हम दरवेशों को कब रोना आता है
- विजय राही
यात्राएँ और ख़ास तौर से साहित्यिक यात्राएँ मुझे हमेशा सुख देती हैं। यात्राओं से किसी रचनाकार की रचनात्मकता ही नहीं निखरती बल्कि वह लोक के ज़्यादा क़रीब भी पहुँच पाता है। मैं अपने अतीत को याद करता हूँ तो मेरे लिए हिन्दी में साहित्यिक यात्रा का शुरुआती साल 2018 रहा। इससे पहले मैं उर्दू शायरी में काम कर रहा था और अपने काम से काफ़ी हद तक संतुष्ट था। इसके बावजूद मैं अपने इलाके के चर्चित कवि-कथाकारों में शुमार विनोद पदरज, प्रभात और चरणसिंह पथिक को तब तक पढ़ चुका था और प्रभावित भी था। दरअसल हुआ यूँ कि साल 2018 में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने अध्यक्ष ऋतुराज के मार्गदर्शन में एक मुहिम चलाई, जिसका उद्देश्य था साहित्य को गाँवों-अंचलों तक ले जाया जाए, युवा प्रतिभाओं की खोज की जाए... आदि आदि। किसी भी संगठन का एक उद्देश्य यह भी रहता है कि अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया जाए। इस मुहिम को नाम दिया गया- ‘अंचल सृजन यात्रा'। प्रलेस राजस्थान की यह एक अच्छी पहल थी। सृजन यात्रा राज्य के सुदूर गाँवों के लिए तय की गई थी। इसके लिए जयपुर में राजस्थान प्रलेस के सभी साथी जुटे और चर्चा हुई। सभी साहित्यकारों ने इसे समर्थन दिया। सब अपने निजी खर्च पर इस यात्रा के लिए राज़ी हुए।
इस यात्रा का पहला पड़ाव था करौली जिले में स्थित कथाकार चरणसिंह पथिक का गाँव-रौंसी और तारीख तय हुई 17 और 18 मार्च, 2018 । पथिक जी से मेरा अभी हाल का नया-नया परिचय था। प्रलेस राजस्थान द्वारा इसी साल जयपुर में आयोजित प्रथम समानांतर उत्सव में ऋतुराज, सत्यनारायण, कृष्ण कल्पित, ईश मधु तलवार और उमा से भी परिचय हो चुका था, परन्तु आयोजन की व्यस्तताओं की वज़ह से ज़्यादा बातचीत नहीं हो पाई थी। अब मुझे लगता है कि हमारे बीच अधिक संवाद नहीं होने के बावजूद एक रिश्ते की डोर तो बन ही चुकी थी। कुछ दिनों बाद पथिक जी का फोन आया और सृजन यात्रा के लिए उन्होंने मुझे अपने गाँव आने का निमंत्रण दिया। साथ में यह भी बताया कि जयपुर से सब साथी आने वाले हैं। मैं उन दिनों पथिक जी के गाँव के बारे में सोचता रहता था कि एक बड़े लेखक का गाँव कैसा होता होगा? क्या वह सामान्य-सा गाँव ही होता होगा? लेखक में कितना गाँव रहता है यह तो हम उसकी रचना से कमोबेश जान ही पाते हैं लेकिन गाँव में कितना लेखक होता है, ये जानने की मेरी उत्कंठा थी।
सृजन यात्रा का यह कार्यक्रम दो दिवसीय था। पहले दिन शाम को जनगीतों का कार्यक्रम था, दूसरे दिन सुबह काव्य पाठ था। मैंने अपने दोस्त सुजीत गौड़, चित्रा भारद्वाज, अमर सिंह (अमर दलपुरा), बलराम काँवट, राजू धीरोड़ा को फोन किया और पथिक जी का फ़रमान सुनाया। सबने रौंसी साथ चलने की सहमति दे दी। जयपुर से चित्रा-सुजीत और अन्य तमाम साथी सत्रह मार्च दोपहर को ही निकल चुके थे। दौसा से मैं और अमर दलपुरा साथ जा रहे थे सो मैं अपने गाँव से दौसा अमर दलपुरा के पास पहुँचा। हम दौसा से रौंसी को चित्रा के साथ उसी की गाड़ी में जाने वाले थे।चित्रा और सुजीत ने हमें लंबा इन्तज़ार करवाया। मेरा मन जल्द से जल्द रौंसी पहुँचना चाह रहा था। पर सब विपरीत चल रहा था। वैसे ही मैं अपने घरवालों को नाराज करके आया था, मेरी नई-नई शादी हुई थी तो घर में सबका उलाहना था कि दुल्हन को छोड़कर कहाँ जा रहे हो। इधर चित्रा-सुजीत ने लेट कर दिया। पर उनकी गाड़ी आते ही पता चला कि वे दो नहीं बल्कि पाँच लोग थे। उनके साथ उनके दो प्यारे बच्चे और चित्रा की ननद भी थी। देर से ही सही मुझे देरी का कारण समझ आया। संयोगवश चित्रा का ससुराल रौंसी था, सो रास्ते को लेकर कोई उलझन नहीं थी। परन्तु यह जानना भी दिलचस्प था कि ये मोहतरमा पथिक जी को नहीं जानती थी। हालाँकि इसमें उसका कोई दोष नही, चित्रा शुरू से जयपुर रहती है और ग़ज़लें कहती है। हम गीत-ग़ज़लें गाते-गुनगुनाते शाम ढलते-ढलते रौंसी पहुँच गए।
शाम को होने वाले जनगीतों के लिए मंच सज चुका था। सर्वप्रथम चरणसिंह पथिक जी ने सृजनयात्रा में उपस्थित सभी साहित्यकारों का स्वागत किया। इसके बाद इफ्टा की टीम के दिग्गज मुकेश वर्मा, हिमांशु झाँकल, मनीष कसाना द्वारा जनगीतों की प्रस्तुति शुरू होने वाली थी। रौंसी के साथ-साथ आसपास के गाँवों के बड़े बुज़ुर्ग, युवा, औरतें, बच्चे पथिक जी के घर इकट्ठा थे। कुछ बुज़ुर्ग उन्हें बता रहे थे कि जागरण होगा। हहाहहा... यहीं हम पथिक जी की कहानी 'दो बहनें' की दोनों बहनों से मिले। ‘दो बहनें’ कहानी पर बॉलीवुड के बड़े डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने ‘पटाखा’ हिन्दी फिल्म भी बनाई है। रात को जनगीतों का कार्यक्रम शुरू हुआ। इफ्टा की टीम नेबहुत शानदार प्रस्तुति दी। कलाकारों ने मिर्जा ग़ालिब, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अदम गौंडवी, निदा फाज़ली के साथ-साथ स्थानीय लोकगीत- लागुंरिया और रसिया सुनाकर सबका दिल जीत लिया। इस आयोजन में ग्रामीणों की अच्छी भागीदारी रही ख़ासतौर से औरतों की भागीदारी भी ख़ूब थी, जो हमारे लिए ख़ुशी की बात थी। जनगीतों की इस ख़ूबसूरत शाम के बाद ‘ब्यालू’ (रात का भोजन) के लिए बुलावा आ गया। सबने कढ़ी के साथ मालपुए खाएं। मिर्च के टिरपोलों ने खाने का आनन्द और बढ़ा दिया। फिर देर रात तक ऋतुराज, कृष्ण कल्पित, ईश मधु तलवार, चरणसिंह पथिक, रामकुमार सिंह, गजेन्द्र क्षोत्रिय से साहित्य-सिनेमा पर चर्चा होती रही।
दूसरे दिन की शुरूआत नीम की दातून के साथ हुई। फिर छाछ-राबड़ी का कलेवा। सब लोग थोड़ा गाँव भी घूमे। हम चित्रा के ससुराल जाकर आएँ, सास-ससुर से मिलें। उनको भी पहली बार पता चला कि उनकी बहू लिखती है। गाँव में घूमकर वापस हम सब पथिक जी के घर नीम की छाँव में आ बैठे। धूप खिल गई थी। पथिक जी ने नीम नीचे बैठे सभी रचनाकारों को हॉल में रचना पाठ के लिए आमंत्रण किया। अब काव्य-पाठ शुरू हुआ। दो दर्जन से अधिक रचनाकारों ने अपनी रचनाएँ सुनाईं। युवाओं की पर्याप्त भागीदारी रही। संगठन महासचिव ईश मधु तलवार ने सृजन यात्रा के उद्देश्यों पर बात की, साथ ही अपने प्रकाशकाधीन उपन्यास 'रिनाला ख़ुर्द' का अंश सुनाया, बाद में ये उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर काफी चर्चित रहा। तलवार जी कोरोना में हम सबको छोड़ गए, उनके बगैर जयपुर की महफिलों की रौनकें चली गई। ऋतुराज ने अरावली पर्वतमाला की दयनीय होती दशा पर सार्थक कविता पढ़ी। कृष्ण कल्पित ने 'गंगू तेली' कविता पढ़ी। गजेन्द्र क्षोत्रिय ने पथिक की कहानी पर बेस्ड अपनी फिल्म 'कसाई' की शूटिंग के मज़ेदार किस्से सुनाये। ‘कसाई’ की शूटिंग रौंसी और आसपास हुई है। प्रेमचंद गाँधी, चरणसिंह पथिक, भागचंद गुर्जर, उमा, ज्ञान चंद बागड़ी, निशान्त मिश्रा, ए.एफ.नज़र, सुजीत गौड़, अमर दलपुरा के साथ दर्जन-भर से अधिक युवा रचनाकारों ने काव्य-पाठ किया। चित्रा भारद्वाज ने यहाँ पहली बार अपनी ग़ज़लें पढ़ी। मैंने भी दो ग़ज़लें पढ़ी, सब साथियों ने मेरा ख़ूब उत्साहवर्धन किया। वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में रचना-पाठ करना, साहित्य-सिनेमा और अन्य कलाओं की बारीकियों पर बात करना, वरिष्ठों के साहित्यिक अनुभव सुनना, उनके रचना कर्म के बारे जानना, साहित्य की उपयोगिता आदि पर बात करना सब मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। इस तरह राजस्थान प्रलेस की यह पहली अंचल सृजन यात्रा सम्पन्न हुई। मैं मानता हूँ कि मेरी सृजन यात्रा में यह यात्रा बीज की तरह महत्व रखती है और हम सब यह जानते हैं कि बीज में पेड़ होते हैं।
अंचल सृजन यात्रा का दूसरा पड़ाव- बिलौना कलॉ (5-6मई, 2018)
रौंसी यात्रा के बाद मैंने अपने विद्यालय के छात्र-छात्राओं को ऋतुराज जी से मिलने और उनके सानिध्य में कविता-पाठ करने बारे में बताया तो उन्हें आश्चर्य हुआ, साथ ही ख़ुशी भी हुई। उन्होंने कहा कि "सर! हमें ऋतुराज जी से कब मिलवाओगे? हमें उनकी ‘कन्यादान’ कविता बहुत पसंद है।" मैंने कहा- "जल्द!" उस समय कक्षा दस की हिन्दी की पुस्तक में उनकी ‘कन्यादान’ कविता पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। जब अंचल सृजन यात्रा के दूसरे पड़ाव के लिए तिथि और स्थान को लेकर चर्चा चल रही थी तो मेरी इच्छा थी कि यह मेरे गाँव बिलौना कलॉ में हो ताकि मेरे विद्यार्थी भी इसमें आ सकें।
राजस्थान प्रलेस की पहली अंचल सृजन यात्रा, रौंसी की सफलता की खबरें मीडिया के जरिये देशभर में फैल चुकी थी। सबने इसे सराहा। दूसरे लेखक संगठनों की भी जड़ता टूटी, सब सक्रिय हो गए। ‘अंचल सृजन यात्रा, रौंसी के दौरान ही दूसरे पड़ाव की घोषणा दौसा के लिए हो गई थी। दौसा के आसपास किसी गाँव में यह यात्रा पहुँचने वाली थी। इसका समय और स्थान अभी फाइनल नहीं हुआ था। हालाँकि मन ही मन मैं इसे अपने गाँव आयोजित करवाने का सपना देख रहा था, पर कह नहीं पा रहा था। रौंसी की शानदार यात्रा के बाद सभी साथियों सहित मैं भी उत्साहित था कि जल्द ही अगली साहित्यिक यात्रा की तिथि और स्थान निश्चित हो। मेरा गाँव बिलौनाकलॉ जो कि दौसा-सवाई माधोपुर हाईवे पर स्थित है, यह लालसोट से लगभग दस किलोमीटर दूरी पर है। लालसोट का 'हेला ख्याल दंगल' देशभर में प्रसिद्ध है। 1985 में हेला ख्याल के जनक हजारी लाल ग्रामीण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की उपस्थिति में अल्बर्ट हॉल, जयपुर में पचास हजार लोगों के विशाल जनसमूह के सामने अपनी प्रस्तुति दी थी। नेहरू जी भी उनके चाहने वालों में से एक थे। लालसोट का अपना ऐतिहासिक महत्व है। जेम्स कर्नल टॉड जब दौसा से सवाई माधोपुर जाने वाला था तो लालसोट की पहाड़ियों के दुर्गम रास्तों से घबराकर पुनः जयपुर लौट गया था।
मैंने झिझकते-झिझकते पथिक जी से सृजन यात्रा के लिए मेरे गाँव का निवेदन किया, उन्होंने ऋतुराज जी, ईशमधु तलवार से बात की और बिलौना कलॉ दूसरे पड़ाव के लिए निश्चित हुआ। मई में कितनी गर्मी होती है, यह राजस्थान के लोग बख़ूबी जानते हैं। कार्यक्रम की सारी तैयारी मैंने अपने साथियों को लेकर कर ली थी। चूँकि चरणसिंह पथिक अपने गाँव सृजन यात्रा का बेहतरीन आयोजन कर चुके थे, सो मैंने उनसे भी मार्गदर्शन लिया। वे कार्यक्रम से एक दिन पहले ही बिलौना आ गए थे और सारा कार्य उन्होंने अपने हाथ ले लिया था। रौंसी से उनके मित्र गजेन्द्र गुर्जर (गज्जु भाई) भी साथ आए थे। ‘कसाई’ फिल्म में वस्त्र ओर साज-सज्जा के कामका ज़िम्मा गज्जु भाई ने ही सँभाला था। कृष्ण कल्पित, ईशमधु तलवार, विनोद भारद्वाज का नाम सुनकर स्थानीय मीडिया ने भी भरपूर सहयोग किया कार्यक्रम की ख़बरें प्रमुखता से प्रकाशित की। मेरे घरवाले बड़े पशोपेश में थे, ख़ासतौर पर मेरी जीजी (माँ), ये सब उनके समझ के बाहर की चीजें थी, मसलन वह पूछतीं- "कोई पूछे तो मैं कांई बताऊं ! कांई प्रोग्राम छे !"
मैं कहता- "जीजी ! कवि-कवियत्री आएँगे, कविता सुनाएँगे"
वह फिर पूछती- "कबि-कबितरी किस्या होबे छे !
कितेक कबि-कबितरी आबेगा ! उनको खाणो-पीणो कांई राखणो छे !"
कभी-कभी वह कवयित्री को ‘कबूतरी’ भी बोल जाती। मुझे मन ही मन जीजी के भोलेपन पर हँसी आती। जीजी की बातें सुनकर भाभीजी और मेरी पत्नी कोमल भी ठठ्ठा देकर हँसती। ख़ैर, वह दिन आ ही गया, जिसका सबको इंतजार था। भीषण गर्मी के बावजूद प्रलेस के सभी साथी नियत समय से पहले ही बिलौना पहुँच चुकेथे। हमारे बुआ-फूफाजी भी आ चुके थे। फूफाजी नाराज थे, उनका कहना था कि कोई धार्मिक कार्यक्रम करवाना चाहिए था, पर कार्यक्रम की समाप्ति पर वे खुश हुए।
पाँच मई की शाम को पिछली सृजनयात्रा की तरह ही इप्टा की टीम द्वारा जनगीतों के कार्यक्रम की प्रस्तुति थी। इस बार मुकेश वर्मा के साथ उनकी भांजी भी थी, जो म्यूजिक स्टूडेंट थी। आस-पड़ौस के बच्चे, बुजुर्ग और युवा साथी एकत्र हो चुके थे, औरतें भी घर का काम-काज निपटा कर आ चुकी थी। सभी रचनाकार मित्र, जिन्हें आज आना था, वे सब आ चुके थे। मुकेश वर्मा की टीम ने एक से बढ़कर एक जनगीत प्रस्तुत किए। जिनमें उन्होंने कबीर, मीरा, फ़ैज़, नजीर, निदा फाज़ली के साथ रसिक श्रोताओं की माँग पर कुछ शानदार रसिया लोकगीत भी सुनाएँ। जनगीतों का कार्यक्रम देर रात तक चला। रात का खाना सबने साथ में खाना खाया, जो घरवालों- पड़ौसवालों ने मिल-जुलकर तैयार किया था। भोजन में नई बहू कोमल और उसकी जेठानियों के हाथ की बनी रोटी-पराँठे के साथ आलू-टमाटर व टिंडे की सब्जी थी। सबने भरपेट खाया और खूब सराहा। जयपुर से कुछ साथी जो शादी में नहीं आ सके थे, वे मेरे ओर कोमल के लिए गिफ्ट भी लाए थे। जो वरिष्ठ साथी मेरी शादी में नहीं आ पाए थे, कोमल ने उन सबसे आशीर्वाद लिया और उन सबको अपनी जेब ढीली करनी पड़ी।
दूसरे दिन यानि छह मई को रचनापाठ का कार्यक्रम था। प्रलेस के कई साथी जो शाम को नहीं आ पाएँ थे, अलसुबह जुटने लगे। हमारा घर गाँव से थोड़ा दूर ढाणी में होने की वजह से रचनाकारों को पहुँचने में सुबह-सुबह थोड़ी दिक्कत ज़रूर हुई लेकिन इस बात का पता जैसे ही गाँववालों को चला, उन्होंने तरीका भी खोज निकाला। कि आगंतुकों द्वारा गाँव में जिससे भी रास्ता पूछा जाएगा, वह उनके साथ ही गाड़ी में बैठकर ठेठ मेरे घर तक छोड़ने आएगा। छाछ-राबड़ी का कलेवा करने के बाद काव्य-पाठ आरम्भ हुआ। नीम-बबूल के पेड़ों की छाया थी, लेकिन उनसे भी धूप छनकर आती थी। इसलिए छोटा सा टेन्ट भी लगवा दिया गया था, कनातें भी लगा दी थी, पर तेज गर्म हवा के थपेड़ो से वह फड़फड़ाने लगी तो उन्हें हटाना पड़ा। अब लू सीधे रचनाकारों से मुख़ातिब थी और रचनाकार दर्शकों से। स्थानीय पत्रकार भी नियत समय पर आ चुके थे और पूरे सत्र रूके। उन्होंने कार्यक्रम का शानदार कवरेज किया।
कार्यक्रम के आरम्भ में सभी आमंत्रित रचनाकारों का हमारे गाँव के सरपंच द्वारा स्वागत किया गया। ईश मधु तलवार ने कार्यक्रम की शुरूआत में अंचल सृजन यात्रा के उद्देश्य और कार्ल मार्क्स के व्यक्तित्व-कृतित्व पर रोशनी डाली। इसके बाद कृष्ण कल्पित ने तरन्नुम में दोहे पढ़े और एक शानदार गीत सुनाकर सबका मन मोह लिया। आकाशवाणी कोटा के उद्घोषक और ग़ज़लकार रामनारायण ‘हलधर’ के शानदार मंच संचालन ने कार्यक्रम को और ख़ूबसूरत बना दिया था। प्रभात ने जब 'बंजारा नमक लाया' गीत सुनाया तो सब साथ में गुनगुनाने लगे। प्रभात को सबसे ज्यादा तालियाँ औरतों की मिली। प्रभात ने दो शानदार गीत सुनाएँ। विनोद पदरज ने दो सुंदर कविताएँ 'सौ पेड़ों के नाम' और 'माँ को गाँव अच्छा लगता है' सुनाई। विनोद भारद्वाज ने 'गली कासिम जान' का अंश पढ़ा। ऋतुराज, प्रेमचंद गाँधी, उमा, ब्रजमोहन द्विवेदी, निशान्त मिश्रा, नीरा जैन ने भी कविताएँ सुनाई। भागचंद गुर्जर ने कहानी पढ़ी। लोकेश कुमार 'साहिल' ने एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल पढ़ी, जिसके कुछेक शे'र कई दिनों तक मेरे जेहन में रहें। मीनाक्षी माथुर ने एक प्यारा गीत सुनाया। पिपलाई से ए.एफ.नज़र और रौंसी से चित्रा भारद्वाज ने अच्छी ग़ज़लें सुनाई। चित्रा इस बार भरपूर आत्मविश्वास में दिखी, वो इस बार अपनी ताज़ा ग़ज़लों के साथ आई थी। मैंने भी पहली बार अपने घरवालों के सामने एक ग़ज़ल पढ़ी। पहली बार घरवालों को पता चला कि मैं करता क्या हूँ? स्थानीय कवि श्यामलाल ग्रामीण जो कि हजारीलाल ग्रामीण के सुपुत्र भी हैं, उन्होंने हेला ख्याल दंगल के कुछ गीत सुनाए। दिन में तेज गरमी की वजह से वक्ताओं-श्रोताओं सब में पानी की माँग ज्यादा थी इसलिए मेरे कुछ छात्रों, मित्रों सहित मेरा साला मनीष भी पानी पिलाने में लगा हुआ था। हमारे घर की महिलाओं और मेरे भाई-बहनों ने पानी के मटके भर-भर कर ला रखे थे। इस ख़ूबसूरत कार्यक्रम में लगभग तीन दर्जन रचनाकारों ने काव्य-पाठ किया। महिला रचनाकारों की उपस्थिति देख उत्सुकतावश घर-आसपास की औरतें भी टेन्ट में आ बैठी। उनके लिए यह एक नया अनुभव था।
काव्य-पाठ के बाद प्रलेस की दौसा जिला इकाई का गठन किया गया। ब्रजमोहन द्विवेदी जी को दौसा जिला इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। अंत में मैंने सबका आभार व्यक्त कर भोजन के लिए आमंत्रित किया। वैसे भी सुबह की खाई छाछ-राबड़ी अब बोल चुकी थी। इधर भोजन भी तैयार था, बस खानेवालों की देर थी। लड्डू, पूड़ी, आलू-टमाटर की सब्जी और कैरी के अचार ने सबकी मौज कर दी। जाते समय कुछ साथियों ने कहकर अपने घर के लिए लड्डू और कैरी का अचार पैक करवाया। मेरे घरवालों को भी सबसे मिलकर अच्छा लगा, उमा तो कोमल की सहेली ही बन गई थी। पथिक जी ने इस कार्यक्रम की पूरी ज़िम्मेदारी सँभाली और दूसरे दिन शाम को सारा काम निपटाकर ही अपने घर गए। उनके बिना इस कार्यक्रम का सफल आयोजन मेरे वश की बात नहीं थी। इस अंचल सृजन यात्रा से अनायास ही बिलौना कलॉ गाँव पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियों में आ गया था।
सृजनयात्रा के सफल आयोजन के बाद मुझे कई बार आस-पास के लोगों और दोस्तों ने पूछा कि इससे तुम्हें क्या मिला? क्या कोई अकादमी या सरकार से अनुदान मिला या अपने ख़र्च पर आपने इसका आयोजन किया? मैंने हमेशा यही कहा कि मुझे ऐसा करना अच्छा लगताहै। मेरे लिए यही सत्संग है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि प्रलेस राजस्थान ने इसमें आर्थिक सहयोग नहीं करना चाहा, महासचिव प्रलेस राजस्थान ने भी फोन पर ज़ोर देकर कहा था कि “विजय, तुम सारा वजन अपने सर मत लो” लेकिन मैंने उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उस समय साहित्य को लेकर एक दीवानगी-सी थी मुझमें, अब भी है बल्कि अब और ज़्यादा बढ़ गई है लेकिन उस समय की बात अलग थी, शायरी के बाद हिन्दी कविता से नई-नई मुहब्बत थी, दिल-ओ-जान लुटाने का जी करता था। उस समय दिल का आलम ये था कि कोई भी मुझसे इस बाबत पूछता तो मैं सिर्फ मुस्करा कर ये शे’र सुना देता था-
“पाकर भी हर शय को खोना आता है
हम दरवेशों को कब रोना आता है
उनको सारी दुनियादारी आती है
हमको तो बस रोना-धोना आता है”
विजय राही
सहायक आचार्य (हिन्दी), राजकीय महाविद्यालय, कानोता (जयपुर)
vjbilona532@gmail.com, 919929475744
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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