पुस्तक-अंश: भारतीय लोकतंत्र का कोरस (कुछ बिसरी-बिखरी ध्वनियाँ) / प्रियंवद

भारतीय लोकतंत्र का कोरस (कुछ बिसरी-बिखरी ध्वनियाँ)
- प्रियंवद

संपादकीय टिप्पणी- साहित्यकार व इतिहासकार प्रियंवद की इतिहास पर यह तीसरी पुस्तक है। इससे पहले वे ‘भारत विभाजन की अंतःकथा’ और ‘भारतीय राजनीति के दो आख्यान’ दो पुस्तकें लिख चुके हैं। इतिहास पर अपनी पहली पुस्तक को उन्होंने ‘भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश की युवा पीढ़ी को’ समर्पित किया है। इतिहास की सही जानकारी हम सभी के लिए और विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए क्यों जरूरी है, इसके बारे में प्रियंवद कहते हैं कि “स्मृति का जो स्थान मनुष्य के जीवन में है, वही स्थान इतिहास का मनुष्य समाज में होता है”। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए ‘भारत विभाजन की अंतःकथा’ की भूमिका में वे लिखते हैं कि “इतिहास देश की, समाज की स्मृति है जैसे मनुष्य की स्मृति दोषपूर्ण नहीं होनी चाहिए वैसे ही देश व समाज की भी नहीं होनी चाहिए। यदि स्मृति दोषपूर्ण है तो वर्तमान और भविष्य दोनों ही निरापद व निर्द्वंद्व नहीं होंगे।” पेंगुइन स्वदेश से प्रकाशित यह नई पुस्तक ‘भारतीय लोकतंत्र का कोरस’ प्रियंवद के इतिहास लेखन के उसी कालक्रम को आगे बढ़ाती है। इसमें स्वतंत्र भारत में 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने से लेकर 12 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ आए हाइकोर्ट के फैसले और फिर आपातकाल लगाए जाने तक के इतिहास को प्रियंवद ने सिलसिलेवार व रोचक ढंग से लिखा है। इतिहास को आख्यान की तरह लिखने की हिरोडोटस, प्लूटार्क, कार्लाइल, गिबन, टायनबी जैसे इतिहास गुरुओं की परंपरा में प्रियंवद इतिहास को आख्यान की तरह प्रस्तुत करते हैं। यह नई पुस्तक ‘भारतीय लोकतंत्र का कोरस’ बिल्कुल एक फ़िल्म की पटकथा की तरह चलती है लेकिन साथ ही वे इतिहास के लिए जरूरी तथ्य, तर्क, विवेचन-विश्लेषण और वैज्ञानिकता से भी कोई समझौता नहीं करते।

पुस्तक में नेहरू का भारत, देश में लोकतंत्र की प्रतिष्ठा, चीनी आक्रमण, इंदिरा गाँधी के ‘नन्हीं छोकरी से देश की नई आत्मा’ और ‘गूँगी गुड़िया से दुर्गा’ बनने, बांग्लादेश का जन्म, जेपी की सम्पूर्ण क्रांति की सफलता-असफलता, लोकतंत्र में छिपे तानाशाही और अधिनायकवाद के बीजों के पुष्पन-पल्लवन, राजनैतिक घात-प्रतिघात, स्वार्थ-लिप्सा, संविधान को लेकर अम्बेडकर की आशंकाओं का सच साबित होना... वो सब कुछ है जो ‘पोस्ट ट्रुथ’ के इस युग में हर स्वतंत्रचेता मनुष्य को जानना चाहिए। प्रियंवद अपने साहित्य में भी और इतिहास में भी बार-बार यह घोषित करते हैं कि उनके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है। गीत चतुर्वेदी के कविता संग्रह ‘ख़ुशियों के गुप्तचर’ से एक प्रासंगिक कविता और उसके बाद पुस्तक के कुछ अंश-

इन दिनों अतीत में बहुत शोरगुल है।
वर्तमान के फेंके सारे पत्थर अतीत में गिर रहे हैं।
हम पत्थर हैं। हम गिर रहे हैं।

कभी-कभी लगता है :
वर्तमान,
अतीत का नालायक बच्चा है
जिसके बिगड़ जाने की ख़बर बहुत देर से लगी।
-विष्णु कुमार शर्मा, सह-संपादक

पुस्तक-अंश : आपातकाल हटने के बाद होने वाले नए चुनावों में जीतने के लिए... अंततः विभिन्न दलों का विलय हुआ और जनता पार्टी के एक ही चुनाव चिह्न पर 1977 में इंदिरा के विरुद्ध चुनाव लड़ा गया। यह दल विजयी हुआ। केंद्र में इसकी सरकार बनी। पर ऐसा नहीं था कि सत्ता पाने के बाद इस दल ने जेपी की संपूर्ण क्रांति के किसी तत्त्व या उद्देश्य को अपना लक्ष्य बनाया हो। समाज, राजनीति व अर्थनीति में परिवर्तन लाने के कोई क्रांतिकारी कदम उठाए हों। क्रांतिकारी कार्यक्रम लागू किए हों। अपने छोटे-से शासन काल में ये दल और इनके व्यक्ति, निहायत भद्दे तरीके से सत्ता पाने की घटिया लड़ाई लड़ते रहे और अंततः अपने मूल दलों में विघटित हो गए। इसी के साथ, दुनिया की अनेक असफल क्रांतियों की तरह, जेपी की 'संपूर्ण क्रांति' भी हमेशा के लिए ख़त्म हो गई। तो क्या क्रांतियों की यही नियति होती है? शायद हाँ। वे या तो असफल होती हैं या फिर सफल होकर अक्सर ही अराजकता या निरंकुश शासन या तानाशाही में समाप्त होती हैं और अपने लक्ष्य तक न पहुँचकर, सदैव अधूरी रह जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि अपनी सक्रियता में स्वयं में 'क्रांति' सदैव अस्पष्ट, भ्रामक, अनियंत्रित तथा दिग्भ्रमित होती है। किसी भी राजनीतिक क्रांति का अंतिम लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्ज़ा करना होता है। राज्य सत्ता पर कब्ज़ा करके ही सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन लाया जा सकता है। क्रांति के अग्रदूत मानते हैं कि मानते हैं कि क्रांति की वह इच्छित या कि मनचाही दुनिया तभी गढ़ी जा सकती जब शोषण, असमानता नहीं होगी। इसलिए हर क्रांति सत्ता पाने की लडाई में बदल जाने को अभिशप्त है। पर राज्य सत्ता का भी अपना क्रूर और अमानवीय चरित्र होता है। यह चरित्र लगभग अपरिवर्तनीय और वर्चस्ववादी होता है। यह अपने नागरिक का रक्त पीकर जीवित रहता है। उसका ही दमन करना इसे शक्ति, अधिकार व दीर्घायु देते हैं। राज्य सत्ता को अपना अस्तित्व सदैव प्रश्नविहीन, चुनौतीविहीन चाहिए होता है। राज्य के इस सर्वस्ववादी चरित्र करना की व्याख्या मैकियावली ने विस्तार में तथा सर्वश्रेष्ठ रूप में की है। बाद में नीत्शे ने इसे दार्शनिकता, तर्क व वैधता दी, जिसने बाद में दुनिया के तानाशाहों को प्रेरित व प्रभावित किया। उन्हें अपनी सोच में ठोस व स्पष्ट दिशा तथा नैतिक आधार दिया। कोई भी क्रांति जब राज्य सत्ता पाने के अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती है, तब वह राज्य के उसी स्वरूप, दृष्टि और कार्यशैली को अपना लेती है जिसके विरुद्ध उसने संघर्ष किया था, जिसे बदलने का आह्वान किया था, जिसे अस्वीकार किया था और जिसके इनकार के कारण ही उसे जनसमर्थन मिला था। यह क्रम टूटता नहीं। इसी क्रम में पहली क्रांति के अवशेष, फिर इस नई राज्य सत्ता के विरुद्ध एक और क्रांति के स्वर उठाते हैं। नतीजे में फिर दमन, निरकुंशता, तानाशाही या अराजकता का जन्म होता है। क्रांतियाँ इसी क्रम से इसी गति को प्राप्त होती रही हैं। दुनिया की कुछ बड़ी क्रांतियों को निरपेक्ष होकर देखें, उनके शीर्ष नेतृत्व को देखें, शीर्ष व्यक्ति को देखें, उनका विस्तृत व सूक्ष्म अध्ययन करें, तो यह बात तार्किक व प्रामाणिक रूप से सिद्ध हो जाएगी।

यहाँ गांधी एक बार फिर हमें कुछ अलग खड़े हुए दिखते हैं। राज्य सत्ता पाना उनका लक्ष्य नहीं था। वह मनुष्य जीवन में समग्र परिवर्तन चाहते थे। कभी अपर्याप्त, कभी आधे-अधूरे, कभी प्रयोग के स्तर पर ही सही, उन्होंने जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप किया और एक ऐसा सचेत, समग्र मनुष्य गढ़ने की कोशिश की जो स्वयं मानवीय, उदार, अहिसंक होकर एक समाज गढ़ेगा और ऐसा समाज, अपने लिए ऐसा एक राज्य गढ़ेगा। यदि समाज उनके स्वप्नों के आदर्श मनुष्यों का नहीं है, तो वह राज्य सत्ता पाने की जल्दी में नहीं थे। यह भी कहा जा सकता है कि यदि राज्य सत्ता पाने के बाद भी समाज और मनुष्य उनके स्वप्नों का नहीं बनता है, राज्य सत्ता इस दिशा में आगे नहीं बढ़ती है, तो वह राज्य सत्ता छोड़ने को भी तैयार थे। हमने पिछले पृष्ठों में देखा है कि आज़ादी मिलने के बाद वे कांग्रेस के सत्ता में बने रहने के पक्ष में नहीं थे। वे राज्य सत्ता के वास्तविक चरित्र को जानते थे, इसीलिए उनकी 'क्रांति' में राज्य सत्ता पाना नहीं, बल्कि उसकी इकाई, 'मनुष्य' का उत्कर्ष, उनका लक्ष्य था। यहाँ जेपी गांधी से बहुत पीछे छूट जाते हैं। उन्होंने 'संपूर्ण क्रांति' में अन्य व्यवस्थाओं के साथ मनुष्य के संबंधों में सुधार और परिवर्तन की बातें की, पर परिवर्तन को लाने के लिए वे राज्य सत्ता पाने की लड़ाई की दलदल में चले गए। नतीजे में उनकी संपूर्ण क्रांति का वही हश्र हुआ, जो दुनिया की तमाम आधी-अधूरी क्रांतियों के साथ होता आया है और जो नतीजे में अंततः या तो ये नष्ट होती हैं या अराजकता में या निरंकुश शासन या तानाशाही में समाप्त होती हैं। यह तानाशाही व्यक्ति, विचार या दल, किसी के भी अधिपत्य में व्यक्त हो सकती है।

जेपी की संपूर्ण क्रांति के दो परिणाम हुए। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। सकारात्मक यह कि मोनोलिथिक होते जा रहे कांग्रेसी शासन के विरुद्ध केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। देश को एक राजनीतिक विकल्प मिला जिसमें जनता की सीधी, सक्रिय पहल व भागीदारी थी, जो इंदिरा गांधी की बढ़ती तानाशाही प्रवृत्तियों और लोकतंत्र के अस्तित्व पर ख़तरों के विरुद्ध अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक बेहतर समाज व राज्य व्यवस्था के गठन के लिए तत्पर हुई थी। नकारामक परिणाम यह हुआ कि लगभग साढ़े तीन वर्ष में जनता पार्टी की सरकार का पतन हुआ और इंदिरा गांधी पुनः सत्ता में लौट आईं। इंदिरा गांधी की वापसी ने जेपी की 'संपूर्ण क्रांति' को समग्र रूप में समाप्त कर दिया। देश की युवा पीढ़ी और मध्य वर्ग, जो पूरे उत्साह से जेपी के साथ जुड़ा था, वह देश की दलीय राजनीति के प्रति गहरी वितृष्णा, क्षोभ और हताशा से भर गया। यह मोहभंग व अविश्वास इतना तेज़ था, कि इसने भविष्य में किसी क्रांति की संभावना के रास्ते बंद कर दिए। देश ने इसके बाद 'क्रांति' शब्द कभी नहीं सुना।

पुस्तक विवरण : भारतीय लोकतंत्र का कोरस (कुछ बिसरी-बिखरी ध्वनियाँ) 26 जनवरी 1950 - 12 जून 1975 / लेखक- प्रियंवद ,पेंगुइन स्वदेश (पेंगुइन रैंडम हाउस), गुरुग्राम , प्रकाशन वर्ष- 2025

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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