कैम्पस के किस्से: हैदराबाद विश्वविद्यालय
- पीयूष कुमार
मैं और जसवंत कैम्पस में साइकिल चलाते हुए बारिश में भीग रहे थे। दिन भर उमस के बाद दोपहर बाद करीब तीन बजे बारिश शुरू हुई थी, इसलिए हमें खूब मज़ा भी आ रहा था। पहली बारिश का लुफ्त उठाते हुए हम साइकिल से लगभग पूरा कैंपस घूम चुके थे। घूमते-घूमते थक भी चुके थे और हमें थोड़ी-थोड़ी ठंड भी लग रही थी पर मन नहीं भरा था। फिर स्वतः दोनों की साइकिल का हैंडल साउथ कैम्पस की ओर घूम गया, किसी ने कोई प्लान नहीं किया था। जिस प्रकार 'कफ़न' कहानी में घीसू और माधव के पैर शराब दुकान की ओर मुड़ जाते हैं। जैसे ही दोनों साउथ गेट से बाहर थोड़ा आगे गए, बारिश बंद। थकावट आनी शुरू हो गई। शायद बारिश हमें घूमने की ताकत दे रही थी, और कह रही थी तुम लोगों का नसीब अच्छा है जो तुम्हें यह मौका मिला हैं इसीलिए भीग लो। नहीं तो दुनिया पानी पीने को तरस रही हैं। थक कर वापिस गेट से प्रवेश कर कैंपस आए तो पता चला बारिश तो हो ही रही है। बाद में समझ आया कि बाहर तो बारिश हुई ही नहीं थी। इस तरह प्रकृति द्वारा ललचाना, हँसी भी आती है कि तुम्हारे पास पेड़ (कैम्पस में) हैं तो बारिश का मज़ा लो और कैम्पस के बाहर केवल इमारतें और फैक्ट्रियाँ हैं तो हेरो (हेरना अर्थात देखते रहो)। फिर एक दिन हम दोनों के बीच बात हो रही थी। मैने कहा- उस दिन गजब का कंट्रास्ट दिखा न! उन यथास्थितिवादियों के लिए अच्छा उदहारण था, जो लोग कहते हैं कि मेरे पेड़ लगा देने से क्या मेरे हिस्से की बारिश हो जाएगी या फिर मेरे अकेले के कचरा न उत्पादित करने से पोल्यूशन कम हो जाएगा क्या?
विश्वविद्यालय के कैम्पस में घुसते ही गर्मी से झुलसे बदन को ठंडी-ठंडी हवाएँ शरीर को ठंडक पहुँचाने लगती है। कैम्पस के बाहर कंक्रीट के जंगल में गाड़ियों व फैक्ट्रियों की आवाज़ से परेशान कानों को पक्षियों की आवाजें सुनने से राहत मिलती है। ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों को देख कर ऊब चुकी आँखें यहाँ के सैकड़ों साल पुरानी रॉक्स (मशरूम रॉक, हाय रॉक, लोटस रॉक, व्हाइट रॉक आदि) को देखकर आनंदित हो जाती है। बाहर की गंदी नालियों व उद्योगों से निकली जहरीली तेजाबों से मुक्ति मिल जाती है। उसने कहा तुम्हें पता है -"इस बार हैदराबाद विश्वविद्यालय को भारत के सबसे ग्रीन कैम्पस का खिताब मिला है"। “सच में, क्या उस निर्दयी रेवंत अन्ना द्वारा चार सौ एकड़ जमीन के जंगल काट देने पर भी?”
किसी भी घटना को सबसे बड़ी घटना की संज्ञा तभी तक दी जाती है जब तक उससे बड़ी घटना न घट जाए। इसी तरह हैदराबाद विश्वविद्यालय में मेरे लिए सबसे बड़ी घटना वह थी जब राज्य सरकार द्वारा कॉरपोरेट के नाम पर चार सौ एकड़ जैव विविधता भरे जंगल के साथ-साथ सैकड़ों साल पुराने मशरूम रॉक को कैंपस से छीने जाने पर आंदोलन हुआ था। जिसमें यह पता चला कि कोई भी राजनीतिक पार्टी पर्यावरण सरंक्षण व जनकल्याण के विषय में तभी तक सोच पाती है जब तक वह सत्ता में न होकर विपक्ष में हो क्योंकि जल-जंगल-जमीन, आदिवासी व शिक्षा को लेकर केंद्र सरकार की आलोचना करने वाले हमारे नेता प्रतिपक्ष ने तेलंगाना में अपनी ही सरकार द्वारा भारी मात्रा में पर्यावरण को नुकसान करने पर चूं तक नहीं किया।
शनिवार का दिन था। छुट्टी थी। मैं और जसवंत केवल और केवल घूमने के इरादे से ईस्ट कैंपस यानी मशरूम रॉक की तरफ जा रहे थे। जैसे ही एस.एन. स्कूल (सरोजनी नायडू, कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट) पार किए तो आगे बैरीकेट लगा हुआ था और बहुत सारे पुलिस वालों के साथ दो तीन बसें लगी हुई थी। हमने सोचा अचानक कैंपस में इतनी पुलिस क्यों आ गई। साक्ष्य के लिए एक फोटो ले लिए तभी दो तीन पुलिसवाले दौड़ते हुए आए और हमें उठाकर बस में डाल दिया। हम चिल्लाते रहे पर किसी ने कुछ नहीं सुना, हम बस इतना जानना, बताना व हँसना चाह रहे थे कि यदि कैम्पस में घुसना आतंकवाद (इस तरह जबरन तो आतंकवादियों को ही पकड़ा जाता हैं, विद्यार्थियों को नहीं) है तो हम पिछले दो वर्षों से आतंकवादी बने घूम रहे हैं, और तुम्हारे हाथ में आज लगे। बाद में दस पन्द्रह मिनट बाद कैंपस की पुलिस आने पर हमें छोड़ा गया। तेलंगाना राज्य सरकार कैंपस की चार सौ एकड़ ज़मीन, हजारों वर्षों से मोरों व हिरणों के घर को जबरन उजाड़ कर विकास करना चाह रही है। वही विकास जो बचपन से अपने घर के बगल में देखते आएं हैं कि किस तरह आदिवासियों को विकास के नाम पर उनके घरों से खदेड़ कर और न भागने पर नक्सली की संज्ञा देकर मार देते हैं। (मैं झारखंड से हूँ, वहाँ जंगल बचाने वालों को नक्सली कहना आम बात है) वह तो अनपढ़ गाँववासियों की बात है लेकिन यह तो विश्वविद्यालय है। माना कि स्टूडेंट्स यूनियन इसको लेकर थोड़ी देर से जगी लेकिन जगी तो। लड़ाई जारी रही, स्टूडेंट्स अपने क्षणिक भविष्य (पढ़ कर जॉब पाना आदि) को छोड़कर असली भविष्य (पर्यावरण) को बचाने निकले। अंज़ाम में लाठी, अपने ही वीसी द्वारा सरकार का पक्ष लेकर अपने ही छात्रों की गिरफ़्तारी.. मिली। फिर भी सभी ने मिलकर अंततः कॉरपोरेट और कॉरपोरेट समर्थक सरकार व वीसी को हराया। फिलहाल सुप्रीम कोट ने केस को हाथ में लिया है, और सरकार को पुनः पेड़ लगाने का ऑर्डर भी दिया है।
आंदोलनों से फ़ुरसत मिलने के बाद, सिर से कॉरपोरेट अत्याचार का खतरा हटने के बाद विश्वविद्यालय के शुरुआती दिनों की याद आने लगी। पचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति जरूरी होने के कारण यहाँ अधिकतर समय क्लासरूम में बीतने लगा था। क्लासरूम का माहौल जैसा भी हो लेकिन हॉस्टल से क्लासरूम तक की यात्रा बहुत ही मज़ेदार थी। साउथ होस्टल से नॉर्थ में क्लास लेने जाने के लिए अधिकतर लोग तीन चीजों का सहारा लेते हैं। पहला कैंपस बस, दूसरा साइकिल और तीसरा लिफ्ट लेकर जो कि बहुत आसानी से मिल जाती है। लिफ्ट माँगने की स्टाइल भी यहाँ की यूनिक है - "हाथ की मुट्ठी बाँध कर अंगूठा को मुट्ठी के ऊर्ध्वाधर निकले रखकर अंगूठे का इशारा जिधर जाना है उस तरफ करना होता है और मुट्ठी का दूसरा भाग गाड़ी वाले की तरफ।" लेकिन सबसे मजेदार साइकिल चलाकर जाना होता हैं जिससे जाते हुए कैंपस की पर्यावरणीय सुंदरता को आहिस्ता-आहिस्ता आनंद उठाते हुए जाते हैं। चलते-चलते कैंपस के फूलों का संवाद सुनते हुए जाना-
गुलाब- "आज तो मजा ही आ गया, कार से जाते हुए वीसी ने भी मुझे छुआ, सूंघा और कहा कि पूरे कैंपस में इस तरह का सुंदर गुलाब होना चाहिए।"
बोगनवेलिया-"पूरे कैंपस क्या, पूरे भारत में भले ही तुम्हें लगा दे लेकिन जिस तरह का तुम्हारे सरवाइव करने का डिमांड है कि ज्यादा दिन टिक नहीं पाओगे। मुझे देखो में कहीं भी किसी भी हालात में सरवाइव कर जाता हूँ।"
गुलाब बोला -"तुम तो चुप ही रहो गरीब! बड़े-बड़े लोगों के द्वारा हमारा कितना खयाल रखा जाता है, पता भी है तुम्हें?
तभी पढ़ा लिखा कुकुरमुत्ता गुलाब को बोला- "चुप! केपिटीलिस्ट ! दूसरों का खून पीकर इतराता है। तुम्हें जीने के लिए जितनी डिमांड है और जिस तरह का तेरा रवैया है ज्यादा दिन अस्तित्व में नहीं रह पाओगे।"
(शायद कुकुरमुत्ता निराला की कविता सुन चुका था)
“अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पाई ख़ुशबू, रंगोआब,
ख़ून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपिटीलिस्ट !”...
कुकुरमुत्ता गुलाब पर भारी पड़ जाता है और गुलाब चुप हो जाता है।
विश्वविद्यालय के राजनीतिक माहौल की बात करें तो जैसा कि लेफ्ट, राइट, फेमिनिज्म, मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद जैसे शब्दों का पालन-पोषण ज्यादातर विश्वविद्यालयों में ही होता है उसी प्रकार यहाँ भी इनका खूब पालन-पोषण हो रहा है लेकिन यहाँ आकर अपने क्लास के एक प्रोफेसर से एक और शब्द से परिचित हुआ, जिसका नाम था सूडो (छद्म) मार्क्सवाद अर्थात मार्क्स की टोपी पहन कर मार्क्सवाद को ही टोपी पहनाना। बाद में पता चला जिन्होंने इस नए शब्द से परिचित करवाया था वो खुद इसी कैटेगरी में थे इसलिए उन्हें इसकी परिभाषा अच्छे से पता थी। फिलहाल सर अभी हमारे ही कुछ क्लासमेट से बदला लेने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दिए हैं क्योंकि उन विद्यार्थियों में से कुछ ने सर के एक गलत बयान के खिलाफ आवाज उठायी थी। सर उन विद्यार्थियों को चौथे सेमेस्टर में कम उपस्थिति का बहाना बनाकर अपने पेपर में परीक्षा देने नहीं दे रहे हैं जबकि इससे पहले अन्य विभाग या इसी विभाग में अतिरिक्त क्लास लेकर या फिर अतिरिक्त काम देकर परीक्षा देने दिया गया था। साथ ही इन लोगों की अटेंडेंस मात्र एक व दो क्लास की ही कम थी। ऐसे विद्यार्थी फिलहाल कई दिनों से परेशान हैं। वे दिन भर विभाग में बैठे रहते हैं कि शायद किसी तरह परीक्षा देने को मिल जाए जिससे उनका एक साल बर्बाद न हो। एक दिन हमने उन लड़कों से पूछा - "भाई, क्या हुआ तुम्हारी परीक्षा का?” उन्होंने कहा "यार तुम्हें पता ही है, कई दिनों से हम विभाग का चक्कर लगा रहे हैं लेकिन कुछ सुनवाई नहीं हो रही है। इस पेपर के कारण हमारे बाकी तीनों पेपर खराब जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे सर चाह रहे हैं कि यह लोग परेशान और दुखी होकर बाकी पेपरों में भी फेल हो जाए ताकि घोषित कर दे कि हम थे ही निकम्मे। बाकी अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे हैं। हमने सर से माफ़ी भी माँगी है, हालाँकि हमारी कोई गलती नहीं थी। हाँ, इस तरह के विश्वविद्यालय में थोडा-सा सवाल पूछना या फिर आवाज उठाना अपराध है तो हमने ये अपराध किया है।" अब इतने बड़े विश्वविद्यालय में जहाँ इतनी स्वतन्त्रता है जो भारत में विरले ही किसी विश्वविद्यालय में होगी वहाँ अगर विद्यार्थी को क्लास में कुछ बात असंगत लगी और उन्होंने क्रॉस क्वेश्चन किया तो क्या गलत था। खैर... उन क्लासमेट्स से एक दिन और मिलना हुआ। हमने पूछा "भाई, तुम लोगों को तो परीक्षा नहीं देने दिया, अब क्या होगा?" उनका जवाब "यार हमने तो बहुत रिक्वेस्ट की। सब तरफ से कोशिश की पर सर नहीं मान रहे हैं। सभी प्रोफ़ेसर से लेकर विभागाध्यक्ष, यहाँ तक की डीन ने भी कह दिया है कि इन्हें मेन परीक्षा में बैठने नहीं दिया तो कम से कम सप्लीमेंट्री देने दे दीजिए लेकिन सर पूरे विभाग सहित स्कूल ऑफ़ ह्यूमैनिटीज को अपने हाथ में लेकर अड़ गए हैं कि इन्हें एग्जाम नहीं देने देंगे। एक दीदी थी जिन्होंने कहा कि “सर, आप मुक्तिबोध को पढ़ाते हैं, और वो आपके रोल मॉडल भी हैं तो तपाक से बोले- “मुक्तिबोध पढ़ाने से सभी लोग मुक्तिबोध थोड़ी न बन जाते हैं”। मुझे लगा हमारा परीक्षा तो ठीक है लेकिन कम से कम मुक्तिबोध को तो बख्शते।"
मुझे डर लग रहा है कि ये लड़के फैमिली तथा इंस्टीट्यूशनल प्रेशर के बीच दबकर कुछ कर न बैठे। वैसे भी यह इंस्टीट्यूशन रोहित वेमुला का इंस्टीट्यूशनल मर्डर पहले कर चुका है। इसके इतर कुछ महीने पहले ही हमारे विभाग के कर्मचारी विनोद अन्ना का भी इंस्टीट्यूशनल मर्डर हो चुका है। लेकिन उस लड़के ने आख़िर में कहा था कि "मरे हुए लोगों के बीच हम ज़िंदा रहने की कोशिश करेंगे।
पीयूष कुमार
हैदराबाद विश्वविद्यालय
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अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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