समीक्षा: जातीय दंश की मौन अभिव्यक्तिः ‘कबीरा सोई पीर है’ / ज्योत्स्ना राठौड़

जातीय दंश की मौन अभिव्यक्तिः ‘कबीरा सोई पीर है’
-ज्योत्स्ना राठौड़

हाल ही में प्रतिभा कटियार का ‘कबीरा सोई पीर है’ नामक उपन्यास आया है। इसकी शुरूआत एक कोचिंग संस्था से होती है जिसमें छात्र प्रशासनिक सेवा में जाने का सपना लेकर आते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के भेदभाव नजरआते हैं जिनमें लेखिका ने मुख्यतः जातिगत पीड़ा को दिखाया है। यह पीड़ा शारीरिक नहीं है बल्कि मानसिक है। लेखिका ने इस उपन्यास के माध्यम से बताया है कि हमारे देश में आज भी कई ऐसे तबके हैं जिनके लिए आरक्षण व जाति एक ताना बनकर रह गया है । जिस देश में ‘अनेकता में एकता’ जैसी अवधारणा पहचान का प्रतीक बन चुकी हो, वहीं दूसरी तरफ समाज में रहने वाले व्यक्ति को जाति के आधार पर इतना उत्पीड़ित किया जाता है कि सम्पूर्ण जीवन हीन भावना से उबरने में ही लग जाता है। इस उपन्यास की कथा के मूल में ‘तृप्ति’ का परिवार व ‘अनुभव’ नामक पात्र है। यह पीड़ा एक ऐसे परिवार की है जिसे निम्न कही जानेवाली जाति का होने के कारण मानसिक रूप से इतना शोषित किया जाता है कि शिक्षा, मनुष्यता, संवेदना, बदलाव जैसे शब्द भी कुछ नहीं कर पाते हैं। जो गंगा नदी हमारे भारतीय समाज का आदर्श रही है, उसे लेखिका ने सुख-दुख में साथ देने वाली सखी के रूप में चित्रित किया है। जो एक तरफ तो गवाह बनी है तृप्ति की अंतर्मन की सिसकियों की तो दूसरी तरफ कनक से दोस्ती और अनुभव के प्रति प्रेम के अंकुरण का। अनुभव एक होनहार छात्र है जो ऋषिकेश की धरती पर जन्मा और यही आईएएस की तैयारी कर रहा है। पिता के पास संसाधनों की सीमित चादर थी जिसका अनुभव ने अब तक खूब मान रखा था।

अनुभव के पिता इसलिए दुखी हैं कि उनकी ऊपरी आय खत्म हो गई है। जिसका कारण उच्च अधिकारी है जो ईमानदार होने के साथ-साथ दलित जाति से है। अनुभव के माता-पिता दोनों अपने वाक् प्रहार से उस अधिकारी पर गालियों की बौछार करते रहते हैं। जिसे देखकर अनुभव मन ही मन प्रशासनिक सेवा के माध्यम से जातिगत भेदभाव को खत्म करने की सोचता है। वही दूसरी तरफ तृप्ति के पिता है जो पीडब्ल्यूडी विभाग में नौकरी करते हैं। अतीत अभी भी उनका पीछा करता है (उनकी दादी मैला ढ़ोने का काम करती थी) क्योंकि ऑफिस के सवर्ण अधिकारी उनके हाथ का न तो पानी पीना पसंद करते हैं न उन्हें पीने देते हैं।

हमारे समाज में इस अपमान की पीड़ा का एहसास निम्न वर्ण के लोगों को कदम-कदम पर करवाया जाता है। जिस देश को वैश्विक पायदान पर सबसे ऊँचा देखना चाहते हैं, उसमें आज भी आधी से ज्यादा जनता जातियों में उलझी हुई है। इस ओछी मानसिकता का शिकार बड़े ही नहीं बल्कि बच्चे भी हो गए हैं। तृप्ति के भाई अंशुल के साथ सिर्फ इसलिए मारपीट होती है कि वह निम्न जाति का होने के बावजूद सवर्णों से मैच जीत गया। इसी जातिगत उत्पीड़न से परेशान होकर होनहार डॉक्टर पायल तड़वी द्वारा आत्महत्या करना तृप्ति के लिए असहनीय सा था क्योंकि पढ़ाई के बल पर जिस बदलाव के सपने देख रही थी इस खबर ने एक बार उनको फिर धुँधला दिया ।

हमारे समाज में एक ऐसा भी तबका है जो शिक्षा के बल पर बदलाव की उम्मीद लगाए बैठा है। उच्च शिक्षा में मनोरंजन के नाम पर आज भी कुछ संस्थाओं में रैगिंग के रूप में जातिगत शोषण किया जाता है। “खबर छोटी-सी छपी थी लेकिन उस ख़बर की यात्रा सदियों की थी और सदियों तक चलने वाली थी। मुम्बई के एक अस्पताल में मेडिकल की पढ़ाई कर रही पायल को कुछ साथी डॉक्टरों ने उसकी जाति को लेकर इतना परेशान किया कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। पायल अपनी जाति और समुदाय की पहली लड़की थी जो यहाँ तक पहुँची थी। वो पहली डॉक्टर होती उस समुदाय की। लेकिन भेदभाव के दंश ने आख़िर एक और जान ले ही ली।” (पृ. 71)

हर कदम पर होने वाला जातिगत भेदभाव इंसान को अंदर से खोखला कर देता है। इसका जीता जागता उदाहरण तृप्ति थी जो कहीं भी अपनी बात रखने, लोगों से जुड़ने से डरने लगी थी। जातीय आधार पर होने वाले भेदभाव ने उसे डर के साये में जीने को मजबूर कर दिया था। “सजा का मतलब समझते हो अनुभव! सजा यह है जो मैं जी रही हूँ। तुमसे बात करते हुए भी डर लगता है कि कब अपनी हैसियत में रहने को कह दिया जाए पता नहीं। डर लगता है दोस्त बनाते हुए, सपने देखते हुए डर लगता है गलत के ख़िलाफ़ डटकर खड़े होते हुए। उस दिन मेरे भाई को कितना मारा उन लोगों ने चाहकर भी क्या कर पाए हम ।” (पृ. 74-75)

निम्न समझे जानेवाले वर्ण के लोगों को आज भी कहीं-न-कहीं समाज में जातिगत अपमान का सामना करना पड़ता है। लेखिका ने बखूबी दिखाया है कि जिस आरक्षण के बल पर वे समाज में समानता की उम्मीद लगाये बैठे हैं वही उनके उम्र भर के तानों का कारण बन जाता है। “मेरे पास तुम्हारी हर बात के जवाब में कुछ स्मृतियाँ हैं। एक मेरी दादी का वह काम जिसके बारे में तुम लोग सोचकर घिना जाते हो और मेरे पापा का बार-बार होता अपमान। मेरे भाई को इसलिए बार-बार पीटा जाना कि वो नीच जात होकर जीता सवर्ण लड़कों से। पापा का माफी माँगना कि उनकी बेटी फर्स्ट नहीं आ सकती, ज़रूर उसने नकल की है।” (पृ. 145-146)

जाति आपके लिए एक ऐसा ठप्पा बन जाता है जो एक कदम आगे रखने पर लोग आपको दस कदम पीछे खींचने लगे। यही हाल कमलेश बाबू का हुआ जो अपनी बेटी के द्वारा प्रिलिम्स पास करने के कारण सामान्य जीवन जीने की उम्मीद में स्वप्न बुनने ही शुरू करते हैं कि उन्हें दफ्तर के सवर्णों द्वारा झूठे भ्रष्टाचार के केस में फँसाना तथा उनके द्वारा आत्महत्या करना पाठक को अंदर तक झकझोर देता है। ऐसा लगता है जैसे तृप्ति के अस्तित्व को वे भी जी रहे हैं।

हमारे समाज में महिलाओं का परिवर्तन में भागीदार बनना कितना मुश्किल है, यह हमें तृप्ति के माध्यम से देखने को मिलता है इतनी बुद्धिमान होने के बावजूद कुछ लड़के उस की शारीरिक बनावट को लेकर अश्लील बाते करते हैं। ऐसी समस्या हमारे समाज में बस, रेल से यात्रा कर पढ़ने वाली लड़कियों के जीवन का हिस्सा बन जाती है। जिन्हें वे पढ़ाई छूटने के डर से किसी को बता ही नहीं पाती हैं। कुछ मामलों में लड़कियाँ हिम्मत कर लेती हैं तो उनका परिवार समाज द्वारा इज्जत के नाम पर उन्हें चुप करवा दिया जाता है।

लड़कियाँ घर से बाहर ही नहीं बल्कि घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। आज भी ‘सीमा’ की भांति अपने ही रिश्तेदारों के द्वारा शोषित होती रहती हैं। अफसोस यह है कि वे उस दर्द को उम्र भर के लिए अपने सीने में दफन कर, डर में घुटती रहती हैं । वे रिश्तेदार सारी उम्र उनके इर्द- गिर्द बड़ी शान, बेशर्मी से घूमते रहते हैं । हमारे देश में लाखों ‘सीमा’ और ‘तृप्ति’ हैं जो अपनी पीड़ा, दर्द में पिसती रहती हैं।
“अपने शरीर के उस हिस्से को काटकर फेंक देना चाहती थी, जहाँ संजीव का घिनौना स्पर्श दर्ज था। कितना रगड़ा, धोया, मानो वो स्पर्श चिपक गया हो देह से और समय के साथ बड़ा होता जा रहा हो। ‘अरे सीमा ले जा भैया को घर में बैठा-बैठा ऊब रहा है। घुमा ला जरा बाहर।’ मम्मी की आवाज़ बाथरूम की दीवारें लाँघकर उसके कानों में पड़ रही थीं ।” (पृ. 22)

हमारे देश, समाज में लड़कियों को जाति, धर्म, देश, सम्प्रदाय इन मुद्दों पर सोच-विचार करने से पहले ही रसोई का रास्ता दिखा दिया जाता है, क्योंकि वह उनके जीवन का अनिवार्य अंग-सा है। एक तरफ लड़कियाँ ऊँची उड़ाने भर रही हैं वही आज भी बहुत जगह हमारे समाज में लड़की के जीवन, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को परिवार अहसान की तरह समझता है। तृप्ति की माँ नहीं बल्कि न जाने कितनी माँएँ बेटियों को ऐसे मत बैठो, कम हँसो, सही से बैठो, पूरे कपड़े पहनो इन्हीं शब्दों में तौलती हुई आदर्शवादिता, चरित्रवान का ठप्पा लगाकर उनके पंख फैलाने से पहले काट देती हैं। लेखिका ने एक मजेदार प्रसंग का जिक्र किया है कि तृप्ति की माँ का बड़बड़ाना जो समाज में औरत को त्याग, समर्पण की मूर्ति बनाकर उसे इतना कुंठित कर दिया जाता है कि वह अभाव, मजबूरी, गरीबी का वह दुख जो औरत किसी को सीधे मुँह नहीं बता सकती तो यही बड़बड़ाहट उसकी आवाज बन जाती है।

तृप्ति के जीवन में अनुभव की दोस्ती का साथ नींद के मीठे स्वप्न की तरह था। जिस गंगा माँ के सामने तृप्ति अपना ह्रदय खोलकर रख देती थी, आज अनुभव के प्रति उठने वाले प्रेम के हिलोरों को गंगा में ही कहीं गहरे प्रवाहित कर दिया था,क्योंकि अनुभव तृप्ति को बराबरी का वो अहसास नहीं दिला पाया था। वह जानती थी उनके बीच सबसे बड़ी दीवार जाति की है उसके बाद सांवला रंग व सामान्य सी कद-काठी के कारण उसका परिवार कभी नहीं अपनाएगा ।

कनिका जिसका दर्द तृप्ति से दोस्ती का माध्यम बना, उसके द्वारा बताई गई कहानी ने यह साबित कर दिया कि स्त्री किसी भी वर्ग की हो वो हमेशा शोषित रही है। उच्च व संभ्रात वर्ग में पैदा होने वाली लड़की पर भी ऊँचे खानदान की नाक बचाने का भार रहता है जिसकी एवज में उसकी जान लेनी पड़े तो भी कम है। लेखिका ने मध्यमवर्गीय पितृसत्तात्मकता वाले परिवारों में स्त्रियों पर होने वाली घरेलू हिंसा जिसे वे तो अपना भाग्य मान कर सह लेती हैं। लेकिन कनिका जैसी उनकी बेटियों के मन पर वो छाप उम्र भर रहती है ।

तृप्ति की बहन सीमा जिसे अपनी बेबाकी से बोलने की सजा उसके पति द्वारा उसके बालात्कार और बच्चा खोने के रूप में मिलती है। इस प्रसंग के माध्यम से लेखिका सीधे-सीधे उन अभिभावकों से सवाल पूछती नजर आती हैं कि आज भी हमारे देश में न जाने कितनी ऐसी शादियाँ होती हैं जिनमें लड़की की मर्जी तो मायने ही नहीं रखती है। सफल शादी का टैग एक बच्चा होना है। ऐसे शारीरिक सम्बन्ध भी तो बलात्कार ही है लेकिन हमारे समाज में आज भी कई सीमा के माता-पिता की तरह अपनी प्रतिष्ठा, इज्जत के नाम पर बेटियों को नर्क की जिंदगी जीने पर मजबूर कर देते हैं। सीमा द्वारा यह शादी न करने का कहने भर से उसकी माँ द्वारा सगाई में खर्च हुए पच्चीस हजार रूपयों के लिए दुख मनाने लगती है । लेखिका दिखाना चाह रही है कि हमारे मध्यमवर्गीय भारतीय परिवारों में पैसे, प्रतिष्ठा लड़की के खुश होने से ज्यादा जरूरी है । तृप्ति के यूपीएससी के साक्षात्कार के दिन पिता की आत्महत्या के कारण चिता की अग्नि में ही उसके स्वप्न खत्म हो जाते हैं । एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका बनने के बाद भी जातिगत अपमान उसका पीछा नहीं छोड़ता है ।

लेखिका बड़ी ही बेरहमी से तृप्ति की प्रेम की उम्मीदों को कुचलती दिखाई पड़ रही है । तृप्ति शहर से दूर स्कूल में एक स्थाई शिक्षिका बन जाती है । एक दिन उसी स्कूल में नये जिला शिक्षा अधिकारी अनुभव मिश्रा और उनकी पत्नी रश्मि मिश्रा के साथ आगमन उसके घावों को हरा कर देता है । अनुभव जिसका जातीय प्रतिरोध मात्र दिखावे का संघर्ष बनकर रह जाता है जो पद पाकर अवसरवादिता में बदल जाता है । इस उपन्यास में लेखिका ने चाय, गंगा नदी और अंत में पिंडर नदी तृप्ति के न जाने कितने दर्द, घावों, पीड़ा का गवाह बनाया है । जिनको वह अपने आंसुओं से नदियों की लहर में बहा देती है । उपन्यास के अंत में लगता है कि लेखिका ने तृप्ति के साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया है । आरल(एक चिड़िया) व एरीन(अनुभव की काल्पनिक दुनिया की एक ऐसी खुश्बू जिसे महसूस कर शान्ति प्राप्त होती है) जो एक बदलाव के प्रतीक के रूप में अंत तक पाठक के जहन में चलते हैं । अनुभव से ज्यादा पाठकों को इंतजार रहता है कि एरीन व आरल से तृप्ति की मुलाकात होगी । वो अधूरी मुलाकात अनेक सवाल पाठक के मन में छोड़ जाती है । लेकिन लेखिका ने इसका अंत यथार्थवादी रूप में किया है जिसकी किसी भी पाठक को उम्मीद नहीं थी । हमारा मध्यमवर्गीय समाज पाखंड के अलावा जिस यथार्थवादी संकीर्ण जातीय मानसिकता के यथार्थ में जीता है, लेखिका ने बेबाकी से उसका चित्रण किया है । इस उपन्यास की सबसे अच्छी विशेषता मुझे यह लगी की पाठक मुख्य व गौण दोनों पात्रों से स्वयं जुड़ते चले जाते हैं । इसमें पात्र गौण प्रतीत ही नहीं होते उनके बिना उपन्यास की कहानी अधूरी प्रतीत होती है । इस प्रकार यह उपन्यास एक अमिट छाप दिल पर छोड़ देता है ।

ज्योत्स्ना राठौड़
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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