समकाल के ‘असमय’ को असमय कहने वाली कविता
- निरंजन कुमार यादव
मनुष्य होने का अर्थ सहृदयी एवं संवेदनशील होना है। संवेदनशीलता किसी लिजलिजी भावुकता से नहीं बल्कि जीवन-जगत के सत्य के प्रति प्रतिबद्ध रहने से विकसित होती है। कोरी भावुकता व्यक्ति को सहृदयी नहीं दुर्बल बनाती है, जबकि मनुष्य होना दुर्बलता से मुक्ति है। इसी मुक्ति की अमर गान है- कविता। यह मुक्ति मानसिक वृत्तियों के साथ वैज्ञानिक चेतना के बिना सम्भव नहीं है। जबकि हमारा ‘असमय’ भावुकता का घटाटोप रचकर एक ऐसी अवैज्ञानिक और अंध आस्थामूल दुनिया बनने की तरफ अग्रसर है जहाँ तर्क और प्रश्न करना ही सबसे बड़ा अपराध है और हर समस्या का समाधान हिंसा और हत्या है। इस असमय को असमय कहने वाले साहसी कवि हैं- राकेश रंजन। युवा कवि राकेश रंजन की कविताएं कविता के समकाल में महत्त्वपूर्ण तो हैं ही साथ में उनके शब्द चयन भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। शब्दों के चयन में जैसी सतर्कता एवं बारीकी राकेश रंजन के यहाँ दिखाई पड़ती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।
प्राय: हम अपनी बात-चीत या लेखन में 'हमारा समय' शब्द का प्रयोग करते हैं और इस समय में समय की विडम्बनाओं और समस्याओं को रेखांकित करते हैं। यह ठीक बात नहीं। जो समय मनुष्यता के प्रतिकूलता का समय है वह कतई 'हमारा समय' नहीं हो सकता। वह 'हमारा असमय' ही होगा। इस असमय को असमय कहने की ताकत रखती हैं राकेश रंजन की कविताएं और हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम इस असमय की दुश्वारियों- भय और हिंसा से मनुष्य की स्वतंत्रता और मुक्ति कैसे मिले? इसकी बेचैनी साफ-तौर पर राकेश रंजन की कविताओं में परिलक्षित होती है। वह दहशत और दरिदंगी से भरे ‘असमय’ की पहचान करते हैं। जहाँ खेत की फसलों की तरह किसानों और मजदूरों को काट दिया जाता है। बागों की तरह सैकड़ों घर उजाड़ दिए जाते हैं। हिंसा और हत्या के बढ़ते इस समय में हर जगह खून दिखाई पड़ना आम बात हो गई। इसके साथ यह भी जरूरी नहीं है कि जो इन सब चीज़ो को आज देख रहा है, वह कल बचा रहेगा कि नहीं रहेगा- “दहशत और दरिंदगी से भरे/हमारे इस असमय में/हो सकता है/घर लौटते वक़्त दिख जाएँ/फ़सल की तरह काटे गए/किसानों, खेतिहर मज़दूरों के शव/या दिख जाएँ/बाग़ों की तरह उजाड़े गए/सैकड़ों घर/जंगल-जैसे काटे गए/अनगिनत लोग।/हो सकता है घर लौटूँ तो देखूँ/पिता की कटी गर्दन/भाई का छलनी-छलनी बदन/माँ की कटी छाती/चिरनिद्रा में लीन बहन निर्वसन/ख़ून और ख़ून और ख़ून इधर-उधर।/दहशत और दरिंदगी से भरे/हमारे इस असमय में हो सकता है.../हो सकता है मैं ही न लौट पाऊँ/अपने घर।”
हमारे यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है कि बिना मरे मोक्ष नहीं मिलता। ठीक वैसे ही बिना सत्य के प्रति अडिग और संवेदनाशील हुए साहित्य का सृजन संभव नहीं है। राकेश रंजन की कविताओं में सत्य पूरी संवेदन शीलता के साथ उपस्थित है। जिसके माध्यम से हम अपने जीवन- समय- समाज और परिवेश को देख-समझ एवं महसूस कर सकते हैं।
राकेश रंजन के अब तक तीन काव्य संग्रह 'अभी-अभी जन्मा है कवि’ (2007), ‘चाँद में अटकी पतंग’ (2009) और ‘दिव्य कैदखाने में’ (2017) प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा हिन्दवी, हिन्दी समय और कविता कोश आदि ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर भी इनकी कविताएँ उपलब्ध हैं। इनकी कविताओं से गुजरतें हुए यह हम सहज रूप से कह सकते हैं कि राकेश रंजन भरीपूरी मनुष्यता और मानवीय मूल्यों को तरजीह देने वाले कवि हैं। जिसमें हम जनवाद, प्रगतिवाद एवं राष्ट्रप्रेम के भावबोध को अपनी सुविधानुसार ढूंढ सकते हैं, लेकिन कवि की प्रतिबद्धता प्रगतिशील लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति है। इसीलिए इनकी कविताओं में झूठी एवं जनविरोधी सत्ताओं की कड़ी आलोचना मिलती है। सत्ता का मतलब सिर्फ राजनीतिक सत्ता नहीं बल्कि वे सभी सत्ताएं जो दूसरे के हक को मारकर अपना विकास कर रही हैं या अपनी ताकत या तिकड़म से दूसरों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहती हैं। 'हल्लो राजा', ‘सुअरवा’, ‘महानगर में बकरी’, ‘तुम्हारे अद्भुत बोल’, ‘राजा अडलिन’, ‘चल रंजनवा महानगर’ आदि कविताओं में इसकी बानगी देखी जा सकती है–
अच्छे दिन आयेंगे, ढम ढम खूब बजाया ढोल ॥
नहीं पता था कर दोगे तुम भारत का भंडोल॥
अब तुम हमरा भाग्य हसोथो, हम चोथेगे ओल ॥
विषय चयन की सजगता और कहन की साफगोई कवि राकेश को अपने समकालीनों में विशिष्ट बनाती है। कविता के इस काल खण्ड में यदि कविताओं की प्रवित्तियों और शैलियों के साम्य पर कोई समूह निर्मित होगा तो वह नरेश सक्सेना, सुभाष राय, दिनेश कुशवाह एवं राकेश रंजन का होगा। हो सकता है यह मेरे अध्ययन की सीमा हो, लेकिन सम्प्रेषणीयता के मामले में यह कवि मुझे एक जैसे लगते हैं। जिनके यहाँ समकालीन कविता की सभी विशिष्टताओं के साथ कवितापन बचा हुआ है। ऐसे में यदि हम राकेश रंजन की कविताओं की परम्परा तलाश करें तो यह केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन से होते हुए कबीर तक पहुँचती हैं। जिनके यहाँ अपने समय की विकृतियों और विडम्बनाओं को बड़ी संजीदगी से कविता में पहचाना गया है। इसके साथ-ही-साथ राकेश रंजन इस मामले में बेजोड़ हैं कि वह एक तरफ समय की नब्ज पर अपनी पकड़ रखते हैं तो दूसरी तरफ कविता को कोरी घोषणा या बयान नहीं बनने देते-
जिस माँ ने जन्म दिया वह चली गई
जिस भाषा को प्यार किया
वह छली गई।
जिस भूमि ने पोसा
उसका चाम तक उतारा गया
जिस देश में पैदा हुआ।
वह मारा गया।
राकेश रंजन अपने स्वभाव से सुगम कविता रचने वाले कवि हैं। यह कविता के समकाल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले उन कवियों में हैं जिन्होंने लोक को अपना आधार बनाया है। इन्होंने अपनी कविताओं में सहज जन भाषा का प्रयोग लोक लय के साथ बड़ी कुशलता से किया है। लोक गीत, लोक गाथा, लोक स्मृति और लोक जीवन के अनेक बिम्ब एवं दृश्य इनकी कविताओं में प्राणवायु की तरह प्रवाहमान हैं। दरअसल लोक से अपना रिश्ता बनाना अपनी परम्परा तथा संस्कृति से जुड़े रहना भी है और उसे विस्तार देना भी है। लोक की यह एक विशिष्टता है कि उसकी ताजगी सदैव बनी रहती है। यह ताजगी संवेदना और भाषा दोनो स्तरों पर बनी रहती है। यह एक ऐसा अक्षय स्रोत होता है जिसका स्रोत कभी सूखता नहीं। युवा कवि राकेश रंजन के पास भी यह अक्षय स्रोत है जिसके सहारे वह आधुनिक हिन्दी कविता को लोक जीवन के करीब ले जाते हैं और हमारा लोक मन उसे सहज रूप में स्वीकार करता है। यह स्वीकार्यता उम्मीद की है। अंततः सब कुछ ठीक होने की है। मरण में सृजन की है-
सूखी शाख पर
एक पत्ता खिला है।
तो तुम क्यों तरंगित हो, कवि
तुम्हें क्या मिला है ?
कविता सिर्फ पा जाने के उद्देश्य से नहीं लिखी जाती है। भले बड़े-बड़े पुरस्कार कवि को न मिले, लेकिन उसकी जन स्वीकारोक्ति किसी भी पुरस्कार से बड़ी होती है। आज के समय में कवियों का एक ऐसा जत्था तैयार हो गया है जो सिर्फ पुरस्कार वाले मंचों पर दिखाई देता है। यह या तो पुरस्कृत होते हैं या पुरस्कृत करते हैं। वह बड़े-बड़े शहरों-महानगरों के बड़े-बड़े आयोजनों में दिखते हैं। वह कवि जनता के दुःख-दर्द के समय नहीं दिखाई देते। वह किसानों के साथ नहीं दिखते। वह मददगारों के साथ नहीं दिखते। वह सिर्फ बड़े-बड़े मंचों पर दिखते हैं। ‘तुम्हे कहाँ देखा’ कविता ऐसे ही लोगो की शिनाख्त करती है- “इससे पहले भी तुम्हें/कहीं देखा है!/विदर्भ के किसानों के साथ/तुम नहीं थे/सिंगुर और नंदीग्राम में भी नहीं/फिर कहाँ देखा तुम्हें?/क्या तुम किसी राहत-शिविर में/वालंटियर थे?/किसी बाढ़ या भूकंप के मारों के साथ?/मुझे ठीक-ठीक याद नहीं/खोए हुए बच्चे को उसके घर पहुँचाने वाले/क्या तुम्हीं थे?/रात में फँसे उस आदमी को बचाने वाले?/किसी जुलूस में शामिल?/ किसी आंदोलन में शरीक?/शायद किसी जलसे में देखा तुम्हें/पटना या दिल्ली के किसी मंच पर।”
कवि और कविता का एक सच यह भी है। जिसको कवि राकेश रंजन ने हम सबके सामने उघाड़कर रख दिया है। सच से प्रायः हम सभी वाकिफ होते हैं लेकिन उस सच को कहने का जोख़िम कौन उठाता है यह भी देखने वाली बात होती है। सच को कहना सत्ता के वर्चस्व को चुनौती देना होता है। यह चुनौती राकेश रंजन की कविताओं की वह विशेषता है जो उन्हें मरदवा कवि बनाती है। इस बात को हम सभी जानते हैं कि वर्चस्व की संस्कृति धीरे- धीरे साहित्य में भी व्याप्त हो चुकी है। साहित्य की भी अपनी मठाधीशी है। लोकल से लेकर ग्लोबल तक के साहित्यकार बटे हुए हैं। उनके अपने- अपने खेमे हैं। कवियों के अपने आलोचक हैं। कवि अपनी- अपनी समीक्षाएं लिखवाते हैं। अपने को महाकवि घोषित करवाते हैं। राकेश रंजन इस बात को भी तस्दीक करते हैं। वह भी महानगर में जाने-रहने और आलोचकों को पटाने की संस्कृति पर व्यंग्य करते हैं। व्यंग्य का पैनापन राकेश रंजन की कविताओं की वह विशिष्टता है जो पाठक के मन में गुदगुदी के साथ आत्म विश्लेषण के भाव पैदा करता है। यह गुणीभूत व्यंग्य इन्हें लोक से मिला है। इसलिए इनकी काव्यभाषा मनुष्यता की कोई नयी भाषा नहीं लगती है, इन्होंने जिस लोक का सुख-दुख कविता में रचा है, उन्हीं के छंद में, उन्हीं भाषा में लिखने की कोशिश की है। अपनी परम्परा से कटी कविता के लिए यह भले नई लगे, लेकिन कविता की असल परम्परा यही रही है। जैसे- “सोन चिरैया! सोन चिरैया!/उड़ने में कैसा लगता है?/मुफ़्त नहीं बोलूँगी, भैया!/इसका तो पैसा लगता है।”
‘सोन चिरैया’ लोक साहित्य का एक जबरदस्त रूपक है; जिसका प्रयोग लोक साहित्य के सभी विधाओं में हुआ है। उसी सोन चिरैया का आधुनिकीकरण राकेश रंजन की कविताओं में हुआ है। रूपक वही है लेकिन कहन की शैली से उसका यहाँ अर्थ बदल गया है।
राकेश रंजन छंदबद्ध एवं छंदमुक्त कविता लिखने में सिद्धहस्थ हैं। दोनों में वह साधिकार लिखते हैं। इसीलिए इनकी कविताएं कोरा गद्य होने से बच जाती हैं। जिसका आरोप आधुनिक कविताओं पर प्रायः लगा करता है। इस आरोप से राकेश रंजन पूर्णतः मुक्त हैं। लय उनकी कविताओं का अनिवार्य तत्व है। जिसके ताकत पर इनकी कविता जन-जन तक पहुँचने की क्षमता रखती है और यह पाठकों को याद रहती है जैसे-
“कहा क़साई ने बकरी से- मैं तुझ पर मरता हूँ/तेरे सुंदर खुर-कमलों पर उर अपना धरता हूँ/पुन: कहा उसने बकरी से- चल, दोनों चलते हैं/दूर कहीं इस क्रूर जगत से, यहाँ प्राण जलते हैं/बात क़साई की सुन बकरी ख़ुशी-ख़ुशी मिमियाई/बोली- मैं भी तेरी ख़ातिर छोड़-छाड़ सब आई/चला क़साई बकरी को ले एक गहन निर्जन में/जहाँ पुकारें घुटकर मरतीं, उसी भयानक वन में/कहा क़साई ने फिर उससे- सुन मेरी दिलजानी/प्यार माँगता त्याग, प्यार का मानी है क़ुरबानी।”
साम्प्रदायिक हिंसा किसी भी समाज के लिए अभिशाप है, लेकिन जो किसी सम्प्रदाय का पक्षधर नहीं है वह साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वालों का दुश्मन है। क्योंकि साम्प्रदायिकता की आँच पर अपनी सत्ता की रोटियाँ सेकने वालों की पोल यही लोग खोलते हैं- हरा होता हूँ/ तो हिंदू मारते है/। केसरिया होता हूँ तो मुसलमान/ हत्यारे और दलाल मारते हैं/ सफेद होने पर। यह इस समय की एक ऐसी सच्चाई है जिस पर बहुत जिम्मेदारी के साथ सोचने की जरूरत है। इसीलिए हम देखते हैं कि राकेश रंजन अपनी कविताओं में मनुष्यता के पक्ष में ढेर सारे प्रश्न खड़े करते हैं, जिसका उत्तर पाठकों पर छोड़ देते हैं। इन प्रश्नो के सहारे चाहें तो हम शेष सृष्टि को देख- समझकर अपनी भूली हुई मनुष्यता पर खेद प्रकट कर सकते हैं या अपनी स्वाभाविकता की तरफ लौटने का रास्ता ढूंढ सकते हैं।
राकेश रंजन की कविताओं में ‘झुकना’ कविता मुझे बेहद प्रिय है। इस कविता पर थोड़ी सी बात किये बिना मेरी बात अधूरी रहेगी। नरेश सक्सेना की कविता ‘गिरना' से चाहे तो हम इसकी तुलना कर सकते हैं। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दोनों कवियों की कविताओं का अपना महत्व है। एक समर्थ कवि किसी भी शब्द का अर्थ कैसे ग्रहण करता है। यह कविता उसकी शानदार उदाहरण प्रस्तुत करती है-
जैसे फलों से लदा हुआ पेड़
झुकता है
पृथ्वी की हथेलियों तक
जैसे श्रद्धा से झुकता है मन
जैसे मेघ झुकते हैं
किसान झुकता है
फ़सल झुकती है दानों से भरकर
जैसे पृथ्वी झुकी है
अपने अक्ष पर
जीवन को संभव करती
वैसे नहीं
जैसे हमले को झुकता है जानवर
संवेदना की स्वाभाविकता में झुकना हमारी संस्कृति का एक मूल्य है लेकिन अस्वाभाविक वर्चस्व के सामने झुकना हमारी संस्कृति का हनन है। मनुष्य की मनुष्यता का अपमान है। यह बात सदैव स्मरण रखने योग्य है कि जब हमारे देश में विदेशी सत्ता का बोलबाला था, राजतंत्र अपने चरम पर था, लोकतंत्र की कोई परिकल्पना नहीं थी, वर्चस्व के पास अनियंत्रित शक्तियां थी तब भी यह देश नहीं झुका। इस देश का पुरुषार्थ नहीं झुका। कबीर नहीं झुके, तुलसी नहीं झुके, कुम्भन नहीं झुके। ऐसे अनेक लोगों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जिन्होंने वर्चस्व की शक्तियों के आगे घुटने टेककर उनके मनसबदार (मानसिक गुलाम)नहीं हुए। उन लोगों ने इंसानियत एवं ईमान को सुरक्षित रखते हुए इस देश का स्वाभिमान बचाया। राकेश रंजन अपनी इस कविता के अंतिम बंद में इसी बात को तस्दीक करते हैं-
शीश झुकता है सौंदर्य के आगे
जैसे माँ झुकती है
माँ के स्तन झुकते हैं संतान के लिए
दूध से भारी आह्लाद से भरे
वैसे नहीं
जैसे तानसेन झुकते थे दौलत की चौखट पर
झुकना
जैसे कुंभन झुके थे
उस चौखट से सिर बचाकर
निकलते हुए।
निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि राकेश रंजन हिंदी के उसी स्वाभिमान के कवि हैं जिस स्वाभिमान के साथ कुम्भन सत्ता और दरबार की चौखट से अपना सिर बचाकर निकल गए। राकेश रंजन की कविताएँ राकेश रंजन को समकालीन हिंदी कविता के एक ऐसे महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित करती है, जिनके बगैर कविता के समकाल में हिंदी कविता के भाव-स्वभाव एवं स्वाभिमान पर कोई भी बात अधूरी होगी।
निरंजन कुमार यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर
8726374017, niranjanbhu@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें