जीवन का साक्षात्कार करती अरुण देव की 100 ‘मृत्यु : कविताएँ’
- रोबिन एवं बीर पाल सिंह यादव
बीज शब्द : दर्शन, मृत्यु-बोध, मृत्यु, शोकगीत, जीवन, आत्मा, ईश्वर व मनुष्य।
मूल आलेख : आज के समय में कविता का लिखा जाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। इसकी पूर्व घोषणा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘कविता क्या है’ निबंध में ‘ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यो एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा।‘ कर दी थी। आज जब सब कुछ बाजार के हाथों में चल गया है, तब मानवीय संवेदनाओं को भी बाजार से बचाएं रखना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। “ऐसे संकट काल में बुद्धिजीवी, कवि और कलाकार के सामने दोहरी चुनौती आ खड़ी होती है। एक तो अपने काम को उपभोक्ता वस्तु में बदलने से बचाने की यानी अपने आप को सेलिब्रिटी सनसनी, पुरस्कार और अदबी नुमाइशों के पूँजीवादी बाजार में इस्तेमाल हो जाने से बचाने की। दूसरे सत्ताओं से ऐसे सवाल पूछते रहने की, जो उनकी ओर से चलाए जा रहे सत्यों की बखिया उधेड़ सकें।”1 ऐसे में जरूरत है हर तरह की मानवीय संवेदनाओं पर खुलकर बात होने की। भक्तिकाल को छोड़ दें तो बाद के हिंदी साहित्य में भी ‘मृत्यु’ को लेकर बहुत कम लेखन व चर्चा दिखाई पड़ती है। निराला की ‘सरोज स्मृति’ को ही मुख्यतः हम देख पाते हैं। इसके विपरीत पश्चिम में शोकगीत व मृत्यु संबंधी कविताओं की एक लंबी परंपरा रही है। कीट्स, वॉल्ट व्हिटमैन व सिल्विया प्लाथ की कुछ मृत्यु कविताएं तो बहुत प्रसिद्ध हैं। जापान में तो मृत्यु कविता की बहुत लंबी व प्राचीन परंपरा रही है। कोरियाई व वियतनामी कवियों ने भी इस विषय पर कविताएं लिखी है। योएल हॉफमैन ने 1986 में ‘Death and Poetry in The Cultural History of Japan’ में इन कविताओं का संग्रह भी किया। परंतु हिंदी में यह विषय हाशिये पर ही रहा। 2020 में कोविड के बाद से कुछ-कुछ शोकगीत व मृत्यु कविताएं सामने आने लगे । इनमें 2022 में आया अम्बर पाण्डेय का संग्रह ‘गरुड व अन्य शोकगीत’ उल्लेखनीय है। अभी हिंदी साहित्य की वॉल पर मृत्यु कविताओं का प्रचलन दिखाई दे रहा है। ऐसा ही अमित मनोज का मृत्यु बोध पर केंद्रित कविताओं का संग्रह ‘एकालाप’ अभी प्रकाशनाधीन है। 2025 में आए संग्रहों में मेरा विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया अरुण देव के संग्रह ‘मृत्यु : कविताएँ’ ने। छोटी-छोटी परंतु जीवन तत्व का सार लिए यह 100 कविताएं बेहद ही प्रभाव छोड़ने वाली हैं। अरुण देव का यह संग्रह जीवन के प्रति संवेदनशीलता से उपजा गान है। भारतीय दर्शन, चिंतन-परंपरा एवं शास्त्र में मृत्यु एक शाश्वत परंपरा के रूप में विद्यमान है। मृत्यु-बोध, दर्शन व साहित्य के केंद्र में सदैव रहा है। मृत्यु-बोध के बारे में भक्ति की सगुण एवं निर्गुण दोनों धाराओं के कवियों ने अपनी अभिव्यक्तियां दी हैं। कबीर कहते हैं- माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय । इक दिन ऐसो होयगो, मैं रौंदूंगी तोय ।। यानि कबीर यहाँ जीवन के मिट्टी हो जाने की ओर संकेत कर रहे हैं। अंत में मिट्टी में ही मनुष्य अपनी नियति को प्राप्त करता है। यहाँ कबीर पंच तत्वों में ही समस्त संसार के संक्षेप को बताते हुए, इनमें मिट्टी के सबसे रचनात्मक तत्व होने की बात को भी पुष्ट करते दिखाई दे रहे हैं। ‘मृत्यु : कविताएँ’ में भी अरुण देव इन्हीं पंचतत्वों के दार्शनिक आधार के इर्द-गिर्द अपनी कुछ कविताएं बुनते हैं-
“अग्नि खा जाएगी,
पी जाएगी नदी
हवा ले जाएगी अपने साथ,
मिट्टी मिला देगी मिट्टी में उसे”2
यहाँ मिट्टी में मिल जाना देह के समाप्त होने का संकेत हैं, जीवन -चक्र के नहीं; मिट्टी की उर्वरता बहुत ज्यादा है, सब कुछ मिट्टी में मिलकर, फिर से मिट्टी से ही पैदा हो जाता है। इस संदर्भ में फीनिक्स पक्षी संबंधी दंतकथाओं का स्मरण हो आता है। माना जाता है कि यह पक्षी अपने लिए एक घोंसले का निर्माण करता है और उसी में लगी आग की लपटों में जलकर मर जाता है और उसी राख से पुनः एक बार फिर नया फीनिक्स जन्म लेता है। जहाँ फीनिक्स पुनरुत्थान, शाश्वत जीवन और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बन गया है, वहीं मिट्टी भी जीवन की उर्वरता का प्रतीक बन गई है। वह अंत भी है और आरंभ भी वही है। इसी तरह अरुण देव जीवन के चले जाने में भी जीवन के लौटने की बात अपनी मृत्यु कविताओं में कर रहे हैं। अरुण कमल इसी बात को विस्तारित करते हुए पुस्तक के प्रारंभ में टिप्पणी करते हैं – ‘इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है जीवन के साथ घनिष्ठता। मृत्यु की कविताएं अंततः जीवन की कविताएं होती हैं, जो जीवन था, जो जीवन है और जो जीवन होगा।’
कामायनी आधुनिक हिंदी साहित्य के चुनिंदा काव्यों में से एक है; जिस पर बहुत अधिक बातचीत एवं चर्चाएं हुई है। कामायनी में भी जीवन की अमरता का जो तत्व देव संस्कृति के पतन का कारण बना, वही तत्व व्युत्क्रमित होकर जीवन की नश्वरता के रूप में मानवीय संस्कृति का आधार बना। मनु जब प्रलय उपरांत मानवीय संस्कृति एवं समाज के चिंतन हेतु उद्यत हुए; यह तत्व सदैव उन्हें स्मरण रहा। आज सहस्रों शताब्दियों से खड़ी इस मानवीय संस्कृति की विराट अट्टालिका की नींव में ‘मृत्यु’ तत्व ही है। जीवन के असमाप्य होने का भाव जीवन के आनंद को सीमित या समाप्तप्राय ही कर देगा। जीवन का वास्तविक अर्थ मृत्यु के होने से ही है। अरुण देव की कविताएं इस प्रश्न को भी पूछती हुई सामने खड़ी हो जाती हैं-
“ जब मृत्यु की भी मृत्यु हो जाएगी,
जीवन क्या करेगा ?
पीठ पर अंतहीन थकान लिए,
जिंदगी कहाँ जाएगी।”3
मृत्यु के अस्तित्व का होना ही जीवन में रस भरने का काम करता है। मृत्यु के बिना असीम जीवन को देह भी नहीं ढो सकती है। एक कविता में अरुण देव कहते हैं-
“देह बिलखती है; मृत्यु के लिए”4
देह का मोक्ष तो वास्तव में मृत्यु ही है। और प्राण का नियम है गति करते रहना।
अरुण देव की कविताएं अपने में सांस्कृतिक अर्थों को भी लपेटे हुए है। भारतीय महाकाव्यों रामायण एवं महाभारत में मृत्यु के सत्य को लेकर खूब संवाद है। गीता का दूसरा अध्याय तो मनुष्य के स्थित-प्रज्ञ होने की पैरवी करता है। स्थित-प्रज्ञ वह मनुष्य जो दुख एवं सुख दोनों को समान भाव से स्वीकार करे तथा दुख-सुख में समान आचरण करता हो। अरुण देव कहते है-
“फूल झुक जाते हैं
रंग उड़ जाता है
टपक जाते हैं फल
बीज रह जाता है।”5
यहाँ फल का टपकना देह के अंत की बात करता है परंतु बीज का रह जाना आत्मा/प्राणों के मौत के बाद भी बने रहने का संकेत है। प्राण/आत्मा का कभी अंत नहीं होता है; वह केवल अपनों देह रूपी वस्त्रों को बदल लेती है। गीता में आत्मा को अजर-अमर रूप में व्याख्यित किया गया है-
“य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।”6
(जो इस आत्मा को मारने योग्य वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न मरती है और न उसे मारा जा सकता है।)
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।”7
(इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।)
पुस्तक के प्रारंभ में अरुण कमल लिखते हैं कि- “कबीर से लेकर कामू तक के प्रसंग एक बिम्ब को महकाव्यात्मक विस्तार दे देते हैं। लेकिन कहीं भी न ईश्वर का स्मरण है, न किसी अन्य लोक का या उत्तर-जीवन की अभिलाषा।“ समाज में मृत्यु को ईश्वर के अभिशाप की तरह देखा जाना सामान्य दृष्टि है। यहाँ अपनी 100 कविताओं में इस तरह की दृष्टि से अरुण देव परहेज करते हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने अपने मृत्यु अनुभवों में जीवन को इतना विस्तार दे दिया है कि मृत्यु जीवन से कोई कोसों दूर की वस्तु नहीं लग रही बल्कि उसका सहज अंग हो गई है। यहाँ ईश्वर की कल्पना एवं उनकी जरूरत नगण्य हो गई है। साहित्य तो ईश्वर की मृत्यु की बहुत पहले ही घोषणा कर चुका है। पाश्चात्य परंपरा में जर्मन दार्शनिक एवं कवि नीत्से अपनी पुस्तक ‘THE GAY SCIENCE’ में 1882 में ही ईश्वर की मृत्यु की जोरों-शोरों से घोषणा करते हैं। कुछ इसी तरह की बात मृत्यु कविताओं में भी अरुण देव लिखते हैं –
“अंत प्राप्त हो वृक्षों को
पशु-पक्षियों को
कीट-पतंगों को
मनुष्यों को
गिर चुका है ईश्वर की अमरता का जीर्ण पत्ता
प्रार्थनाओं से जा चुका वह कब का”8
जीवन की निरंतरता में ही मृत्यु सोपान है। मृत्यु व मृत्योपरांत जीवन के रहस्य को लेकर संसार भर में एक सी ही जिज्ञासाएं रही हैं। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में अनेक मिथकों द्वारा इस रहस्य को समझने की कोशिशें की गई हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य परंपराओं में ऐसे कई चरित्र एवं उनकी कथाएं मौजूद हैं। ‘मृत्यु: कविताओं’ की विस्तृत पृष्टभूमि में मृत्यु के संबंधित अनेक सांस्कृतिक संदर्भ आकर जुड़ गए है। अरुण देव इस संग्रह की 35वीं कविता में मृत्यु के सांस्कृतिक संदर्भों को खोजते हुए लिखते हैं-
“उसकी विस्मृति उसका स्थगन नहीं
युधिष्ठिर उत्तर देने के बाद श्वान के साथ
यात्रा पर निकल चुके हैं
यक्ष का विस्मय अभी वहीं ठिठका है
नचिकेता की जिज्ञासाओं का
अभी शमन नहीं हुआ
वह वरदान की तरह फलित हुई है
जीवन के दलदल में धँसे सिसीफ़स से कहता है
अल्बैर कामू ।”9
नचिकेता की कथा भारतीय परंपरा में मूलरूप से ‘कठोपनिषद्’ व थोड़े बहुत फेरबदल के साथ तैत्तिरीयोपनिषद् व महाभारत में भी आती है। नचिकेता कठोपनिषद् में यम से तृतीय वरदान के रूप में जीवन व मृत्यु के रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने के संदर्भ में पूछते हुए कहता है-
“येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये-ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके ।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥”10
अंत में यम उसे इस संबंध में सम्पूर्ण ज्ञान देते हुए कहते हैं –
“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ मर्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥”11
यानि जब मनुष्य की सब कामनाएं छूट जाती है तब वह अमर हो जाता है। परंतु इस भौतिक शरीर के रहते हुए कभी भी कामनाओं का अंत नहीं होता है। अर्थात कामनाओं को अंत भी मृत्यु ही प्रदान करती है। मृत्यु के बिना इस शरीर के सब बंधनों से छूट पाना असंभव है। भारतीय मिथकों की तरह ही प्राचीन पाश्चात्य परंपरा में सिसीफ़स एक बहुत प्रसिद्ध चरित्र है। सिसीफ़स एक कपटी एवं चालाक राजा के रूप में हमारे सामने आता है; उसका जीवन अनैतिकता से भरा हुआ है। अपनी चालाकी से वह मौत के देवता को भी चकमा दे देता है। अंततः मौत के देवता उससे रुष्ट हो जाते हैं और श्राप के रूप में उसे ऐसी अमरता प्रदान करते हैं, जिसमें उसे प्रतिदिन एक पत्थर को पहाड़ पर चढ़ाना होता है, परंतु हर बार ऊपर पहुँचने के बाद वह पत्थर फिर लुढ़क कर नीचे आ जाता है; इसी क्रम में उसका जीवन गुजरता है। असली मायनों में यह अमरता मृत्यु से भी भयावह है। महान फ्रांसीसी लेखक एवं दार्शनिक अल्बैर कामू ने 1942 में ‘The Myth of Sisyphus’ नाम से जीवन एवं मृत्यु के अंतरंग संबंधों पर बात करते हुए एक दार्शनिक निबंध लिखा। इस निबंध ने दर्शन एवं साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि हासिल की। इसी निबंध के माध्यम से पहली बार ‘एब्सर्डिटी’ को सबके सामने रखा गया। सिसीफ़स का कथित जीवन; जीवन न होकर एक अनंत दौड़ है। जिसका कोई भी अर्थ दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है। यहाँ सिसीफ़स प्रतीक रूप में हम सबके जीवन को दिखा रहा है। जिसका कोई अर्थ सामने नहीं आता परंतु फिर भी हम जीवन की इसी बनी-बनाई परिधि के चक्कर काट रहे हैं। यही एब्सर्डिटी है। यही वज़ह है एक जगह अरुण देव सिसीफ़स की मृत्यु को ‘वरदान की तरह फलित हुई’ कहकर संबोधित कर रहे हैं। भारतीय महाकाव्य महाभारत में युधिष्ठिर-यक्ष संवाद के अंत में यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैं कि इस संसार में नया क्या है, तब युधिष्ठिर जवाब देते हैं कि दिन-रात-महीने-ऋतुएं-वर्ष गुजरते हैं व मनुष्य इसी संसार व सांसारिक मोह में बँधा रहता है। इन सबसे अगर वह ऊपर उठ जाए तो यही नई वार्ता (नई बात) होगी।
नचिकेता, युधिष्ठिर व सिसीफ़स के सांकेतिक चरित्रों के अलावा ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित राम, कृष्ण व बुद्ध की मृत्यु का भी जिक्र ‘मृत्यु;कविताएँ’ में आया है। यहाँ कवि देवताओं के भी इस संसार में आने पर उनकी मृत्यु का जिक्र कर उन्हें भी जीवन-मृत्यु के इस चक्कर से अछूता नहीं बताते हैं। इस तरह भारतीय परंपरा में भी पशु, पेड़, पौधे, मानव के साथ-साथ ईश्वर की मृत्यु की कल्पना भी की गई है।
कबीर के जीवन संबंधी दर्शन से कवि का विशेष अनुराग है। कई कविताओं में कबीर व उनका दर्शन अनेक तरीकों से आया है। कबीर के लीक से हटकर चलने को एक कविता में लिखते हुए वे कहते है-
“बनारस में शव आते हैं
मगहर में रह जाती है मृत्यु ”12
बनारस मोक्षनगरी के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि अंतिम संस्कार बनारस में होने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। परंतु कबीर ने मृत्यु के लिए बनारस की बजाय मगहर को चुना। जहाँ मरने पर नरक की प्राप्ति मानी जाती थी। यहाँ अपने इस लीक से हटकर चलने के स्वर को कबीर के माध्यम से कवि ने प्रकट किया है।
जैन मत में ‘संथारा’ नाम से एक प्रक्रिया है। यह एक तरह से ऐच्छिक मृत्यु चुनने की क्रिया है। अधिकतर जैन संत इस प्रक्रिया द्वारा ही देह त्यागते है। देह के थक जाने पर संसार से मुक्ति के आशय से अन्न-जल त्यागकर समाधि लगा लेते है। आध्यात्मिकता में जीवन को देखने का नजरिया बहुत अलग है। और शायद जीवन का अर्थ पूर्ण हो जाने या देह से अनासक्त हो जाने पर वे मृत्यु के आश्रय पर ही थाह पाते है। परंतु कई बार सामान्य जीवन की बोरियत को भी मृत्यु रोमांच से भर देती है। अरुण देव की कविता “देह थककर बैठ जाती है, एक दिन अपनी ही गोद में”13 व “अंत की ओर मुख किये अशक्त देह, मुक्त हुई यातना से”14 तथा “मैं मुक्त हुआ आयु के भार से”15 कुछ ऐसी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
इन सबके बीच जीवन से अनासक्ति का भाव बहुत ही विरला है। मृत्यु भले ही मुक्त करती हो पर संसार की सांसारिकता से मनुष्य की अथाह प्रीति है। यहाँ मनुष्य के जीवन में ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ हमें दिखाई पड़ता है। जीवन से अनासक्ति का भाव बहुत ही विरला है। जीवन की उसकी रुचि कई बार अरुचि में भी बदल जाती है। भ्रमरगीत की गोपियों की भांति संसार के सत्य को जानते हुए भी वे कृष्ण में ही अनुरक्त रहना चाहती हैं। कृष्ण को ही उन्होंने अपना सत्य स्वीकार कर लिया है। इसी तरह किसी स्वजन की मृत्यु पर संसार की नश्वरता को जानते हुए भी हम, जाने वाले के अभाव में त्रस्त हो जाते है। ‘मृत्यु:कविताएं’ के प्राक्कथन में राधावल्लभ त्रिपाठी लिखते इसी अभाव को बताते हुए लिखते हैं – ‘वैशेषिक दर्शन में अभाव एक पदार्थ माना गया है। किताब टेबल पर रखी थी। यह पुस्तक का भाव या सकारात्मक उपस्थिति है। किताब टेबल से हटा ली गई, तो टेबुल पर क्या है? टेबुल पर पुस्तक का अभाव है। अभाव दिखता है अनुभूत होता है। वह एक स्वतंत्र पदार्थ है। जो व्यक्ति हमें छोड़ गया है उसका अभाव हमारे बीच है।’ आज के समय में यह अभाव कई तरीकों से सामने आता है। जैसे- “यह नंबर अब उपलब्ध नहीं रहेगा।”16 संग्रह की 56वीं कविता इसी अभाव को संबोधित करती है-
“कुछ दिनों तक आती रहेंगी चिट्ठियाँ
तुम्हारे नाम की ।”17
अरुण देव ने यह संग्रह पिता को समर्पित किया है। शायद पिता का अभाव ही इन कविताओं का सृजक बना है। जिसे वे “यहीं मिला, पिता के न रहने का अधूरापन”18 से संबोधित करते हैं।
जीवन व मरण की इन कविताओं में नश्वरता व अमरता के बीच सामान्य जन-जीवन के प्रसंग भी आए हैं। समाज की सामाजिकता, संस्कृति के साथ-साथ राजनीतिक क्षोभ भी लेखक ने प्रकट किये हैं-
“नागरिकता की अस्थियाँ चुनी जा चुकीं
इतिहास के धुएँ से भर गया है वर्तमान
संयम के अस्तबल से बाहर निकल चुकी हैं आस्थाएँ
स्वतंत्रता की नदी सूख रही है
विवेक और विचार के टूटे मृद्भाँड़ पड़े हैं”19
यहाँ विचारों के व स्वतंत्रता के अतिक्रमण को भी अरुण देव एक तरह से मृत्यु के समान ही बता रहे हैं। राजनीतिक क्षोभ के साथ ही समाज की विसंगतियों व अव्यवस्था पर भी कविताएं चोट करती हैं। यहाँ मृत्यु तब तक मृत्यु नहीं मानी जाती जब तक आपके पास प्रमाण-पत्र न हो। इससे बड़ी सामाजिक विसंगति क्या ही हो सकती है। इस पर भी उस प्रमाण के बनने में सौ-सौ तरह की अव्यवस्थाएं व भ्रष्टाचार। इसी को बताते हुए अरुण देव लिखते हैं-
“जब तक प्रमाण-पत्र
सक्षम अधिकारियों द्वारा जारी नहीं हो जाता
मृत्यु सन्दिग्ध मानी जाएगी।”20
यहाँ किसी मनुष्य की ही नहीं बल्कि इस अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते समाज की भी मृत्यु हो चुकी है। व इसी व्यवस्था से त्रस्त हो चुके जीवन पर भी वे कहते हैं-
“मेरी जेब से अगर मिलती है आत्महत्या की परची
इसे मेरी हत्या समझना
मृत्यु नहीं।”21
यहाँ जीवन के उस रूप का भी संकेत है जहाँ प्रत्येक दिन एक संघर्ष है; एक युद्ध है। ‘मृत्यु:कविताएं’ में मृत्यु के बाद के स्वर्ग की तो कवि कल्पना नहीं करता है परंतु जीवन के रहते ही स्वर्ग की कल्पना वह अवश्य करता है। जीवन की इन विसंगतियों, अनैतिकताओं व अन्याय का अंत ही निश्चित रूप से इहलौकिक स्वर्ग है। वह इनके अंत की गुहार लगाता हुआ कहता है-
“अन्याय की मृत्यु कब होगी
हिंसा का आख़िरी दिन इस धरती पर कब आएगा
हत्यारे कब विलुप्त होंगे
कट्टरता की किताब के कितने पुनर्मुद्रण होंगे
तानाशाह कब तक अपने को अद्यतन करते रहेंगे
मछलियों को कब मिलेगी पानी की नागरिकता
पशुओं को जंगल की
पक्षियों को आकाश की
कौन-सा होगा बुरे दिनों का अंतिम दिन ।”22
मनुष्य के जीवन से इतर प्राणियों के जीवन की बात की कविताओं में आई है। इंसानी कैद में आकर पशु-पक्षियों का जीवन मृत्यु से भी भयंकर यातना है। अनेक बार मनुष्य अपने स्वार्थ में मानवता की सीमा का भी उल्लंघन कर देता है। वह पशु का दूध नहीं दूहता बल्कि उसका जीवन दूहता है। वह पिंजरे या एक्वेरियम में बंद करके उसका सौन्दर्य नहीं निहारता बल्कि उसका आजादी भी खा जाता है। यहाँ अज्ञेय की कविता सोन-मछली का स्मरण हो आता है-
“हम निहारते रूप,
काँच के पीछे
हाँप रही है मछली।
रूप-तृषा भी
(और काँच के पीछे)
है जिजीविषा।”23
अपने जीवन की समृद्धि में किसी के जीवन का इतना हनन मनुष्यता नहीं है। यह मानवता का उत्कर्ष नहीं अपितु उसकी सांकेतिक मृत्यु है। कुछ ऐसा ही अर्थ अरुण देव एक कविता भी समेटे हूए है-
“उसकी दुनिया खुली थी
ले आया घर
चमकती आँखों से निहारते एक खरगोश के
वे कैसे दिन थे!
दोस्तों को उसकी यातना दिखाता
वे करतब समझते
एक दिन काँच का टुकड़ा उसे चुभ गया
वह टुकड़ा मेरी आँखों में चुभता रहता है
रहती हैं लाल।”24
निष्कर्ष : सिसीफ़स रूपी मनुष्य के लिए भले ही यह संसार एक ब्लैकहोल है और यह जीवन एब्सर्ड है परंतु अगर सिसीफ़स को यह सब खुशी दे रहा है तो खुशी ही काफी मायने रखती है। अल्बैर कामू भी हैप्पीनेस्स व एब्सर्ड को इस संसार की दो संताने कहता है। संसार का सबकुछ जान लेने के बाद भी सिसीफ़स की खुशी महत्वपूर्ण है। अल्बैर कामू जीवन की निरर्थकता से उपजे आत्महत्या के भाव की जगह इस खुशी की ही पैरवी करते हैं। जीवन के बने रहने पर ही जोर देते हैं। वे लिखते हैं- “The struggle itself toward the heights is enough to fill a man's heart. One must imagine Sisyphus happy.”25
अरुण देव की ‘मृत्यु:कविताएं’ अंततः जीवन की ही कविताएं हैं। ये मृत्यु की 100 कविताएं होकर भी जीवन के 100 पक्षों की कविताएं हैं। इन कविताओं में इसी जीवन को प्रतिपादित करते हुए अरुण देव पहली कविता – “अन्त है, अन्ततः है, अन्तिम है, आश्वस्ति है।”26 से शुरुआत करते हुए, अंत 100 वीं कविता “मैं नहीं रहूँगा तुम नहीं रहोगे, सृष्टि रहे।”27 के साथ करते हैं। तमाम अवरोधों के बावजूद इस सृष्टि के बने रहने में ही सबकी खुशी है। जीवन नश्वर है किन्तु जीवन-मृत्यु का यह क्रम शाश्वत है और संसार की यह शाश्वतता बनी रहे।
संदर्भ :
- आलोचना पत्रिका, 77 अंक, अप्रैल-जून 2024, संपादकीय, पृ. 10
- देव, अरुण; मृत्यु:कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2025, पहला संस्करण, पृ. 31
- वही, पृ. 38
- वही, पृ. 46
- वही, पृ. 30
- श्रीमद्भगवद्गीता; गीता प्रेस, गोरखपुर; द्वितीय अध्याय, श्लोक संख्या- 19
- श्रीमद्भगवद्गीता; गीता प्रेस, गोरखपुर; द्वितीय अध्याय, श्लोक संख्या- 23
- देव, अरुण; मृत्यु:कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2025, पहला संस्करण, पृ. 35
- वही, पृ. 57
- कठोपनिषद्; गीता प्रेस, गोरखपुर; द्वितीय वल्ली, श्लोक संख्या – 20, पृ. 27
- कठोपनिषद्; गीता प्रेस, गोरखपुर; तृतीय वल्ली, श्लोक संख्या – 15, पृ. 155
- देव, अरुण; मृत्यु:कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2025, पहला संस्करण, पृ. 48
- वही, पृ. 66
- वही, पृ. 48
- वही, पृ. 92
- वही, पृ. 113
- वही, पृ. 80
- वही, पृ. 112
- वही, पृ. 95
- वही, पृ. 97
- वही, पृ. 96
- वही, पृ. 104
- वाजपेयी, अशोक (संपादक); रचनाकार-अज्ञेय; सन्नाटे का छंद; वाग्देवी प्रकाशन; संस्करण : 1997, पृ. 87
- देव, अरुण; मृत्यु:कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2025, पहला संस्करण, पृ. 120
- camus, Albert. The Myth of Sisyphus and Other Essays. translated by Justin O'Brien. New York: Vintage Books, 1991. Translation originally published by Alfred A. Knopf, 1955. Originally published in France as Le Mythe de Sisyphe by Librairie Gallimard, 1942.
- देव, अरुण; मृत्यु:कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2025, पहला संस्करण, पृ. 23
- वही, पृ. 131
रोबिन
शोधार्थी, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़- 123031
rbnvalley@gmail.com, 9996321346
बीर पाल सिंह यादव
अध्यक्ष एवं आचार्य, हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़- 123031
bpshv20@gmail.com, 8055290240
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी