रिश्तों का संसार : चिट्ठी-पत्री / ममता शर्मा

चिट्ठी-पत्री
- ममता शर्मा 

प्रिय दीदी,

मैं यहां कुशलता से हूं और ईश्वर से तेरी कुशलता की कामना करती हूं। बहुत सालों बाद तुझे पत्र लिख रही हूं। तेरी शादी के कुछ समय तक तुझे तरह-तरह से कोडिंग भाषा में पत्र लिखती रही। फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बंद हो गया। तू भी अपने वैवाहिक जीवन में व्यस्त हो गई और मैं मेरी पढ़ाई में। कुछ बातें कई वर्षों से तुझसे दिन-रात मन-मन में करती रहती हूं, पर ये सोच कर नहीं कह पाती कि पता नहीं तू क्या सोचेगी। आस-पास की दुनिया की लड़कियों से उनकी बड़ी बहनों के किस्से सुनती हूं तो बहुत दिल जलता है कि काश मेरे पास भी कुछ ऐसे किस्से होते। आज तेरा अब तक का मेरे साथ किया व्यवहार विश्लेषित करती हूं तो पाती हूं कि मैं तेरे द्वारा की मेरी अवहेलना को जान बूझ कर नकारती रही जैसे दिमाग को सब समझ आ रहा हो और मन स्वीकार न रहा हो। तेरा जब दूसरों के प्रति प्रेम भरा व्यवहार और परवाह देखती तो सोचती अगर यही तेरी प्रवृत्ति है तो मेरे साथ इतनी कठोर क्यों है तू? संभवत: मम्मी के व्यवहार की तुझ पर यही प्रतिक्रिया हो। बचपन में तूने मुझे संभाला है, मेरे गंद में सने कपड़े भी धोए हैं, बच्चों की मारपीट से भी बचाया है। लेकिन इन वाक़यों का लगभग 40 साल से हर सामाजिक समारोहों, होली दिवाली की छुट्टियों में जब भी सब परिवार के लोग इक्कठे हुए तब तेरे मुंह से इतना दोहरान हुआ है, और हर बार कुछ नया-नया जोड़कर, कि तेरे प्रति श्रद्धा मिट सी गई। तू हम तीनों बहन भाई में सबसे प्रतिभाशाली रही, फिर भी हर जगह अपनी तुलना किसी ना किसी से खुद ही करती रही। प्रतिभा काम की, पढ़ाई की, खेल की, नृत्य की या कोई भी हाथ का हुनर हो तू बेहतरीन रही। इसके लिए तो जी तोड़ मेहनत भी करती रही। लेकिन हर जगह तेरी कोशिश मुझे छोटा करने की रही। मुझे अपना प्रतियोगी और प्रतिद्वंदी मानती रही। तू बचपन से ही डरा धमका कर मुझे नियंत्रित करती रही। तुझे कभी ये सुहाया ही नहीं कि पढ़ाई, खेल, हाथ के हुनर या किसी भी मामले में मेरी प्रशंसा हो।

बचपन से ही तू शारीरिक रूप से हम तीनों में मजबूत थी, अत्यंत मुखर थी और सुंदर भी। हर काम को जल्दी सीख लेने का हुनर तुझ में था। लेकिन गुस्सैल और अस्थिर स्वभाव की धनी भी थी। ये गुण मम्मी से आया था तुझमें। और इसी अवगुण के कारण मैं हमेशा तुझ से डरती रही। तूने हमेशा इस तथ्य को माना कि मम्मी मुझे ज्यादा प्यार करती है, मुझे इस घर में ज्यादा सुविधाएं और अवसर मिले हैं। जबकि ऐसा कतई नहीं है। मैने हमेशा एक बड़ी बहन को मिस किया है। और अवसरों के लिए संघर्ष किया है। याद है तेरी शादी के बाद जब गुड़िया होने वाली थी तब मैने तुझे मेरे इच्छित से मेरे प्रेम के बारे में तुझे बताया था और शादी में मदद के लिए कहा था लेकिन तूने अपनी इमेज को बचाने के लिए इस मामले से खुद को बिलकुल विलग कर लिया। ये वो समय था जब पहली बार मेरे दिमाग ने कहा कि तू मम्मी की प्रतिकृति है। लेकिन मेरा मन हमेशा एक नई उम्मीद में लगा ही रहा तेरे साथ। हां तेरी गुड़िया से हमेशा कुछ अलग सा प्रेम रहा मुझे। जब तू इसे कुछ दिन के लिए छोड़ गई थी तब घर से लेकर कॉलेज तक हमेशा ये मुझसे चिपकी रही। मुझे लगता था कि ये मेरी जिम्मेदारी है, तू मेरे भरोसे छोड़ गई है इसे। इसके लिए रातों को जागना भी बुरा नहीं लगता था। लगता था इसके माध्यम से तुझ से कोई कनेक्शन बनेगा लेकिन व्यर्थ।

फिर नए-नए सैलाब आए जीवन में लेकिन तूने कभी वास्ता नहीं रखा मुझसे या मेरे दुखों से, कभी नहीं।

बड़ी बहन होने के नाते कभी कोई सलाह, कोई मार्गदर्शन या कोई मानसिक सहारा भी नहीं मिला। कभी दो मीठे बोल या कभी मेरा पक्ष सुनने वाला भी कोई नहीं था इस परिवार में। शादी के बाद तूने खुद को विलग कर लिया इस परिवार से, इस परिवार के सुख-दुखों से, जिम्मेदारियों से। सही है, तुझे इस परिवार से जिस प्रतिष्ठा, प्रेम और महत्व की दरकार थी वो नहीं मिली लेकिन वो हममें से किसी को भी नहीं मिली, ये तू नहीं देख पाई। तूने अपनी दृष्टि को इतना संकीर्ण कर लिया कि स्वयं के बच्चे पति सास-ससुर से आगे कुछ न दिख सके।

कितने किस्से बताऊं दीदी, पिछले 20 सालों में जितनी बार तुझसे मिली हर बार तेरी अवहेलना, चिढ़ का शिकार हुई और हर बार खुद के दिमाग को ही झुठलाया मैने और अगली बार नई उम्मीद के साथ तेरे लिए हृदय के द्वार खोल लिए। पर अब मन और दिमाग दोनों ही मैनिपुलेट होने बंद हो गए। छोटे मामा की लड़की की शादी में फेरो के वक्त जियाजी की किसी बात पर प्रशंसा पर तूने कहा कि "तुझे तो मैं ही गलत लगती हूं" मामीजी के पुस्तक विमोचन पर तूने भरपूर बेइज्जत किया। सबके साथ पूजा करने मंदिर गई पर मुझे नहीं पूछा। गुड़िया की शादी में तो सारी हदें पार हो गई। एक-एक घटना, दरवाजे पर स्वागत से लेकर विदा होने तक पल-पल घुटती रही, तेरे दोस्तों के सामने, ननद के सामने कोई मौका तूने छोड़ा नहीं। गुड़िया से अगर इतना मोह नहीं होता तो कभी की बीच में ही चली गई होती मैं। तूने अलग जगह रुकवाया और एक बार भी ना पूछा और न फोन ही किया। उस जगह तू और तेरे दोस्त। ये शादी तो इतने मिथक तोड़ गई कि क्या कहूं। तुझे तेरे looks, तेरी presantations के अलावा शायद ये याद भी नहीं था कि तेरी छोटी बहन भी आई है। मैं उस सामान्य से मेहमान की तरह थी जिसे औपचारिकता वश बुलाया जाता है और वो ना भी आए तो फर्क नहीं पड़ता। किसी गैर की शादी में भी जाओ तो प्रेम, मान-सम्मान मिलता है लेकिन इसमें तो मान दूर स्थान भी नहीं था किसी के हृदय में। एक भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने के लायक नहीं समझा तूने, लेश मात्र विश्वास नहीं किया। ना बच्ची को देने वाले गहने दिखाए, ना सगाई के समय पास बैठाया, न घर में रुकवाया। मेहमानों से भी बद्तर स्थिति थी मेरी। जिस दिन गुड़िया फिर से आई थी और जंवाईसा का खाना था उस रात एक बजी थी रसोई में मुझे, सबके जाने के बाद अपन सबने खाना खाया था, लेकिन उस रात भी तूने अपनी ननदों के साथ खाया और मैने अकेले।

तीन महीने दिन-रात दौड़-दौड़ कर तैयारियां की थी, बहुत उत्साह के साथ एक-एक काम किया था। पर सब तेरे लिए व्यर्थ था। संगीत संध्या में भी तू और तेरे दोस्त ही रहे स्टेज पर, मैं और भाभी तो नकारे गए। उन्होंने तो रोकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर दी लेकिन मैं अंदर-अंदर ऐसी घायल हुई कि इस अवसाद ने मुझे डेढ़ महीने बिस्तर से उठने नहीं दिया। पर तुझे क्या।।।।।

तूने परिवार में सबसे नाराजगी का बदला मुझसे लिया।

शादी की तैयारियों में भी तूने मुझे कोई जगह नहीं दी। अच्छी बात है तू बहुत सक्षम है, जियाजी संसाधन संपन्न है। पर हर बार मैने नए सिरे से प्रयास किया है और तेरे हृदय के पाट बंद पाए है। मम्मी से चिढ़ती-चिढ़ती तू धीरे-धीरे मम्मी सी होती चली गई।

धीरे-धीरे बुरा लगना कम हो रहा है दीदी, लगता है उम्मीदें मर रही है कि कभी रिश्ते सुधरेंगे, संभलेंगे, संवरेंगे। धीरे-धीरे इस तकलीफ की आदत बन गई। अब ये खटास कहीं अगली पीढ़ी में ना आ जाए। बच्चों को भी अब समझ आने लगा है शायद। ज्यादा दिन उन्हें नहीं समझा पाएंगे। ईश्वर ना करे उनके भी अपने से रिश्ते हों। पापा और मम्मी को, जियाजी को, सरिता कविता को जब अपने भाई-बहनों से व्यवहार करते देखती हूं तो अक्सर कहती हूं भाग्यशाली हो आप लोग।

हो सकता है तुझे भी मुझसे कुछ ऐसे ही गिले हों और मुझे कहे नहीं हों। मैने न्यूमरोलॉजी में देखा था, अपना मूलांक एक ही है, तो हो सकता है तुझ पर भी कुछ ऐसा ही बीता हो या तू भी ऐसा ही सोचती हो। जो भी हो जीजी तू एक बेहतरीन पत्नी, शानदार मां, सफल बहु-भाभी और पापा का मान बढ़ाने वाली बेटी जरूर बनी हो लेकिन एक स्नेह देने वाली बड़ी बहन होने में जरूर कमी रही।

मुझे जानने-समझने और कम से कम सुनने का समय और मन तेरे पास कभी रहा ही नहीं। एक पक्षीय सोच के साथ जीवन में मेरे साथ बीती हर विपत्ति में मेरी गलती ढूंढने की बजाय काश तू भी मेरे प्रति मन रखती तो मैं आज इतनी टूटी न होती। मैं वो न होती जो हूं। ये पत्र ना लिखती तुझे। समाज सेवा की ओर ना मुड़ी होती।

टिप्पणी- गुम हुई चिट्ठी-पत्री की विधा को पुनर्जीवित करने, आपाधापी भरे इस जीवन में ठहरकर सुस्ताने और रिश्तों को सहेजने के उद्देश्य से हमने अपनी माटी के तिरपनवें अंक से ‘रिश्तों का संसार’ ‘नाम से कॉलम शुरू किया था। तब से हर अंक में हम लगातार चिट्ठियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों द्वारा इसे सराहा भी गया और लेखकों ने भी लिखकर सुकून महसूस किया। लिखने का वरदान हर किसी को नहीं मिलता। ऐसी ही वरधात्री हमारी साथी ममता शर्मा ने अपने आसपास नज़र डाली तो मिली एक स्त्री जो रिश्तों मिली उपेक्षा के कारण घुटन और निराशा में जी रही थी। ममता जी ने पत्र के माध्यम से अपनी बात उनकी बहन तक पहुँचाने का प्रस्ताव रखा। वे राजी हो गई। पुराने समय में भी जब साक्षरता कम थी, जनसंचार के माध्यम सीमित थे तब लोग हरकारे से संदेश भिजवाते, पोस्टमैन से या किसी पढ़े-लिखे युवा से अपनी चिट्ठी लिखवाते थे। ममता शर्मा ने वही काम किया है और इसका माध्यम बनी है आपकी अपनी पत्रिका ‘अपनी माटी’ (विकुश)

ममता शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, एस. बी. के. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय जैसलमेर
mamtasharma51103@gmail.com, 9414760713

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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