पुस्तक समीक्षा : प्राचीन भारत की अवधारणा (धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व पर निबंध) / प्रशान्त कुमार, अजीत कुमार राव

प्राचीन भारत की अवधारणा (धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व पर निबंध)
- प्रशान्त कुमार, अजीत कुमार राव


परिचय

प्राचीन भारत की अवधारणा (धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व पर निबंध) एक विचारोत्तेजक और विद्वत्तापूर्ण निबंध-संग्रह है, जिसकी लेखिका प्रतिष्ठित इतिहासकार उपिंदर सिंह हैं। वे भारतीय इतिहास की गंभीर और संतुलित व्याख्या के लिए जानी जाती हैं। यह पुस्तक उनके द्वारा विभिन्न वर्षों में लिखे गए प्रमुख लेखों का संग्रह है, जिनका मुख्य विषय है– धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व। यह केवल एक शैक्षणिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह वर्तमान समय में प्राचीन भारतीय अतीत की प्रस्तुति और उसकी व्याख्या को लेकर चल रहे विवादों और विचारधारात्मक प्रयोगों से एक गहन संवाद भी है।

इन निबंधों के माध्यम से लेखिका यह विश्लेषण करती हैं कि किस प्रकार प्राचीन ग्रंथों, अभिलेखों और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का उपयोग और दुरुपयोग आधुनिक विचारधारात्मक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। वे पाठकों से आग्रह करती हैं कि वे भारत के अतीत को लेकर बनाई गई सरल, आदर्शवादी या एकांगी धारणाओं पर प्रश्न उठाएँ। वे प्राचीन भारत को एक विविधतापूर्ण, गतिशील और विभिन्न दृष्टिकोणों से भरपूर क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जहाँ धर्म, राजनीति और समाज आपस में गहराई से जुड़े हुए थे और निरंतर विकसित हो रहे थे।

यह पुस्तक अनेक प्रमुख ऐतिहासिक पात्रों और विषयों से जुड़ी है जैसे- सम्राट अशोक और उनका धम्म, महाभारत, प्रारम्भिक बौद्ध और जैन परंपराएँ, और इतिहासलेखन में पुरातत्त्व की भूमिका। इसमें न केवल प्राचीन भारतीय इतिहास की बात की गई है, बल्कि इतिहासलेखन की भी चर्चा की गई है- अर्थात् यह इतिहास कैसे लिखा गया, समय के साथ कैसे बदला गया और आज इसे कैसे समझा जाता है। सिंह धर्म और सत्ता के बीच के संबंधों की पड़ताल करते हुए यह दर्शाती हैं कि किस प्रकार धार्मिक भाषा और प्रतीकों का उपयोग राज्य-व्यवस्था में किया गया। वे यह तर्क प्रस्तुत करती हैं कि हमें इतिहास को आधुनिक राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित विवेकपूर्ण सोच के साथ पढ़ना चाहिए।

सारांशतः प्राचीन भारत की अवधारणा केवल निबंधों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह एक जवाबदेह और विवेकपूर्ण इतिहासबोध का घोषणापत्र है। यह विद्यार्थियों, शोधार्थियों और आम पाठकों से यह आग्रह करता है कि वे इतिहास के साथ जटिलता, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और संवाद के माध्यम से जुड़ें न कि उसे केवल राजनीतिक या सांस्कृतिक औजार के रूप में देखें।

पुस्तक की संरचना और प्रमुख विषयवस्तु

खंड एक : धर्म और क्षेत्र- यह खंड धार्मिक स्थलों, अभिलेखों और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों की पड़ताल करता है। उपिंदर सिंह यहां धार्मिकता को केवल एक "राजनैतिक वैधता" के उपकरण के रूप में नहीं देखतीं, बल्कि उसे ऐतिहासिक रूप से गहराई से विश्लेषित करती हैं। इस खंड में विशेष रूप से यह दिखाया गया है कि किस प्रकार धार्मिक केंद्रों का संरक्षक वर्ग समय के साथ बदला और महिलाओं व साधु-संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही।

खंड दो : पुरातत्त्वविद और प्राचीन स्थलों का आधुनिक इतिहास- यह भाग पुरातात्त्विक अध्ययन के इतिहास और उपनिवेशवाद के संदर्भ में पुरास्थलों की खोज, उनके पुनर्निर्माण और पुनर्रचना की प्रक्रिया पर केंद्रित है। यह भाग भारतीय पुरातत्त्व के औपनिवेशिक दौर के उद्भव और विकास की पड़ताल करता है। लेखिका ने 19वीं और 20वीं शताब्दी के आरम्भिक पुरातत्त्वविदों के कार्य और दृष्टिकोण की आलोचनात्मक विवेचना की है।

खंड तीन : राजनीतिक विचारों एवं व्यवहार का संगम- यह खंड प्राचीन भारत में राजनीतिक विचारों और व्यवहारों के जटिल संबंधों को प्रस्तुत करता है। लेखिका राजनीति को केवल सत्ता की नहीं, बल्कि नैतिकता, धर्म और हिंसा के साथ जटिल संबंधों में रखकर देखती हैं। यह अध्याय सम्राट अशोक, नीतिशास्त्र, युद्ध, न्याय और राज्य के वैचारिक पक्षों का गहन विश्लेषण करता है। 

खंड चार : भारत से बाहर एशिया का दृश्यपटल- यह भाग भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संबंधों की पड़ताल करता है। यह भारत केंद्रित दृष्टिकोण की आलोचना करता है और दक्षिण-पूर्व एशियाई जुड़ावों की ऐतिहासिक महत्ता को रेखांकित करता है। यह अंतिम खंड भारत के पारंपरिक इतिहास से परे अंतरराष्ट्रीय संबंध, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और बौद्ध धर्म की वैश्विक उपस्थिति की विवेचना करता है।

पुस्तक की विशेषताएँ :

1. संतुलित ऐतिहासिक दृष्टिकोण- उपिंदर सिंह की यह पुस्तक प्राचीन भारतीय इतिहास को न तो अंध-राष्ट्रवादी चश्मे से देखती है, न ही उपनिवेशवादी पूर्वग्रहों से। वे इतिहास को न तो गौरवशाली मिथकों में ढालती हैं और न ही उसे केवल औपनिवेशिक या पश्चिमी व्याख्याओं तक सीमित करती हैं। उनका दृष्टिकोण एक गंभीर, प्रमाण-आधारित और अकादमिक रूप से सुसंगत अध्ययन को बढ़ावा देता है। वे पाठकों को यह सिखाती हैं कि ऐतिहासिक तथ्यों की विवेचना बिना वैचारिक झुकावों के कैसे की जानी चाहिए। यह संतुलित दृष्टिकोण आज के समय में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जब इतिहास का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए व्यापक रूप से किया जा रहा है। यह विशेषता पुस्तक के पहले भाग में स्पष्ट है, विशेषकर जब अशोक के धम्म को धार्मिक मिशन के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक नैतिकता के एक आधुनिक प्रयोग के रूप में देखा गया है।1 इसके अतिरिक्त अध्याय 11 में राज्य और नीति के नैतिक पहलुओं की विवेचना करते हुए लेखिका किसी वैचारिक पक्षपात से बचती हैं।2

2. अंतरविषयक दृष्टिकोण- यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक ग्रंथों या धर्मग्रंथों की व्याख्या तक सीमित नहीं है। उपिंदर सिंह ने पुस्तक में ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या करने हेतु शिलालेखों, पुरातात्त्विक प्रमाणों, और साहित्यिक ग्रंथों इन तीनों प्रकार के स्रोतों को समान महत्त्व के साथ संयोजन कर विश्लेषण किया है। इससे इतिहास को देखने की एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टि विकसित होती है। उदाहरण के लिए, अशोक के धम्म की चर्चा करते समय वे केवल ग्रंथ नहीं, बल्कि शिलालेखों और वास्तुशिल्पीय साक्ष्यों को भी ध्यान में रखती हैं3, जिससे उनकी व्याख्या ऐतिहासिक रूप से अधिक सटीक और गहराईपूर्ण बनती है। यह दृष्टिकोण पुस्तक को परंपरागत इतिहास-लेखन से अलग करता है।

3. इतिहास के राजनीतिकरण की आलोचना- लेखिका समकालीन राजनीति और धार्मिक विमर्शों में प्राचीन भारतीय इतिहास के दुरुपयोग की खुलकर आलोचना करती हैं। वे यह दर्शाती हैं कि कैसे कुछ विचारधाराएँ इतिहास को अपने उद्देश्यों के अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करती हैं। सिंह का आग्रह है कि इतिहास को राजनीतिक हथियार के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र, समालोचनात्मक और शोध-सिद्ध विषय के रूप में समझा जाए। वे समकालीन भारत में जिस तरह से ऐतिहासिक पात्रों जैसे अशोक, चाणक्य, राम या आर्य संस्कृति को राष्ट्रवादी या सांप्रदायिक उद्देश्यों के लिए पुनः व्याख्यायित किया जाता है, उसकी आलोचना करती हैं। लेखिका दिखाती हैं कि बुद्ध के चित्रण में कैसे विभिन्न विचारधाराओं ने अपनी सुविधानुसार बदलाव किए हैं– उन्हें कभी शांतिवादी, कभी राष्ट्रवादी, और कभी क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत किया गया।4

4. सुलभता- उपिंदर सिंह की लेखन शैली संवादात्मक है– वे प्रश्न पूछती हैं, संदर्भ प्रस्तुत करती हैं और फिर निष्कर्ष निकालती हैं, जिससे पाठक को तार्किक प्रवाह का अनुभव होता है। यह शैली शिक्षकों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों और इतिहास में रुचि रखने वाले आम पाठकों के लिए उपयुक्त बनती है।5

प्रमुख अंतर्दृष्टियाँ – उपिंदर सिंह की दृष्टि में प्राचीन भारत

1. अशोक का धम्म केवल धार्मिक नहीं था: यह नैतिक शासन और सार्वजनिक नीति का साधन था- उपिंदर सिंह के अनुसार, अशोक ने 'धम्म' का प्रयोग किसी विशेष धार्मिक परंपरा को थोपने के लिए नहीं किया, बल्कि एक नैतिक शासन प्रणाली के रूप में किया। उनके धम्म में करुणा, अहिंसा, बड़ों का सम्मान, पशुओं की रक्षा, और सामाजिक समरसता जैसे मूल्य थे। यह एक नैतिक अनुशासन था, न कि धार्मिक आदेश। अध्याय 4 विशेष रूप से सम्राट अशोक के अभिलेखों की भाषाई, वैचारिक और राजनीतिक व्याख्या करता है।6 लेखिका ने रेखांकित किया है कि अभिलेखों में व्यक्त विचारों पर अत्यधिक गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए, जितना कि उन्हें अब तक सामान्यतः दिया गया है। शिलालेखों को केवल प्रशासनिक साधन नहीं, बल्कि बौद्धिक विमर्श के रूप में देखा जाना चाहिए।7

2. प्राचीन भारत में धार्मिक बहुलता- प्राचीन भारत में धार्मिक बहुलता एक जटिल और गतिशील सामाजिक यथार्थ थी। यह बहुलता सदैव सौहार्दपूर्ण नहीं रही, लेखिका दिखाती हैं कि प्राचीन भारत में बौद्ध, जैन, ब्राह्मण, श्रमण, और अन्य धार्मिक परंपराएँ साथ-साथ अस्तित्व में थीं। उनके बीच मतभेद, बहस, और प्रतिस्पर्धा भी थी। यह बहुलता केवल सह-अस्तित्व तक सीमित नहीं थी, बल्कि उसमें संघर्ष और समायोजन की प्रक्रियाएं भी शामिल थीं। "कुषाण मुद्राओं पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रण को पारंपरिक रूप से उनके धार्मिक विविधतावाद के रूप में देखा जाता है... परंतु ऐसी व्याख्या इस गलत धारणा पर आधारित है कि प्राचीन भारतीय पंथ परस्पर विरोधी, परस्पर असहनीय और आक्रामक रूप से प्रतिस्पर्धी धार्मिक संप्रदाय थे..."8 इस उद्धरण में उपिंदर सिंह यह स्पष्ट करती हैं कि प्राचीन भारत में विभिन्न धार्मिक परंपराएँ—जैसे ब्राह्मणीय, बौद्ध, जैन, यक्ष, नाग आदि—सिर्फ विरोधी नहीं थीं, बल्कि वे समायोजन, सह-अस्तित्व और सत्ता की रणनीति के माध्यम से एक साथ उपस्थित थीं। कुषाण शासकों की धार्मिक नीति में यह बहुलता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

3. इतिहास-लेखन को वैचारिक विकृति से मुक्त होना चाहिए– लेखिका हिंदू राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी दोनों दृष्टिकोणों की आलोचना करती हैं जब वे ऐतिहासिक साक्ष्यों से भटकते हैं। उपिंदर सिंह मानती हैं कि इतिहासलेखन का कार्य तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि किसी विशेष विचारधारा की पुष्टि हेतु। वे यह स्पष्ट करती हैं कि चाहे वह हिंदुत्व की अतिराष्ट्रवादी व्याख्या हो या मार्क्सवादी वर्गसंघर्ष आधारित इतिहास, जब वे साक्ष्य के साथ न्याय नहीं करते, तब वे ऐतिहासिक सत्य को विकृत करते हैं। अध्याय 3 में लेखिका ने प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा के ऐतिहासिक अध्ययन और उसकी इतिहासलेखन में भूमिका पर गहराई से चर्चा की है।9 उपिंदर सिंह यह स्वीकार करती हैं कि वर्षों के अध्यापन और शोध के बाद उन्होंने यह महसूस किया कि प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास में व्यापक हिंसा एक उपेक्षित लेकिन महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसे गंभीरता से जांचने की आवश्यकता है।10 

4. क्षेत्रीय पुरातत्त्व का मूल्यांकन कम किया गया है – सिंह दिखाती हैं कि भौतिक अवशेषों से हमें ग्रंथों और परंपराओं की नई व्याख्याएँ मिल सकती हैं। लेखिका बताती हैं कि ऐतिहासिक ग्रंथों की व्याख्या केवल पाठ्य विश्लेषण से नहीं होनी चाहिए, बल्कि पुरातात्त्विक साक्ष्य भी महत्वपूर्ण हैं। स्थल-विशेष की खुदाई, मूर्तिकला, स्थापत्य और शिलालेखों का अध्ययन ग्रंथों की कथाओं को पुष्ट करने या उनके वैकल्पिक अर्थ निकालने में सहायक होता है। अध्याय 5 में 19वीं सदी के भारत में पुरातत्त्वविदों और वास्तुकला विशेषज्ञों जैसे- अलेक्ज़ेंडर कनिंघम, जेम्स फर्ग्यूसन तथा जेम्स बर्गेस के बीच भारतीय कला, स्थापत्य और पुरातत्त्व की व्याख्या को लेकर मतभेद पर चर्चा की गई है। लेखिका फर्ग्यूसन की पुस्तक ‘आर्कियोलोजी इन इंडिया’ की आलोचना करते हुए कहती हैं कि इसमें 19वीं सदी के औपनिवेशिक राजनीतिक प्रभावों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।11 

समालोचनात्मक मूल्यांकन– 

1. शैक्षणिक शैली: हालाँकि पुस्तक की भाषा स्पष्ट और विद्वतापूर्ण है, परंतु अधिकांश निबंध यह पूर्वमान्यता रखते हैं कि पाठक को भारतीय इतिहासलेखन, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, मार्क्सवाद, और प्रमुख ऐतिहासिक स्रोतों की अच्छी जानकारी है। इससे यह पुस्तक उन आम पाठकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है, जो इन विषयों से पहली बार परिचय कर रहे हों। अध्याय 3 में इतिहासलेखन में नैतिक जिम्मेदारी, युद्ध की वैधता, और ऐतिहासिक दृष्टिकोणों की आलोचना जैसे विषयों को पेश किया गया है, जिनकी गहराई को समझने के लिए पहले से वैचारिक पृष्ठभूमि आवश्यक है।12 यदि यह पुस्तक पाठकों के एक व्यापक वर्ग को लक्षित करती, तो प्रारंभिक भूमिका या परिचयात्मक अध्याय में प्रमुख बहसों का सरलीकृत विवरण उपयोगी हो सकता था।

2. विषयों की पुनरावृत्ति : चूँकि इस पुस्तक में शामिल अधिकतर निबंध पहले अलग-अलग अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, उनमें विषयों की कुछ पुनरावृत्ति स्वाभाविक रूप से पाई जाती है। उदाहरण के लिए, अशोक, बुद्ध, और इतिहास के राजनीतिकरण जैसे विषयों पर विभिन्न अध्यायों में बार-बार चर्चा होती है हालांकि हर बार अलग दृष्टिकोण से। जैसे अध्याय 4 एवं 8 दोनों में अशोक और बुद्ध के वैचारिक उपयोग की चर्चा की गई है, जिससे कभी-कभी विषय दोहराव-युक्त प्रतीत हो सकता है।13 यदि लेखिका प्रत्येक निबंध के प्रारंभ में उसकी मौलिकता या भिन्नता को संक्षेप में स्पष्ट कर देतीं, तो पाठक के लिए पुनरावृत्त अंशों से बचना आसान होता।

3. दृश्य सामग्री की सीमितता: यह पुस्तक पुरातात्त्विक स्थलों, स्थापत्य, मूर्तिकला और शिलालेखों पर गहन चर्चा करती है, परंतु इनमें अपेक्षाकृत कम चित्र, मानचित्र, या योजनाएँ दी गई हैं। दृश्य सामग्री, विशेष रूप से जब विषय वास्तुकला या खुदाई स्थलों से जुड़ा हो, न केवल पाठक की समझ को गहरा करती है, बल्कि उसे जिज्ञासु भी बनाती है। अध्याय 6 में अमरावती के महाचैत्य की ऐतिहासिक यात्रा, औपनिवेशिक संग्रहालयों में उसकी विखंडित मूर्तियों का विवरण आदि तो विस्तार से है, परंतु कोई दृश्य योजना या चित्र नहीं दिया गया, जो शैक्षणिक रूप से लाभकारी हो सकता था। 

निष्कर्ष

प्राचीन भारत की अवधारणा (धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व पर निबंध) एक गहन शैक्षणिक शोध पर आधारित विशिष्ट कृति है, जो केवल प्राचीन भारत के इतिहास को प्रस्तुत नहीं करती, बल्कि भारतीय इतिहासलेखन की जटिलताओं और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि को भी उजागर करती है। उपिंदर सिंह इस पुस्तक के माध्यम से यह स्थापित करती हैं कि इतिहास मात्र अतीत का वृत्तांत नहीं है, बल्कि वह वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक विमर्शों को भी गहराई से प्रभावित करता है। इसलिए, प्राचीन भारत का अध्ययन केवल ज्ञान की खोज नहीं, बल्कि एक नैतिक और बौद्धिक जिम्मेदारी है, जहाँ तथ्यों, बहुल दृष्टिकोणों और आलोचनात्मक सोच का होना अनिवार्य है।

पुस्तक उन मुद्दों पर केंद्रित है जो आज भी प्रासंगिक हैं—जैसे इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग, धार्मिक प्रतीकों की पुनर्व्याख्या, और भारतीय इतिहासलेखन की औपनिवेशिक विरासत। यह कृति विशेष रूप से शोधार्थियों, इतिहास के अध्यापकों और समालोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले पाठकों के लिए अनुशंसित है। हालाँकि पुस्तक की शुद्ध अकादमिक भाषा, कुछ विषयों की आंशिक पुनरावृत्ति और दृश्य सामग्री (चित्रों, मानचित्रों) की अनुपस्थिति इसे आम पाठकों के लिए पूरी तरह सुलभ नहीं बनाती है।

अंततः, प्राचीन भारत की अवधारणा एक ऐसी रचना है जो यह दिखाती है कि इतिहास को केवल स्मरण या गौरव के माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि आलोचनात्मक, संतुलित और प्रमाण-आधारित दृष्टिकोण से पढ़ा जाना चाहिए। 

संदर्भ :

  1. सिंह उपिंदर, ए हिस्ट्री ऑफ एन्शिएंट एंड अर्ली मीडिवल इंडिया: फ्रॉम द स्टोन एज टू द 12th सेंचुरी, पियरसन एजुकेशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 351–356
    सिंह उपिंदर, प्राचीन भारत की अवधारणा धर्म, राजनीति, और पुरातत्त्व पर निबंध, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, गुरुग्राम, 2024, पृष्ठ 375408
    वही, अध्याय 4, पृष्ठ 106-123
    वही, अध्याय 8 पृष्ठ 236-280
    वही, अध्याय 5, पृष्ठ 129-146
    वही, अध्याय 4, पृष्ठ 106-123
    वही, अध्याय 9, पृष्ठ 292
    वही, अध्याय 3, पृष्ठ 101
    वही
    वही, भूमिका, पृष्ठ xxxi
    वही, अध्याय 5, पृष्ठ 129-146; अध्याय 6, पृष्ठ: 153–193
    वही, पृष्ठ: लगभग 70-90
    अध्याय 4 एवं 8


प्रशान्त कुमार एवं अजीत कुमार राव

सहायक आचार्य, इतिहास विभाग, हर्ष विद्या मन्दिर (पी.जी.) कॉलेज, रायसी, हरिद्वार, उत्तराखण्ड

prashantkumar.hvmpg@gmail.com


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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