शोध आलेख : जातिवादी व्यंग्य और डॉ. भीमराव आंबेडकर / प्रभात कुमार

जातिवादी व्यंग्य और डॉ. भीमराव आंबेडकर

- प्रभात कुमार



            वर्ष 2012 में एनसीईआरटी की स्कूली पाठ्यपुस्तक में डॉ. भीमराव आंबेडकर  और संविधान सभा के मसले पर छपे एक कार्टून को लेकर सार्वजनिक-राजनीतिक विवाद भड़क उठा था। आरोप यह था कि राजनीति शास्त्र की उस स्कूली किताब में उद्धृत कार्टून में आंबेडकर की जो छवि है, वह अपमानजनक है। सवर्ण उदारवादियों के जातिवादी विद्वेष का नतीजा है कि अतीत में ऐसे कार्टून बनाए गए। और तो और, अच्छे-भले हालिया विद्वानों को यह नजर नहीं आया जिसके कारण वर्तमान में उसे फिर से छापा गया। बहरहाल, उस विवाद के आलोक में या उसी से प्रभावित होकर एक सत्य-शोधक उन्नमति स्याम सुंदर ने अतीत के भंडार की खुदाई करने का साहस किया और इसका परिणाम इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी पाठक या शोधकर्ता के लिए खुशनुमा साबित हुआ। सुंदर ने आंबेडकर की मौजूदगी वाले सैकड़ों कार्टून जमा किये जो तत्कालीन अंग्रेजी अखबारों और रिसालों में छपे थे। सावधानीपूर्वक चुन-विचार कर इनमें से पूरे 112 कार्टून छाँटे और उन्हें संपादित कर किताब की शक्ल दी। किताब का नाम है, नो लाफिंग मैटर (हँसने की बात नहीं!), जिसमें अत्यंत समृद्ध, सम्मोहक और राजनीतिक रूप से आवेशित ऐतिहासिक स्रोत सामग्री है। ऐसी सामग्री, जो अब तक अभिलेखागारों और पुस्तकालयों के धूल भरे दस्तावेजों के ढेर में दबी पड़ी थी। यह अतीत अब तक अंग्रेजी दैनिकों और साप्ताहिकों के पन्नों में संपादकीय कार्टून-स्तंभों में बंद पड़ा था।


            इस किताब में डॉ. बी. आर. आंबेडकर  के दृश्य निरूपण और छवि-शिल्प के इतिहास की एक झलक है। उनके राजनीतिक जीवन के अंतिम 25 वर्षों में पसरे हुए ये कार्टून आंबेडकर को रोजमर्रा स्तर पर समकालीन सार्वजनिक राजनैतिक मुद्दों के इर्द-गिर्द सक्रियता से गहरे उलझते दिखाते हैं। इन कार्टूनों को आंबेडकर की बदलती राजनीतिक व्यस्तताओं और आह्वानों के कालानुक्रमिक क्रम में व्यवस्थित किया गया है। संपादक सुंदर बताते हैं कि इनमें आंबेडकर  को ज्यादातर व्यंग्यात्मक द्वेष और जातिगत पूर्वाग्रह के साथ दिखाया गया है। इसलिए किताब पहले इनमें से हर कार्टून के तत्कालीन संदर्भ और परिघटना से पाठक को रु-ब-रु कराती है। इन टिप्पणियों के बाद कार्टून और (आंबेडकर  पर हमलावर) कार्टूनिस्ट, दोनों पर, पुस्तक के संपादक उन्नतमति स्याम सुंदर, जो खुद एक कार्टूनिस्ट भी हैं और अम्बेडकरवादी भी, ने व्यंग्यपूर्ण प्रहार किए हैं। 


            पुस्तक की कम से कम तीन उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। 1) हालाँकि यह किताब दावा नहीं करती किन्तु अपनी विषय-वस्तु पर यह एक शानदार स्रोत पुस्तक है। इसकी विषय-वस्तु को अखबारों के अभिलेखागारों के समंदर से बड़ी मेहनत से इकट्ठा किया गया है; इसे प्रकाशित और अप्रकाशित दोनों तरह के स्रोतों के हवाले से तत्कालीन इतिहास में संदर्भित किया गया है। 2) यह किताब व्यंग्य-चित्रों के गहन अकादमिक पाठ-विश्लेषण में प्रवेश करने से परहेज की घोषणा करती है, लेकिन बड़ी दिलचस्प शैली में, जिसे किताब में ‘सतह खरोंचती टिप्पणी’ कहा गया है, कार्टून में मौजूद राजनीतिक इरादे और अर्थ को उद्भाषित करती है। 3) यह किताब वैचारिक-व्याख्यात्मक तटस्थता का दावा करने की अकादमिक रवायत को खुलकर नकारती करती है। अकादमिक लेखन के स्थापित प्रोटोकॉल या ‘प्रविधीय-उदारवाद’ की बंदिशों को नकारती है। यह समकालीन दलितवादी दृष्टिकोण से हर ऐतिहासिक सामग्री को जोरदारी से संदर्भित-नियोजित करती है। किताब आंबेडकर  का उपहास और मज़ाक उड़ाने वाले कार्टून और कार्टूनिस्टों की पाठ-आलोचना, तटस्थ व पांडित्यपूर्ण विश्लेषण के ज़रिए नहीं करती बल्कि कार्टूनिस्टों और उनके पूर्वग्रहों की चुटकी लेती हुई व्यंग्य का पलटवार करती है। लेखक का कहना है कि यह शैलीगत नवाचार दरअसल उदारवादी कपट से निपटने की एक राजनीतिक रणनीति है। निहितार्थ यह है कि अमूमन उदारवादी विमर्श कार्टून को क्षणिक प्रकृति वाली हलकी-फुलकी ठिठोली करने वाली अगंभीर किस्म की विधा मानता है, नतीजन इन कार्टूनों में प्रकट सामाजिक पूर्वाग्रहों का अनदेखी करता है। इसी विमर्श का प्रति-इस्तेमाल कर संपादक सुंदर व्यंग्यात्मक पलटवार के जरिए कार्टून व उसमें व्यक्त ‘उदारवादी-आलोचना’, दोनों की आलोचना करते हैं। 


            यह पुस्तक एक ऐसे राजनीतिक उद्देश्य से तैयार की गई है, जो यह रेखांकित करता है कि आंबेडकर  1930-40-50 के दशक में भारतीय राजनीति के रोजमर्रा के सार्वजनिक जीवन में प्रमुखता से मौजूद थे, फिर भी अन्य समकालीन राजनैतिक नायकों से मुख़्तलिफ़ उनकी उपस्थिति को दर्ज करने का ढंग जातीय-पूर्वाग्रह से ग्रसित रहा, उनकी नुमाइंदगी ज्यादातर मज़ाक की वस्तु बनाकर की गई। किताब एक तरफ कुछ ऐसे गहरे सवाल इशारे में पूछती है कि : कार्टून कला-रूप में आंबेडकर  की छवि को क्यों और किन खास तौर-तरीकों से चित्रित किया गया, बौना बनाकर, गुस्सैल दिखाकर, जातीय पूर्वाग्रहों से मजाक उड़ाकर, आदि? दूसरी तरफ बयानबाजी वाले राजनैतिक संदेह भी दर्ज करती है कि : आंबेडकर के विपरीत, गांधी पर शायद ही कभी उन्हीं संपादक-कार्टूनिस्टों द्वारा व्यंग्यात्मक हमला किया गया हो। विशाल व्यक्तित्व के बावजूद आंबेडकर को गाँधी या नेहरू की तरह क्यों नहीं पूजा गया? वर्तमान वैचारिक नेपथ्य से उठाए गए इन तुलनात्मक सवालों का स्पष्ट ऐतिहासिक और शोधपरक उत्तर देने की बजाय संपादक सुंदर एक विशाल सवर्ण-उदारवादी साजिश की ओर इशारा करते हैं। यहाँ सुरेश कुमार का शोध लेख मानीखेज है जिसमें वे आंबेडकर के प्रति हिन्दी प्रेस के कटु नजरिए की ऐतिहासिक तहकीकात करते हैं। वैसे ही यह भी तथ्यत: पूरी तरह सही नहीं है कि कार्टूनों में गाँधी और अन्य राष्टवादी नेताओं का मजाक नहीं उड़ाया गया। कम से कम हिन्दी व्यंग्य-चित्रों में गाँधी समेत कई अन्य नेताओं का मजाक बनाया गया। हाँ, इन कार्टूनों में जातिवादी पूर्वाग्रह नहीं दिखता। लेकिन, यह भी सच है कि कार्टून में जातिवादी भाषा का शिकार ऐसे सवर्ण (लेखक और उनकी लेखनी) भी रहे हैं जो मानक सवर्ण यौनिकता-नैतिकता को लाँघते पाए गए। जैसे पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को ‘घासलेटी’ (यौनउद्दीपक/अश्लील) साहित्य रचने के लिए ‘भंगी’ के रूप में चित्रित किया गया। (देखें अनुलग्नक 1.)


            हालाँकि पुस्तक का कथित उद्देश्य अकादमिक शोध-परीक्षण नहीं है, लेकिन इसमें निहित पहले किस्म के सवाल चित्रण-नुमाइंदगी के सांस्कृतिक राजनैतिक पहलू पर विचार के कुछ मानीखेज मुद्दे हमारे सामने पेश करते हैं : जैसे ऐसे छवि शिल्प हमें न केवल जाति के बारे में बल्कि भारत में कार्टून या अन्य दृश्य कला रियाजतों के सौंदर्यशास्त्र के सामाजिक आधार के बारे में क्या बता सकते हैं? वे हमें तत्कालीन कल्पित पाठक/दर्शक वर्ग और उनके सामाजिक रुझान के बारे में क्या बता सकते है, जिनसे संपादक-कार्टूनिस्ट के साथ हँसने या उपहास करने की अपेक्षा की जाती थी? अगर लोकवृत्त के गठन-पटलों में समाचार पत्र महत्वपूर्ण होता हैं, तो संपादकीय कार्टून हमें तत्कालीन भारतीय लोकवृत्त की प्रकृति के बारे में क्या बता सकते हैं? इतिहास में तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति या भारतीय लोकवृत्त में आंबेडकर  या उनके जैसे सामाजिक और राजनीतिक सामान्य-बोध पर सवाल उठाने वाली मुखर अल्पसंख्यक आवाज़ों के प्रति कार्टूनिस्ट/संपादक का राजनैतिक रवैया या दृष्टिकोण कैसा रहा है? कार्टून के कला-रूप को, जो अपने आप को अगंभीर कहता है, गंभीरता से क्यों लिया जाना चाहिए? इत्यादि।


            जैसा कि हम जानते हैं, 20वीं सदी की शुरुआत में कार्टूनों का भारतीय पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के वैचारिक-शैक्षणिक परियोजना से गहरा संबंध था। इसे एक ऐसे माध्यम के रूप में कल्पित और प्रस्तुत किया गया जो अपनी मंशा में सुधारवादी होने के साथ-साथ मनोरंजक भी था, इसलिए पाठकों के लिए आकर्षक भी। दूसरे शब्दों में, इसे उपयोगी और भला माना गया क्योंकि इसका मूल लक्ष्य दुनिया में उन चीजों को बेहतर बनाना था, जो उपनिवेशवाद और/या औपनिवेशिक आधुनिकता के कारण बिगड़ सी गई हैं, भले ही यह कुछ लोगों का मनोरंजन न कर उन्हें नाराज कर दे। संपादकों ने अपनी विशिष्ट संचार तकनीकों के लिए कार्टून के नए कला रूप को अपनाया। संपादक-प्रचारक के लिए यह ऐसा माध्यम था जो किसी भी सामयिक सार्वजनिक मुद्दे पर संपादकीय दृष्टिकोण या हस्तक्षेप को एक-दो फ्रेम में रखकर, समकालीन स्थिति की समस्याओं या विरोधाभासों को संक्षेप में उजागर व प्रेषित करने में सक्षम था। यानि, अन्य साहित्यिक कलात्मक रूपों की तरह कार्टून ने भी पत्रिकाओं और बाद के समाचार पत्रों के समग्र गठन में एक विशिष्ट ऐतिहासिक कार्य पूरा किया। इसलिए, कार्टून के अध्ययन में उन तरीकों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, जिनसे कार्टून में अर्थ और संदेश को कोडित और संप्रेषित किया जाता है। लेकिन, यह पुस्तक इस मामले में कमज़ोर पड़ जाती है, क्योंकि इसका उद्देश्य बस ‘उच्च जाति के उदार कार्टूनिस्टों द्वारा आंबेडकर  के अपमान’ को चिह्नित करने वाली एक स्रोत पुस्तक होना भर है। अपनी समृद्ध सामग्री के गहन और बहुर्मुखी विश्लेषण में इसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। संपादक-लेखक की इस उदासीनता के बावजूद, पुस्तक किसी भी गंभीर पाठक-शोधकर्ता को यह सोचने को मजबूर करती है कि क्या कार्टून की रचना-भाषा में कुछ खास है जो इसे अलहदा बनाती है?


            जैसा कि कला इतिहासकार डेविड कैरियर हमें चेतावनी देते हैं, 'कला के रूप में कार्टून अभिव्यक्ति की पूर्व प्रणाली [जैसे पेंटिंग] की नकल नहीं करता है, बल्कि नए तरीकों से उनमें कुछ जोड़ता ही है।' अन्य ऐतिहासिक संदर्भों के अध्ययनों ने स्पष्ट रूप से दिखाया भी है कि कार्टून में संचार का एक अलग तरीका होता है, यानी कार्टूनिस्ट या संपादक और पाठक-दर्शक के बीच संचार का अपना खास व्याकरण होता है। ये अध्ययन हमें बताते हैं कि कार्टून किसी खास सामयिक मुद्दे पर बनाया जाता है, लेकिन उसमें मुद्दे को किसी सीधे-सीधे चित्रित नहीं किया जाता। किसी कार्टून में सामयिक मुद्दों, पहले से मौजूद आख्यानों (साहित्यिक, मौखिक और दृश्य) की परंपराओं के मिश्रण तथा व्यंग्य-तकनीक के सहारे संकेतन से पेश किया जाता है। यानि कार्टून में तर्क का सरलीकरण, विद्रूपण, अतिशयोक्ति, किसी चरित्र या उसकी सामाजिक पहचान की स्टीरियोटाइपिंग, विपरीतों की तुलना, आदि जैसी व्यंग्य तकनीकों के जरिए सामयिक मुद्दों को पूर्व-मौजूद आख्यानों (जाहिर है इनमें सामाजिक पूर्वाग्रह भी पैबस्त रहते हैं) से मिलाकर, छवि और पाठ के बीच कोडित और नियोजित किया जाता है।  


            अभिग्रहण पक्ष से अगर देखें तो यह ग़ौरतलब है कि कोई भी कलाकार किसी निरूपण-परंपरा को पूरा-पूरा निर्मित नहीं कर सकता, इसलिए कार्टूनकार द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और व्यंग्यात्मक बनाने से पहले इसे कुछ हद तक लोकप्रिय चेतना या आख्यान और सार्वजनिक चर्चा में मौजूद होना चाहिए। यह भी जरूरी है कि विषय-वस्तु से पाठक-दर्शक न केवल परिचित हो बल्कि कार्टून के निर्माता से थोड़ा-बहुत वैचारिक दृष्टिकोण भी साझा करता हो। इसलिए कार्टूनिस्ट संदेश को इस तरह कोडित करते हैं कि पाठक अपने साझा मूल्यों, धारणाओं, और पूर्वाग्रहों के साथ कार्टून से तादात्म्य बना पाए। यानि, लक्षित पाठक-दर्शक की सामाजिक छवि पहले से ही कार्टून के आंतरिक गठन में शामिल होती है, उनसे एक निश्चित तरीके से प्रतिक्रिया करने की अपेक्षा की जाती है।


            समाजशास्त्रीय दृष्टि से इसका मतलब है कि कार्टून-कार्टूनिस्ट और पाठक-दर्शक के बीच एक अदृश्य अनुबंध होता है। सामान्य लक्ष्य का मज़ाक उड़ाने और उस पर हमला करने में दोनों के बीच सांस्कृतिक दृष्टिकोण और सामाजिक विश्वास की एक निश्चित एकरूपता पहले से होनी जरूरी है। सामाजिक रूप से समरूप लोकवृत्त में यह कारगर और सफल होता है। लेकिन खंडित और अस्थिर लोकवृत्त में, जहाँ विविधता अधिक होती है और मुखर विरोधी आवाज व प्रति-अवाम (counter-public) सशक्त होती है, सामान्यतया व्यंग्य और विशेष रूप से दृश्य व्यंग्य अपने अनुबंधित इलाके लाँघ जाते हैं। मजाक उल्टा या भारी पड़ जाता है, अक्सर हिंसक विरोध का कारण बनता है। इस अर्थ में, आंबेडकर -विषयक कार्टून तत्कालीन भारतीय लोकवृत्त की प्रकृति पर भी सवाल उठाते हैं। यह कयास लगाना मुश्किल नहीं है कि औपनिवेशिक लोकवृत्त में एक समरूप सामाजिक समूह हावी था, जिसमें कमोबेश उच्च जाति के (हिन्दू) पुरुष प्रधान थे। शायद विरोधी/प्रति-अवाम या तो देसी/भाषा लोकवृत्त के समानांतर क्षेत्र तक महदूद थी, या निरूपण-नुमाइंदगी के तरीकों और प्रथाओं पर सवाल उठाने के लिए अपने दावे अभी तक पेश नहीं कर सकी थी। इसलिए, ऐसे कार्टूनों पर 1930 से 1950 के दशक में विवाद नहीं हुआ जो हालिया समय में हुआ या होता रहता है। लब्बेलुआब यह है कि समकालीन सवर्ण-जातिवादी पूर्वाग्रह, आंबेडकर छवि-भंजन, सार्वजनिक विवाद व हिंसा की परिघटना का एक लंबा अतीत रहा है। इस इतिहास को सिलसिलेवार, विस्तार और जटिलता से लिखने की दरकार है। सुंदर की किताब इस दिशा में एक सीमित किन्तु सुंदर कदम है, जो आगामी शोध का रास्ता प्रशस्त करती है।



प्रभात कुमार
द्विभाषी इतिहासकार हैं, प्रतिमान के सह-संपादक हैं, और सीएसडीएस, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। prabhat@csds.in

अनुलग्नक 1.

विशाल भारत (कलकत्ता), जनवरी 1929  

(व्यंग्य-चित्र में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को भंगी की तरह दिखाया गया है जो (साहित्यिक) मल की टोकरी सिर पर उठाए हिन्दी साहित्य सम्मेलन में पहुँच गया है। उसकी घृणास्पद व बदबूदार मौजूदगी से गणमान्य लोग परेशान हैं।)     


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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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