शोध आलेख : ‘अब किसकी बारी है?’ : भारत-विभाजन केन्द्रित अनौपचारिक बातचीत / गजेंद्र पाठक एवं अभिषेक उपाध्याय

‘अब किसकी बारी है?’ : भारत-विभाजन केन्द्रित अनौपचारिक बातचीत
- गजेंद्र पाठक एवं अभिषेक उपाध्याय

शोध सार: भारत-विभाजन विश्व इतिहास में एक त्रासदी के रूप में याद किया जाता है। विभाजन की प्रक्रिया में करोड़ों लोगों का बेघर होना एवं लाखों लोगों के प्रति हुई तमाम तरीके की हिंसा ही भारत-विभाजन को त्रासद बनाते हैं। भारत-विभाजन के संदर्भ में अक्सर भारत और पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) के भू-भाग पर हुई घटनाओं की ही चर्चा होती है; पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) पर ध्यान कम ही दिया जाता है। जबकि भारत-विभाजन की आधारभूत घटनाएं बंगाल की भूमि पर ही घटित हुई थीं, जैसे – 1905 ई. का बंग-भंग, 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना एवं 1946 ई. का ‘सीधी कार्रवाई दिवस’। इस शोध प्रपत्र में बिमल मित्र के बांग्ला उपन्यास ‘अब किसकी बारी है?’ (1989 ई.) के माध्यम से भारत-विभाजन के प्रति बांग्ला दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न किया गया है।

बीज शब्द: बँटवारा, साम्प्रदायिकता, वैचारिकी, कलकत्ता, दंगे, हिंसा, शरणार्थी, हिन्दू, सिख, मुस्लिम, विभाजन, अमरीका, त्रासदी, राजनीति, ब्रिटिश, मानवता।

मूल आलेख: इतिहास के तराजू पर यदि साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता द्वारा भारत देश को दिए गए जख्मों को तौला जाए तो जहाँ तराजू के एक ओर 200 वर्षों का कुत्सित ब्रिटिश शासन होगा तो वहीं दूसरी ओर अकेला भारत-विभाजन होगा। भारत-विभाजन की घटना 200 वर्षों की गुलामी से भी बड़ी त्रासदी इसलिए साबित होती है क्योंकि यह सिर्फ 1947 ई. के आसपास के कुछ वर्षों की त्रासद घटनाओं के बारे में नहीं है अपितु इससे उत्पन्न तत्त्व आज विभाजन के 77 वर्ष बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप में दुख और अशांति के कारण बने हुए हैं। देश के बँटवारे के दौर में "विभाजन के शिकार 1 करोड़ 60 लाख लोग हुए जो अपने घरों से बेघर हो गए। उनमें से लगभग 15 लाख तो उससे जन्मी हिंसा में ही मारे गए।"1 इस साम्प्रदायिक वैमनस्य की आग में हिन्दू, सिख व मुस्लिम क़ौमें नहीं अपितु इंसानियत मर रही थी। विभाजनजनित साम्प्रदायिक दंगों ने मानवता को शर्मसार कर दिया था; इसमें हत्या, बलात्कार, अपहरण, धर्मांतरण, लूट, शोषण, , बच्चों की हत्याएँ इत्यादि अमानवीय कृत्य बहुत क्रूरता व बेशर्मी से किए गए।

भारत-विभाजन की विभीषिका पर जब चर्चा होती है तो अधिकांशतः वर्तमान पाकिस्तान, पंजाब, सिंध आदि प्रदेशों की बात होती है किन्तु बंगाल प्रांत के विभाजन की यथोचित चर्चा नहीं हो पाती। भारत-विभाजन का मूल कारण हिन्दू और मुस्लिम जातियों में परस्पर फूट पड़ना था जिसके कारण भारतीय मुस्लिमों की तथाकथित प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग की और द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त प्रस्तुत किया। यदि गौर से देखा जाए तो इस आपसी फूट के राजनीतिक बीज अंग्रेजों द्वारा उनकी ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के तहत 1905 ई. में बंग-भंग द्वारा ही बो दिए गए थे। बंग-भंग द्वारा हुए बंगाल के विभाजन के बाद ही 1906 ई. में मुस्लिम लीग पार्टी का गठन तत्कालीन बंगाल (ढाका) में ही होता है। भारत-विभाजन को त्रासदी बनाने वाले साम्प्रदायिक दंगों की शुरुआत भी मुस्लिम लीग द्वारा प्रायोजित ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ से बंगाल में ही होती है और बाद में हिंसा की यह आग पंजाब तक फैल जाती है – “दंगों का आरंभ 16-19 अगस्त को कलकत्ता से हुआ जो 1 सितंबर को बंबई को प्रभावित करते हुए पूर्वी बंगाल के नोआखाली (10 अक्टूबर), बिहार (25 अक्टूबर), संयुक्त प्रांत के गढ़मुक्तेश्वर (नवंबर) तक फैल गए और मार्च 1947 से इन्होंने सारे पंजाब को अपनी लपेट में ले लिया।” 2 अतः भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि में बंगाल की विशेष भूमिका रही है जिसे समझने से भारत-विभाजन के नए आयाम सामने आते हैं।

भारत-विभाजन को बांग्ला साहित्य में सहानुभूति एवं संवेदना के साथ चित्रित किया गया है। यदि भारत-विभाजन केन्द्रित उपन्यासों की बात करें तो विभाजन को आधार बनाकर लिखे गए कुछ प्रमुख बांग्ला उपन्यास इस प्रकार हैं:- ‘मेघे ढाका तारा’- शक्तिपाद राजगुरु (1962), ‘नीलकंठ पाखिर खोंजे’- अतिन बंदोपाध्याय (1967), ‘ए पार गंगा, ओ पार गंगा - ज्योतिर्मयी देवी (1968), ‘अर्जुन’, ‘पूरब-पश्चिम’- सुनील गंगोपाध्याय (1971, 1988-89) एवं ‘अब किसकी बारी है?’ - बिमल मित्र (1988)। इस शोध प्रपत्र में बिमल मित्र के बांग्ला उपन्यास ‘अब किसकी बारी है?’ (1989 ई.) के माध्यम से भारत-विभाजन को समझने का प्रयत्न किया गया है।

'अब किसकी बारी है?’ बिमल मित्र द्वारा रचित भारत-विभाजन पर लिखा गया एक महत्वपूर्ण बांग्ला उपन्यास है। इस उपन्यास में लेखक ने बहुत ही बेबाकी से विभाजनकालीन राजनीति पर अपनी बात रखी है। यह उपन्यास न सिर्फ राजनीति अपितु विभाजनकालीन साम्प्रदायिकता, अवसरवादिता, शरणार्थी समस्या, स्त्रियों की दुर्दशा एवं मानवता आदि तत्वों का भी चित्रण करता हुआ चलता है। उपन्यास में दर्शन सिंह और हसीना के नाम से बूटा सिंह और ज़ैनब की लोकप्रसिद्ध प्रेमकथा का भी चित्रण है जिस पर ‘ग़दर’ नामक लोकप्रिय फ़िल्म भी बनी है। इस उपन्यास की कथा का प्रारूप भी रोचक है, इसकी कथा का प्रारंभ इंडियन एयरलाइंस के लाउंज से होता है जहाँ लेखक की मुलाक़ात एक अमरीकी युवा उपन्यासकार एडमंड ग्रिफ़िथ से होती है जो भारत पर एक उपन्यास लिख रहा है। उपन्यास का मुख्य विषय भारत-विभाजन है एवं इसका शीर्षक 'द लास्ट कॉलोनी' (अन्तिम उपनिवेश) होगा। यह उपन्यास अभी पूर्ण नहीं हुआ है। लेखक ग्रिफ़िथ अभी इस पर काम कर रहा है और इसी सिलसिले में वह भारत को नजदीक से जानने हेतु भारत आया है। वस्तुतः पूरा उपन्यास दोनों लेखकों के बीच एक अनौपचारिक बातचीत ही है लेकिन इस बातचीत में ग्रिफ़िथ अपने उपन्यास की कथावस्तु विस्तार से लेखक के साथ साझा करता है। ग्रिफ़िथ के माध्यम से लेखक ने भारत-विभाजन हेतु जिम्मेदार तत्कालीन राजनीति, ब्रिटिश षड्यंत्र, जिन्ना, गाँधी, नेहरू, सरदार पटेल जैसे राजनेताओं की बेबाकी से आलोचना की है। उपन्यास में सुभाषचंद्र बोस का नाम आदर के साथ लिया गया है और उनके योगदान को समुचित सम्मान न मिल पाने की बात कही गई है। उपन्यास में एक रोचक विश्लेषण भी प्रस्तुत हुआ है कि भारत-विभाजन का जिम्मेदार मुहम्मद अली जिन्ना नहीं अपितु उनका डॉक्टर जाल आर. पटेल था जिसने जिन्ना के प्राणघातक क्षयरोग से ग्रस्त होने की बात छिपाए रखी। यह उपन्यास ऐसे भारतीय लेखकों पर कटाक्ष भी करता है जो स्वार्थ व लोभवश अपनी लेखकीय ईमानदारी से समझौता करते हैं।

उपन्यास में दर्शाया गया है कि पूर्वी पाकिस्तान में इसके गठन के समय से ही पश्चिमी पाकिस्तान के शासन के प्रति एक अरुचि की भावना थी - “पाकिस्तान तो दो हैं - एक पश्चिम पाकिस्तान और दूसरा पूर्व पाकिस्तान। पश्चिम पाकिस्तान में तब हर जगह उत्सव और उल्लास का माहौल था।...और पूर्व पाकिस्तान में? जिन्ना साहब ने गलती से भी उस देश की जमीन पर कभी पैर नहीं रखा है। वहां सिर्फ जिन्ना साहब की तस्वीर से ही कामचलाऊ उत्सव का आयोजन हो रहा है।” 3 इसके अलावा कलकत्ता के ज्योतिषी मदनानन्द व भारत-विभाजन के समय के सम्बन्ध उनकी भविष्यवाणी का उल्लेख भी उपन्यास में मिलता है - 'तत्क्षण वे पंचांग खोलकर देखने लगे। सर्वनाश! यह तो बिल्कुल अशुभ प्रलयकारी दिवस है। 14 अगस्त से 15 अगस्त के बीच सभी अशुभ ग्रहों का समावेश है और यह समय भारत के लिए अत्यंत प्रतिकूल है। शनि, शुक्र और बृहस्पति मकर लग्न के कर्मस्थान के नवम में रहेंगे। उस पर राहु की दृष्टि है। इन लोगों ने यह क्या किया! स्वामी जी जीवन-भर योग तत्व और मंत्र की ही साधना करते रहे हैं। वे एक बारगी घबरा उठे।'4 उक्त प्रसंग डोमिनिक लापिएर, लैरी कॉलिन्स की पुस्तक ‘आज़ादी आधी रात को’ में भी आता है – “कलकत्ता में स्वामी मदनानंद ने इस तिथि की घोषणा सुनते ही अपना नवांश निकाला और ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति देखते ही वह चीख पड़े, “क्या अनर्थ किया है इन लोगों ने?...उन्होंने तुरंत माउंटबेटन को एक पत्र लिखा, “ईश्वर के लिए भारत को 15 अगस्त को स्वतंत्रता न दीजिए, क्योंकि यदि इस दिन स्वतंत्रता मिली तो, इसके बाद बाढ़ तथा अकाल का प्रकोप और नर-संहार होगा और इसका केवल कारण यह होगा कि स्वतंत्र भारत का जन्म एक अत्यंत अशुभ दिन होना निर्धारित किया गया है।” 5

उपन्यास में अमरीकी पात्र ग्रिफिथ को भारत से सहानुभूति है, ग्रिफिथ द्वारा ब्रिटिश सत्ता का विश्लेषण विचारणीय है – “ब्रिटिश सरकार भारत को दो टुकड़ों में बांटकर चली गई। भारत की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी सुख-सुविधा के लिए ऐसा कर गई। 'डिवाइड एंड रूल' - यानी फूट डालो और राज्य करो...जब देखा उन्हें बोरिया-बस्ता समेटकर चले जाना है तो सोचा, देश को इस तरह तोड़ दें - यानी टुकड़ों में बांट दें जिससे कि भारत के लोग कभी अपनी कमर सीधी कर खड़े ना हो सकें और हमेशा के लिए हम पर निर्भर करने को लाचार हो जाएं।...पाकिस्तान से भारत की हमेशा झड़प होती रहेगी तो हमारा उद्देश्य पूरा होता रहेगा। वे सब विकासशील देश हैं। वे लोग तोप, बंदूक और लड़ाकू विमानों के लिए हमारे दरवाजे खटखटाएंगे और उसे मौके से फ़ायदा उठाते हुए हम और अधिक पौंड और डॉलर कमा लेंगे।...जब कि उसने देखा कि गांधी जी के हाथ से नेहरू और पटेल को छीनने में वह सफल हो गई है। तब गांधी जी उनके लिए मृतक के समान थे। गवर्नर जनरल माउंट बेटन ही उनके कर्ता-धर्ता विधाता थे। तब माउंट बेटन की बात पर ही नेहरू और पटेल उठते-बैठते थे। माउंट बेटन उन्हें जिस तरह नचा रहे थे, वे उसी तरह नाच रहे थे।"6

उपन्यास में एक अनोखे विश्लेषण द्वारा भारत-विभाजन का जिम्मेदार जिन्ना के डॉक्टर को ठहराया गया है जिसने अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देते हुए जिन्ना के क्षयरोग की बात छिपाए रखी – “दरअसल पाकिस्तान बनने का सारा श्रेय जिन्ना साहब को नहीं, बल्कि बम्बई के डॉक्टर जाल आर. पटेल को है। उसने उस एक्स-रे प्लेट का भण्डा फोड़ दिया होता तो पाकिस्तान बनाने का जिन्ना साहब का सपना आकाश-कुसुम में परिवर्तित हो गया होता।…सच, नेहरू, पटेल और गांधी जी को अगर पता होता कि जिन्ना कुछ ही दिनों का मेहमान है तो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए वे इतने उतावले नहीं होते। वे आज़ादी के लिए इतने आंदोलन नहीं करते और न ही इतना दबाव डालते। लेकिन नेहरू तब उतावले थे। नेहरू जी ने बहुत दिनों तक जेल की सजा काटी थी। फिर वे कितने दिनों तक इंतजार में रहते? पटेल को दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था। वे भी कितने दिनों तक प्रतीक्षा करते रहेंगे? और जो आदमी उनका सबसे बड़ा शत्रु था, वह सुभाष बोस तब नहीं था।...यह सच है कि सुभाष बोस जिंदा रहते तो हिंदुस्तान का बंटवारा नहीं होता और यह भी सच है कि जिन्ना साहब के एक्स-रे प्लेट की बात फैल जाती तो हिंदुस्तान के बंटवारे की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।” 7 उपन्यास में उस घटनाक्रम का भी नाटकीय संवाद शैली में चित्रण है जिसमें बँटवारे के बाद गांधी जी के हठ के कारण अनुचित समय में पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपए देने पड़े; यद्यपि उपन्यास में संभवतः भूलवश यह धनराशि कुछ अधिक दर्शायी गई है।

उपन्यास में बँटवारे के दौरान हुई हिंसा व हत्याओं का भी जीवंत चित्रण हुआ है – “एक पर एक ट्रेन आती है और तलाशी लेने पर मिलिट्री वालों को पता चलता है कि उनमें एक भी आदमी जिंदा नहीं बचा है। सारे डिब्बे खून से लथपथ हैं। जहां कहीं भी गाड़ी रुकती है, लोग-बाग गाड़ी के अंदर जाकर अपने सामने के आदमी का खून कर डालते हैं। इन कई दिनों के दरमियान सारा भारत जैसे लड़ाई का मैदान हो गया है।…हसीना ने चारों तरफ आंखें दौड़ाईं और तब उसे अपनी सही हालत का अहसास हुआ। उसने महसूस किया कि अगर वह झाड़ी के बाहर निकलेगी तो लोग उसकी गर्दन काट डालेंगे। थोड़े से फासले पर ही उसे अपनी अम्मा का जिस्म दो टुकड़ों में बंटा हुआ दिखाई दिया। खून से लथपथ होकर वह जिस्म सुर्ख दिख रहा है। उससे कुछ आगे और भी कुछेक खून से लथपथ टुकड़ों में बंटे लोगों के लोथड़े बिखरे हुए हैं और आसमान से चीलों का एक झुंड नीचे उतरकर उन्हें नोच-खसोट रहा है।…दिल्ली शहर में जबर्दस्त मार-काट चल रही है। अब मुसलमान लोग कहते हैं - "हँस के लिया पाकिस्तान, लड़कर लेंगे हिंदुस्तान।" दिल्ली में बाईस हज़ार हिंदुओं को कत्ल कर दिया गया है - बाजार-दुकानें बन्द हैं। कोई भी वहाँ बाज़ार में खरीद-फ़रोख्त नहीं कर पा रहा है। लोग भूखों मर रहे हैं।” 8

उपन्यास में शरणार्थियों हेतु बनाए गए कानून का भी उल्लेख है – “माउंटबेटन से जब दोनों देशों के नेताओं का करारनामा हुआ तो उसी समय कानून की एक धारा जोड़ दी गई थी कि यदि कोई हिंदू या सिख या अन्य धर्मावलंबी या अल्पसंख्यक संप्रदाय का व्यक्ति सम्बद्ध देश में अटका हुआ रह जाए तो जब तक उसके सगे-संबंधी का पता न चले तब तक सरकारी विस्थापित-शिविर में, सम्बद्ध सरकार को ही उसके खर्च, देख-रेख और भरण-पोषण का भार उठाना पड़ेगा। सगे संबंधी का पता चलते ही उसकी सम्मति से सम्बद्ध देश को अवगत कराना होगा और सरकारी खर्च पर ही उसे उसके सगे-संबंधी के पास भेजना पड़ेगा। यही है कानून। इसी कानून के रहने के कारण सरकार द्वारा संचालित स्थापित शिविर में लाखों-लाख खोए हुए स्त्री पुरुष अनिश्चित काल से रह रहे थे।” 9 ऐसे क़ानून कई लोगों के लिए सुविधा की जगह त्रासदी का कारण बन गए। उपन्यास के पात्र दर्शन सिंह व हसीना का जीवन भी ऐसे कानून के कारण तबाह हो गया। हसीना मुस्लिम थी किन्तु स्वेच्छापूर्वक सिख बन जाती है व दर्शन सिंह से विवाह करती है, उनको एक बेटी भी होती है किन्तु इस कानून के कारण उसे जबरन दर्शन सिंह व उसकी बेटी से दूर कर शरणार्थी शिविर में डाल दिया जाता है और कुछ समय बाद जबरन पाकिस्तान उसके भाई के पास भेज दिया जाता है। हसीना को पाने हेतु दर्शन सिंह अथक प्रयत्न करता है, किन्तु इस त्रासद प्रेम-कहानी का दुखद अंत दर्शन सिंह की आत्महत्या से होता है।

उपन्यास में अवसरवादिता के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। सबसे प्रमुख उदाहरण है कि किस तरह विभाजन की त्रासदी में लोगों की मजबूरी का फ़ायदा उठाने हेतु दलालों का वर्चस्व बढ़ जाता है - 'उस समय भारत दलालों से भर गया था। मतलब निकालने के लिए उस समय दलाल ही फरिश्ते थे। जितने दिन अंग्रेज थे उतने दिनों तक उन्होंने शोषण के लिए उसी अनुपात में दलाल भी रखे थे। लेकिन ज्यों ही भारत छोड़कर उनके जाने की तिथि निश्चित हुई, न जाने कहां से लाखों दलाल निकलकर बाहर चले आए। तब, जाहिर है, हर मामले में दलालों का ही बोलबाला था। तुम्हें राशन कार्ड चाहिए तो दलाल को जाकर पकड़ो। तुम्हारा काम पूरा हो जाएगा। तुम्हें परमिट या लाइसेंस चाहिए तो दलालों की शरण में जाओ। तुम्हें सीमेंट, लोहा या मकान बनाने के लिए सरो-सामान कंट्रोल में चाहिए तो दलाल का दरवाजा खटखटाओ। और तो और, तुम इलाज कराने के लिए अस्पताल में बेड पाने को परेशान हो तो सीधे जाकर दलाल को पकड़ो। इससे भी मुश्किल काम है, लंदन, अमरीका या पाकिस्तान जाने का वीजा और पासपोर्ट प्राप्त करना। दलालों को पकड़ने से यह सब भी मिल जा सकता है। दलाल को पकड़ने से तुम आदमी का खून कर पाकिस्तान भागकर चले जा सकते हो। इस हालात से लोग तंग आ गए। कहने लगे, "इससे तो अंग्रेजों का शासन ही अच्छा था साहब। उस समय दलालों का इतना जोर-जुल्म नहीं था। यह तो ऐसा लग रहा है जैसे अंग्रेजो की हुकूमत की जगह दलालों की हुकूमत कायम हो गई है।” 10 अवसरवादिता का एक और उदाहरण तब मिलता है जब दर्शन सिंह दंगाई हत्यारों से हसीन की जान बचाता है; हसीना की जान बख्शने के बदले दंगाई दर्शन सिंह से पैसे मांगते हैं; पन्द्रह सौ रुपए लेने के बाद वे हसीना की हत्या करने का इरादा बदल देते हैं।

उपन्यास में उस क्रूर समय में आशा की किरण रूपी मानवता के भी कुछ प्रसंग आए हैं। सबसे प्रमुख तो सिख व्यक्ति दर्शन सिंह द्वारा पैसों और जान की परवाह किए बगैर मुस्लिम लड़की हसीना की जान बचाने का प्रसंग है। इसके अलावा जब दर्शन सिंह आत्महत्या कर लेता है तो एक अंजान मुस्लिम व्यक्ति उसकी बेटी का पालन-पोषण अपनी सगी बेटी की तरह करता है। इसके अलावा विभाजन-पूर्व समय के साम्प्रदायिक सौहार्द्र की झलक भी उपन्यास में मिलती है – “कभी दो अलग-अलग धर्मों में आस्था रखने वाले लोग एक साथ अगल-बगल अमन चैन से वास करते थे, एक-दूसरे से प्यार-मुहब्बत करते थे, जैसे एक दूसरे के सगे-संबंधी हों। लेकिन एक-दूसरे के मजहब में दखलन्दाज़ी नहीं करते थे। सिख धर्म के अनुयायी बैसाखी त्योहार में गुरुद्वारा जाकर पूजा-उपासना करते थे, मुसलमान शबे बरात के दिन मस्जिद में जाकर अजान देने के बाद सबको हलवे का प्रसाद बांटते थे।...उन दिनों उसे अपना गांव कितना अच्छा लगता। उसकी कितनी सहेलियां थीं। वे किस जात के हैं यह जानने की जरूरत नहीं पड़ती।” 11

उपन्यास में जहाँ कांग्रेस के अन्य नेताओं की कुछ न कुछ आलोचन की गई है वहीं दूसरी ओर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को एक आदर्श के रूप में दर्शाया गया है। उपन्यास के कई स्थानों में नेताजी को ही भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति का वास्तविक श्रेय दिया गया है – “लॉर्ड एटली आजादी के बहुत बाद सन 1956 में एक बार कलकत्ता आए थे। उन दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे मिस्टर फणिभूषण चक्रवर्ती। मिस्टर चक्रवर्ती के ही राज भवन में लॉर्ड एटली अतिथि के रूप में टिके थे। भोजन की मेज पर एक दिन मिस्टर चक्रवर्ती ने लॉर्ड एटली से पूछा था, "अच्छा एक बात का उत्तर दीजिएगा लॉर्ड?" "कहिए, क्या बात है?" आप लोग 1947 में भारत छोड़कर चले गए थे। ऐसा कांग्रेस के भय से किया था या महात्मा गांधी के भय से? उस दिन लॉर्ड एटली ने कहा था, "हम लोग न तो कांग्रेस के भय से और न ही महात्मा गांधी के भय से हिंदुस्तान छोड़कर गए थे। गए थे तो सुभाष बोस के भय से। क्योंकि सुभाष बोस ने ही हमारी सेना को बिल्कुल तोड़ दिया था। हिंदुस्तान की नौसेना ने भी दो बार विद्रोह किए थे। थलसेना और नौसेना अगर विद्रोह कर बैठे तो फिर हम राज्य कैसे चलाएंगे? इसी वजह से हमारे लिए चले जाने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था।"12 उपन्यास के अंत में मिस्टर ग्रिफ़िथ यह भी मजबूती के साथ कहते हैं कि यदि नेताजी सुभाष चंद्र बोस होते तो विभाजन होता ही नहीं।

भारत-विभाजन की विभीषिका के पैमाने पर हतप्रभ हुए मिस्टर ग्रिफ़िथ कहते हैं कि “कोई राजकीय सत्ता एक पराधीन देश पर इतना जोर-जुल्म कर सकती है, इसकी मैंने कभी कल्पना भी न की होगी।...अमरीका ने वियतनाम पर अकथनीय जोर-जुल्म अत्याचार किया था। ग्रेट ब्रिटेन भी संभवतः साउथ अफ्रीका पर जोर-जुल्म और अत्याचार कर रहा है। सोचता था, उन अत्याचारों की कोई तुलना नहीं हो सकती। लेकिन ग्रेट ब्रिटेन ने भारत पर जो जोर-जुल्म और अत्याचार किया है वह इतिहास के तमाम अत्याचारों को पीछे छोड़ गया है। जान-बूझकर, सोच-समझ कर ठंडे दिमाग से कोई इस तरह का अत्याचार कर सकता है, यह सोचना भी मुश्किल है। जलियांवाला बाग में ओ. डायर ने जितना अत्याचार किया था वह अत्याचार इसके सामने कोई अहमियत नहीं रखता।” 13 उपन्यास में ग्रिफिथ के माध्यम से 1943 ई. एवं 1947 ई. में बंगाल में पड़े अकाल के पीछे रहे ब्रिटिश षड्यंत्र का उल्लेख किया गया है जिसमें ब्रिटिश सत्ता ने अकाल का झूठा आरोप कलकत्ते के व्यापारियों पर लगा दिया था; उपन्यास में यह भी दर्शाया गया है ब्रिटिश सत्ता ने अकाल के संबंध में अपनी छवि साफ करने हेतु कई भारतीय फिल्म-निर्देशकों को पैसे देकर फिल्में बनवाईं थीं।

भारत-विभाजन को सम्यकरूपेण समझने के लिए तत्कालीन बंगाल के घटनाक्रमों एवं बंगाली दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है क्योंकि “1947 से पहले भी एक विभाजन हुआ था।...1905 में कर्जन ने धार्मिक आधार पर बंगाल को दो हिस्सों में बाँट दिया था।...अगस्त 1947 का विभाजन बहुत कुछ 1905 के विभाजन की पुनरावृत्ति महसूस होता है।...तथा पूरबी हिस्से के विभाजन की कहानी अकेले इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि आज़ादी के दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बंगाल में ही थे।” 14 ‘अब किसकी बारी है?’ उपन्यास के माध्यम से एक सीमा तक विभाजन के संदर्भ में बांग्ला दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।

निष्कर्ष: विश्व इतिहास में भारत-विभाजन एक त्रासदी के रूप में दर्ज है जिसकी आग में न सिर्फ लाखों जीवन स्वाहा हुए, भारतभूमि विभाजित हुई अपितु देशवासियों का परस्पर विश्वास, संस्कृति, साझा विरासत तथा बंधुत्व भाव भी विभाजित हो गए। शरणार्थी समस्या, आतंकवाद, सीमा-विवाद व साम्प्रदायिक कट्टरता के स्रोत के रूप में यह बँटवारा आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। विभाजन की त्रासदी को समग्रता से समझने के लिए विभाजन के प्रति बांग्ला दृष्टिकोण एवं बंगाल की भूमि पर हुई घटनाएँ महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। बांग्ला उपन्यास ‘अब किसकी बारी है?’ में लेखक बिमल मित्र संवादात्मक शैली में भारत-विभाजन के अनेक पक्षों का अपनी दृष्टि से विश्लेषण करते हुए मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं। यह उपन्यास राजनीतिक पात्रों के स्पष्टवादी संवादों के कारण विशेष तो है ही साथ ही यह अपने सामान्य पात्रों के कष्टों के संवेदनापूर्ण जीवंत चित्रण के कारण भी महत्वपूर्ण है। विभाजन के अनेक पक्षों को समाहित करते हुए भी इस उपन्यास की शैली तथा राजनीतिक-वैचारिक पक्ष ही प्रमुख है जो इस उपन्यास को विशेष बनाता है। भारत-विभाजन केन्द्रित साहित्य में ‘अब किसकी बारी है?’ उपन्यास एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसका पठन-पाठन तो आवश्यक है ही साथ ही इसकी मुद्रित प्रति की अनुपलब्धता के कारण इसके हिन्दी संस्करण के पुनर्प्रकाशन की भी आवश्यकता है जिसकी ओर प्रकाशकों का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए।

संदर्भ:
  1. प्रियंवद, भारत विभाजन की अंतःकथा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2008, पृ.24
  2. सरकार, सुमित, आधुनिक भारत, अनु. सुशीला डोभाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ. 453
  3. मित्र, बिमल, अब किसकी बारी है?, अनु. योगेन्द्र चौधरी, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1989, पृ. 94
  4. वहीं, पृ. 38
  5. लापिएर, डोमिनिक; कॉलिन्स, लैरी, आज़ादी आधी रात को, अनु. तेजपाल सिंह थामा, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, गुड़गाँव, 2021, पृ. 220-221
  6. मित्र, बिमल, अब किसकी बारी है?, अनु. योगेन्द्र चौधरी, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1989, पृ. 56, 124
  7. वहीं, पृ. 122, 104
  8. वहीं, पृ. 21-22,27,34
  9. वहीं, पृ. 53
  10. वहीं, पृ. 78-79
  11. वहीं, पृ. 14,25
  12. वहीं, पृ. 73
  13. वहीं, पृ. 21
  14. प्रधान, गोपाल, पूरब में विभाजन : महा-आख्यान के पन्ने, आलोचना त्रैमासिक : विभाजन के सत्तर साल-2, प्र.सं. नामवर सिंह, अंक साठ, अप्रैल-जून 2019, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली पृ. 33

गजेंद्र पाठक
प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना, 500046
gkpsh@uohyd.ac.in, 8374701410

अभिषेक उपाध्याय
पीएचडी शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना, 500046

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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