भूमंडलोत्तर यथार्थ का ‘हँसोड़’ चित्रकार
- संजीव कुमार दुबे
बीसवीं सदी में प्रेम, प्रतिरोध और इतिहास बोध की पगडंडी से शुरू हुई कहानी की यात्रा, इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के चौदह मार्गी द्रुत महामार्गों के दौर में भी हाशिए के स्वप्न और सौंदर्य को उकेरती हुई प्रतिपक्ष की पक्षधरता में संलग्न है। हिन्दी कहानी का वर्तमान दौर विगत चार दशकों से सक्रिय प्रतिष्ठित कहानीकारों के साथ नई सदी में लेखन की शुरुआत करनेवाले संभावनाशील युवा कथाकारों से समृद्ध है। रोचक है कि हिन्दी कहानी के इतने लंबे दौर के नामकरण का कोई प्रयास सर्वमान्य एवं ग्राह्य नहीं हुआ है। इस असफलता के पीछे कहानी आलोचना की विफलता से अधिक उसकी विविधता और बहुआयामिता भी है। इस पूरे दौर को ‘समकालीन कहानी’ के अंतर्गत समेटने के प्रयास अधिक हुए हैं, जबकि यह नामकरण सत्तर के दशक की कहानियों के लिए किया गया था। कोई भी साहित्यिक कृति प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपने समकाल का ही प्रतिबिंब होती है। जब कालांकन ही कला की कसौटी बन जाए तो उसे “समकालीन” कहना लाजिमी हो जाता है। यही कारण है कि समकालीन कविता, समकालीन उपन्यास और समकालीन कहानी जैसे पद आलोचना की शब्दावली में खूब प्रयुक्त हुए। समकालीन रचना विधान में समकाल की चुनौतियों, संघर्षों, विसंगतियों, विद्रूपताओं, सौंदर्य, स्वप्न अपेक्षाओं के साथ हर वह चीज विन्यस्त है, जो मनुष्य होने की गरिमा को बढ़ाती है और अमानुषिकता की ओर बढ़े कदम का प्रतिकार करती है। समकालीनता का कोई भी विमर्श किसी वर्ण, लिंग, पूंजी और सामंती वर्चस्ववादी सामाजिक व्यवस्था में पीड़ित, शोषित, दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक, मजदूर, किसान और हाशिए पर जीवन व्यतीत कर रहे करोड़ों लोगों की अमानवीय जीवन स्थितियों से निरपेक्ष नहीं हो सकता है। समकालीन कथाकारों ने सांप्रदायिकता, भूमंडलीकरण, मनुष्यों के विस्थापन, पारंपरिक आजीविकाओं के उन्मूलन, विकास के नाम पर अधिग्रहण, बेदखली, प्रकृति एवं पर्यावरण के विनाश, असमान और असंतुलित विकास से पैदा हुए हालातों में छटपटाते जीवन की महीन शिनाख्त की है। काल को सम पर साध कर उसकी छायाओं को कागज पर उतारने वाली रचनाएं समकालीन कही गईं, पर जब काल की गति में ‘न भूतो न भविष्यति’ तेजी आ गई हो गया हो तो ऐसे काल को कालांकित करनेवाली नई सदी की रचनाओं को समकालीन के खाते में डालने से बात नहीं बन सकेगी।
यूरोप की औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद का सहारा लेकर पिछड़े देशों में उपनिवेश कायम किए तो उत्तर औपनिवेशिक युग में सूचना क्रांति ने नव साम्राज्यवाद की राह बनाई। सूचना और संचार के साधनों के विकास की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हो गई थी। बीसवीं सदी के आरंभ में रेडियो ओर टेलीविजन के प्रसारण ने इसे नई गति प्रदान की। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल तकनीकी ने सूचना क्रांति को सूचना विस्फोट में बदल दिया। भारत जैसे देशों में यह विस्फोट प्रलयकारी सिद्ध हुआ, जिसने सनातनी भारत के जीवन मूल्यों, आस्थाओं, पारिवारिक संबंधों, सामाजिक रीतियों, प्रथाओं, मान्यताओं को उलट-पलट कर रख दिया। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के नए नुस्खे से कथित पिछड़े और बीमार देशों के इलाज की नव साम्राज्यवादी कोशिशें कथित विकसित देशों द्वारा आरंभ हुई। इतिहास के मुहावरे में सोचें तो पिछला दौर व्यापार करते-करते शासक बन जाने का था तो आज का दौर शासक को ही व्यापारी बना लेने या व्यापार में शामिल कर लेने का है। विश्व व्यापार संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व बैंक आदि की शर्तों से समझौतों के साथ भारत भूमंडलीकरण के दौर में 1991 में शामिल होता है पर इसकी शुरुआत तो उसी समय हो गई थी जब सूचना माध्यमों से विज्ञापनों का प्रसारण आरंभ हुआ। धीरे-धीरे उत्पादक व्यापारी ही सूचना माध्यमों पर प्रस्तुत की जा रही सामग्रियों के प्रायोजक बनते गए और कालांतर में सूचना माध्यमों से परोसी जा रही सामग्रियाँ भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की खपत के विज्ञापन में तब्दील होती गईं। बात यहीं रुक गई होती तो गनीमत थी, आज आलम यह है कि संचार माध्यमों पर ही बड़े पूंजीदारों ने नियंत्रण स्थापित कर लिया है, फलतः जनहित की सूचनाओं और जनशिक्षा कार्यक्रमों के स्थान पर कॉर्पोरेट हित को प्राथमिकता देने और सत्ता की दलाली में पत्रकारिता के मूल्यों-मान्यताओं को तिलांजलि देने के उदाहरणों से रोज हमें दो-चार होना पड़ रहा है।
अस्सी के दशक में शुरू हुई उपभोक्ता वादी संस्कृति के खतरे की आवाजें तब बहुत स्पष्ट होने लगीं, जब रंगीन टेलीविजन का आगाज हुआ। भारत में भूमंडलीकरण की बुनियाद टेलीविजन समर्थित उपभोक्तावाद ने डाल दी थी जिसके कंगूरे और कलश स्थापित करने में कंप्यूटर, इंटरनेट, उपग्रह चैनल और मोबाइल ने बड़ी भूमिका निभाई। रोचक है कि टेलीविजन समर्थित उपभोक्तावाद के खतरों को हिन्दी कहानीकारों ने बखूबी समझा। 1982 में एशियाड खेलों के आयोजन के साथ दिल्ली में रंगीन टीवी की शुरुआत हुई और इसी दशक में पंकज बिष्ट की कहानी “बच्चे गवाह नहीं हो सकते” 1985 में प्रकाशित हुई। 12 कहानियों के संग्रह की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए पंकज बिष्ट लिखते हैं “तकनीकी प्रगति ने मानव समाज और सभ्यता के विकास के, आज तक के, सारे नियम तोड़ दिए हैं, सभ्यता (संस्कृति का भौतिक पक्ष) जितनी तेजी से बढ़ रही है, सांस्कृतिक पिछड़ापन भी उसी तीव्रता से महसूस हो रहा है। असल में वह भौतिक प्रगति जो मानवीय मूल्यों से तालमेल बैठाना छोड़ देती है, वह एक सीमा के बाद ‘काउंटर प्रोडक्टिव’ हो जाती है”[i] एक सजग पत्रकार, कथाकार के रूप में पंकज बिष्ट ने देख लिया था कि औपनिवेशिक युग में मानसिक गुलामी की जो अपार भूमि तैयार हुई थी उसी पर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का वट वृक्ष फूल-फल रहा है। जिस उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का आरंभ माना गया था वह आज विदेशी और देसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नवसाम्राज्यवाद के रूप में देशों की संप्रभुता को निगल रहा है।
‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते’ कहानी में आठ सौ तनख्वाह पानेवाला मुलाजिम विशन दत्त, पास पड़ोस में अपने बच्चों को टीवी देखने से दुत्कारे जाने के अपमान से उबरने के लिए दो हजार कर्ज और डेढ़ सौ मासिक किस्त अदा करने का रिस्क लेकर टीवी घर लाता है। इतने कम मासिक आय में पाँच प्राणियों के निर्वाह के बोझ तले वह अपनी पुरानी बीमारी के लिए जरूरी दवाइयों तक की उपेक्षा करने को मजबूर हो जाता है। लोभ-लालच का मायावी संसार दिखा हीनताबोध को बढ़ानेवाले विज्ञापनी कार्यक्रमों का मनोविज्ञान दर्शकों पर इस तरह हावी हो जाता है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को भूल व्यर्थ की चीजों को तवज्जो देने लगता है। विडंबना यह कि जब बीमारी विकराल रूप धर कर विशन दत्त को मौत के पंजों में जकड़ लेती है उस समय भी वह अपने बच्चे रघुआ के साथ टीवी देख रहा होता है। टीवी के दृश्य में चलती गोली और पुरानी खांसी के करण खून की उल्टियाँ करते लुढ़कते विशन दत्त को देख रघुआ समझ नहीं पता है कि उसके पिता की मौत टीवी कार्यक्रम में चली गोली से हुई कि पुरानी बीमारी की जानलेवा उपेक्षा के हमले से। पंकज बिष्ट की उक्त कहानी और समीक्ष्य कथाकार पंकज मित्र के पहले कहानी संग्रह ‘क्विज मास्टर और अन्य कहानियाँ’ में संकलित कहानी ‘पड़ताल’ में टीवी की उपस्थिति महज संयोग नहीं है अपितु 1991 के बाद विधिवत आरंभ हुए भूमंडलीकरण के आरंभिक दौर में निर्मम होते पारिवारिक संबंधों, निष्प्राण होती सामाजिकताओं और छीजती मानवीयता की गहराई से पड़ताल करती है। इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1997 में युवा लेखन का प्रथम पुरस्कार पानेवाली यह कहानी पंकज मित्र की ‘ट्रेंड सेटर’ कहानी है। रोचक साम्य है कि उक्त दोनों कहानियों के मुख्य पात्रों की मौत में टीवी की अहम भूमिका है। पंकज बिष्ट की उपर्युक्त कहानी के समानांतर पंकज मित्र की कहानी ‘पड़ताल’ का आरंभ इस सूचना से होता है कि “और किशोरीरमण बाबू यानी मेरे पड़ोस के घर के बड़े ताऊ जी घर में रंगीन टीवी सेट आने के आठ दिनों के बाद ही मर गए”[ii] दोनों ही कहानियों में टीवी को हत्यारा कहने की वजह साफ है। भारत में भूमंडलीकरण टीवी के रथ पर आरूढ़ हो उसके अधुनातन रूपों, यथा; कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल की वल्गा थामे सदियों से संचित भारतीय संस्कृति और संस्कारों को रौंदता आगे बढ़ता जा रहा है। पंकज बिष्ट ने अपने संग्रह की उपर्युक्त उद्धृत भूमिका में बदलाव की जिस तेजी का जिक्र किया है, पंकज मित्र की कहानियों में अभिव्यक्त उसके परिणामों को देख अनुमान होता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में 365 चक्कर की गति से घूम गई है। गौरतलब है कि यह बदलाव विषम रूप में हुआ है। बुनियादी जीवन स्थितियाँ नहीं बदली हैं पर इन्हीं के बीच जी रहे एक तबके की सोच, धारणाओं, मूल्यों, मान्यताओं, सामाजिक-पारिवारिक संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन घटित हुआ है। किसी एक व्यक्ति के वैश्विक अरबपति-खरबपति बनने के प्रायोजित चमकदार विज्ञापनों के बीच गाँव-कस्बों के कथित गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों के जीवन में करोड़पति बनने के स्वप्न विक्रेताओं ने जो खलबली मचाई है, उसकी विद्रूपताएं कहानियों में दर्ज हो रहीं हैं। एफ एम, रेडियो, निजी मनोरंजन और समाचार चैनलों, छोटे रिचार्ज के जादू से दुनिया को मुट्ठी में कैद कर लेने की तरकीबों, साइबर कैफे, अबाधित इंटरनेट, फोकटिया वाईफ़ाई, इजी लोन, ईएमआई, इजी मनी से इजी लाइफ जीने के बाजारू नुस्खों ने जीवन में जा 360 डिग्री का उलटफेर रचा है उसे समकालीन के खाते में डाल कर बचा नहीं जा सकता। अतः अब जरूरी हो गया है कि इस दौर की रचनाशीलता का उचित नामकरण किया जाए। ये सब परिघटनाएं 1990 के दशक के साथ घटित हुई हैं, जो हमारे यहाँ भूमंडलीकरण की वैधानिक शुरुआत का दशक है। अतः बदली हुई सामाजिक, पारिवारिक, मानसिक दशाओं को रेखांकित करनेवाली रचनाओं को ‘भूमंडलोत्तर’ नामकरण के अंतर्गत समुचित रूप से परिगणित किया जा सकता है। सूचना क्रांति के विस्फोट, उदारीकरण और निजीकरण के बहाने देश के दरवाजे को जिस तरह बहुराष्ट्रीय पूंजी के लिए खोलने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों को देशी पूंजीपतियों के सहारे गाँव-कस्बों तक पहुंचाने, इन उत्पादों के इस्तेमाल के लिए सूचना और मनोरंजन के माध्यमों का बेशर्मी से इस्तेमाल किये जाने, ग्लोबल और लोकल के मुहावरों की सुविधाजनक अदली-बदली करने, इन सब के चलते सब कुछ बिकवा देने की सड़क से सरकार तक की दलाली को विकास कहे जाने, पूंजी और सत्ता के नापाक गठजोड़ से चंद हाथों में आई अकूत दौलत और सब कुछ गवां कर अपना मुंह नोचते, छटपटाते करोड़ों खाली हाथों के कंपनों की शिनाख्त करने वाली कहानियों को ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ पद से पहचाना जाना युक्ति संगत है। पंकज मित्र भूमंडलोत्तर परिदृश्य की सतह पर तैरते यथार्थ के जीवंत विवरण से तल में मची बड़ी हलचल की सटीक पहचान कराते हैं।
‘पड़ताल’ कहानी के किशोरीरमण बाबू ने घोर दुर्दिन में जी रहे एक मित्र के परिवार को अपने छोटे से घर में रख कर पाल-पोषा और पैरों पर खड़ा किया। छोटी से नौकरी में दो परिवारों का भरण पोषण संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना परिवार नहीं बसाया। अपनी कठिन मेहनत से बनाए घर और पोषित परिवार के बीच उनकी स्थिति अवांछित व्यक्ति की हो जाती है। अपने ही घर में उनकी चौकी तक के लिए भी जगह नहीं रह जाती जब टीवी सेट उसी जगह पर ला कर रख दिया जाता है। परिवार के लोग देर रात, जब तक टीवी देखते तब तक उन्हें कुर्सी पर उंकड़ूँ बैठ कर इंतजार करना पड़ता। परिणामतः वे बीमार होते हैं और ठंडी के मौसम में अपने ही घर के बाहर की बरसाती में पहुंचा दिए जाते हैं। कहानी का अंत देखिए “देर रात तक अमिताभ बच्चन चीखता रहा। असामाजिक तत्वों को पीटता रहा। सभी ने निश्चिंत होकर चीखें सुनीं। पिटाई देखी। दांत पीस-पीसकर दुनिया को जलाकर राख कर देनेवाले डायलॉग सुने और परमतृप्ति के साथ सोए, और सुबह ही किशोरी बाबू मरे हुए पाए गए, बरसाती में, चौकी पर।“[iii] जिस तरह पंकज बिष्ट की कहानी में विशन दत्त के हत्यारे की गवाही बच्चे नहीं दे सकते, वैसे ही किशोरी बाबू की मृत्यु का अपराध किसी पर सिद्ध नहीं हो सकता है। पंकज बिष्ट की कथा भूमि दिल्ली है और पंकज मित्र की कथा भूमि एक छोटा सा कस्बा जिसमें चाकू के फल की तरह शहर घुसता जा रहा है। भूमंडलीकरण की शुरुआत के दस वर्षों में ही महानगरों और बड़े शहरों से लेकर गांवों और छोटे-कस्बाई शहरों की जीवन स्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। सूचना क्रांति के विस्फोट से जो नया लुभावना संसार टीवी और मोबाइल की स्क्रीन पर चमकने लगा उसके आकर्षण की जद में उन गांवों, कस्बों और कथित शहरों के लोग भी आ गए जिनके यहाँ रोटी-रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव आजादी के पचास सालों से बना हुआ था। जरूरी बुनियादी विकास के अभाव के अंधेरे में चमकती स्क्रीन से जो स्वप्न जवान हो रहे थे वे पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और मान्यताओं की परवाह ही क्यों करें? भारत जैसे आर्थिक और सामाजिक विषमता वाली विशाल जनसंख्या वाले बड़े देश में संचार माध्यमों ने एक दौड़ प्रतियोगिता जैसे प्रायोजित कर दी है। असमानों की इस दौड़ में ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से शक्ति और सामर्थ्य वाले चंद लोग आगे निकलने लगे हैं। उनके नामों की सूचियां बनाकर ढिंढोरा पीटा जाने लगा है। और जो सदियों के संताप के सताए, अधिसंख्य लोग इस दौड़ में मुंह के बल गिरने लगे, लहू-लुहान होने लगे उनकी स्थितियों का आँखों देखा हाल भूमंडलोत्तर पीढ़ी के कथाकार अपनी कहानियों में दर्ज करने लगे। पंकज मित्र उन कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में भूमंडलीकरण के प्रभावों की गंभीर शिनाख्त की है। उनके पहले संग्रह की शीर्षक कहानी ‘क्विज मास्टर’ टीवी के चर्चित कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। टीवी पर प्रसारित होनेवाले इस कार्यक्रम ने लोगों की नींदे हराम कर दी थी। वैसे यह कार्यक्रम आज भी प्रसारित हो रहा है पर इसकी शुरुआत ने समाज चिंतकों के बीच बड़ी बहस ही छेड़ दी थी। यहाँ तक कि इस कार्यक्रम को बंद कराने की मांग भी की जाने लगी थी। कथा भूमि की भौगोलिक पहचान कराते हुए पंकज मित्र लिखते हैं “हर बड़े बनाते शहर की तरह यहाँ भी गणेश जी ने दूध पीने की कृपा की थी और इससे साबित हुआ था कि सूचना क्रांति ने अब यहाँ भी द्वार पर दस्तक दे दी है। सूचनाओं के महत्व को इस शहर के लोग समझने लगे थे- खास कर इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के माता-पिता और उसी स्कूल को शानदार और जानदार माना जाने लगा था जिसकी फीस हो तगड़ी और जहां क्विज कॉम्पिटिशन्स में बुद्धि जाती हो रगड़ी”[iv]
छोटे से शहर के प्राइवेट कॉलेज के अंग्रेजी शिक्षक की दयनीय दास्तान का बयान करने वाली इस कहानी में मुहब्बत की चोट खाकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में उतरे असफल नायक की अंग्रेजी इतनी चुस्त और मुहावरेदार हो जाती है कि छोटे शहर के लोगों को सहमने, आतंकित, करने और भकर-भकर मुंह ताकने को बाध्य कर देती है। उसके जनरल नालेज का लेवल सामान्य के निशान से काफी ऊपर उठ जाता है। उसकी इस प्रतिभा और क्षमता का इस्तेमाल उस छोटे से कस्बे के निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल क्विज कंपीटीशन कराने में करने लगते हैं और अंततः वह स्थानीय निजी स्कूल का अंग्रेजी मास्टर बन के रह जाता है जिसकी तनख्वाह से परिवार का गुजारा तक मुश्किल है। हालात से तंग पत्नी ताने मारते हुए कहती है “इतना जो कुईज-फुईज में समय देते हो फ्री फंड का, इससे अच्छा ट्यूशन-ऊशन पढ़ा लेते तो कुछ काम का होता, अंग्रेजी का तो डिमांड भी बढ़ा है ई कंप्यूटर का जमाना में। अगल-बगल देखिओ के आँख नहीं खुलता है।”[v] पत्नी का इशारा पड़ोस में रहनेवाले ट्यूशन के बेताज बादशाह शर्मा जी की ओर है। शर्मा जी आए दिन कुमार साहब का मजाक उड़ाने वाले लोगों में से हैं। शर्मा की बातों से चिढ़ने के बावजूद वह उसके रास्ते पर सकुचाते हुए चल ही पड़ता है। विडंबना देखिए कि एक रात ढाई बजे उसकी पत्नी जगाती है कि “सुनो न! आज से तीन दिन के लिए केबीसी में फोन लगाने का खुला है।“ इस काम के लिए वह शर्मा का मोबाइल उधार मांग लाई है जिसे ऐसे सहला रही है जैसे कोई संभावनाशील बच्चा हो। संग्रह की अन्य कहानियाँ भूमंडलोत्तर यथार्थ का बयान करनेवाली कहानियाँ हैं, जैसे ‘बिन पानी डॉट कॉम’ बोतल बंद पानी के बाजार की जरूरत पैदा करने की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का बयान करती है तो आरक्षण विरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी ‘अपेंडिसाइटिस’ कहानी गाँव से शहर आए वर्णवादी और सामंती मानसिकता के युवक की आंखें तब खुलती हैं जब सरकारी अस्पताल में उसका ऑपरेशन एक जाति विशेष का आरक्षण की व्यवस्था के तहत डॉक्टर बना युवा करता है जिसके बारे में उसकी सामान्य राय हुआ करती थी कि “हाँ, डॉक्टर बनोगे तो पेट में कैंची छोड़ोगे। इंजीनियर बनोगे तो पुल गिरा दोगे, दिमगवा कहाँ से लाओगे, उ सरकार थोड़े देगी।“[vi] ‘एक अधूरी दास्तान’ पितृसत्ता की सताई अन्विता की दास्तान है जिसकी शादी दुहाजू से कर दी गई है, जो खुद संतान पैदा करने में असमर्थ है और अधूरी औरत होने के ताने अन्विता को सहने पड़ते हैं। अन्विता नहीं चाहती कि उसकी हालत पति अमलेश्वर सिंह की पहली पत्नी की तरह हो जिसे उन लोगों ने मार डाला था। वह अपने मित्र और पूर्व प्रेमी रहे शहर के प्रसिद्ध गाएनेकोलॉजिस्ट अंकित से कहती है “अधूरी कहते हैं मुझे... अधूरी। तुम देख कर बताओ तो अंकित मैं अधूरी हूँ?... मुझे पूरी कर दो अंकित। अधूरी से पूरी! किसी के भी बच्चे की माँ बनूँगी मैं... लेकिन वेकिन कुछ नहीं अंकित। यही मेरा प्रतिशोध है। मुझे माँ बनना है, बस माँ...“[vii] अन्विता के इस क्रांतिकारी निर्णय में पूर्व प्रेमी और गाएनेकोलॉजिस्ट की आड़ ली गई है। इस कहानी के लगभग डेढ़ दशक बाद प्रकाशित कथाकार शिवमूर्ति की कहानी ‘कुच्ची का कानून’ की ग्रामीण विधवा स्त्री ससुराल में रहते हुए, अपने बूढ़े सास-ससुर की सेवा करते हुए उन्हें उचित उत्तराधिकारी देने के लिए माँ बनने का निर्णय लेती है। ‘बोनसाई’ कहानी में एनजीओ की करतूतों और झूठे पर्यावरण प्रेम का खुलासा हुआ है तो ‘लकड़सुँघा’ कहानी में बेईमानी से धन कमाने वाले मातापिता की बेटी अपने ईमानदार चाचा के घर भाग आती है पर अब तक बन चुकी आदतों से मजबूर हो वह पुनः यह कहते हुए लौटती है कि “आपके पास तो लाइफ ही स्पायल हो जाती। भला ये भी कोई लाइफ है कि आदमी एक मामूली पेप्सी को तरस जाए। ...सूअर का शिट हैं आप, किसी काम के नहीं।“[viii] ‘अफसाना प्रदूषण का उर्फ हर फिक्र को धुएं में...’ कहानी सांप्रदायिकता और पर्यावरण प्रदूषण की राजनीति से अल्पसख्यकों के अधिकारवाले रोजगार क्षेत्रों से बेदखल करने की कोशिशों का पर्दाफाश करती है। पंकज मित्र की अनेक कहानियों में अल्पसंख्यकों की विवशता और पुलिस-प्रशासन के द्वारा होनेवाले पक्षपातों के कारुणिक संकेत मिलते हैं। दूसरे संग्रह ‘हुड़ुकलुल्लू’[ix] की पहली कहानी ‘आज, कल परसों तक’ निजी समाचार चैनलों की अमानवीय कारगुजारियों को बेनकाब करती है। चौबीस घंटे चलने वाले कॉरपोरेट मीडिया चैनलों के न्यूज़ प्रोड्यूसर, इनपुट एडिटर, एंकर जिस क्रूरता और निर्ममता से खबरों से खेलते हैं, टीआरपी के लिए जैसे हथकंडे अपनाते हैं, अपराधों की रिपोर्टिंग के नाम पर अपराधियों जैसे रंग, रूप, भाषा और अंदाज में खबरों के नाट्यांकन द्वारा सनसनी परोसते हैं वे किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए काफी होते हैं। फसल की बर्बादी के सदमे से जहर खाकर आत्महत्या करनेवाले किसान पिता, शहर की कंपनी में अपनी वाजिब मांगों के लिए संघर्ष कर रहे बेटे के आत्मदाह की घटना को उसकी पत्नी और पिता के कथित अवैध संबंध की चासनी में घोलकर, भाई के साइबर कैफे से सेक्स रैकेट चलाने की मनगढ़ंत कहानी से जोड़कर जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है उससे न तो किसानों का संकट सामने आता है, न मजदूरों की समस्या उभर पाती है ना साइबर कैफे के नाम पर गुमराह होती युवा पीढ़ी की हकीकत सामने आ पाती है। आखिर इस खबर कार्यक्रम की प्रायोजक कंपनी वही है जिसके गेट पर मजदूर बेटे ने जलकर दम तोड़ा है। तो यह है आज का कॉर्पोरेट मीडिया जिसका सत्ता, पूंजी और अपराध की दुनिया से लाभ-लोभ का गठजोड़ भयानक रूप ले चुका है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हुड़ुकलुल्लू’ बिहार से अलग होकर बने नये राज्य झारखंड की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक संसाधनों की लूट, अपराध, भ्रष्ट राजनीति और सांप्रदयिकता की गहरी पड़ताल करती है। कहानी आपातकालोत्तर समय से शुरू होकर भूमंडलोत्तर दौर तक की राजनीति के अधः पतन, लोकतांत्रिक मर्यादाओं के छरण, सांप्रदायिकता और आतंकवाद के संबंधों की विद्रूपता को जिस तरह अनावरित करती चलती है उससे इस दौर के कई वास्तविक किरदार और घटनाएं आँखों के आगे नाचते हुए प्रकट होते चलते हैं। आपातकाल के विरोध और गठबंधन सरकारों से संजीवनी पाकर ताकतवर होते दक्षिण पंथियों, जेपी आंदोलन से निकले सत्तलोलुप, चापलूस और विदूषकी राजनेताओं, भ्रष्ट बेईमान पुलिस-प्रशासन, अपसंस्कृति की गर्त में ऊभते चूभते संस्कृतिकर्मी, पूरी तरह नंगी, वीभत्स एवं हरामजादी हो गई राजनीति, बिना मेहनत किए जल्दी अमीर बनने के मंसूबे पालनेवाले युवा, पत्रकारिता को ब्लैक मेल का जरिया बनाने वाले पत्रकार, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की पीठिका रचनेवाले धर्मगुरु, एनजीओ का धंधा चलानेवाले कथित समाजसेवियों की करतूतों के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में यह कहानी पढ़ी जा सकती है। पंकज मित्र अपनी कहानियों में ऐसे विशिष्ट किरदारों के जीवन की विसंगतियों का मार्मिक निरूपण करते हैं कि प्रशासनिक व्यवस्था, सामाजिक और पारिवारिक विडंबनाएं अपने आप कटघरे में खड़ी होती जाती हैं। इसके लिए वे अलग से कोई प्रयत्न करते नहीं दीखते। यहाँ तक की भाषा में भी वही बेतकल्लुफ़ी, खिलंदड़ापन, नि:संगता और एक तरह की तटस्थता बनी रहती है। अपने पात्रों के प्रति भाषाई करुणा से सहानुभूति बटोरने की जगह लेखक पाठकों को खीझ के उस मुकाम पर लाकर छोड़ देता है जहां नैरेटर भी स्वयं गुनहगार लगने लगता है। भाषा की यह विलक्षणता उन्हें अपने समकालीनों से अलग खड़ा करती है।
पंकज मित्र के तीसरे संग्रह का शीर्षक है ‘जिद्दी रेडियो’[x]। शीर्षक कहानी में इजी लोन की पेनफूल रिकवरी की प्रत्यक्ष चर्चा के बहाने बड़ी प्रतीकात्मकता से रेडियो-टाइपराइटर से टीवी-कंप्यूटर की पीढ़ी की सोच और संवेदना में आए बदलावों को लेखक उभारता चलता है। कचहरी में टंकण के अपने काम के प्रति समर्पित स्वप्नमय बाबू, रेडियो मरम्मत का काम करनेवाले घोष बाबू के जीवन की त्रासदी इस कहानी में अंकित हुई है। स्वप्नमय बाबू की एकरस जिंदगी से झींकती आ रही पत्नी के ख्वाबों के पर तब लगने लगते हैं जब उनका बेटा बैंकों के लोन की रिकवरी करनेवाला एजेंट बन जाता है। बहला-फुसला कर लोन दिलवाने और डरा धमकाकर वसूली करनेवाले इस काम से जब वह कमाई करने लगता है तो स्वप्नमय बाबू के घर में वे चीजें आने लगती हैं जिनकी नई जरूरत बाजार के मायाजाल ने पैदा कर दी है। बेटे की इस प्रगति से स्वप्नमय बाबू आशंकित हैं तो उनकी पत्नी प्रसन्नचित्त। एक दिन स्वप्नमय बाबू का बेटा घोष दादा को रेडियो मरम्मत की दुकान को कंप्युटर सेंटर में बदलने के लिए तैयार कर लेता है। घोष बाबू लोन लेकर कंप्यूटर सेंटर तो खोल लेते हैं पर अपनी रहमदिली और सहयोगी स्वभाव के कारण ईएमआई भरने जितनी कमाई नहीं कर पाते। नतीजतन रिकवरी एजेंटों का तांडव शुरू हो जाता है। कहानी का त्रासद अंत होता है जब दोनों दोस्तों की जीवन लीला एक साथ समाप्त होती है। स्वप्नमय बाबू अपने ही घर में कुढ़ते, गलते ब्रेन हैमरेज के शिकार होते हैं तो रिकवरी एजेंटों के अपमान से आहत हो-हो कर घोष बाबू दिल के दौरे से मारे जाते हैं। संग्रह की दूसरी कहानी भी किसानी में उधार के मायाजाल से बिल बिलाए ‘बिलौती महतो की उधार फिकिर’ का मर्मांतक रूप रचती है। भूमंडलीकरण की शर्तों के तहत विदेशी कंपनियों से बीज खरीदने की बाध्यता और नगदी खेती के प्रलोभन में आकर कंजूसी का कीर्तिमान बनानेवाले बिलौती महतो टमाटर की खेती में पहले तो मुनाफा कमाते हैं पर जल्द ही हकीकत तब सामने आने लगती है जब खेतों में लगे फूल फलने के पहले ही झरने लगते हैं। खेती के नुकसान और कर्ज के बोझ से बिलौती सदमे में चले जाते हैं। इधर बेटा भी पिता की जानकारी के बिना कर्ज लेकर नई मोटर साइकिल खरीदता है और उसी दिन दुर्घटना का शिकार हो जाता है। कहानी में एटीएम मशीन के आकर्षण में बिलौती के फँसने का व्यंजनात्मक विवरण विडंबना की तीक्षणता को उजागर करता है। पंकज मित्र की कहानियों के किरदार या तो बीस-पचीस साल के युवा हैं या पचास पार कर चुके अधेड़। भूमंडलीकरण के दौर की बदली हुई परिस्थितियों में टकराव और तनाव के शिकार इन्हीं दो वय वर्ग के लोग सबसे ज्यादा हो रहे हैं। भूमंडलोत्तर चमक-दमक के आकर्षण में गाँवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है तो शहर भी चाकू के फल की तरह गाँव की हावाओं में घुसते जा रहे हैं। इन दोनों ही स्थितियों में पीढ़ियों से जीवनयापन का साधन रहे खेतों को बचाने की चिंता को कथाकार ने सिद्दत से उठाया है। एक ओर खेती-बाड़ी बेच कर शहर में बसने का स्वप्न देख रहे युवा पीढ़ी के किरदार हैं, तो खेती की जमीन खरीद कर कालोनियाँ बसानेवाले बिल्डरों के झांसे में फंसे युवा पैतृक जमीनें बेचने के लिए अपने पिता-पितामहों से दिन रात कलह कर रहे हैं। ‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’[xi] में संकलित ‘कांझड़ बाबा का थान’ कहानी में अपनी कंजूसी के लिए प्रसिद्ध बाबा अपने बेटे के जमीन बेचने के इरादे को भांप गए हैं। रोज घर आनेवाले नरोत्तम बाबू यूंही नहीं पोते के लिए कैडबरी का डिब्बा लेकर आते हैं, जिसके आगमन पर बहू भी खुशी-खुशी पकौड़े तलती है। सदियों से गुजर बसर का सहारा देती आई जमीन पर खेती करने की सलाह पर बेटे का जवाब देखिए, “आपका समय दूसरा था। खा-पी के किसी तरह जिंदा थे,। अभी हजार तरह का खर्च है। समाज में चलना पड़ता है। हमरा बात तो मानिएगा नहीं... नरोत्तम केतना दिन से समझ रहा है सो नहीं।“[xii] बिल्डर को जमीन बेचने का समझौता और रामदयाल नगर का बोर्ड लग जाने के बाद बूढ़े पिता पगला से जाते हैं। कहानी में स्पष्ट संकेत मिलता है कि खेत बेचनेके रास्ते का कांटा बने बूढ़े पिता को बेटा ही निपटा देता है और दुर्घटना से मृत्यु करार दे दिया जाता है। ‘अधिग्रहण’ कहानी का बूढ़ा पिता जमीन की बढ़ती कीमतों के बीच अपने बेटे के आपराधिक कृत्यों की जासूसी करता है। जमीन की आसमान उठी कीमतों की लालच में अपने मित्र, परिजन तक को रास्ते से हटाने में किसी में कोई गुरेज, अपराधबोध नजर नहीं आता। चौबीस घंटे चलते चैनलों में परोसी जाती रंग-बिरंगी दुनिया का आकर्षण ही ऐसा है कि हर युवा जल्द से जल्द अमीर हो जाना चाहता है। इसके लिए किसी भी तरह के समझौते और कीमत चुकाने की दीवानगी कस्बाई युवकों में भयंकर हाहाकार मचाए हुए है। ऐसे अनेक चरित्र पंकज मित्र की कहानियों में पूरी विद्रूपता के साथ उभर कर आते हैं। ‘जलेबी बाई डॉट कॉम’ कहानी में नौकरानी की नन्हीं बातूनी बालिका मिष्टी असमय बड़ी कर दी जाती है जो आगे चल कर ‘फोन सेक्स टूल’ के रूप बाजार में खप जाती है। “मोटका रोज मोबाईल पर ‘जलेबी बाई डॉट कॉम’ लोग इन करता है क्योंकि उसमें ऐसी गर्मागरम और रसीली बातें होती हैं कि विशु हलवाई की गर्म जलेबी फेल है।... सबसे महत्वपूर्ण बात जो मोटका को लगती है वह है मोबाईल के उस स्वर्ग द्वार से आनेवाली अप्सरा की मादक आवाज जो एकदम मिष्टी की आवाज से मिलती है।“[xiii]
उक्त संग्रह की ‘फ़ेसबुक मेन्स पार्लर’ और ‘मनेकी लबरा नाई की दास्तान’ में एफ एम चैनलों के द्वारा फैलाई जा रही अपसंस्कृति को रेखांकित किया गया है। गाँव कस्बों के युवकों की भाषा पर इनके प्रभावों की चुटीली शिनाख्त से कहानी की पठनीयता में वृद्धि होती है। पंकज मित्र की कहानियाँ प्रकट में किसी इकहरे यथार्थ से बावस्ता भले लगें पर सूक्ष्मता से अनुशीलन करने पर बहु स्तरीय यथार्थ की परतों को उद्घाटित करती चलती हैं। लबरा नाई की दास्तान में कथित स्लीपर सेल के सदस्य के रूप में अमन की गिरफ़्तारी अल्पसंख्यक समुदाय पर सहज अविश्वास की पुलिसिया थियरी को उजागर कर देती है। ‘अच्छा आदमी’ और ‘एक हंसोड़ का हलफ़नामा’ नामक अपने दोनों संग्रहों में पंकज मित्र कहानी की नई जमीन तोड़ते नजर नहीं आते। इन दोनों संग्रहों में उन्होंने अपनी परिचित कथा भूमि का विस्तार किया है। फर्क यह आया है कि पैतृक जमीन पर आँख लगाए लोग बूढ़े बापों को खलनायक से प्रतीत होते थे अब वे ही पत्नी और बच्चों को ‘अच्छा आदमी’ लगते हैं। नाटकों और कुछ हद तक उपन्यासों के रचनाकारों द्वारा उकेरी गई देश और काल की गहरी लकीरें कृति के मूल्य संवर्धन में सहायक होती हैं पर यही बात कहानी जैसे छोटे फलक की रचना की सीमा भी निर्धारित का देती हैं। कालांकन का लोभ कालजयिता के लिए बाधा ही नहीं बनता, अपितु कहानी के पुरानी हो जाने के खतरे का बायस भी होता है। तेजी से बदलते सतही यथार्थ के अंकन की प्रवृत्ति अंततः कहानी की पठनीयता की उम्र कम कर देती है। पंकज की बाद की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे वे अपनी कहानियों को ‘अपडेट’ का रहे हैं।
पंकज मित्र की सबसे बड़ी विशेषता नई कथा भाषा का संधान है। उनकी कथा भाषा परसाई की कथा भाषा का नया विकास है। यह भाषा ऊपर से जितनी अभिधात्मक लगती है अपनी व्यंजना में कहीं ज्यादा व्यंग्यात्मक है। कभी-कभी तो यह काव्य भाषा की बराबरी करती प्रतीत होती है। भूमंडलीकरण ने जो सांस्कृतिक संकट उत्पन्न किया है, उसकी सबसे अधिक शिकार भाषा ही हुई है। सांकृतिक मूल्य ही नहीं बदले है बल्कि भाषा की परंपरित शब्दावली अपने प्राचीन अर्थों को खोती जा रही है। कहानियों को परोसती पंकज मित्र की भाषा जितनी अर्थगर्भित है उनके पात्रों की भाषा उतनी ही खोखली और अर्थहीन। ऐसी मरी हुई भाषा से किसी क्रांति की उम्मीद बेमानी है। समझना कठिन नहीं है कि विभिन्न स्तरों पर पीड़ित-प्रताड़ित होने पर भी परिवर्तन के लिए संघर्ष के तार क्यों नहीं जुड़ पा रहे हैं।
सन्दर्भ:
[i] बच्चे गवाह नहीं हो सकते, पंकज बिष्ट, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1985 पृष्ठ – 9
[ii] क्विज मास्टर और अन्य कहानियाँ, पंकज मित्र, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2011 पृष्ठ – 53
[iii] वही, पृष्ठ – 66
[iv] वही, पृष्ठ – 9
[v] वही, पृष्ठ – 17
[vi] वही, पृष्ठ – 39
[vii] वही, पृष्ठ – 51
[viii] वही, पृष्ठ – 93-94
[ix] हुड़ुकलुल्लू, पंकज मित्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
[x] जिद्दी रेडियो, पंकज मित्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
[xi] वाशिंदा @ तीसरी दुनिया, पंकज मित्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2017
[xii] वही, पृष्ठ – 40
[xiii] वही, पृष्ठ – 50
संजीव कुमार दुबे
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, वडोदरा, गुजरात-391760
sanjeev.dubey@cug.ac.in, 8140241172
एक टिप्पणी भेजें