- सरिता
‘पितृसत्ता’ क्या है और कैसे यह एक भेदभावपूर्ण सामाजिक संरचना पर आधारित है? इसके बारे में काफी चर्चा हुई है | स्वयं सुजाता अपनी पुस्तक आलोचना के स्त्री पक्ष पर पितृसत्ता की अवधारणा के बारें में काफी विस्तृत तरीके से बताती हैं | अपनी पुस्तक ‘दुनिया में औरत’ में वह पितृसत्ता किन-किन रूपों में कहाँ और कैसे विद्यमान है इसके बारें में काफी गहन अध्ययन के साथ लिखती हैं| लेखिका सुजाता की हाल में आई पुस्तक इन दोनों पुस्तकों से कुछ मायनों में बहुत अलग है | यह पुस्तक स्त्री चिंतन के नए आयामों को अपने केंद्र में लेकर चल रही है| अब तक सारी चर्चा पितृसत्ता को केंद्र में रखकर लिखी गयीं किन्तु मातृसत्ता कैसे आई होगी और अचानक से कैसे इतनी बड़ी सत्ता पलटी, पितृसत्ता ने अपने पैर कैसे पसार लिए कि उसमें स्त्री हीन से भी हीनतर हो गयी| इसपर विचार बहुत गहन तरीके से नहीं किया | ये पुस्तक अधूरे रह गए सवालों को पूरा करने की कोशिश करती है| जेण्डर सम्बन्धी अवधारणा पर भी ये पुस्तक नए तरीके से अपने विचार प्रस्तुत कर रही है|
ये पुस्तक मातृसत्ता के इतिहास एवं उसके विघटन पर भी बात करती है| इस संदर्भ में कई महत्वपूर्ण तथ्यों को सामने रखती है| एक तो एंगेल्स द्वारा दिया गया तथ्य निजी सम्पत्ति का है और राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित पुस्तक वोल्गा से गंगा है| जिसमें मातृसत्ता के ऐतिहासिक प्रकल्पना को कहानी के रूप में बताया गया है| सुजाता लिखती हैं कि –“मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ शुरुआत में ही नहीं पहुँच गया था ; इसके लिए उसे बड़े-बड़े संघर्षों से गुजरना पड़ा| एक दिलचस्प उदाहरण राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘वोल्गा से गंगा’ से दिया जा सकता है| ये कृति, जिसे राहुल सांकृत्यायन खुद ‘रोचक ढंग से लिखा इतिहास’ कहते हैं, मनुष्य की कहानी को मातृसत्ता से आरम्भ करती है| यह एक जीवित माता का राज्य नहीं, बल्कि अनेक जीवित माताओं के परिवारों का एक जन है, यहाँ एक माता का अकंटक राज्य नहीं, जन-समिति का शासन है| ऐसी व्यवस्था जहाँ स्त्री, बल्कि माँ, कबीले की मुखिया है, वह शिकार में भी झुण्ड के आगे रहती है और सम्मानीय है|” 1
मातृसत्ता के सम्बन्ध में बाखोफेन मधुमखियों के जीवन का सबसे सटीक उदाहरण मानते हैं| वह लिखते हैं कि “मधुमक्खियों के जीवन में मातृसत्ता अपने सबसे शुद्ध और स्पष्ट रूप में हैं|” 2 इस पुस्तक को पढ़ने से कई सवाल खड़े होते हैं जैसे क्या सच में मातृसत्ता का कोई रूप भी था या नहीं | अगर मातृसत्ता थी तो इतनी बड़ी सत्ता का परिवर्तन कैसे आया होगा| कहीं ऐसा तो नहीं कि मातृसत्ता के मूल में भी कहीं पितृसत्ता ही तो काम नहीं कर रही थी ?
‘मातृसत्ता’ के बारे में इस पुस्तक में बताया गया है कि कैसे स्त्री एक ‘सुपीरियर जेंडर’ के रूप में थी | इसका कारण था कि एकल विवाह से पूर्व स्त्री के कोख से पैदा होने वाले बच्चे की पहचान केवल स्त्री ही कर सकती थी पुरुष को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं होती थी| स्त्री चाहे तो बता सकती और चाहे तो छुपा भी सकती थी| वह अपनी मर्जी की भी मालिक थी और संतानों की भी| किन्तु लोगों ने इस व्यवस्था को अराजक और बिखरी हुई व्यवस्था माना| ऐसा माना गया कि पितृसत्ता ने इस बिखरी हुई व्यवस्था को एक नया आकार देकर व्यवस्थित किया और सभ्यता का विकास किया|
यह पुस्तक जेंडर के विभिन्न आयामों को भी दिखाती है| यौनिकता और समलैंगिकता से कैसे जेंडर को समझने में सहायक है यह पुस्तक यह भी बताती है कैसे ये तीनों शब्द एक दूसरे से जुड़ें हुए हैं| पितृसत्ता को समझने के लिए मातृसत्ता के अंत को बहुत ही बारीकी से समझाया गया है| मातृसत्ता के अंत और पितृसत्ता के उदय के कारणों पर विचार करते हुए लेखिका समझाती हैं कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण पुरुषों में पनप रही रक्त शुद्धता, नस्ल शुद्धता, जाति जैसी चीजों को बनाये रखने के लिए जरुरी था कि स्त्री की कोख पर नियंत्रण रखा जाए| इस तरह स्त्री पर नियंत्रण आरम्भ हुआ | लेखिका लिखती हैं कि –“एक तरफ ग्रेट मदर को पूजा गया तो दूसरी तरफ स्त्री की कोख और मातृत्त्व को नियंत्रित करने की कोशिश की जाती रहीं जिनमें बल -प्रयोग शामिल था| पितृसत्ता यानी एक क्रूर किस्म की नियमावली जिसे निर्लज्ज तरीकों से निभाया जाता रहा|” 3
लेखिका बहुत ही साहस के साथ पितृसत्ता के मुखोटों को उखाड़ फेंकने की ताकत रखती हैं| वह निडर होकर समाज की उन सच्चाइयों को सामने रख रहीं हैं जिसके जवाब देने में यह समाज हमेशा कतराता रहा है| स्त्रियों का जब गर्भपात हुआ तो उसे हत्यारन कहा गया| उसे यह बताया गया कि गुलामी में ही उनकी मुक्ति है| लेखिका पुस्तक में हिटलर के स्त्री सम्बन्धी दृष्टिकोण के बारे में भी बताती हैं कि हिटलर ने स्त्रियों से काफी उमीदें बाँध रखी थी| वहाँ की औरतों ने भी पार्टी के आदेशों पर अपने साज-शृंगार को त्याग दिया और वह जहरीले राष्ट्रवाद की तरफ मुड़ गयीं| वे स्त्रियाँ अंत तक यही समझती रहीं कि स्त्रियाँ अहिंसक है और वह अंत तक अन्यायी और अत्याचारी सत्ता का साथ निभाती रहीं|
स्त्रियों के सम्बन्ध में राज्य निर्णय लेने लग जाए तब का दौर कितना खतरनाक होगा| ऐसा ही कुछ यूरोप के देशों के साथ हुआ और फिर धीरे-धीरे ये संक्रमण अन्य देशों तक भी पहुंचा| यहीं से शुरू हुआ स्त्री पर नियंत्रण का दौर| स्त्री आज़ादी के सम्बन्ध में लेनिन का मानना था कि स्त्रियों की आज़ादी के बगैर हर आज़ादी अधूरी है|
लेखिका यौनिकता के प्रश्न पर भी बड़ी ही बारीकी से विचार करती हैं| यौनिकता के सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यह बताया कि यौनिकता यौनचयन से ही सम्बन्धित नहीं है| जबकि यौनिकता “समाज,संस्कृति, धर्म, कानून, ज्ञान–विज्ञान और राजनीति से प्रभावित होती है| यौनिकता में प्रेम, घनिष्ठता, कामुकता, हमारी यौन – अस्मिता, यौन – स्वास्थ्य, प्रजनन सभी कुछ शामिल होता है|” यौनिकता पर फ्रायड, सिमोन और जूलियट मिशेल के विचारों का हवाला देते हुए इसे मनोविश्लेषण के हवाले से भी समझाया गया है| सिमोन लिखती हैं कि –“मनोविश्लेषण ब्योरेवार ढंग से पुरुष को मनुष्य और स्त्री को मादा की तरह व्याख्यायित करता है, जब भी स्त्री एक मनुष्य की तरह व्यवहार करती है, कहा जाता है कि वह पुरुष की नकल कर रही है|” 4
यौनिकता के सिद्धांत को बहुत ही उलझा दिया गया है| ये पुस्तक उन्हीं उलझनों को सुलझाने का प्रयास कर रही है| लेखिका बताती हैं कि स्त्री की हीनता बोध का कारण केवल पुरुष के अंग का अभाव नहीं है| बल्कि वह सभी सामाजिक और पारिवारिक कारण है, जिसने स्त्री को इस तरह के हीनता बोध के साथ जीने के लिए विवश किया है| स्त्री का यही हीनता बोध उसे ताउम्र सताता है| वह अपने आपको बधिया मानने लगती है| उसकी यौनिकता पर नियंत्रण भी ऐसे ही आरम्भ होता है-“ स्त्रीवाद यौनिकता को मर्दवाद की सामाजिक निर्मिती के रूप में देखता है”| 5
स्त्री की जो छवि इस समाज और विभिन्न धार्मिक मतों ने गढ़ी है उसमें वह केवल त्याग की मूर्ति और ममता की देवी के रूप में ही है| उसकी यौनिकता को भी धर्म ने परिभाषित किया | उसकी यौन-इच्छा को पाप ही समझा गया है| यौन -इच्छा को केवल पुरुषों की ही बपौती समझा गया| अगर स्त्री ऐसी कोई इच्छा व्यक्त करती है उसे तमाम तमगों से नवाजा जाता है| कृष्णा सोबती का उपन्यास मित्रों-मरजानी उपन्यास स्त्री की यौन इच्छा की अभिव्यक्ति का एक अच्छा उदाहरण है| लेखिका इस सम्बन्ध में लिखती हैं – “मित्रो एक ऐसी स्त्री है जो अपनी यौनिकता को खुद व्याख्यायित करना चाहती है| उसे लगातार नियंत्रित करने की कोशिश होती है| जिस समाज में यह सिखाया जाता है कि लाज, शरम और चुप्पी औरत का गहना है ऐसे समाज में मित्रो एक ‘विचलन’ ठहरती है| पति से संतुष्ट न हो सकने वाली, छज्जे पर खड़ी दूसरे मर्दों पर डोरे डालने वाली मित्रो को डर दिखाया जाता है कि यह सब छोड़ दे एक दिन ईश्वर के दरबार में हाज़िर होना है | लेकिन वह तो सब जानती है| किसी खौफ में न आकर वह तपाक से जवाब देती है – वह ईश्वर भी मर्द ही तो होगा, एक नज़र तो मित्रो पर वह भी डालेगा”6
जिस समाज में स्त्री की अपनी इच्छा को ही पाप समझा जाता रहा हो| वहाँ उसकी यौनिकता को परिभाषित करना और उसे समाज के सामने रखना निश्चय ही साहस का कार्य है और यही कार्य सुजाता अपनी पुस्तक के माध्यम से कर रही हैं | साहित्य हो या समाज ऐसे अनेक उदाहरण है जहाँ स्त्री अपने लिए जैसे ही कुछ सोचती है, तो उसे खुद ही अच्छा नहीं लगता| वह अपने बारे में सोच रही है मतलब स्वार्थी है | जेनेन्द्र की कहानी ‘पत्नी’ इसका एक अच्छा उदाहरण है | जहाँ पत्नी सुनन्दा अपने पति कालिंदीचरण और उनके दोस्तों को खाना खिला देने के बाद अपने लिए कुछ भी नहीं रखती और बाद में जब वह ये सोचती है कि उसने अपने लिए तो कुछ रखा ही नहीं है| जैसे वह इसे सोचती है तो उसे लगता है वह भी कैसी बुरी बात सोच रही है| सच मानिए स्त्री के शोषण के तथ्य इतने सूक्ष्म है कि वह आम जीवन शैली में इतनी घुल–मिल गयी है कि वह अब सभी को बहुत समान लगती हैं | सभी को ऐसे लगता है कि ऐसे ही होता आया है तो यह सब सही है| स्त्री अपनी इच्छा के विरुद्ध अगर कोई काम कर रही है तो इसमें हर्ज नहीं है और ये स्त्री का धर्म है परिवार और सबकी इच्छा को पूर्ण करना| यौनिकता का सवाल तो उसके लिए बहुत ही बड़ा है| यौनिकता का सवाल हो, समलैंगिकता पितृसत्ता को कैसी चुनौती दे रही ? इसके बारे में भी यह पुस्तक विस्तार से चर्चा करती है| समलैंगिकता ने पितृसत्ता की बनी हुई व्यवस्था को तार-तार करने की कोशिश तो की है| इसमें किसी एक पक्ष का शोषण नहीं है| समलैंगिकता को समझने के लिए लेखिका साहित्य और समाज को कुछ तथ्यों को सामने रखती हैं| वह लिखती हैं कि – “कृष्ण भक्ति में एक सखी सम्प्रदाय है जिसमें पुरुष राधा का रूप धरकर प्रभु की भक्ति करते हैं| फिर भी ये समलैंगिक नहीं कहलाते| ‘क्रॉस -ड्रेसर’ कहे जा सकते हैं| भक्ति और कविता में स्त्री होकर भी पुरुष, पुरुष ही रह जाता है| जैसे एक ही कबीर हैं जो ‘हरी की बहुरिया’ हैं और वही कबीर हैं जो सती, स्वकीया, पतिव्रता का माहात्म्य बताते चलते हैं| मेट्रो शहरों में भी आजकल एक नया पुरुष वर्ग पनपा है जो परिधानों, सौंदर्य प्रसाधनों और फेशन में ‘जेण्डर मुक्त’ होने की कोशिश कर रहा है| सर के बाल बढ़ाना, देह को चिकना रखना और अपनी वेश–भूषा में ऐसे वस्त्र शामिल करना जिन्हें परम्परागत रूप से स्त्री-जेण्डर के साथ पहचाना जाता है कि वह अपने बर्ताव में कम पितृसत्तात्मक हैं?” 7
यहाँ ये समझना होगा कि इन सभी से क्या पितृसत्ता का जो रूप है वह खत्म होगा या उसे कोई चुनौती मिलेगी? समलैंगिक लोग एक तरह से इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं| इनकी लड़ाई अस्मिता की लड़ाई है| जिसे समाज ने आप्राकृतिक मान लिया है| भारतीय समाज अपने मूल में पितृसत्तात्मक है वह कभी यह स्वीकार नहीं कर सकता है कि जिस समाज को उसने पुरुष और स्त्री के खेमे में बांटा था उसे समलैंगिकता स्वीकार ही नहीं कर रही| पितृसत्ता में एक जेण्डर तो शोषित ही है| यही चुनौती पितृसत्ता को दिखाई देती है|
अतः कहा जा सकता है कि ये पुस्तक अपने सम्पूर्ण रूप में पितृसत्ता के शोषणकारी मुखोटे को बहुत ही साहस के साथ निकाल फेंकने का साहस रखती है| एक नए तरह से उन तमाम सवालों को उठा रही हैं जिसके बारे में केवल लिखा जाना ही नहीं बल्कि उसपर विचार करना भी जरुरी है| इतने वर्षों में तमाम पुस्तकें आई हैं किन्तु पुस्तक पढ़ने वाला पाठक बस पढ़ भर लेता है उस विचार के बारे में कम सोचता है| मातृसत्ता के तख्तापलट, पितृसत्ता के उदय, समलैंगिकता, पितृसत्ता के लिए चुनौती , स्त्री की यौनिकता और पितृसत्ता का सम्बन्ध आदि विचार इस पुस्तक को नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है|
सन्दर्भ :
2 . वही , पृष्ठ संख्या, 28
3. वही , भूमिका से, हम भूल गये कि हमने शुरुआत कहाँ से की थी
4 .वही, पृष्ठ संख्या 73
5 . वही, पृष्ठ संख्या 91
6 .वही, पृष्ठ संख्या , 71
7 . वही , पृष्ठ संख्य 108
शोधार्थी (हिन्दी विभाग), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,वाराणसी – 221005
sarusarita07@gmail.com , 9773683897