हिंदी नवजागरण की मशाल के वाहक माधव प्रसाद मिश्र
- जितेंद्र कुमार बिश्वाल
शोध सार: इस शोधालेख में नवजागरण के प्रतीक पुरुषों में एक माधव प्रसाद मिश्र के योगदान का रूपायन किया गया है। माधव प्रसाद मिश्र भारतीयता, देश प्रेम के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रश्नों को भी बहुत गंभीरता से उठाया। अल्पायु के बावजूद अपनी लेखनी से कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को भी इनके द्वारा उठाया गया है।
बीज शब्द: नवजागरण, साम्राज्यवाद, राजनीतिक, दर्शन, समालोचना
मूल आलेख: नवजागरण के उदय के संदर्भ में जब बात होती है, उसके कारक के रूप में यूरोपीय उपनिवेश शक्ति के क्रूर शासन पद्धति को माना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज संक्रमण के जिस तीव्र दौर से गुजरा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय जनमानस में जागरूक और परिवर्तन होने की भावना विकसित हुई। जिसके चलते नवजागरण व पुनर्जागरण जैसी अवधारणाओं का जन्म हुआ।
भारत में विदेशी जातियों का आगमन कोई नई बात नहीं थी। क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता के समय में भी मध्य एशिया से आर्य जाति यहाँ आकार बस गई। आर्यों के बाद शक, हूण और मंगोल जैसी जातियों को भी इस देश ने प्रलोभित किया है। यहाँ प्रश्न यह है कि उन जातियों और यूरोपीय जातियों में अंतर क्या है, जो दोनों जातियों की अलग पहचान को रेखांकित करता है। उत्तर होगा कि पुरानी जातियों का उद्देश्य यहाँ आकर बस जाना था। उनकी सबसे बड़ी विशिष्टता विभिन्नता को आत्मसात करने की प्रवृत्ति रही है। जिसके चलते उन्होंने पहले से विद्यमान जातियों की जीवन पद्धति एवं संस्कृति को आत्मसात कर लिया एवं अपने जीवन पद्धति का अनिवार्य अंग बना लिया। इससे भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विस्तार हुआ न कि कोई क्षति। किन्तु यूरोपीय जातियों का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था। उनका परम लक्ष्य व्यापार तथा धनोपार्जन करना था। उनका भारतीय जनमानस के सुख-दुःख, समस्या व भावनाओं से कोई लगाव नहीं था। न ही उन्होंने भारतीय सभ्यता तथा परंपरा के प्रति मोह रखा, न ही आदर किया। यूरोपीय जातियों में से फ्रांस एवं पुर्तगाली भारत के सीमित क्षेत्र तक ही पहुँच पाए। किन्तु अँग्रेजों ने सभी प्रकार के छल-कपटों का इस्तेमाल करके उपनिवेशवादी साम्राज्य का विस्तार करना शुरु किया। सन् 1757 के प्लासी का युद्ध जीतने के पश्चात् उन्होंने बंगाल का सम्पूर्ण नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया एवं स्थानीय राजाओं को समर्थन दे कर या उनके विरुद्ध जा कर उनको लड़ाते एवं उनसे लड़ते हुए धीरे-धीरे सम्पूर्ण देश पर कब्जा कर लिया। सन् 1857 तक देश के अनेक भाग ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ के अधीन आ गए। इस एक शताब्दी में अंग्रेजों की क्रूर शासन नीति के चलते भारतीय आर्थिक व्यवस्था, सामंतवाद का पतन हो गया। अत्यधिक कर वसूल नीति एवं यूरोपीय उद्योग क्रांति तथा नव पूंजीवाद के चलते छोटे-छोटे व्यवसायी एवं कृषकों की स्थिति दयनीय हो गयी। इसके अलावा उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक रीति-नीति की खूब आलोचना की तथा नीचा दिखाया। इसी के परिणामस्वरूप देश के प्रतिष्ठित नेताओं ने धर्म, सामाजिक रीति-नीति तथा शिक्षा पद्धति में सुधार लाने हेतु देश के अलग-अलग भागों तथा अलग-अलग समय में नवजागरण की चेतना का विकास किया। उन्होंने नई चेतना व आधुनिक भावनाओं के साथ सामाजिक तथा धार्मिक सुधार करने के उद्देश्य से भारतीय समाज के सम्मुख उपस्थित हुए। जैसे-बंगाल में राममोहन राय एवं महाराष्ट्र में गोविंद रानाडे के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन, किन्तु यह आंदोलन केवल धर्म और सामाजिक कुरीतियों तक सीमित था इसका जनसाधारण से कोई सरोकार नहीं था। क्योंकि यह नवजागरण वहाँ के केवल शिक्षित तथा भद्र लोक द्वारा चलाया गया था साथ ही इसमें अंग्रेजों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। अवश्य इसमें पाश्चात्य ‘ज्ञानवाद’ के प्रभाव के चलते अंग्रेजी भाषा तथा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं गए थे। जो केवल सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए उपयोगी था। किन्तु हिंदी नवजागरण का स्वरूप वहाँ के नवजागरण से अलग था। हिंदी नवजागरण कहने का तात्पर्य है कि यह देश के बड़े भागों में फैला था एवं यह बड़े भाग हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र से संबंधित है।
“हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई. के स्वाधीनता-संग्राम से शुरु होता है।”1 हिंदी नवजागरण पर गंभीरता से विचार करने वाले आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने इसे चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के यूरोप में चलने वाले ‘रेनेसाँ’ आंदोलन के तर्ज पर हिंदी में नवजागरण शब्द गढ़ा। रेनेसाँ का तात्पर्य पुनर्जागरण से है, जबकि नवजागरण में नई तरीके से जागने की भाव निहित है। सामाजिक, धार्मिक, कला, साहित्य, विज्ञान आदि हर क्षेत्र में बदलाव की भावना इसमें अंतर्निहित है। हिंदी नवजागरण, यूरोपीय पुनर्जागरण और देश के अलग-अलग भागों के चलने वाले नवजागरण से बिल्कुल अलग है। इसकी फलने-फूलने की भावभूमि भी अलग है। अलग हवा-पानी की वजह से इसकी मूल प्रवृत्ति में भिन्नता पाई जाती है। इसी को संदर्भित करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है, “भारत के राष्ट्रीय नवजागरण का संबंध सामान्यतः राजा राममोहन राय से जोड़ा जाता है। हो सकता है, बंगाल के लिए यह सही हो। आवश्यक नहीं कि हर प्रदेश में वैसी ही प्रक्रिया घटित हुई हो।” 2
वस्तुतः यह नवजागरण बाकी प्रदेश की तरह केवल शिक्षित तथा भद्र वर्ग के हाथों में फलने-फूलने की बजाय यह साहित्यकारों एवं सामान्य जनसाधारण द्वारा चलाया गया आंदोलन था। इस आंदोलन ने जाति और धर्म जैसे संकीर्ण मनोभावों को कुचलते हुए सभी जाति और धर्म के मजदूर, किसान व सिपाही आदि वर्ग के जनसाधारण को प्रभावित किया है, “लड़नेवाले किसानों में केवल उच्च वर्ण के हिन्दू नहीं थे। उनके साथ निम्न वर्ण के सैकड़ों आदमी थे। हिंदुओं के साथ हजारों मुसलमान थे।”3 इस कारण हम इस नव चेतना को मध्यकालीन लोकजागरण से एक सूक्ष्म अंतर्संबंध स्थापित कर सकते हैं, क्योंकि दोनों का अखिल भारतीय स्वरूप हैं तथा दोनों में साधारण निम्न वर्ग के लोग आगे थे। अतः हिंदी नवजागरण अंग्रेजों के प्रभाव में नहीं जैसा की कुछ आलोचकों का मानना है (बंगाल नवजागरण के आलोक में) वरन् अंग्रेज साम्राज्यवाद व सामंतवाद के प्रतिरोध की उपज थी।
इस बात से हम विदित हैं, साहित्य एक सामाजिक उत्पाद है। अतः हिंदी प्रदेश में इतने बड़े आंदोलन से हिंदी साहित्य कैसे अचूक रह सकता था। आधुनिक युग में प्रेस की स्थापना से हिंदी लेखकों को इस नवजागरण को प्रचार करने में मदद मिली। आधुनिक गद्य विधाएँ जैसे निबंध, नाटक के मार्फत से इसको फलने-फूलने के लिए बहुत बड़ी जगह मिली। भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी आगे चलकर निराला, प्रसाद आदि लेखकों ने इस नव चेतना को अपने लेखों व निबंधों तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला। हिंदी नवजागरण में इन लेखकों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, इस बात को कोई अस्वीकार नहीं करता। परंतु इन लेखकों के आलोक में अनेक ऐसे साहित्यकार हैं, जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। जो इस आंदोलन के नींव सादृश्य हैं। ऐसे ही एक निबंधकार हैं- माधव प्रसाद मिश्र। इनके बारे में आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “यह बड़े तेजस्वी, सनातनधर्म समर्थक, भारतीय संस्कृति की रक्षा के सतत अभिलाषी विद्वान थे।”4 इससे पाठकों को भ्रम हो सकता है कि ये पुरातनवादी हैं। परंतु इनके निबंधों में नवजागरण के जो तत्व हैं, इससे इसका समाधान हो जाता है।
हिंदी नवजागरण के संदर्भ में रामविलास शर्मा केवल भारतेन्दु, द्विवेदी व निराला को महत्वपूर्ण मानते हैं, जिसके कारण माधव प्रसाद मिश्र जैसे लेखकों का योगदान आलोक में नहीं आ पाता। उन्होंने उन विचारधाराओं का तार्किकता के साथ खंडन किया, जो भारत की गौरवशाली परंपराओं को नकारती थीं, साथ ही भारतीय सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करते हुए नवजागरण की चेतना को आगे बढ़ाया। विश्व पुस्तक मेला, गतिमान् वर्ष में सिद्धार्थ शंकर राय के संपादन में ‘माधव प्रसाद मिश्र प्रतिनिधि निबंध’ नाम से एक पुस्तक का विमोचन हुआ है। संपादक ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में लिखा है, “पराधीन भारत में जन्मने वाले इस लेखक में भारतीय समाज और राष्ट्र को लेकर गहरी चिंता है। जिस देशकाल और परिस्थिति में मिश्र जी के चिंतन का विकास हो रहा था, वह हिंदी पट्टी में नवजागरण के फलने-फूलने का है। नवजागरण कालीन अन्य लेखकों के समान ही एक चेतन-सम्पन्न और जागरूक व्यक्ति ने समाज निर्माण के लिए सभी अपरिहार्य एवं अत्यावश्यक मुद्दों पर चिंतन-लेखन का कार्य किया है।”5 संपादक ने जिस ओर इंगित किया है वह सोचने-विचारने योग्य है।
हिंदी नवजागरण का काल भारतीय समाज के लिए गहरे आत्ममंथन और सांस्कृतिक संघर्ष का काल था। अंग्रेज शासकों ने न केवल राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया था, बल्कि भारतीय संस्कृति, धर्म, भाषा और शिक्षा प्रणाली को भी हीन और पिछड़ा सिद्ध करने का प्रयास किया। इस मानसिक आक्रमण के विरुद्ध माधव प्रसाद मिश्र ने कलम को हथियार बनाया। हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच श्रेष्ठता की भावना के जंग में अब अंग्रेज विद्वान भी कूद पड़े थे। जब अंग्रेज विद्वानों ने यह देखा कि भारतीय जनमानस अपने पौराणिक ग्रंथों जैसे- ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के प्रति अत्यधिक श्रद्धा और गौरव की भावना रखता है, तो उन्होंने जनता को मानसिक रूप से हीन भावना से ग्रस्त करने हेतु इन ग्रंथों की ऐतिहासिकता पर प्रश्नचिह्न लगाने शुरू कर दिए। वे इन ग्रंथों में ऐतिहासिक तथ्यों की खोज के नाम पर उन्हें काल्पनिक और असंगत सिद्ध करने लगे। विभिन्न तर्कों और उदाहरणों के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति को रूढ़िवादी, अवैज्ञानिक और असभ्य साबित करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में माधव प्रसाद मिश्र लिखते हैं, “वे लोग यत्नपूर्वक यही प्रमाण करना चाहते हैं कि, भारतवर्ष के सब पुराने ग्रंथों में जो कुछ हैं, हिन्दू धर्म विरोधी बौद्ध ग्रंथों को छोड़कर सभी आधुनिक हैं और हिंदुओं के ग्रंथों में जो है, सो या तो सम्पूर्ण मिथ्या, नहीं तो अन्य देश से चुराया हुआ!”6 वेबर व फर्गुसन जैसे विद्वानों ने मेगास्थिनिस् के ग्रंथों में महाभारत की चर्चा न होने के कारण उसके ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाएं, पांडवों तथा कृष्ण को कल्पित पात्र माना तथा ‘रामायण’ को होमर के काव्य का अनुकरण, भागवद्गीता को बाइबिल की छायामात्र, हिंदुओं के ज्योतिष ग्रंथ का विदेशीकरण, पुराने मंदिरों की शिल्प-कला को अभारतीय मानते हुए आलोचना की। इससे देशीय लोग जो पढ़े-लिखे थे उनके अनुवर्ती हो रहे थे एवं उनके मत को वेद वाक्य सादृश्य मानने लगे। नवजागरण काल के विचारशील निबंधकार माधव प्रसाद मिश्र ने इन सांस्कृतिक आक्रमणों का डटकर प्रतिवाद किया है। उन्होंने वेबर के महाभारत संबंधित सभी द्वेषपूर्ण मतों को तर्क सहित खंडित करते हुए कहते हैं, “सभी पक्षपातरहित पण्डितों के विचार से स्थिर हो चुका है कि ईसा से सहस्त्रों वर्ष प्रथम युधिष्ठिरादि के वृत्तान्तयुक्त महाभारत प्रचलित था। इतना प्रचलित कि पाणिनि को महाभारत और युधिष्ठिर की व्युत्पत्ति लिखनी पड़ी! और यह भी सम्भव है कि इससे बहुत पहिले महाभारत का प्रचार हो चुका था। क्योंकि “वासुदेवार्जुनाभ्यां बुन” इस सूत्र में “वासुदेवक” और “अर्जुनक” शब्द इस अर्थ में पाये जाते हैं कि वासुदेव का उपासक और अर्जुन का उपासक। अतएव पाणिनि के सूत्र प्रणयन-काल से प्रथम कृष्णार्जुन देवता के समान उपास्य समझे जाने लगे थे। इसलिए महाभारत के युद्ध से कुछ ही दिन पीछे महाभारत बन चुका था यह जो प्रसिद्ध है इसके खण्डन करने का कोई कारण नहीं दीख पड़ता। यहाँ यह भी वक्तव्य है कि केवल पाणिनि सूत्रों ही में नहीं आश्वलायन और सांख्यायन गृह्मसूत्र में भी महाभारत का प्रसंग है। अतएव महाभारत की प्राचीनता के विरुद्ध रोला करने का किसी को अधिकार नहीं है।”7 अतएव यह निबंध किसी कट्टर सनातन धर्मी का नहीं, अपितु माधव प्रसाद मिश्र के प्रगतिशील विचारों तथा मूल्यों का प्रतीक है।
यह कहना उचित नहीं होगा कि निबंधकार अंग्रेजों के सभी विचारों से पूर्णतः असहमत थे। उनका मानना था कि जो कुछ श्रेष्ठ है, उसका अनुकरण भारतीय समाज के हित में होना चाहिए। वे अंग्रेजों के विद्या-प्रेम और बौद्धिक शक्तियों के प्रति सम्मान के कायल थे। वे लिखते हैं, “अंगरेज़ जाति में विद्या का आदर है। वह इस बात को कि शारीरिक बल की अपेक्षा विद्या का बल बहुत बड़ा है जानते हैं । वह खूब जानते हैं कि सहस्त्रों तोपों की मार से भी जो कार्य होना असम्भव है, वह एक विद्वान की सम्मति व नीति द्वारा सम्पन्न हो सकता है।”8 अँग्रेज भली-भाँती इस बात को जानते थे कि शिक्षा ही केवल एक मात्र हथियार है, जिनके बलबूते पर भारतीय नौजवानों को अपने वश में किया जा सकता है एवं उनको वफादार बनाया जा सकता है। उस समय भारतीय शिक्षा पद्धति उतनी आधुनिक नहीं थी जितना कि यूरोपीय शिक्षा पद्धति। माधव प्रसाद मिश्र इस बात को अच्छी तरह समझते थे। अतः उन्होंने शिक्षा के आधुनिकीकरण और भारतीय भाषाओं में ज्ञानार्जन को प्रोत्साहन देने पर विशेष बल दिया। उन्होंने ‘विशुद्धानंद विद्यालय’ निबंध में भारतीय भाषाओं में ज्ञानार्जन और ज्ञानोत्पाद के ह्रास पर चिंता प्रकट की है तथा विद्यालय व्यवस्था, वित्तीय प्रबंधन, योग्य शिक्षक नियुक्ति आदि विषयों पर भी गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। उनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा जीवनोपयोगी होनी चाहिए वह केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रहे। जिससे भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो सके। राजनीतिक दृष्टि से भी माधव प्रसाद मिश्र अत्यंत सजग और स्पष्टवादी थे। वे विद्यार्थियों के लिए अमूर्त शिक्षा के पक्षधर नहीं थे। जब तत्कालीन कांग्रेस नेताओं एवं महामना मदनमोहन मालवीय ने विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी, तो वे इस विचार से क्षुब्ध हो उठे। वे मानते थे कि युवाओं को देश की राजनीतिक चेतना में भागीदार बनाना आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों और पौराणिक उदाहरणों को उद्धृत करते हुए उन्होंने विद्यार्थियों की राजनीतिक भागीदारी को उचित ठहराने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं, “भारतवर्ष के ब्रह्मचारी, विद्यार्थी तथा युवकगण इसी समय नहीं, पहले भी विपद्काल में इस देश के अवलम्बन रहे हैं। हमारे वामन भगवान् लड़कपन में ही यदि राजनीतिक ब्रह्मचारी न होते तो दैत्यराज बलि के ग्रास से उनकी देवजाति का उस समय उद्धार होना बहुत कठिन था; पर कुशल यही था कि उस समय की महर्षि मण्डली में कोई उनका उत्साह भंग करने वाला न था। वे उस समय के नेताओं से प्रोत्साहित और पुरस्कृत हुए, तिरस्कृत नहीं।”9 उनका चिंतन नवजागरण काल के एक जागरूक, विवेकशील और व्यावहारिक लेखक की पहचान करवाता है, जो परंपरा और आधुनिकता के संतुलन से भारत की चेतना को सशक्त बनाना चाहते थे।
माधव प्रसाद मिश्र केवल भारतीय शिक्षा व्यवस्था की त्रुटियों को ही उजागर नहीं करते, बल्कि उस मानसिकता की भी आलोचना करते हैं जो नवशिक्षित युवाओं एवं नगरवासियों में कृषि के प्रति उत्पन्न हो गई थी। उस समय नई पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव में यह भ्रांति फैल गई थी कि खेती करना असभ्य पुरुषों का कार्य है, और यह एक निम्न या पापकर्म है।
माधव प्रसाद मिश्र भारतीय परंपरा और कृषि के बीच पुनः संबंध जोड़ते हैं साथ ही वे यह भी रेखांकित करते हैं कि अंग्रेज किस प्रकार कृषि को ज्ञान और विज्ञान से जोड़कर अपनी भूमि को अधिक उर्वर और उपजाऊ बना पाने में सफल हुए। उन्होंने जिन वस्तुओं का नाम तक नहीं सुना था, उनका भी उत्पादन कर वैश्विक व्यापार में उन्हें निर्यात करना प्रारंभ कर दिया। इसके विपरीत भारतीय समाज ने कृषि को हेय समझकर उसका तिरस्कार किया, जिससे देश आर्थिक रूप से दरिद्र होता गया। निबंधकार औपनिवेशिक पूँजीवाद के दुष्प्रभावों को भी भलीभांति पहचानते थे। उनके अनुसार, अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों और पूंजीवादी शक्तियों के कारण भारत का पारंपरिक उद्योग-धंधा चौपट हो गया। इसी पूंजीवाद ने उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया, जिसमें लोग नई-नई चीज़ों के प्रति आकृष्ट होने लगे। जिसके चलते समाज का एक छोटा वर्ग पहले से अधिक धनी दिखाई देने लगा, जिससे यह भ्रम उत्पन्न हुआ कि देश समृद्ध हो रहा है। मगर माधव प्रसाद मिश्र इस बाह्य तड़क-भड़क के पीछे छिपे यथार्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “बाहर की तूमतड़ाक देखने से यही मालूम होता है कि देश दिन-प्रतिदिन धनवान होता जाता है; पर सोचने-विचारने पर ठीक इसके विपरीत फल दिखाई देता है। कुछ आदमियों के धनवान होने से देश की भलाई अवश्य है, पर उससे देश धनवान नहीं समझा जाता। वही देश धनवान समझा जाता है जो अपनी आवश्यकता को आप ही पूरी कर ले। दरिद्र वही देश है जिसकी विदेश की सहायता बिना आवश्यकता पूरी न हो। कुछ रुपये व सोने चाँदी के पास होने से ही कोई धनवान नहीं हो सकता।”10 निबंधकार की यह दृष्टि नवजागरण युग के उस चिंतन को स्वर देती है, जो सामाजिक व आर्थिक दोनों को समान महत्व देता था।
माधव प्रसाद मिश्र द्विवेदी कालीन निबंधकार हैं। अतः महावीर प्रसाद द्विवेदी की तरह उनके भी निबंधों में भाषा संस्कार, हिंदी-उर्दू विवाद तथा मातृभाषा प्रेम की झलक दिखाई देती है। माधव प्रसाद मिश्र भाषा को मात्र एक संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक समन्वय और सामाजिक पुनरुत्थान का साधन मानते थे। हिंदी नवजागरण काल में जब भाषा के शुद्धीकरण को लेकर अतिवादी विचार उभरने लगा विशेषतः उर्दू शब्दों को हटाने की मांग होने लगी। तब उन्होंने इस प्रवृत्ति का तार्किक और संतुलित विरोध किया। वे लिखते हैं, “कुछ ऐसे भी लोग हैं जो एकदम हिन्दी भाषा से 'उर्दू' शब्दों को निकाल बाहर फेंकना चाहते हैं। उन बेचारों को यह ज्ञान नहीं है कि उनका यह विचार आशामोदक और असम्भव है। यह आन्दोलन कार्य हिन्दी के वर्तमान क्षीण अंग को क्षीणतर ही नहीं करता है। उर्दू को कालेपानी पहुंचाना हम भी चाहते हैं, पर इनकी तरह उर्दू के शब्दमात्र पर घृणा भी नहीं करते। हमारा और उनका लक्ष्य एक है, पर उद्देश्य भिन्न भिन्न। हमारे विचार में ‘नागरी’ वर्णमाला का विशेषण हो सकता है, भाषा का नहीं। भाषा का ‘हिन्दी’ विशेषण है और इसे वर्णमाला का भी विशेषण बनाये तो बना सकते हैं। किन्तु हमारे पहली चाल के भाई जो उर्दू को बिल्कुल देश निकाला चाहते हैं वे अज्ञानवश यह नहीं समझते कि ‘नागरी’ नाम भाषा का नहीं है, वर्णमाला मात्र का है यदि उर्दू के शब्द मात्र को बुरा समझते हैं तो ‘हिन्दी’ का नाम भी बदलना पड़ेगा।”11 इस भाषा आंदोलन में उनकी संघर्षभूमि केवल अंग्रेज़ी के औपनिवेशिक वर्चस्व तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन पारंपरिक विद्वानों से भी थी, जो संस्कृत को प्रधानता देकर हिंदी भाषा की उपेक्षा करते थे और उसके साहित्यिक तथा व्यावहारिक उपयोग का विरोध करते थे। उन्होंने हिंदी को केवल साहित्यिक भाषा के रूप में नहीं अपितु जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।
इसके साथ ही माधव प्रसाद मिश्र ने ‘अमृतसर’ जैसा निबंध लिख कर देश के प्रसिद्ध नगरों के ऐतिहासिक, धार्मिक व वास्तुकला का गुणगान करते हैं। साथ ही, ‘श्रीवैष्णव संप्रदाय’ एवं ‘चार्वाक दर्शन की भूमिका’ जैसे निबंधों के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा की ऐतिहासिकता, व्यापकता और गहराई का पल्लवन करते हैं। उन्होंने त्योहारों और उत्सवों पर भी कई विचारोत्तेजक निबंध लिखे हैं। जिसमें होली पर लिखा निबंध बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों के साथ-साथ हिंदी आलोचना की वैचारिकी और आलोचनात्मक प्रतिमानों के सुदृढ़ीकरण में अप्रतिम योगदान दिया है। ‘उपन्यास और समालोचक’ तथा काव्यालोचना जैसे निबंध शुक्ल-पूर्व आलोचना के वैचारिक धरातल की उर्वरता का प्रतिबिंबन करते हैं।
सारतः माधव प्रसाद मिश्र के निबंध में हिंदी नवजागरण के तत्व बहुआयामी है। उनके निबंध केवल सामाजिक, सांस्कृतिक या भाषाई सुधार की भावना तक सीमित नहीं रहते, बल्कि उन्होंने इस भावना के माध्यम से भारतीय समाज की आत्मा को जागृत करने का प्रयास किया है। एक ओर, वे औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था, भाषा नीति और सांस्कृतिक आक्रमण का कड़ा विरोध करते हैं। वहीं दूसरी ओर, वे अंग्रेजों द्वारा लाई गई शिक्षा और विज्ञान के प्रति रुचि जैसे सकारात्मक पहलुओं को अपनाने के पक्षधर हैं। जिसका उद्देश्य समाज को विकसित करना है। कृषि, शिक्षा, परीक्षा एवं राजनीति आदि विषयों पर गंभीरता पूर्वक विचार करके विद्यार्थियों को परिस्थिति के अनुसार कार्य करने की सलाह देते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि माधव प्रसाद मिश्र हिंदी नवजागरण के एक प्रमुख निबंधकार के रूप में उभरते हैं, जिनके निबंधों में नवजागरण की सभी विशेषताएं सन्निहित हैं।
संदर्भ:
- शर्मा, रामविलास; महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण; राजकमल प्रकाशन; नई दिल्ली-110002; संस्करण-2018; पृ-9.
- वही; पृ-18.
- वही; पृ-9-10.
- शुक्ल, आचार्य रामचंद्र; हिंदी साहित्य का इतिहास; वाणी प्रकाशन; नई दिल्ली-110002; संस्करण-2021; पृ-411.
- राय, सिद्धार्थ शंकर; माधव प्रसाद मिश्र प्रतिनिधि निबंध; नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली-110032; संस्करण-2024 (प्रथम); पृ-5.
- वही; पृ-105.
- वही; पृ-118.
- वही; पृ-13.
- वही; पृ-97.
- वही; पृ-63.
- वही; पृ-55-56
जितेंद्र कुमार बिश्वाल
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़-123031
Jitu13jan@gmail.com,. 9178374978
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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