पुस्तक समीक्षा : शिक्षा व्यवस्था का आईना : हमारे विश्वविद्यालय / अहमद अली

शिक्षा व्यवस्था का आईना : हमारे विश्वविद्यालय
- अहमद अली

            कैंपस नॉवेल अथवा अकादमिक उपन्यास अंग्रेज़ी साहित्य में बीसवीं सदी के मध्य से एक प्रतिष्ठित और सुव्यवस्थित विधा के रूप में दृढ़मूल होने के उपरांत अब हिंदी साहित्य में भी अपरिचित नहीं रह गया है। इसमें जहां ‘पीली छतरी वाली लड़की’ जैसी रचनाओं में मुख्यतः छात्र जीवन के अनुभवजन्य अंतर्द्वंद्वों की सामान्य अभिव्यक्ति दृष्टिगत हुई है, वहीं के. एल. कमल के ‘कैम्पस’, देवेश ठाकुर के ‘शिखर पुरुष’ तथा ममता कालिया के ‘अँधेरे का ताला’ आदि में उच्च शिक्षा संस्थानों की जटिल संरचना, सत्ता-समीकरणों की पड़ताल कुछ कमी-बेशी के साथ लक्षित रही है। इसी अनुक्रम में, हिन्दी आलोचकों के मध्य ‘मुक्तिपथ’ (2006) उपन्यास से बहुचर्चित हुए रूसी भाषा एवं साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान तथा एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक पूर्वकुलपति अभय मौर्य का चतुर्थ उपन्यास ‘हमारे विश्वविद्यालय’ अपनी विषयगत गहनता, समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि और विमर्शपरक संवेदनशीलता के साथ हिंदी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।

            ‘हमारे विश्वविद्यालय’ किसी शिक्षण संस्थान की कोई वायवी गाथा मात्र नहीं समस्त भारत की शैक्षणिक और प्रशासनिक दुनिया के वास्तविक संदर्भों का विचारोत्तेजक साहित्यिक दस्तावेज है। न केवल मानक शिक्षण प्रणाली और शैक्षणिक नैतिक मूल्यों का उद्घाटक अपितु संगठनात्मक अक्षमता, पदलिप्सा तथा राजनीतिक हस्तक्षेप के समक्ष शैक्षिक आदर्शों के शनैः-शनैः क्षरण का जीवंत साक्ष्य है। विश्वविद्यालयी तंत्र के अंतर्मुखी संघर्षों, अकादमिक सत्ता-समीकरणों, वैचारिक स्खलन एवं संस्थागत पतन के उन अंतर्द्वंद्वों की सामाजिक-आलोचनात्मक प्रस्तुति है जो शिक्षा को मात्र ज्ञान-प्रसारण का माध्यम न मानकर सत्ता-संचालन के उपकरण में रूपांतरित कर देने की प्रवृत्ति के संकेतक हैं। उपन्यासकार देश से लेकर विदेश तक के चार-चार विश्वविद्यालयों के गहन स्व-अनुभवों को रचनात्मक लेखन की आत्मकथात्मक शैली में ढालते हुए पड़ताल करता है कि विश्वविद्यालय, जो मूलतः बौद्धिक विमर्श और प्रबोधन के केंद्र होने चाहिएं, भारत में किस प्रकार सत्ता, स्वार्थ और संकीर्ण राजनीतिक कुचक्रों के दुष्चक्र में ग्रस्त होकर अपनी मौलिकता से च्युत हो चुके हैं।

            दो सौ आठ पृष्ठों तथा छब्बीस अध्यायों में विभक्त उपन्यास के कथानक का प्रारंभ ‘यह चौकड़ी अपना सारा दमखम लगा देती है अपनी पसंद का कुलपति बनवाने में’(पृ.5) के खुलासे के मध्य मंत्रायल द्वारा तय रणनीति के अन्तर्गत प्रोफेसर अजय नायडू के एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त होने के साथ होता है किंतु शीघ्र ही यह नियोजन केवल प्रशासनिक बदलाव नहीं, वैचारिक और नैतिक संग्राम की घोषणा बन जाता है। दशकों से विश्वविद्यालय पर आधिपत्य जमाए बैठी ‘चांडाल चौकड़ी’, जो इस संस्थान को ज्ञान की साधना-स्थली से अधिक निजी शुद्रस्वार्थों की प्रयोगशाला मानती चली आ रही थी, इस नवीन नियुक्ति से विचलित हो उठती है। यह चौकड़ी मात्र कुछ व्यक्तियों का समूह नहीं, एक संगठित षड्यंत्रकारी तंत्र है, जिसने शिक्षकों, कर्मचारियों और छात्र नेताओं को दशकों से अपने स्वार्थों की डोर से बाँध रखा है। वे विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ताने-बाने को इस तरह नियंत्रित कर रहे हैं कि ज्ञान का प्रवाह बाधित हो तथा अकादमिक मूल्यों की जगह उनकी सत्तालोलुपता का वर्चस्व स्थापित रहे। यह गिरोह विश्वविद्यालय को व्यापार और सत्ता के उपकरण के रूप में देखता है, जहाँ ज्ञान, शोध और शिक्षा को केवल एक दिखावे की वस्तु बनाकर सत्ता-स्वार्थ की नीतियों को बढ़ावा दिया जाता है। ऐसे विकट वातावरण में नायडू का प्रवेश होता है, जो आते ही विश्वविद्यालय की एक साझा सभा में निर्द्वंद्व घोषणा करता है कि ‘मेरी नीति छात्रोन्मुख रहेगी क्योंकि विश्वविद्यालय होते ही हैं विद्यार्थियों के लिए।’ (पृ.26) शिक्षा को केवल किताबी ज्ञान नहीं सामाजिक क्रांति की आधारशीला माननेवाला नायडू अपने संकल्प की उज्ज्वल आभा और नैतिक निष्ठा के कवच के साथ विकृत तंत्र से टकराने हेतु प्रस्तुत होता है पर यह राह सुगम साबित नहीं होती। 

            संघर्ष की पहली लहर विश्वविद्यालय के अनौपचारिक शासक, माफिया गिरोह के सरगना और दशकों से इस संस्थान पर कूटनीति और छल का आधिपत्य जमाए बैठे बिजलानी से उठती है। वह मात्र एक व्यक्ति नहीं शिक्षकों, कर्मचारियों और छात्र संगठनों को अपने स्वार्थ की बिसात पर मोहरे की भाँति चलानेवाला शतरंजबाज है। नायडू की नियुक्ति उसके लिए एक चुनौती साबित होती है। वह भयभीत हो जाता है और तत्काल अपने गुप्तचरों को सक्रिय कर देता है। विश्वविद्यालय के प्रत्येक कोने में लोग उसकी आँख-कान बनकर नायडू के कार्यों पर निगरानी रखते हैं। समय बीतने के साथ नायडू को आभास होता है कि नौकरशाह भी अपने स्वार्थों और राजनीतिक दबावों से घिरे हुए हैं। संयुक्त सचीव संजीव कुमार जैसे अधिकारी अपनी चालबाजियों से विश्वविद्यालय को नियंत्रित करने के लिए प्रयासरत रहे हैं। अतएव सत्ता का यह संघर्ष शीघ्र ही विश्वविद्यालय की चारदीवारी से निकलकर शिक्षा मंत्रालय के गलियारों तक पहुंच जाता है। वस्तुतः नौकरशाहों और राजनीतिक आकाओं के लिए भी शिक्षा संस्थान सत्ता और आर्थिक संसाधनों का केंद्र थे, जिन्हें अपने हितों के अनुरूप नियंत्रित किया जाना, उनकी दृष्टि में आवश्यक था। 

            नायडू को प्रलोभनों के जाल में फँसाने के भरसक प्रयास किए जाते हैं। उस पर शासकीय दबाव बनाते हुए एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को विश्वविद्यालय का रजिस्ट्रार नियुक्त करने को कहा जाता है पर वह नहीं मानता। यह प्रस्ताव उसकी नैतिकता की परीक्षा तथा सत्ता-लोलुपों को एक स्पष्ट संदेश बनता है कि वह दूसरों के इशारों पर नाचनेवाला व्यक्ति नहीं है। प्रतिक्रियास्वरूप नायडू केवल कुलपति ही नहीं, भ्रष्ट आकाओं की दृष्टि में एक शत्रु बन जाता है। विश्वविद्यालय को मिलने वाले अनुदानों में रुकावटें डाली जाती हैं। प्रशासनिक निर्णयों में रोड़े अटकाए जाते हैं। यहां तक की उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाते हैं ताकि जरा-सी गलती होते ही उसे निकाल बाहर किया जाए। 

            किंतु नायडू प्रतिबद्धता के साथ भ्रष्टाचार के अभेद्य दुर्ग को ध्वस्त करने हेतु तत्पर होता है। वह भली-भांति समझता है कि शिक्षा केवल पुस्तकों और परीक्षाओं तक सीमित नहीं, चेतना, दृष्टिकोण और समाज की संरचना का निर्माण करने वाली बौद्धिक शक्ति है। छात्र मामलों में सख्ती के बजाय सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए नायडू शिक्षा-व्यवस्था में व्यापक सुधार के लिए ठोस कदम उठाता है। शिक्षकों से विद्यार्थियों को केवल किताबी ज्ञान न देकर, बौद्धिक स्वतंत्रता, तार्किकता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व के मार्ग पर प्रवृत्त करने का आग्रह करता है। पुस्तकालयों को आधुनिक बनवाता हैं, शोध-संस्कृति को पुनर्जीवित करता है, लालफीताशाही पर प्रहार कर प्रशासनिक पारदर्शिता स्थापित करता है और योग्य शिक्षकों तथा छात्रों के लिए नए अवसरों का निर्माण करता है। किंतु इस नवोन्मेषी दृष्टिकोण से उन वरिष्ठ शिक्षकों की स्वार्थसिद्धि को गहरा आघात लगता है, जो शिक्षण से बचकर प्रकाशकों के लिए पुस्तकें लिखकर धन का संचय करने में संलिप्त थे। विश्वविद्यालय को राजनीतिक कुश्ती का मैदान बनाए रखना चाहते थे। फलतः नायडू के विरुद्ध एक के बाद एक गहरी साजिशें रची जाते लगती हैं। विश्वविद्यालय के भीतर कुशासन, फर्जी नियुक्तियों, धन-उगाही और अनुशासनहीनता का जाल बिछाया जाता है। मीडिया में दुष्प्रचार किया जाता है, फर्जी घोटालों की कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। छात्रों को उकसाकर नायडू के कार्यालय के बाहर विरोद्ध प्रदर्शन आयोजित किए जाते हैं और अराजकता तथा अव्यवस्था का वातावरण उत्पन्न कर दिया जाता है। झूठे आरोप लगाए जाते हैं, धमकियाँ दी जाती हैं। नायडू की छवि धूमिल करने एवं उन्हें अक्षम साबित करने के लिए यथाशक्ति योजनाबद्ध षड्यंत्र रचे जाते हैं पर इस समर में नायडू अकेला नहीं होता। उसके सरल स्वभाव, सादगीपूर्ण आचरण, नैतिक साहस, जनतांत्रिक नीतियों और शैक्षणिक सुधारों से प्रभावित ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक, कर्मचारी और छात्र उसके समर्थन में खड़े हो जाते हैं। धीरे-धीरे एक नया बौद्धिक संगठन आकार लेने लगता है, जो विश्वविद्यालय को पुनः शिक्षा और शोध के केंद्र के रूप में स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प होता है। और अंततः नायडू की अडिग निष्ठा, अटल ईमानदारी तथा निर्भीक साहस रंग लाते हैं। विश्वविद्यालय की प्रशासनिक संरचना में सुधार होता है, भ्रष्ट तत्त्वों को निष्कासित किया जाता है।

            पूरा उपन्यास उच्च शिक्षा प्रणाली में गहरी पैठ बना चुकी कटु जटिलताओं को क्रमबद्ध ढंग से विवेचित करता चलता है, साथ ही, समानांतर कई गौण प्रश्नों जैसे- क्या शिक्षा मात्र अकादमिक गतिविधियों तक सीमित है या यह समाज के व्यापक पुनर्निर्माण का उपकरण भी है?क्या विश्वविद्यालय केवल ज्ञान के केंद्र हैं या वे सत्ता और विचारधाराओं के संघर्ष का एक रणक्षेत्र भी हैं?क्या शिक्षकों की भूमिका केवल शिक्षण तक सीमित है अथवा उन्हें एक सामाजिक मार्गदर्शक और परिवर्तनकर्ता की भूमिका भी निभानी चाहिए? क्या शिक्षा संस्थानों में लोकतंत्र की कोई वास्तविक उपस्थिति है या वे केवल नौकरशाही और राजनीतिक सत्ता के आदेशों के अधीन कार्य करते हैं? आदि को भी ध्वनित करता है। बड़ा सवाल उठाता है कि क्या सच्चाई और साहस की सदैव विजय होती है अथवा सत्ता के जटिल तंत्र में नैतिकता को अंततः पराजित होना ही पड़ता है। संघर्षरत लोग सफल होते हैं किंतु यह सफलता पूर्णतया नहीं होती। उपन्यास संकेतित करता है कि यह संघर्ष चक्रीय है और इसके लिए प्रत्येक पीढ़ी को तत्पर होना होगा।

            ‘हमारे विश्वविद्यालय’ का कथानक जितना सुगठित एवं प्रवाहमय है, इसकी भाषिक संरचना और शिल्प योजना उतनी ही प्रखर, सजीव एवं पठनीयता को उद्दीप्त करने वाली है। संवादात्मक शिल्प और व्यंग्यात्मक भाषा-शैली के माध्यम से शिक्षण संस्थानों की जटिल राजनीतिक संरचना एवं उनके अंतःसंस्कारों का उद्घाटन इतना प्रभावी है कि विचार कहीं भी बोझिल नहीं होते। भाषा में समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि एवं राजनीतिक बोध का अपूर्व समन्वय दृष्टिगत होता है, जो कृति को बौद्धिक तीक्ष्णता प्रदान करते हैं। उपन्यास अपनी चित्रात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से पाठक को दृश्यात्मक अनुभव कराता चलता है। संवाद केवल शब्दों का विन्यास न बनकर पात्रों की मानसिकता, सामाजिक परिस्थितियों एवं प्रशासनिक संरचना का सशक्त प्रतिबिंब प्रस्तुत करते हैं। घटनाएँ क्रमबद्ध रूप से विकसित होती हैं, जिससे पाठक की जिज्ञासा निरंतर उद्दीप्त बनी रहती है। यद्यपि कहीं-कहीं अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन, पूर्वानुमानित अंत, कुछ पात्रों के असमान विकास जैसी तथाकथित कमियां बतायी जा सकती हैं। तदापि यह उपन्यास  बौद्धिक जागरूकता, विचारधारा की टकराहट एवं सत्ता संरचनाओं के अंतःसंघर्ष को समेटे हुए समसामयिक भारतीय शिक्षा प्रणाली की त्रासदी का ऐसा उद्घोषक बनता है, जिसकी चेतावनी न केवल शिक्षाविदों, प्रशासकों और छात्रों बल्कि  संपूर्ण समाज को सुननी चाहिए, उपन्यास को जरूर  पढ़ना चाहिए।

            पुस्तक- हमारे विश्वविद्यालय(उपन्यास), लेखक-अभय मोर्य, प्रकाशक-विजया बुक्स, कीमत-395, पृष्ठ-208 


अहमद अली
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना)
sayaadali99@gmail.com7869042908

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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