शोध आलेख : दूरस्थ दाम्पत्य : अस्मिता और आत्मसंघर्ष की कहानियाँ / निकिता जैन

दूरस्थ दाम्पत्य : अस्मिता और आत्मसंघर्ष की कहानियाँ
- निकिता जैन

शोध सार : इक्कीसवीं सदी की हिंदी कहानी लेखन ने विषयवस्तु, दृष्टिकोण और शिल्प के स्तर पर उल्लेखनीय परिवर्तन किया है। समकालीन कहानीकारों ने पारंपरिक संबंधों की संरचना को नई दृष्टि से देखा है, जहाँ आत्मसंघर्ष, अस्मिता और मानसिक द्वंद्व प्रमुख स्वर बनकर उभरे हैं। ममता कालिया का कहानी संग्रहदूरस्थ दाम्पत्यइस समकालीन कथा प्रवृत्ति का सशक्त उदाहरण है। इस संग्रह की कहानियाँ आधुनिक दांपत्य जीवन की जटिलताओं, भावनात्मक दूरियों और सामाजिक-आर्थिक दबावों को मार्मिकता से उद्घाटित करती हैं। लेखिका ने प्रेम, दायित्व और संबंधों के बदलते स्वरूप को मध्यवर्गीय पात्रों की दिनचर्या और आंतरिक द्वंद्व के माध्यम से चित्रित किया है।दूरस्थ दाम्पत्यमें केवल पति-पत्नी ही नहीं, वरन् माँ-पुत्र, मित्रों और सहकर्मियों के बीच की मनोवैज्ञानिक दूरी को भी उजागर किया गया है। संग्रह की कुछ कहानियाँ पूंजीवादी शोषण, राजनीतिक दोहरापन और संवेदना के ह्रास पर भी तीखा व्यंग्य करती हैं। यह संग्रह समकालीन कहानी लेखन की उन प्रवृत्तियों को पुष्ट करता है, जहाँ मनुष्य की भीतरी गूंज ही कथ्य का केन्द्रीय तत्त्व बन जाती है।

बीज शब्द : दाम्पत्य, दूरस्थ, अभिशप्त, संवेदना, दरार, जीवन, परिस्थिति, मनोस्थिति, मनोविज्ञान, गति।

मूल आलेख : 21वीं सदी की हिंदी कहानी अपने कथ्य, संवेदना और शिल्प तीनों स्तरों पर एक नए आत्मबोध की जमीन तैयार कर रही है। अब कहानीकार तो केवल स्त्री की पीड़ा को रेखांकित करने तक सीमित हैं, और ही पुरुष को मात्र सत्ता का प्रतीक मानकर खारिज करने के आग्रह में बंधे हैं। 21वीं का कहानी लेखन अब संबंधों की उन दरारों, उलझनों और अव्यक्त आकांक्षाओं को खोज रहा है, जो तो स्त्री की हैं, पुरुष की,बल्कि मनुष्य की साझा नियति से उपजती हैं।

        आज के कहानीकार - दाम्पत्य, पारिवारिक संरचना, आत्मचेतना, और सामाजिक अंतर्विरोधों को एक नए सौंदर्यशास्त्र और यथार्थबोध के साथ चित्रित कर रहे हैं। इन रचनाकारों की कहानी केवल घटनाओं का संकलन नहीं, बल्कि जीवन की उस भीतरी खामोशी की अभिव्यक्ति है, जहाँ प्रेम और अकेलापन, सामीप्य और दूरी, संवाद और चुप्पी साथ-साथ उपस्थित रहते हैं।

            ममता कालिया का नवीनतम कहानी-संग्रहदूरस्थ दाम्पत्य समकालीन कथा-धारा की इसी प्रवृत्ति को सघन रूप में प्रस्तुत करता है। यह संग्रह तो केवल स्त्री की कथा है, और ही पुरुष के विरुद्ध प्रतिरोध, बल्कि यह उन संबंधों की कथा है जो नज़दीक होकर भी दूर हैं, जो साथ रहते हुए भी संवादहीन हैं। इन कहानियों में दाम्पत्य केवल एक सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि एक मानसिक और भावनात्मक भूगोल के रूप में उभरता है, जहाँ प्रेम, अधिकार, अविश्वास, आत्मपीड़न, समझौतों और आकांक्षाओं के अनेक स्तरों को गहराई से उकेरा गया है। ममता कालिया का कहानी संग्रहदूरस्थ दाम्पत्यसमकालीन मनुष्य की उस भीतरी हलचल का दस्तावेज़ है, जिसे आधुनिक जीवन की आपाधापी, उपभोक्तावादी मानसिकता और भावनात्मक दूरी ने जड़वत बना दिया है। संग्रह में संकलित 11 कहानियाँ अपने विषय, संवेदना और दृष्टिकोण में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक साझा प्रश्न की ओर संकेत करती हैं- क्या हम वास्तव में एक दूसरे के लिए जीवित हैं या केवल ज़रूरत के लिए साथ जी रहे हैं? ये कहानियाँ स्त्री या पुरुष को लक्ष्य कर किसी एक पक्ष पर केंद्रित नहीं हैं, बल्कि उन बारीक स्थितियों की पड़ताल करती हैं, जहाँ रिश्तों की ऊपरी सतह पर सब कुछ सामान्य दिखता है, पर भीतर एक गहरी दरार फैल चुकी होती है। संग्रह की प्रथम कहानी - ‘दूरस्थ दाम्पत्यतथा अन्य कहानियों - ‘हीरो की हैरानी’, ‘आधी हकीकत’, ‘अभिशप्त दाम्पत्यमें लेखिका ने पति-पत्नी के बीच की अनकही दूरी, पीढ़ियों के तनाव, और दाम्पत्य जीवन में पनपती अपरिचय की चुप्पी को अत्यंत सहजता से उकेरा है। ये कहानियाँ किसी चरित्र को दोष नहीं देतीं, ही घटनाओं को नैतिकता की कसौटी पर तौलती हैं; बल्कि वे उन मनोस्थितियों को सामने लाती हैं, जहाँ परिस्थितियाँ, अहंकार और आधुनिकता का दबाव रिश्तों के तराज़ू में भावनात्मक संवेदना को तौलते रहते हैं। एक ही छत के नीचे रहते हुए दो व्यक्तियों के बीच उपजे सन्नाटे, संवादहीनता और अविश्वास की झलक इन कहानियों में बार-बार आती है। कहीं माँ अपने ही बच्चे को पिता से दूर करने को आतुर दिखती है, तो कहीं पत्नी, परिवार के नाम पर बनाए गए संबंधों को तोड़ने में स्वयं को सहज पाती है। लेखिका का कौशल इस बात में है कि उन्होंने इन जटिल मानसिक स्थितियों को किसी दायित्व बोध या भावुक आग्रह के बिना प्रस्तुत किया है। उनका यह संग्रह मानवीय संबंधों के छीजते ताप, घटती संवेदना और आत्मकेंद्रित जीवन की त्रासदी को पहचानने और पहचाने जाने की एक ईमानदार कोशिश हैजहाँ हर कहानी के बाद पाठक के भीतर एक मौन प्रश्न उभरता है: क्या संबंध का अर्थ केवल नाम के लिए साथ रहना भर है या उसमें एक-दूसरे की संवेदनाओं का भी कोई स्थान होता है? कहानी "दूरस्थ दाम्पत्य" में अनिल शेखर एक संवेदनशील, विचारशील और भावनाओं में रचने-बसने वाला लेखक है, जो अपनी कल्पना और लेखनी से हज़ारों पाठकों के मन को छू चुका है। परंतु अपनी ही वैवाहिक ज़िंदगी की उलझनों में वह पूरी तरह असहाय और दिशाहीन प्रतीत होता है। अनुराधा, उसकी नवविवाहिता पत्नी, उसके समस्त भावनात्मक प्रयासों के प्रति जैसे एक अदृश्य दीवार खड़ी कर देती है, जिससे अनिल बार-बार टकराता है। इसी अनुभव से गुजरते हुए वह एक बिंदु पर आकर भीतर से हतप्रभ हो उठता है — "क्या तयशुदा रिश्ते ऐसे ही चलते हैं - अनिल सोचता। विचार या आवेगगत किसी भी चर्चा में अनुराधा की दिलचस्पी नहीं थी।"1 यही वह क्षण है जहाँ दो भिन्न मनोभूमियाँ एक छत के नीचे समानांतर रूप से जीती हैं, पर कभी एक नहीं हो पातीं। अनिल, जो जीवन को संवेदना के दृष्टिकोण से देखता है, यह उम्मीद करता है कि अनुराधा भी उसके भावनात्मक तापमान को समझे, उसके प्रेम को आत्मीयता के स्तर पर महसूस करे। किंतु अनुराधा, एक केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाने वाली शिक्षिका, आरंभ से ही व्यावहारिक सोच की प्रतिनिधि रही है। उसके लिए जीवन में भावनाओं की अधिकता कमजोरी का पर्याय है, चाहे वह पति हो या परिवार। वह रिश्तों को उत्तरदायित्व की तरह निभाती है, लेकिन उसमें मन का आवेग, आत्मीयता की आकुलता या साझी अनुभूति का ताप दिखाई नहीं देता यही अंतर धीरे-धीरे उन दोनों के बीच ऐसा मानसिक और भावनात्मक अंतराल खड़ा कर देता है, जो उन्हें पास होते हुए भी अजनबी बना देता है। यह दाम्पत्य, जिसमें कोई बड़ा संघर्ष नहीं, कोई स्पष्ट दोष नहीं, फिर भी एक अकथनीय दूरी है। दरअसल ऐसा दाम्पत्य उसी आधुनिक जीवन का रूपक बन जाता है, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ तो रहते हैं, पर एक-दूसरे के भीतर नहीं। यही वहदूरस्थताहै जो इस कहानी के शीर्षक और कथ्य दोनों में गहराई से व्याप्त है - फिर यही रहेगा हमारा दूरस्थ दाम्पत्य। तुम मेरी विजिटिंग वाइफ बनी रहोगी, लेकिन मैं तुम्हारा विज़िटिंग हसबैण्ड कतई नहीं।यह वाक्य केवल एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी नहीं, बल्कि उस टूटते विश्वास और उन भावों का संकेत है, जो तयशुदा रिश्ते के भीतर संवादहीनता और संवेदनहीनता से जन्म लेता है। अनिल की कल्पनाशीलता और अनुराधा की व्यावहारिकता जब टकराती है, तो वहाँ प्रेम की जगह ज़िद, और साथ की जगह औपचारिकता जाती है।


            ममता कालिया की कहानियाँ रिश्तों को संदेह या अविश्वास की नजर से नहीं, बल्कि उनके भीतर कार्य कर रही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से देखती हैं।दूरस्थ दाम्पत्यजैसी कहानी यह संकेत करती है कि संबंधों की टूटन अक्सर बाहरी कारणों से नहीं, बल्कि उन आंतरिक गतियों से होती है, जिन्हें हम समझने का समय ही नहीं निकालते। इस कहानी में लेखिका किसी एक पात्र को कटघरे में खड़ा नहीं करतीं, बल्कि उन परिस्थितियों को सामने लाती हैं, जो आधुनिक जीवन में आत्मीयता को गूँगा और साहचर्य को बोझ बना देती हैं। इसी क्रम मेंआधी हकीकतकहानी अलग स्वर में बात करती है - यहाँ कोई बंधा-बंधाया विवाह नहीं, बल्कि एक स्वेच्छा से चुना गया संबंध है। फिर भी कहानी के नायक समीर और नायिका दीप्ति की दुनिया में एक अलगाव हमेशा दरवाज़े पर दस्तक देता रहता है, क्योंकि महानगरीय जीवन की गति, आकांक्षाओं की दौड़ और भौतिक ज़रूरतों की अनवरत पूर्ति ने आपसी संवाद और समझ के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ा है। इस कहानी में स्पष्ट है कि आधुनिक संबंधों की त्रासदी केवल बाहरी हस्तक्षेप या पारिवारिक दबाव से नहीं उपजती, बल्कि जब दो व्यक्ति अपने वर्तमान को तिरस्कृत कर किसी आदर्श भविष्य की तलाश में जीने लगते हैं, तब संबंध धीरे-धीरे अर्थहीन होने लगते हैं- तुम इतनी क्रूर कैसे हो गई दीप्ति। हम हज़ार मील दूर से बात करते हुए ज़्यादा पास रहते हैं। जब से यहाँ मिले हैं, लड़ रहे हैं।3 समकालीन समय केवल तकनीकी गति और शहरी व्यस्तताओं का समय नहीं है, यह एक ऐसा दौर भी है जहाँ मनुष्य समय के अभाव में अपनों से सम्पर्क खो बैठा है। वह साथ रहकर भी मानसिक रूप से अलग होता जा रहा हैउसे पास रहने का सुख चाहिए, पर भविष्य को साधने की दौड़ में वह वर्तमान को दरकिनार कर देता है।आधी हकीकतमें समीर और दीप्ति का संबंध पारंपरिक विवाह की देन नहीं, बल्कि उनके परस्पर चयन का परिणाम है, फिर भी उनके बीच संदेह की रेखा खिंच जाती है। महानगरों में जी रहे इन युवाओं के रिश्ते आधुनिक दिखते हैं, पर वे भी उन्हीं पुरानी उलझनों से ग्रस्त हैं जहाँ प्रेम और भरोसे के बीच दीवारें खड़ी हो जाती हैं। दीप्ति समीर के कार्य, विशेषकर उसकी हम उम्र छात्राओं से जुड़ी दिनचर्या को निजी जीवन के परिदृश्य से जोड़कर देखने लगती है। उसके मन में उपजा संशय इस बात का सूचक है कि आज का शिक्षित और स्वतंत्र सोचने वाला व्यक्ति भी जब भावनात्मक असुरक्षा का शिकार होता है, तो उसके सारे निर्णय, चाहे वे प्रेम में लिए गए हों या विवेक से, एक झटके में अस्थिर हो सकते हैं। समीर अपने जीवन की व्यावसायिक विवशताओं और व्यक्तिगत निष्ठाओं को स्पष्ट करना चाहता है, किन्तु जब रिश्तों में पारदर्शिता की जगह पूर्वाग्रह ले लेता है, तो कोई तर्क टिकता नहीं। यह कहानी बार-बार यह प्रश्न उठाती है कि क्या प्रेम केवल आकर्षण और संग-साथ तक सीमित है? क्या विश्वास उसकी अनिवार्य शर्त नहीं है? और अगर दो लोग जिन्होंने एक-दूसरे को समझकर चुना है, वे भी एक-दूसरे को संदेह से देखने लगें, तो यह रिश्तों की आधी हकीकत नहीं, बल्कि हमारे समय की एक बड़ी विडंबना बन जाती है या बन सकती है। हालाँकि संबंधों की उलझनों से भरी इस कथा के अंत में लेखिका, रिश्तों को टूटने नहीं देतीं, बल्कि एक शांत, आत्मीय क्षण के माध्यम से उन्हें नया आसरा देती हैं — "कुछ देर पहले झगड़ रहे उन दीवानों के पास अभी लड़ने के लिए कोई ठिकाना था कोई सायबान। सिनेमा हॉल ही एकमात्र जगह थी जहाँ थोड़ी-थोड़ी पर कोई कोई जोड़ा कबूतरों की शक्ल में दुबका बैठा था……………….सीट पर बैठते हुए समीर ने चुपके से दीप्ति के कान की लौ चूम ली।"4 यह क्षण केवल कथा की गहराई को एक सुखद विराम देता है, बल्कि यह भी संकेत करता है कि प्रेम, जब भीतर सच में बसा हो, तो वह तकरार के धुंधलके को भी पार कर आत्मीयता की लौ में लौट आता हैधीमे से, पर अनिवार्य रूप से। 


            लेकिन आत्मीयता की अनिवार्यता हर रिश्ते में परिलक्षित हो ही ऐसा भी ज़रूरी नहीं। ऐसी ही एक कहानी "हीरो की हैरानी" आधुनिक महत्वाकांक्षा और दाम्पत्य जीवन के द्वंद्व को उजागर करती है, जहाँ प्रेम, सफलता और असुरक्षा की त्रिकोणीय टकराहट दिखाई देती है। कहानी का नायक सुमित संघर्षशील अभिनेता है, जो अंततः फिल्मी दुनिया में अपनी पहचान बना लेता है, वहीं बानी रंगमंच की स्थापित अभिनेत्री है। दोनों का प्रेम विवाह, समय के साथ संबंधों की उस उलझन में बदल जाता है, जहाँ विश्वास की जगह संशय और संवाद की जगह टकराव ले लेता है। बानी, सुमित की व्यावसायिक व्यस्तता और फिल्मी अभिनेत्रियों से नज़दीकी को लेकर खिन्न रहने लगती है, जबकि सुमित बानी के प्रेम को स्वीकार करता है, पर उसकी निरंतर टोका-टाकी से आहत भी होता है। यह कहानी समकालीन दाम्पत्य में उस असंतुलन को उजागर करती है, जो व्यक्ति की पेशेवर आकांक्षाओं और निजी जीवन की अपेक्षाओं के बीच पैदा होता है। हालाँकि कथा की शुरुआत एक युवा के फिल्मी संघर्ष से होती है, परंतु इसका अंत एक टूटते, उपेक्षित दाम्पत्य के चित्र के साथ होता है। लेखिका ने कथा को कई स्तरों पर विस्तार देने की कोशिश की है, जिससे कुछ स्थलों पर इसका फोकस बिखरता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन इसके बावजूद लेखिका तिरस्कृत दाम्पत्य जीवन की विडंबना को अत्यंत सधे हुए ढंग से उद्घाटित करती हैं, जहाँ प्रेम की उपस्थिति के बावजूद दो जीवनदृष्टियाँ एक साझा क्षितिज पर नहीं ठहर पातीं - “यह एक दिन नहीं, रोज़ की कहानी बन गयी थी कि शूटिंग के बाद जब सुमित शारीरिक और भावनात्मक रूप से थका-हारा घर आता, बानी एक चौकस पहरेदार की तरह उसके हावभाव का जायज़ा लेती और ताने मारने से बाज़ आती।…………वह बानी को साथी कलाकार मानकर उसकी तरफ सराहना की उम्मीद से देखता।……….बानी तीन त्योरियां डालकर कहती।शूटिंग सात बजे खत्म हुई। तुम बारह बजे घर रहे हो। इन पांच घंटों में कहाँ रमण हो रहा था, बोलो।सुमित आहत आँखों से अपनी गुस्सैल प्रिया को देखकर एकदम बुझ जाता।5  इसी तारत्मय में संग्रह की एक अन्य कहानीअभिशप्त दाम्पत्यभी आधुनिक दाम्पत्य संबंधों की विडंबनात्मक परिणतियों को उजागर करती है, किंतु यह कहानी प्रेम और अपेक्षा के उस छोर पर खड़ी दिखाई देती है, जहाँ भावनात्मक लगाव सामाजिक स्वीकृति को चुनौती देकर जिस बंधन में परिणत होता है, वही बंधन कुछ ही समय में एक शाप-सा प्रतीत होने लगता है। सहदेव और पुनीताजीवन की भिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से होकर आए दो व्यक्तित्व, प्रेम के सेतु पर मिलते हैं, जहाँ आयु और सामाजिक भूमिका का अंतर उनके विचार-साम्य में बाधक नहीं बनता। सहदेव एक उभरता हुआ संवेदनशील लेखक है, जबकि पुनीता उसकी प्रशंसक और एक कॉलेज की प्राचार्या। उनकी निकटता, परस्पर सम्मान और आकर्षण के आलंबन पर विवाह तक पहुँचती है। किंतु जिस क्षण यह वैयक्तिक निर्णय सामाजिक दायित्व में रूपांतरित होता है, उसी क्षण से एक गूढ़ द्वंद्व जन्म लेता है। विवाहोपरांत पुनीता का व्यवहार, जो आरंभ में सहृदयता और परिपक्वता का आभास देता है, अचानक एक नियंत्रक और कठोर आधिपत्य में बदल जाता है। सहदेव की माँ, जिनसे उसके जीवन की भावनात्मक जड़ें जुड़ी हैं, उसी घर में उपेक्षित और असहज हो जाती हैं। लेखिका इस संबंध की त्रासदी को अत्यंत मार्मिकता से चित्रित करती हैं — "पुनीता के कड़वे और कड़क व्यवहार के कारण घर में बेफिक्र बैठना मुहाल हो गया। सहदेव तो शाम को कॉफी हाउस में वक़्त बिता आता, चाई जी तनावग्रस्त रहतीं। ज़्यादा दिन उनसे बरदाश्त नहीं हुआ और उन्होंने कहा, 'काका मुझे तो नोकदार वापस छड दे। ऐत्थे मेरा दिल नईं लगदा।' "6 इस उद्धरण में पुनीता की उपस्थिति केवल एक पत्नी की नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक इकाई की तरह प्रतीत होती है, जो घर को गृहराज्य की जगह अनुशासनात्मक संस्था बना देती है। सहदेव, जिसने एक आत्मीय साथी की आशा में सामाजिक परंपराओं को लाँघा था, वह अब स्वयं अपनी रचनात्मकता और पारिवारिक जीवन से विलगाव की पीड़ा झेलता है। यह कहानी आधुनिक रिश्तों की उस विडंबना को दर्शाती है, जहाँ प्रेम से उपजा संबंध, अगर समानता और संवेदना के धरातल पर टिका हो, तो वह बंधन नहीं, बंधन की पीड़ा बनकर उभरता है। इस कथा की करुणा तब और तीव्र हो उठती है जब प्रेम की परिणति रूप में जन्म लेने वाला शिशु भी दाम्पत्य के द्वंद्व का हिस्सा बन जाता है। यह विडंबना और भी विषादपूर्ण तब बन जाती है जब पुनीता, सहदेव को उस संबंध से भी वंचित करना चाहती है जो जैविक रूप से उसका ही अंश है, किंतु भावनात्मक रूप से भी वह उससे जुड़ाव बनाए रखना चाहता है। सहदेव, जो दिल्ली में कार्यरत है, एक भावुक पति और पिता के रूप में फिर से आशा का दीप लेकर लौटता हैइस विश्वास के साथ कि शायद समय बीतने के साथ पुनीता का व्यवहार परिवर्तित हुआ हो। किंतु लेखिका इस भ्रम का भी ह्रास अत्यंत कठोर यथार्थ के माध्यम से करती हैं। जब सहदेव अपने शिशु को देखने पहुँचा, तो पुनीता का रुख पूर्ववत ही रहा, स्वामित्व की भावना से पूर्ण और अधिकार के दंभ से ओतप्रोत। यहाँ मातृत्व एक कोमल अनुभूति नहीं, बल्कि सत्ता के प्रदर्शन का माध्यम बन जाता है। लेखिका इस अंतर्विरोध को इस प्रकार उकेरती हैं — "पुनीता ने चीनू को पकड़ा और बोली, 'तुम चिंता करो। आफ्टर ऑल ही इज़ माय प्रॉपर्टी।'......... उनका ऑटो चल दिया स्टेशन की दिशा में। चाई जी तनावग्रस्त चुप्पी ओढ़े थीं। सहदेव के कानों में एक ही जुमला हथौड़े की तरह चोट कर रहा था, 'ही इज़ माय प्रॉपर्टी!' "7 यह पंक्तियाँ आधुनिक दाम्पत्य में स्वत्व की विकृत समझ को उजागर करती हैं, जहाँ संबंध सामूहिक उत्तरदायित्व की बजाय एकल अधिपत्य का साधन बन जाते हैं। सहदेव के लिए यह क्षण प्रेम, पितृत्व और दाम्पत्य, तीनों की असफलता का साक्षात्कार है। अब उसके हिस्से केवल स्मृतियाँ हैं, और वह जीवन जिसे वह स्वेच्छा से चुनकर भी आज निर्वासन की तरह जीने को अभिशप्त है। 


            ममता कालिया अपने इस कहानी संग्रह में जहाँ एक ओर आधुनिक शहरी जीवन के उन युवाओं के दांपत्य और प्रेम संबंधों को चित्रित करती हैं, जो आपसी संवेदना के क्षरण और आत्मकेंद्रित अस्तित्व के कारण धीरे-धीरे संबंधों को बोझ की तरह ढोने को विवश हैं, वहीं दूसरी ओर वे एक ऐसी कहानी भी पाठकों के समक्ष लाती हैं जो इन विडंबनाओं को तोड़ती हुई आश्वस्ति का स्वर रचती है।भाग लता भागशीर्षक कहानी में एक 60 वर्षीय साधारण  लताबाई, अपने रोगग्रस्त पति भगवान करे की चिकित्सा हेतु एकदौड़ प्रतियोगितामें भाग लेती है और उसे जीतती है। यह कहानी उस पीढ़ी के समर्पण, निष्ठा और प्रेम की जीवंत मिसाल बन जाती है जिसे आज की शिक्षित और तथाकथित प्रगतिशील पीढ़ी अक्सर पिछड़ा और भावुक समझकर उपेक्षित कर देती है। समाज और परिवार, सभी उसे शंका की दृष्टि से देखते हैं"कृशकाय अधेड़ औरत पहले सौ गज में ही गिर जाएगी"8लेकिन लता बाई का विश्वास अपने ईश्वर, अपने प्रेम और अपने दांपत्य धर्म पर अडिग है। वह दौड़ती है, और जीतती है। भले ही जीते हुए पैसों से वह अपने पति को नहीं बचा पाती, लेकिन यह आत्मसंतोष उसे जीवन भर के लिए मिलता है कि—"उसकी बायको (पत्नी) को यह संतोष है कि तकलीफ के समय उसने आखिरी दिन तक नवरे (पतिकी सेवा की।"9 यही वह दाम्पत्य है जो समर्पण की नींव पर खड़ा है, जिसमें प्रेम प्रदर्शन नहीं, सेवा बनकर प्रकट होता है। यह कथा आधुनिक संबंधों पर एक मौन किंतु गहन प्रतिवाद की तरह खड़ी होती है, जहाँ संबंधों में सुविधा, स्वामित्व और स्वार्थ की अपेक्षा ने मानवीय गरिमा को पीछे छोड़ दिया है। वहीं 60 वर्ष की लता बाई उस रेस को जीत लेती है, जो आज की शिक्षित, आत्मनिर्भर, और आधुनिक स्त्रियाँ - बानी, पुनीता, अनुराधाअपने दांपत्य में नहीं जीत पातीं। ममता कालिया की यह कथा केवल संवेदना की पुनर्प्रतिष्ठा है, बल्कि यह भी इंगित करती है कि दांपत्य केवल प्रेम नहीं, वह एक दीर्घकालिक उत्तरदायित्व है, जिसे निभाने के लिए आत्मत्याग, धैर्य और सह-अस्तित्व की आकांक्षा चाहिए।


            ममता कालिया द्वारा प्रस्तुतदूरस्थ दाम्पत्यसंग्रह की अधिकतर कहानियाँ जहाँ प्रेम, दांपत्य और पारिवारिक संबंधों की जटिलता को टटोलती हैं, वहीं कुछ कथाएँ सामाजिक संरचना की अमानवीय परतों को उघाड़ती हैं और यह सोचने को विवश करती हैं कि क्या हम अब भी संवेदना से सम्पन्नमनुष्यकहलाने योग्य हैं? ‘पिज़्ज़ाकहानी ऐसी ही कथा है जो उपभोक्तावादी संस्कृति के सबसे निचले पायदान पर खड़े उन युवाओं की संघर्षपूर्ण दिनचर्या को सामने लाती है, जिन्हें हमडिलीवरी बॉयकहकर पुकारते हैं और जिनकी उपस्थिति हमारे लिए केवल एक सेवा भर बनकर रह गई है। परंतु इस सेवा के पीछे छिपी उनकी कठोर दिनचर्या, असुरक्षित श्रम और अमानवीय शोषण की वास्तविकता अक्सर हमारे सामाजिक बोध से बाहर ही रहती है। लेखिका इस स्थिति को कुछ यूँ बयां करती  हैं"लड़के दौड़ते रहते हैं, सर्दी, गर्मी, बारिश, हर मौसम में। उन्हें हफ्ते बाद तनख्वाह बाँटी जाती है। सब कुरियर बॉयज़ अस्थायी कर्मचारी हैं। इनकी कोई यूनियन नहीं है, इनके नाम कोई रजिस्टर भी दर्ज नहीं है। कोई 200 रूपये रोज़ पर तो कोई 300 रूपये रोज़ पर दौड़ता रहता है, घोड़े की तरह, कभी साइकिल पर तो कभी स्कूटी पर।"10 यह दृश्य केवल एक सामाजिक टिप्पणी है बल्कि उन युवाओं की अस्मिता का सवाल भी है जो जीवन यापन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए अपने शरीर और समय की सीमाओं से जूझते रहते हैं। पीकू भी उन्हीं में से एक था, एक निम्नवर्गीय युवा जिसकी दुनिया केवल समय पर डिलीवरी कर देने की बाध्यता में सिमटी हुई थी। वह भी मात्र छः महीने पहले एक पिज़्ज़ा आउटलेट में डिलीवरी बॉय के रूप में नियुक्त हुआ था, परंतु एक दिन समय की कट्टर माँग को पूरा करने की कोशिश में वह दुर्घटना का शिकार हो गया। कहानी का सबसे विडंबनापूर्ण क्षण वह है जब उसका नियोक्ता किसी प्रकार की सहायता देने के बजाय उसे बेरहमी से नौकरी से निकाल देता है"पीकू ने कोहनी के बल उठकर लिफाफे का पिन खोला। उसमें छोटा सा रुक्का था, 'अब तुम्हारी सेवाओं की ज़रूरत नहीं है। बीस दिन का हिसाब भेजा जा रहा है जिसमें से आज हुए नुकसान के रु. 850 काट लिए गए हैं।"11 यह केवल कुछ पंक्तियाँ नहीं, बल्कि हमारे समय की वह अमानवीय प्रवृत्ति है, जिसमें श्रमिक का मूल्य केवल उसकी उपयोगिता तक सीमित रह गया है।पिज़्ज़ाकहानी हमारे समय की सामाजिक चेतना को झकझोरती है और मनुष्यता की उस ज़मीन की खोज करती है, जिसे हमने अपनी सुविधा की बर्फ़ के नीचे दफ़न कर दिया है।


            ममता कालिया की कहानियों का वैशिष्ट्य केवल दांपत्य या प्रेम की जटिलताओं तक सीमित नहीं है, वे समय के राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल को भी उतनी ही तीव्रता से उकेरती हैं।महमूद बनाम मोहनऐसी ही एक व्यंग्यात्मक कथा है, जो राजनीति की अवसरवादी प्रवृत्तियों और वैचारिक विचलनों को आइने की तरह सामने लाती है। इस कहानी के केन्द्रीय पात्र महमूद भाई इलाहाबादी, एक समय इंदिरा पार्टी के निष्ठावान सेवक तथा धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर माने जाते थे। वे हर उस आवाज़ को चुनौती देते थे, जो धार्मिक विद्वेष को हवा देने का प्रयास करती" 'बकवास मत करो', महमूद भाई ने उन्हें डपट दिया, 'जो आदमी हर घर से एक-एक रुपल्ली इकठ्ठा कर इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी बनवा ले, उसकी शान के खिलाफ बोलना गुनाह है। उसने बनारस को तालीम की तरजीह दी वरना वहां था क्या।' "12 महमूद भाई केवल राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध थे, बल्कि एक व्यापक सामाजिक चेतना के वाहक भी थे। परंतु समय की धारा जैसे ही बदली, सत्ता के समीकरण पलटे और इंदिरा युग का अंत हुआ, महमूद भाई की विचारधारा भी धीरे-धीरे ओझल होती गई। एक दशक बाद जब वे पुनः राजनीतिक परिदृश्य पर दिखाई देते हैं, तो पहचान तक बदल चुकी होती हैवे अबमहमूदनहीं, ‘मोहन भाईबन चुके थे। अपने इस वैचारिक रूपांतरण को वे कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं" ‘इधर लोग हमें मोहन भाई के नाम से पहचानते हैं। अब मुल्क की खिदमत में नाम बदल जाए तो कोई परवाह नहीं। बेटियों के नाम भी लक्ष्मी और कृष्णा कर दिये हैं.......... ले - देकर हम माइनॉरिटी कमीशन के मेंबर थे। वहां से भी हटा दिया गया। आखिर हाड़-मांस का बंदा कितना बरदाश्त करेगा! हमने चोला बदल लिया।’ "13 यहाँ स्पष्ट संकेत है कि यहचोलाराष्ट्रसेवा के लिए नहीं, बल्कि सत्तासेवा और स्वार्थ-साधना के लिए बदला गया। वफ़ादारी सिद्धांतों के प्रति नहीं, केवल उस कुर्सी के लिए थी जो समय के साथ खिसक चुकी थी। ममता कालिया की यह कथा हमारे लोकतंत्र के उस चेहरे को उजागर करती है, जहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता बहुरूपिया राजनीति के आगे विवश हो जाती है। यह एक कटाक्ष है उस व्यवस्था पर, जहाँ आदर्श केवल भाषणों में जीवित रहते हैं और ज़मीन पर उनका स्थानपरिवर्तित पहचानले लेती है।


निष्कर्ष : निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि ममता कालिया का कहानी संग्रहदूरस्थ दाम्पत्यसमकालीन जीवन की उन जटिल परतों को उघाड़ता है जहाँ हर संबंध, चाहे वह दाम्पत्य जीवन के हों, पारिवारिक हों अथवा सामाजिककिसी किसी दूरी, किसी किसी असमंजस, किसी किसी द्वंद्व से जूझ रहे हैं। इस संग्रह की कहानियाँ मात्र पारंपरिक दाम्पत्य की विफलताओं या सफलताओं की पड़ताल नहीं करतीं, बल्कि वे आज के मानव की अस्तित्व-पीड़ा, उसकी विचार-पद्धतियों के संघर्ष और जीवन-शैली के अन्तर्विरोधों को भी गहराई से रेखांकित करती हैं। हर पात्रमैंको खोजने की प्रक्रिया में जैसे लगातार एक मानसिक खींचातानी से गुजरता है, वो किसी का साथ चाहता है, प्रेम चाहता है, संबंध चाहता हैपर निभाने से डरता है, और यहीं से जन्म लेती है वह दूरस्थता जो इस संग्रह की केंद्रीय चेतना बनकर उभरती है।


            लेखिका ने केवल दाम्पत्य ही नहीं, वरन् पिता-पुत्र, माँ-बेटा, मित्रता, नायक-नायिका, गुरु-शिष्य आदि संबंधों के मानसिक और भावात्मक विरलता को भी अत्यंत सूक्ष्मता और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उकेरा है।पिज़्ज़ा’, ‘महमूद बनाम मोहन’, ‘नामजैसी कहानियाँ यह भी दर्शाती हैं कि यह संग्रह केवल संबंधों का विश्लेषण भर नहीं है, बल्कि इसमें समाज की मूल संवेदना, समकालीन राजनीति की कुटिलता, और आमजन की पीड़ा को भी रचनात्मक आधार पर प्रस्तुत किया गया है। हालाँकिऐसी भी एक शामजैसी कुछ कहानियों में लेखकीय अभिप्राय थोड़ा धुंधला प्रतीत होता है, लेकिन यह संग्रह समग्र रूप से 21वीं सदी की कहानी की प्रवृत्तियों, उसकी भाषा, उसकी दृष्टि और उसकी विमर्शपरकता को मजबूती से अभिव्यक्त करता है। ममता कालिया की सबसे बड़ी ताक़त यह है कि वे भाषा को सजावटी बनाकर नहीं, बल्कि अनुभव की सघनता से प्रदर्शित करती हैं।


            अंततः यह कहा जा सकता है कि 'दूरस्थ दाम्पत्य' के माध्यम से लेखिका ने समकालीन कथा-जगत में केवल अपने सशक्त हस्ताक्षर को पुनः पुष्ट किया है, बल्कि यह भी सिद्ध किया है कि आज की कहानी केवल कथन नहीं, मनुष्य के यथार्थ का दस्तावेज बन चुकी है।



संदर्भ :


  1. ममता कालिया : दूरस्थ दाम्पत्य, सेतु प्रकाशन, नोएडा, उत्तर प्रदेश, प्रथम संस्करण, पृष्ठ संख्या- 19

  2. वही, पृष्ठ संख्या- 34

  3. वही, पृष्ठ संख्या-44

  4. वही, पृष्ठ संख्या - 45 

  5. वही, पृष्ठ संख्या- 90 से 91

  6. वही, पृष्ठ संख्या - 125

  7. वही, पृष्ठ संख्या - 137

  8. वही, पृष्ठ संख्या - 140

  9. वही, पृष्ठ संख्या - 141

  10. वही, पृष्ठ संख्या - 99

  11. वही, पृष्ठ संख्या - 103

  12. वही, पृष्ठ संख्या - 146

  13. वही, पृष्ठ संख्या - 149



निकिता जैन 
सहायक प्राध्यापक (हिंदी) के तौर पर अध्यापन, डॉ. बी.आर.अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली  
nkjn989@gmail.com, 9953058803  


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
और नया पुराने