लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत करते नाटक
- हैदर अली
व्यक्ति जब कोई पुस्तक पढ़ कर समाप्त करता है तो वह पहले से बेहतर और सभ्य मनुष्य होता है। यह बात फिल्म और नाटक पर अधिक लागू होती है। साहित्य की सभी विधाओं ने मनुष्य को ऊंचा उठाने का कार्य किया है किंतु नाटक का महत्व इस दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में उसकी पहुंच बहुत अधिक होती है। नाटक मास मीडिया की भूमिका भी अदा करता है और वह भाषा और लिपि की परिधि को तोड़ देता है। इसलिए नाटक का प्रभाव अन्य विधाओं की अपेक्षा बहुत व्यापक स्तर पर पड़ता है। बावजूद इसके आज हिंदी में नाट्य लेखन कम हो रहा है। इसके कई कारण हैं लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण है हिंदी रंगमंच की दयनीय स्थिति। रंगकर्मियों के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं। अतः बहुत से लेखक नाटक लिखना बंद कर दूसरी विधाओं में लेखन करने लगते हैं। आज नाटक लिखना और भी मुश्किल कार्य है और उसकी कलात्मक जटिलता के कारण उसमें रिस्क भी है। तकनीक और विशेष रूप से सोशल मीडिया के कारण समाज में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। लगातार तेजी से बदलते यथार्थ को पकड़ना और उसे अभिव्यक्त करना रचनाकार के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। वर्तमान समय में जहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों पर खतरा मंडरा रहा है वहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुरक्षित रखना भी मुश्किल काम है। इस मुश्किल काम को असग़र वजाहत ने बड़े ही सलीके और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ किया है। वो भी कथाकार और नाटककार दोनों रूपों में। असग़र वजाहत ने स्वयं नाटक को एक विधा के तौर पर कलाकार के लिए चुनौती स्वीकार करते हुए एक इंटरव्यू में कहा है- "कला की सबसे बड़ी चुनौती को नाटक स्वीकार करता है। न कविता करती है न कहानी करती है और न उपन्यास करता है। क्योंकि कला दृश्य श्रव्य है और नाटक उसी का एक उपांग है।"(1)
साहित्यिक चर्चाओं में यह बहस अक्सर देखने सुनने को मिलती है कि असग़र वजाहत को साहित्य में किस रूप में याद किया जाना चाहिए। यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है और वाजिब भी। जब हम हिंदी साहित्य के अतीत पर गौर करते हैं तो देखते हैं कि बहुत सारे रचनाकार ऐसे हैं जिन्होंने साहित्य की एक से अधिक विधाओं में लेखन किया है। लेकिन बाद में आकर अक्सर लेखकों को किसी न किसी खांचे में फिट कर लिया जाता है या मान लिया गया जैसे निराला और नागार्जुन बड़े कवि हैं, तो मोहन राकेश बड़े नाटककार। हालाँकि निराला व नागार्जुन ने उपन्यास भी लिखे और मोहन राकेश तो नई कहानी के आधार स्तंभों में से माने जाते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि असग़र वजाहत को बड़ा नाटककार माना जाए या बड़ा कथाकार या फिर बड़ा यात्रावृतांतकार। क्योंकि हिंदी साहित्य में यात्रा-वृतांत (सफरनामा) विधा को पुनर्जीवित करने का श्रेय असग़र वजाहत को जाता है। क्या असग़र वजाहत की स्थिति जयशंकर प्रसाद जैसी नहीं है, क्योंकि यह मुद्दा कि प्रसाद बड़े नाटककार हैं या कवि आज भी चर्चा का विषय बन जाता है। यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है क्योंकि वर्तमान हिंदी लेखकों में असग़र वजाहत संभवत ऐसे अकेले और विरले रचनाकार हैं जिन्होंने नाटक (जिस लाहौर.., 'गोडसे@गांधी.कॉम, 'महाबली') उपन्यास ('सात आसमान', 'बाकरगंज के सैयद', 'चाहर दर') कहानी ('केक', 'शाह आलम कैंप की रूहें, 'डेमोक्रेसिया' आदि) तथा यात्रा-वृतांत ('चलते तो अच्छा था', 'पाकिस्तान का मतलब क्या' आदि) लिखने का अनूठा कारनामा किया है। यानी हर गद्य विधा में अव्वल दर्जे की रचना देने का कमाल। हिंदी दुनिया में संभवत सबसे अधिक यात्राएं करने वाले तथा उस पर शाहकार सफरनामा लिखने वाले असग़र वजाहत एकमात्र लेखक हैं। साथ ही वह समकालीन हिंदी साहित्य के सबसे बड़े नाटककार भी माने जाते हैं। नाटककार इसलिए क्योंकि उनका पहला नाटक ‘फिरंगी लौट आए’ 1970 आया में था और उन्होने अंतिम नाटक ‘अरिस्तोपोलिस’ और ‘पाकिस्तान में गांधी' 2021 में लिखा है। यानी वे लगातार नाटक लिख रहे हैं और हर आने वाले नाटक में उनकी ग्रोथ को देखकर सुखद आश्चर्य होता है। समाज और मनुष्यता को देखने की उनकी समग्र अप्रोच उन्हें अनूठा लेखक बनाती है। नाटक लिखने के प्रति उदासीनता के दौर में असग़र वजाहत की कलम से ऐसे नाटक निकले हैं जो हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर हैं।
अगर हम हिंदी साहित्य में नाट्य लेखन इतिहास की बात करें तो आरंभ से लेकर वर्तमान तक कुछ ही नाटककारों के नाम हमारे सामने आते हैं। जिनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, लक्ष्मी प्रसाद मिश्र, जगदीश चंद्र माथुर, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेंद्र वर्मा, भीष्म साहनी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि का नाम लिया जा सकता है। वर्तमान नाटककारों में असग़र वजाहत उसी ज़मीन और परंपरा में उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण हैं। यदि नाटकों की रंगमंचीय स्थिति को देखें तो ऐसा माना जाता है कि हिंदी में अंधेर नगरी सबसे चर्चित नाटक है। लेकिन इधर के दिनों में यह बात काफी चर्चा में है कि हिंदी में सबसे अधिक चर्चित और मंचित होने वाला नाटक “जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ” है। इस नाटक की प्रसिद्धि का आलम यह है कि कई देशी और विदेशी भाषाओं में भी उतना ही लोकप्रिय है जितना हिंदी में। इसके लगभग 1000 मंचन अब तक हो चुके हैं। देसी विदेशी भाषाओं में इसका न सिर्फ अनुवाद हुआ है बल्कि लगातार मंचित भी होता रहा है। इस नाटक को क्लासिक रचना माना जाता है।
असग़र वजाहत के लेखन का अंदाज सबसे जुदा हैं। उन्होंने एक नए ढंग की शैली विकसित की है। जिसमें व्यंग्य भी बहुत स्वाभाविक रूप से आता है जो यथार्थ की परतें खोल देता है। व्यंग्य तीखेपन के साथ मार्मिकता को सामने लाता है। यही उनके लेखन को औरों से अलग बनाता है। आप ‘जिस लाहौर .....’ को देखिए उसमें आपको लेखक की विश्व दृष्टि दिखाई देगी। विभाजन का प्रभाव तो उत्तर भारत तक पड़ा था फिर यह नाटक पूरे भारत में बल्कि विदेशों तक कैसे पसंद किया जाता है ? इसके मायने हैं, क्योंकि इसमें केवल विभाजन का दर्द ही बयां नहीं, बल्कि यह उन वैश्विक मानवीय मूल्यों का उद्घाटन भी करता है, जो एक लोकतांत्रिक समाज की बेहतरी के लिए बहुत ज़रूरी हैं।
असग़र वजाहत के सभी नाटक किसी न किसी रूप में सत्ता विरोधी नाटक हैं। इसका अर्थ है कि उनके नाटक लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत करते हैं और एक ऐसी चिंता उनमें लगातार देखी जा सकती है जो समाज को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक है। वह नाटकों में सत्ता से सवाल करते हैं, उससे टकराते हैं। ऐसे प्रश्न उठाते हैं जिससे यथास्थितिवादी शक्तियां तिलमिला जाती हैं। कोई भी सत्ता परिवर्तन नहीं चाहती परंतु उनके नाटक कुछ नया सोचने पर मजबूर करते हैं। एक प्रकार से उनके नाटक प्रतिरोध के नाटक हैं। व्यवस्था के प्रति विरोध उनके नाटकों का मुख्य स्वर है। सत्ता के पूरे सिस्टम में आम आदमी पिस रहा है। वह षड्यंत्र का शिकार है और दमनकारी शक्तियां उसका इस्तेमाल कर रही हैं। असग़र वजाहत बड़ी बारीकी से इस यथार्थ को पकड़ लेते हैं। उनके नाटक समाज में मौजूद धार्मिक जड़ता, राजनैतिक जालसाज़ी, आम आदमी के शोषण के तरीकों का पर्दाफाश करते हैं। समाज में फैली असमानता और विसंगति के विषय में सोचने के लिए मजबूर करते हैं।
हिंदी के सभी प्रमुख नाटककारों ने प्राय: दो विरोधी परिस्थितियों या दो विरोधी पात्रों को आमने-सामने रखकर टकराहट या द्वंद पैदा किया है। ये द्वंद और टकराहट संघर्ष को जन्म देता है, नाटक जैसी लोकतंत्रात्मक विधा ही इस द्वंदात्मक संघर्ष को स्पेस प्रदान करती है। अंधेर नगरी, चंद्रगुप्त, आधे अधूरे, अंधा युग आदि नाटकों में इस प्रकार का द्वंद देखा जा सकता है। असग़र वजाहत के कई नाटकों में यह द्वंद चरम पर दिखाई देता है। इन्ना की आवाज़, गोडसे@गांधी.कॉम, महाबली, ईश्वर-अल्लाह तथा पाकिस्तान में गांधी आदि नाटकों में दो विरोधी पात्रों की परिकल्पना और उससे उपजा यह द्वंद और संघर्ष नाटक के प्रभाव को बढ़ा देता है। असग़र वजाहत के नाटकों में संवाद बहुत कसे हुए हैं। पात्र और परिस्थिति के अनुसार ही संवाद अदायगी है। इसलिए भाषा में रवानगी है। कोई भी शब्द बोझिल और निरर्थक नहीं है। असग़र वजाहत ने रंगमंच की एक नई भाषा तैयार की है। जो शुद्ध रूप में रंगमंच की भाषा है और जिसे वे औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं। स्थितियों को स्पष्ट करने, द्वंद को उभारने और समाज की विषमताओं को दिखाने के लिए असग़र वजाहत व्यंग्य का सधा प्रयोग करने में माहिर हैं। असग़र वजाहत ने रंगमंच के लिए एक नई भाषा बनाई है। जिस लाहौर में नासिर काज़मी की शायरी का अनोखा प्रयोग वो भी स्वयं उन्हीं के द्वारा हुआ। ये अनूठा प्रयोग है जो बहुत ही कलात्मक ढंग से हुआ है। शेर और शायरी कहीं भी थोपी हुई नहीं लगती बल्कि वह नाटक का अहम हिस्सा बन जाती है। नासिर साहब द्वारा जो संवाद कहे गए हैं उनमें मार्मिकता के साथ व्यंग्य का पैनापन है।
"नासिर : देखो, तुम क्या इसलिए मुसलमान हो कि जब तुम समझदार हुए तो तुम्हारे सामने हर मजहब की तालीमात रखी गई और तुमसे कहा गया कि इनमें से जो मजहब तुम्हें पसंद आए, अच्छा लगे, उसे चुन लो ?
अलीम : नहीं, नासिर साहब। मैं तो दूसरे मजहबों के बारे में कुछ नहीं जानता।
नासिर : इसका मतलब है, तुम्हारा जो मजहब है उसमें तुम्हारा कोई दखल नहीं है। तुम्हारे माँ-बाप का जो मजहब था, वही तुम्हारा है।
अलीम : हाँ जी, बात तो ठीक है।
नासिर : तो यार, जिस बात में तुम्हारा कोई दखल नहीं है, उसके लिए खून बहाना कहाँ तक वाजिब है?"(2)
एक बात का उल्लेख करना जरूरी है कि असग़र वजाहत ने जहाँ भी धर्म के आधार पर कुछ कहा है, वह आस्था और भावुकता से कम, तर्क के आधार पर अधिक है। दंगा होता नहीं बल्कि योजना से साथ कराया जाता है। अधिकतर सांप्रदायिक दंगे प्रायोजित होते हैं जो एक विशेष प्रणाली पर आधारित होते हैं जिसे राजनीति विशेषज्ञ पॉल ब्रास 'संस्थागत दंगा प्रणाली' (इंस्टीट्यूशनलाइज़्ड राइट सिस्टम, आइआरएस)(3) कहते हैं। दंगा कराने वालों और करने वालों के अंतर को भी असग़र वजाहत सूक्ष्मता से समझते और चित्रित करते हैं। दंगों से उपजी हिंसा, उन्माद और अमानवीयता की बर्बरता हमेशा आम जनता को झेलनी पड़ती है। विभाजन की त्रासदी और उससे होने वाले नुकसान को बड़ी कलात्मकता से दिखाकर नाटक इस बात की वकालत करता है कि देश में ऐसी स्थिति दोबारा न बने। साथ ही दोनों बड़े भारतीय समुदायों के बीच समन्वय की चिंता यहाँ बड़ी शिद्दत से दिखाई देती है।
धर्म भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा है। उसके बिना समाज की कल्पना अधूरी है। जैसा कि मैंने कहा असग़र वजाहत धर्म की अनदेखी नहीं करते हैं। बल्कि उसकी सकारात्मक व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में धर्म की अवहेलना नहीं की जाती बल्कि उसके राजनीतिक हस्तक्षेप की आलोचना को जगह देना ज़रूरी हो जाता है। ‘जिस लाहौर...’ के मौलवी का चरित्र इसी आधार पर निर्मित किया गया है कि धर्म और सत्ता का गठजोड़ नुकसान करता है। चूंकि लाहौर का मौलवी सत्ता और राजनीति दोनों से दूर है अतः धर्म का सही चेहरा सामने लाते हुए कहता है- "भई हदीस शरीफ है कि तुम दूसरों के खुदाओं को बुरा न कहो, ताकि वह तुम्हारे खुदा को बुरा न कहे, तुम दूसरों के मजहब को बुरा न कहो, ताकि तुम्हारे मजहब को बुरा न कहें। बेटा इस्लाम ने बहुत हक ऐसे दिए हैं, जो तमाम इंसानों के लिए हैं.... उसमें मजहब, रंग, नस्ल और जान का कोई फर्क नहीं किया गया।"(4) धर्म की सही व्याख्या समाज को जोड़ने का काम करती है न कि तोड़ने का। जिस लाहौर को देखकर हमारे मन में धार्मिक लोगों से घृणा नहीं बल्कि प्रेम और सहमति का भाव उत्पन्न होता है। इसकी थीम और भाषा इतनी सशक्त है कि आदमी के नाटक देखने के कई दिनों बाद तक यह आपका पीछा नहीं छोड़ता। मानवीय भावनाएँ एवं वैश्विक मूल्य इसमें अनुस्यूत हैं, इसलिए यह नाटक आज भी प्रासंगिक है।
असग़र वजाहत का पहला नाटक ‘फिरंगी लौट आये’ 1970 में प्रकाशित हुआ था तथा उन्होंने अंतिम नाटक अभी हाल ही मे आरिस्तोपोलिस (2021) लिखा है। जैसा मैंने कहा कि असग़र वजाहत वर्तमान समय हिंदी में संभवतः अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने लगातार नाट्य लेखन किया है। यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हिंदी में नाट्य लेखन के प्रति बड़ी उदासीनता रही है। उसका एक बड़ा कारण हिंदी रंगमंच की दयनीय स्थिति को माना जा सकता है। मराठी, गुजराती और बंगाली रंगमंच के मुकाबले हिंदी रंगमंच अल्प विकसित और अव्यवस्थित है। यहाँ व्यावसायिक रंगमंच ग्रुप और मंडलियाँ बहुत कम है और जो हैं उन पर भी एक प्रकार का सरकारी दबाव होता है। टिकट लेकर नाटक देखने की संस्कृति हिंदी प्रदेशों में आज तक भी नहीं बन सकी है। इसी कारण रंगमंडलियों के सामने आर्थिक समस्या बनी रहती है। उसे कोई विशेष स्पॉन्सर नहीं मिलते हैं। इसलिए रंगकर्मियों के सामने तरह-तरह की दिक्कतें होती हैं।
नाटक का प्रभाव बिना रंगमंच अधूरा है इसलिए बहुत सारे हिंदी नाटक सिर्फ पढ़ने तक ही सीमित रह जाते हैं। नाट्य लेखन के प्रति इस उदासीनता के दौर में लगातार नाटक लिखना और एक से एक शानदार नाट्य रचना देने का कारनामा असग़र वजाहत ने किया है। उन्होंने अट्ठारह सौ सत्तावन की पृष्ठभूमि पर नाटक लिखा है वह भी आम लोगों की भागीदारी और जिम्मेदारी को लेकर। विभाजन की त्रासदी से उपजे दर्द को लेकर 'जिस लाहौर...' जैसी क्लासिक रचना दी है। उसमें भी त्रासदी मुख्य नहीं है बल्कि मानवीय विश्वजनीन शाश्वत मूल्यों को सामने रखा है। 1947 की पृष्ठभूमि पर गोडसे@गांधी.कॉम और अभी हाल में ‘पाकिस्तान में गांधी’ जैसी अद्भुत रचना लिखी हैं। वह भारत में बंटवारे के बाद तीखी होती जा रही सांप्रदायिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं लेकिन वे उस चोट से तोड़ने का काम नहीं बल्कि मानवता को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। उनके लेखन के आगे फिरकापरस्त ताकतें हार जाती हैं जिस लाहौर का पहलवान हार जाता है, गोडसे हारता है, कट्टरता हारती है, छद्म देशभक्ति हारती है। गोडसे और गांधी संवाद की परिकल्पना करके लेखक सीधा मैसेज देता है की धुर विरोधी सोचने वालों में भी संवाद हो जाए तो समाधान निकल सकता है। लेकिन सत्ता समाधान नहीं चाहती है वह तो लोगों को भावनात्मक मुद्दों में उलझा कर अपनी जिम्मेदारी से, जवाबदेही से बचना चाहती है।
ऐसे दौर में जब अधिकतर लेखक सत्ता के आगे झुके दिखाई देते हैं, असग़र वजाहत ने महाबली लिख कर बता दिया कि असल रचनाकार वहीं होता है जिसे सत्ता का मोह तनिक छूकर भी नहीं जाता। अभी तक कुंभन दास की पंक्ति 'संतन को कहा सीकरी सो काम' का उल्लेख किया जाता रहा है लेकिन अब 'महाबली' के संदर्भ में तुलसीदास का वर्णन भी जुड़ गया है। महाबली के तुलसी 'संतन को कहा सीकरी सो काम' पंक्तियों को जीवंत करते हुए अकबर पर तंज़ कसते हैं- "सीकरी को प्रतिभाओं से सजाते हैं... और तब आप... महाबली कहलाते हैं...महाबली इन पोथियों में आपकी वीरता और शौर्य की ऐसी गाथाएं लिखी हुई हैं जो आपको अमर कर देंगी... आपकी बुद्धिमत्ता... और उदारता... और क्षमाशीलता की दास्तानें भी इनमें लिखी हैं... आपका नाम इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जायेगा। आप इतिहास में अमर हो जायेंगे महाबली।...हम इतिहास में नहीं रहेंगे महाबली।...वर्तमान में रहेंगे महाबली वर्तमान में...।"(5)
‘अरिस्तोपोलिस’ नाटक में असग़र वजाहत स्त्रियों द्वारा युद्ध को रोकने के लिए अपनाई गई ‘सेक्स स्ट्राइक’ को लोकतांत्रिक मूल्य के रूप में प्रतिस्थापित करते हैं। महिलाओं द्वारा अपनी शारीरिक सत्ता की स्वायत्तता को स्थापित करते हुए यह हिंसक विरोध का एक अनूठा तरीका है, जो समानता, संवाद और असहमति के अधिकार को केंद्र में रखता है। नाटककार ने सेक्सुअलिटी को एक सशक्तिकरण के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया है। जब महिलाएं राजनीति में सीधा हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं होती, तब वे अपने शरीर के माध्यम से विरोध दर्ज करती हैं। महारानी के आह्वान पर सभी स्त्रियां सौगंध खाती हैं –
“जब तक नहीं होते
बंद युद्ध
जब तक
नहीं समाप्त होती
सम्राट की लालच
तब तक कोई स्त्री
न करेगी
अपने पति या प्रेमी से
सहवास”(6)
लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसमें जनता की सक्रिय भागीदारी, स्वतंत्र विचार, और शांतिपूर्ण विरोध आवश्यक होते हैं। ग्रीक मिथक पर आधारित इस नाटक में महिलाएँ संगठित होकर युद्ध के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध करती हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि लोकतंत्र में सभी वर्गों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होती है।
यह आंदोलन सत्ता की पारंपरिक संरचना को चुनौती देता है, जहाँ युद्ध और राजनीति को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है। महिलाएँ इस विचारधारा को खारिज करते हुए यह साबित करती हैं कि वे केवल युद्ध-पीड़ित अबला नहीं हैं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक निर्णयों में समान भागीदारी की हक़दार हैं।
“देवियों की सौगंध
सत्य तक पहुंचनेमें
कर सकती हैं सहायता
स्त्रियाँ
क्यों न बने साक्षी
पाप और पुण्य की”(7)
उनका विरोध किसी हिंसक संघर्ष के बजाय संवाद और सहमति पर आधारित है, जो लोकतंत्र के मूल तत्वों में से एक है। यह नाटक अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों की याद दिलाता है, जहाँ बिना किसी हिंसा के नैतिक दबाव बनाकर सत्ता को झुकाया जाता है। लोकतंत्र में बदलाव केवल सत्ता के निर्णयों से नहीं होता, बल्कि जागरूक जनता की एकजुटता से भी संभव होता है। ‘अरिस्तोपोलिस’ के ज़रिए असग़र वजाहत ने यह दिखाने की सफ़ल कोशिश की है कि किस तरह संगठित और शांतिपूर्ण प्रतिरोध लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बन सकता है और सामाजिक बदलाव का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
असग़र वजाहत का नाट्य लेखन हिंदी साहित्य की बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि हिंदी रंगमंच की दयनीय स्थिति होने के बावजूद भी असग़र वजाहत के नाटकों को चर्चा के साथ-साथ रंगमंच भी खूब मिला है। दर्शकों ने उनके नाटकों को बहुत प्यार दिया इसलिए इनके कई नाटकों को सबसे अधिक मंचित होने वाले नाटकों का दर्जा प्राप्त है। सबसे प्रतिष्ठित और ख्याति प्राप्त निर्देशकों और अभिनेताओं ने इनके नाटकों को मंचित किया। हबीब तनवीर, विजय सोनी, एम.के. रैना, कविता नागपाल, नीना गुप्ता, चमन बग्गा, अनिल चैधरी, वामन केंद्रे तथा टॉम अल्टर जैसे रंगकर्मियों ने उनके नाटकों को निर्देशित-मंचित किया है। हिंदी के अतिरिक्त बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, मराठी, उर्दू, अंग्रेज़ी भाषाओं में इनके नाटकों का न सिर्फ अनुवाद हुआ है बल्कि वहाँ रंगमंच पर भी इनके नाटकों को पर्याप्त स्थान मिला है। भारत के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों पर इनके नाटकों की गूंज पहुँची है। इस अर्थ में भी संभवतः असग़र वजाहत हिंदी के अकेले नाटककार हैं जिनके नाटक इतनी भाषाओं और देशों में चर्चित हैं।
सन्दर्भ :
1. प्रदीप कुमार, "नाटक कला की सबसे बड़ी चुनौती है", हर कैद से आज़ाद : असगर वजाहत, सं. पल्लव, बनास जन, जनवरी-मार्च 2017, पृष्ठ संख्या 92.
2. असग़र वजाहत, असगर वजाहत के नाटक, खंड-1, सं. डॉ. हैदर अली, अनन्य प्रकाशन, 2022, पृष्ठ संख्या 245-246.
3. पॉल ब्रास, द प्रोडक्शन ऑफ हिंदू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्पररी इंडिया, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन प्रेस, 14 जून 2005.
4. असग़र वजाहत, असग़र वजाहत के आठ नाटक, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृष्ठ संख्या 238-239.
5. असग़र वजाहत, महाबली, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृष्ठ संख्या 94-95.
6. असग़र वजाहत, असगर वजाहत के नाटक, खंड-2, सं. डॉ. हैदर अली, अनन्य प्रकाशन, 2022, पृष्ठ संख्या 368.
7. वही, पृष्ठ संख्या 407.
हैदर अली
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
hali3@jmi.ac.in, 9990184757
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
एक टिप्पणी भेजें