रिश्तों का संसार : दादी के नाम अखिल की चिट्ठी / अखिलेश कुमार शर्मा

अखिल की चिट्ठी : दाखा दादी को चिट्ठी 
(02 जून, 2025)
अखिलेश कुमार शर्मा 

दादी,

यानी दाखा दादी। दाखा दादी और मूल्या बाबा। दादी का पूरा नाम दाखा देवी शर्मा। मूल्या बाबा यानी मूलचंद शर्मा। दोनों एक, साथ-साथ। दो शरीर, एक जान। दादी, तोकू चिट्ठी लिखवे बैठ्या हूँ। संबोधन में न आप निकड्यगो, न ही तुम। जो उम्र के 16 वें साल तक बोलतो रह्यो। वाही संबोधन निकड्यगो। वाही संबोधन, वाही बोली। चिट्ठी की बात मन से वाही बोली में निकल रही। पर, वा बात कू हिंदी में लिखवे बैठ्यो हूँ। कोई बनावट नहीं। इस चिठ्ठी के बहाने तू, बाबा, गाँव और बचपन सब याद आ रहा है।

दादी, उम्र के बयालीसवें साल में तेरी रोटी याद आ रही है। तेरा निश्छल स्नेह याद आ रहा है। तेरे प्यार-दुलार की बातें, थपकियाँ याद आ रही हैं। हमारी शरारतों को छुपाने का अंदाज़ याद आ रहा। करौली जिले का महस्वा गाँव। महस्वा गाँव का मंदिर। लक्ष्मण जी का मंदिर। लक्ष्मण नदी के पास। राजा-महाराजाओं के समय का पुराना मंदिर। वामें लक्ष्मण जी की मूर्ति। शिवालय भी। हनुमान जी की भी मूर्ति। जब से स्मृति, तब से तोकू याहीं देख्यो।

दादी, इसी मंदिर से मेरी पहचान तोसे हुई। तोकू सबसे पहले याही मंदिर में देख्यो। बचपन की स्मृतियों में महसुआ (महस्वा) गाँव। गाँव का स्कूल। घर और मंदिर। घर गाँव के बीचो-बीच में। मंदिर पुरा पर। भूधर पट्टी में। लक्ष्मण नदी के पास। घर से मंदिर और स्कूल दोनों लगभग एक-एक किलोमीटर दूर। घर, मंदिर और स्कूल दोनों के बीच में। घर के एक तरफ़ स्कूल, एक तरफ़ मंदिर। मंदिर से स्कूल की दूरी लगभग दो किलोमीटर। सवाल यह कि दादी को चिट्ठी लिखते समय यह वर्णन क्यों? क्योंकि दादी की चिठ्ठी बिना गाँव, घर, स्कूल और मंदिर के पूरी नहीं हो सकती। दादी की चिट्ठी में गाँव, घर, स्कूल और मंदिर की छूट समाहित है।

दादी, मेरी 11 वीं कक्षा तक की पढ़ाई तेरी आँखों के सामने हुई। यानि 1998 तक। बाबा और तू मंदिर पर ही रहते। पर, वृद्धावस्था के अंतिम दिनों में बाबा और तू गाँव में घर पर आ गए। अंतिम दिनों तक मम्मी की सेवा ने तुम दोनों का मन और विश्वास दोनों जीत लिया। मम्मी की सेवा और स्वभाव से ही तुम घर पर आए। नहीं तो जीवन के अंतिम दिनों में तुम दोनों मंदिर छोड़कर घर नहीं आते। पर, तोसे पहचान घर से नहीं, मंदिर के नाते हुई। रोटी से हुई।

दादी, बाबा और तू! दोनों मंदिर पर रहते। सगी संतान न होने की वजह से मूल्या बाबा ने अपने बड़े भाई के बेटे चौथमल को गोद लिया। चौथमल यानि हमारे सगे बाबा। मूल्या बाबा के दत्तक पुत्र। मूल्या बाबा हमारे बाबा (चौथमल) के काका। पर, हमारे सगे बाबा चौथमल को गोद लेने के कारण हमारे पड़बाबा हुए। इसके वावजूद हम सभी मूल्या बाबा को ‘बाबा’ ही बोलते। दाखा दादी और मूल्या बाबा, हमारे दादी-बाबा। सचमुच। जब तक मूल्या बाबा और दाखा दादी के हाथ-पैर चले, मंदिर पर ही रहे। मंदिर पर चार घह की पाटोड। वही उनकी कुटिया। वहीं मंदिर की सेवा-पूजा करते। वहीं रहते।

दादी, मिजोरम रहते हुए तेरी रोटी बहुत याद आ रही है। गाँव में हम स्कूल से छूटते ही घर आते। घर स्कूल का बस्ता रखकर पहुँच जाते मंदिर। तेरे पास। घर पर मम्मी आवाज देती रह जाती। मंदिर पर जाकर कुछ देर खेलते-कूदते। और उसके बाद इंतज़ार रहता तेरी रोटी का। शाम की रोटी। सुबह की बनी हुई। ठंडी। पर, हमारे लिए वह शाम की रोटी होती। जिसे आज की भाषा में शाम का स्नैक्स बोल सकते हैं। हमारे लिए (मैं और पंकज भैया) यह रोटी, महज रोटी नहीं होती। उस रोटी में तेरा अटूट प्यार छुपा रहता। ऐसे लगता जैसे रोटी खिलाने के लिए तू सुबह से हमारी बाट जोह रही हो। हाँ, यह सच भी है। इसमें तेरा सुख छुपा हुआ था। अपने पड़पोतों को रोटी खिलाने का सुख। हमें बढ़ते देखने का सुख। उस समय अहसास नहीं हुआ। आज हो रहा है।

दादी, तू उस रोटी में क्या मिलाती? मैंने देखा है कभी-कभी। उस रोटी को बनते हुए। तेरे हाथ से बनती हुई रोटी देखी है मैंने। गेहूँ की रोटी। मोटे पिसे हुए गेहूँ की रोटी। चूल्हे पर बनी। मोटे मिट्टी के तवे पर सिकी। गाय के घी से चुपड़ी। चुपड़ी हुई क्या, एकदम घी में चूरती हुई। रोटी की पापड़ी फोड़कर, अंदर तक रोटी में घी भरा हुआ। रोटी के ऊपर बूरा। हम उस रोटी को कोरी ही खा जाते। बिना सब्ज़ी के। रोटी, एकदम नरम। चौदह सो बयासी गेहूँ की मोटी रोटी। घी से गच्च। तेरी पाली हुई गाय का घी। गाय का दूध, दही-छाछ। बिलौने का मक्खन। घी। घी की रोटी। स्वादिष्ट। दादी के हाथ की ख़ुशबू से सराबोर। तेरी मेहनत की ख़ुशबू से सराबोर। तेरी रसोई में सब्जी रोज भले ही नहीं बनती हो। पर, अपनी पाली हुई गाय का दूध, दही, छाछ और घी ज़रूर मिलता। सब्जी नहीं तो इन्हीं से रोटी खाई जाती।

दादी, सच कहूँ! मिजोरम आकर तेरी रोटी बहुत याद आ रही। घर पर था तो ‘घर की रोटी’ यानि माँ, भाभी और पत्नी की रोटी से तेरी रोटी उतनी याद नहीं आई। पर, पिछले छह वर्ष से मिजोरम हूँ। ईश्वरीय संयोग से ‘दो जून की रोटी’ के लिए मिजोरम आया। ‘दो जून की रोटी’ के अभिधार्थ और जितने लक्ष्यार्थ होने चाहिए, वे सभी प्राप्त हुए। पर, तेरी जैसी ‘रोटी’ नहीं मिली। घर की रोटी दूर हो गई।

दादी, तू जहाँ भी है, वहीं से देख रही होगी। एक सुख छूटता है, दूजा मिलता है। यही संसार की रीत। संसार सुख-दुख का रेला। संगम। एक जाएगा, एक आएगा। तेरी रोटी छूटी। घर की रोटी छूटी। राजस्थान छूटा, मिजोरम मिला। रेगिस्तान छूटा, पहाड़ मिला। पहाड़वास मिला। मिजोरम में पढ़ने-लिखने का खूब सुख। खूब एकांत। बस, विद्यार्थी सीमित। संतुलित। पर, अच्छे। खूब अच्छे। कुछ अपवाद छोड़कर। लोग भी अच्छे। प्राकृतिक सौंदर्य भी अद्भुत। पंचोली गुरुजी (डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली) के साथ लगभग भारत के चारों कोनों की यात्राएँ की। सीधे-सीधे कहूँ तो पंचोली गुरुजी ने लगभग-लगभग पूरा भारत भ्रमण करवाया। पूर्वोत्तर पहली बार आना हुआ। देश के इतने सारे राज्य घूमा। पर, मिजोरम जैसा प्रदेश नहीं देखा। एकदम शांत। प्राकृतिक दृष्टि से तो खूबसूरत है ही। सदाचार और जीवन मूल्य की दृष्टि से भी अनुपम। मिजोरम में चोरी, डकैती, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार, ईर्ष्या, द्वैष, ठगी, छीना-झपटी आदि के दर्शन तक नहीं होते। पिछले छह वर्षों में एक बार भी ऐसी घटना न सुनने को मिली और न ही देखने को। भारत के अन्य प्रदेशों में यह असंभव लगेगा। पर, मिजोरम में पिछले छह वर्षों के अपने अनुभव के आधार यह ‘असंभव’ ‘संभव’ के रूप में सामने आया। ‘जिओ और जीने दो’ का संदेश देने वाली पहाड़ी भूमि और इस भूमि के सीधे-सच्चे लोग। ‘न उधो को लेना, न माधो को देना’ की प्रवृत्ति और जीवन दर्शन। इतना सब कुछ अच्छा और ठीक।

दादी! पर, तेरी ‘रोटी’? जिस ‘रोजी-रोटी कमाने’ के लिए मिजोरम आया। ‘रोजी’ मिली। अभिधेय और लक्ष्यार्थ में ‘रोटी’ पाने के सभी उपक्रम प्राप्त हुए। बाक़ी अन्य सभी मिला। पर, तेरी ‘रोटी’? राजस्थान रहते हुए कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि ‘रोटी’ नहीं मिली हो। पढ़ाई के संघर्ष के समय में जयपुर-अजमेर में भी रोटी मिल ही जाती। जयपुर में सड़क किनारे के ढाबे। ढाबे क्या, सड़क किनारे बने पन्नी या तिरपाल तानकर बनी हुई थड़ी। पेड़ की छाया में चलता ढाबा। ढाबे पर भरपेट खाना। दस रुपये में। रोटी, सब्जी, दाल, मिर्च, प्याज। रोटी एकदम गरम-गरम। फूली-फूली। कड़क। करारी। जयपुर-अजमेर में स्वपाकी के सौभाग्य से अपने कमरे पर भी रोटी मिल जाती। यह स्वपाकी का सौभाग्य ही मिजोरम में ‘रोटी’ मिलने का केंद्र बिंदु। मिजोरम में रोटी खाद्य सामग्री में नहीं आती। मिजोरम में धान/चावल और मांसाहार खाद्य के रूप में प्रचलित। मिजोरम में रोटी खानी है, तो स्वपाकी होना सौभाग्य की बात।

दादी, संयोग देखो तो ‘दो जून की रोटी’ के लिए मिजोरम आया और दो जून को ही यह चिट्ठी लिख रहा हूँ। तेरी और तेरी ‘रोटी’ की याद में। गाँव के मंदिर की पाटोड़ में चूल्हे की आँच पर मिट्टी के तवे पर रोटी सेकते तेरे हाथ। आज घरों की रसोई में एग्जॉस्ट फैन आ गया। वातानुकूलित घर की ठंडी हवा रसोई तक पहुँचने लगी है। आज और तब। समय का बदलाव। आज का समय। और वह समय। दादी तेरा समय। जून महीने की भरी गर्मी। पैंतालीस डिग्री पार तापमान। धूप से सिकती पाटोड़। पाटोड़ की गर्मी। दादी, तुझे गर्मी तो बहुत लगती होगी। पर, तूने कभी भी बाबा के सामने अपनी गर्मी का अहसास नहीं होने दिया। हमें भी कभी इस बात का अहसास नहीं हुआ। कभी बाबा से भी नहीं कहा कि पंखा लगवा दो। आज के गृहस्थ जीवन में यह सब असंभव-सा लगता है।

दादी, तू सुबह-शाम को रोटी बनाती। रात को राबड़ी भी बनाती। रात को राबड़ी दूध से खाते। सुबह राबड़ी में छाछ मिलाकर खाते। या ठंडी रोटी को लस्सी-मट्ठा में चूरकर खाते। यही सुबह का कलेवा। उस समय ना सुबह का नाश्ता बनता। ना शाम का स्नैक्स। हाँ, चाय जरूर बनती। सुबह-शाम की चाय। बाबा और तू चाय पीते। (बाबा इसके अलावा हुक्का और बीड़ी भी पीते। पर, तेरा ऐसा कोई व्यसन तक नहीं था।) मंदिर में उस समय कोई भक्त-प्राणी आ गया तो वह भी चाय पीता। और यदि भोजन के समय कोई भूखा या भक्त-प्राणी आ गया तो वह भोजन भी करता। जैसा बना, वैसा ही। उसमें कोई मीन-मेख नहीं। बड़े सुख से वह खाता-पीता। तू भी सुख से भर जाती। तू भी सुखी। तेरी रोटी भी सूखी। रोटी खाने वाला भी सुखी। चाहे वह घर को या बाहर का।

दादी, तू सुबह की रोटी में से ही हमारे लिए दो रोटी बचा लेती। एक रोटी भैया के लिए। एक रोटी मेरे लिए। दादी, तेरा सुख बाबा को रोटी खिलाने का अद्भुत था। मैंने देखा है बाबा को रोटी खिलाने का सुख तेरे मुँह पर। उस समय की तेरे चेहरे की ख़ुशी को कोई नहीं पढ़ सकता। ना ही लिख सकता। ना ही बयाँ कर सकता। मैं लिख भले ही रहा हूँ। पर, सच तो यह है कि इसमें मुझे कितनी सफलता प्राप्त होगी, मैं ख़ुद नहीं जानता। पर, हाँ! मुझे सुख ज़रूर मिल रहा है।

दादी, बाबा का काम मंदिर की पूजा, आरती-अर्चना। तेरा काम मंदिर की साफ़-सफ़ाई, गाय की खैर-खैवट और बाबा को रोटी खिलाना। बाबा की सेवा। चिड़ियाओं को चुग्गा डालना। चींटियों को आटा डालना। पहली रोटी गाय की। आख़िरी रोटी कुत्ते की। हमारी रोटी बनाना। बचाना। खिलाना। मंदिर में आने वाले हर भक्त-प्राणी से राम-राम करना। राजी-ख़ुशी, कुशलक्षेम पूछना। बाबा और मंदिर की सेवा करना। बस, यही तेरी पूजा-अर्चना। मैंने कभी तुझे पूजा-पाठ करते हुए नहीं देखा। तेरी पूजा, तेरा काम। तेरी जिम्मेदारी को ही तूने ईश्वर पूजा से कम कभी नहीं समझा। कहते हैं संत तुकाराम सदेह बैकुंठ पधारे थे। बैकुंठ जाते समय उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा-कहा –“चलिए, साथ ही चलते हैं।” संत तुकाराम की पत्नी ने कहा कि “यदि मैं आपके साथ चली, तो अपनी गाय, जो (बच्चे) बछड़े को जन्म देने वाली है। उसकी देखभाल कौन करेगा। मेरे लिए गाय के बच्चे के जन्म से लेकर, पालन-पोषण की जिम्मेदारी ही स्वर्ग का द्वार।” ऐसी ही अपने कार्य के प्रति निष्ठा और निस्वार्थ भावना मोक्ष के द्वार खोलती है। कार्य का छोटा-बड़ा होना कोई मायने नहीं रखता।

दादी, ठीक ऐसी ही निष्ठा तेरी रही। मंदिर और बाबा के प्रति सेवा-समर्पण-निष्ठा भाव किसी से छुपा नहीं है। संभवत: यही तेरे मोक्ष का हेतु बना। कलयुग में इस भूलोक पर जीवन ही नहीं, मौत भी आसान नहीं। मैं 11 वीं कक्षा में पढ़ता था। मैंने देखा है। एक दिन खाट पर तेरा लेटे ही रह जाना। अगले दिन चिर लोक की अनंत यात्रा पर निकल जाना। बाबा के सामने। सुहागन चिर निद्रा में प्रस्थान करना। यह सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता। दादी, यह सब तेरे निस्वार्थ त्याग और सेवा का प्रतिफल। इसके बाद बाबा को भी तूने अपने पास बुला लिया। यह साधना-तपस्या एक दिन की नहीं। जीवन भर की है। जो इस लोक से उस लोक तक की यात्रा करवाती है। लोक से परलोक की यात्रा।

दादी, तुझे प्रणाम, ढोक! राम-राम!

तेरा - अखिल!

अखिलेश कुमार शर्मा 

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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