृष्ठ
संख्या-
60
15. निज़ी
संग्रह,
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
सुदामा
हनुमान
नगर
आगरा।
16. निज़ी संग्रह,
(शोध
कार्य
के
दौरान
एकत्रित
किए
गए
गीत)
आरती
देवी
हनुमान
नगर
आगरा।
17. दि. सिंह, हरियाणवी और
ब्रज
लोकगीतों
का
सांस्कृतिक
अध्ययन(2019),
नटराज
प्रकाशन,
दिल्ली,
पृष्ठ
संख्या
186
18. डॉ.
कुलदीप, लोकगीतों का
विकासात्मक
अध्ययन(1972), प्रगति प्रकाशन,
दिल्ली
पृष्ठ
संख्या
153
19. शि. प्रसाद,
ब्रज
एवं
भोजपुर
लोक-साहित्य
की
लोकमूलक
सांस्कृतिक
चेतना
का
तुलनात्मक
अध्ययन
पृष्ठ
संख्या-
476
हिन्दी विभाग, कला संकाय , दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, दयालबाग़ आगरा
poonamyadav141421@gmail.com, 7983673273
बृजराज सिंह
हिन्दी विभाग, कला संकाय , दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, दयालबाग़ आगरा
brijrajsinghdei@ac.in, 9838709090
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