समीक्षा : आलोचनात्मक यत्न की सार्थकता और अक्क महादेवी / शशिभूषण मिश्र

आलोचनात्मक यत्न की सार्थकता और अक्क महादेवी
- शशिभूषण मिश्र

“अक्क का व्यक्तित्व आज भी अपनी उज्ज्वल चेतना से समूचे समाज को, विशेषकर स्त्रियों के मन को झंकृत कर रहा है। उन्होंने न केवल दक्षिण भारत के सामाजिक जीवन की गहरी जड़ता को तोड़ा और उसे लम्बी नींद से जगाया, बल्कि भारतीय साहित्य को भी अपनी अपूर्व रचनात्मक प्रतिभा से प्रभावित किया।” (सुभाष राय, दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी, पृष्ठ-11)

समाज की मुक्ति में ही स्त्रियों की मुक्ति का सपना भी शामिल है। बदलाव का कोई 'स्वप्न', कोई 'आदर्श' हू-ब-हू भले ज़मीन पर न उतरे लेकिन ऐसी परिस्थिति बन सके तो भी कुछ कम नहीं, जहाँ मनुष्य को मनुष्य की तरह देखा जाए, जहाँ स्त्रियों को भी मनुष्य जैसा आदर-सम्मान और आगे बढ़ने के अवसर मिल सके। अक्क महादेवी किसी सामाजिक परिवर्तन के लक्ष्य पर घर से नहीं निकली थीं लेकिन उन्हें पता था कि उनकी मुक्ति केवल उनकी मुक्ति नहीं होगी। तभी तो वे कहती हैं कि मनुष्य का देखना, सुनना, बोलना अर्थपूर्ण हो तो केवल उसका ही नहीं, पूरे समाज का, पूरी दुनिया का चेहरा बदल सकता है।

हिंदी पट्टी में अक्क महादेवी पर संभवतः पहली बार डॉ. रामविलास शर्मा ने कलम चलाई; मुख़्तसर ही सही, पर शुरुआत यहीं से होती है। आगे चलकर केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, अनामिका, गगन गिल और यतीन्द्र मिश्र जैसे लेखकों ने हिंदी संसार में ‘अक्क’ को पढ़ने-समझने की मूल्यवान परंपरा बनायी। ‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ को इस परंपरा की अगली कड़ी के रूप में देखते हुए यह कहा जा सकता है कि महादेवी के जीवन, वचन साहित्य और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक इतिहास को जितने विस्तार से यहाँ नियोजित किया गया है, वह अन्यत्र मिल पाना कठिन है। पुस्तक के शिल्प में विधाओं की पारस्परिकता को जिस तरह संभव किया गया है, उसके चलते इसे किसी खास विधा के सांचे में महसूद करना मुश्किल है। यहाँ हद में रहते हुए बेहद हो पाने की चाह है; जिसके चलते विधाओं की सीमाएं एक दूसरे में इस कदर घुल मिल जाती हैं कि उन्हें अलगाना मुश्किल हो जाता है। लेखकीय कौशल का कमाल यह है कि विधाओं के बीच की आवाजाही से कृति के प्रवाह और संप्रेषणीयता में कोई रुकावट महसूस नहीं होती। यह ठहरकर पढ़े-जाने की अपेक्षा रखने वाला शिल्प है, क्योंकि इसमें डूबकर ही महादेवी के जीवन-संघर्ष को बहुत हद तक थाहा जा सकता है।

यह कृति एक ओर महादेवी की अप्रतिहत आंतरिक जद्दोजहद को दर्ज करती है तो दूसरी ओर कवित्व की तरल छुवन से स्त्री मनोविज्ञान को कुरेदती है; एक ओर अक्क के ‘विद्रोहिणी’ बनने की परिस्थितियों के घातों-संघातों को शब्दबद्ध करती है तो दूसरी ओर अक्क को दैवीय व्यक्तित्व के रूप में देखे जाने की पद्धति को प्रश्नांकित करती है। पुस्तक के आमुख में कवि-अन्वेषक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी की इस टिप्पणी पर गौर किया जाना चाहिए कि “इसमें गम्भीर तथ्यपरक तर्कसम्मत शोध और आलोचना, सर्जनात्मक कल्पनाशीलता से किये गये सौ अनुवाद और कुछ छाया-कविताएँ एकत्र हैं। इस सबको विन्यस्त करने में सुभाष राय ने परिश्रम और अध्यवसाय, जतन और समझ, संवेदना और संभावना से एक महान कवि को हिन्दी में अवतरित किया है।” (आमुख, पृष्ठ-10) अशोक जी ने इस पुस्तक के असंदिग्ध महत्व को जिन शब्दों में रेखांकित किया है, उन शब्दों का प्रयोग वह अपनी आलोचनात्मक भाषा में अमूमन नहीं करते हैं। यह पुस्तक भारतीय ज्ञान परंपरा की एक ऐसी बुनियादी कड़ी को सामने लाती है जिसने भक्ति आन्दोलन के विकास में महती भूमिका निभाई। कहना होगा कि यह कार्य हमारी अकादमिक आलोचना के लिए एक चुनौती भी है और सीख भी। भारतीय ज्ञान परंपरा का राग अलापने वालों को भी यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए ताकि उन्हें यह पता चल सके कि ‘नारेबाजी’ से किसी परंपरा का विकास नहीं होता बल्कि उसका विकास हम तभी कर सकते हैं जब उसे आत्मसात कर उसमें बसी चेतना के स्पंदन को महसूस कर सकें।

दक्षिण की माटी में उपजे भक्ति-आंदोलन ने स्त्रियों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। लेखक ने इसे ‘जीवन से मुक्ति नहीं बल्कि जीवन की मुक्ति’ कहा है। भक्ति की सहजता ने स्त्रियों को बहुत हद तक स्वाधीनता दी, उनको अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के साथ ही पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्व की बेड़ियाँ तोड़ कर खुली हवा में साँस लेने का अवसर दिया। गीत-संगीत, नृत्य, चित्र, कविता और मुक्त-संवाद की तमाम कलाओं में उनकी अबाध गति के सौन्दर्य को जन-जन तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया। पाँचवीं, छठीं शताब्दी में तमिलनाडु में जन्मी भक्ति ने बाद के एक हज़ार वर्षों में भारत के विशाल भू-भाग की हवा को अपनी मानवीयता, अपने माधुर्य, अपने बेलागपन और अपने क्रान्तिकारी विचार-गीतों, पदों, वचनों, वाखों और साखियों की सुगन्ध से सराबोर कर दिया। बड़ी संख्या में स्त्रियाँ इस आन्दोलन का हिस्सा बनीं, जिन्हें हम आज भी बहुत आदर, सम्मान से याद करते हैं। लेखकीय अभिमत में बल है कि ब्राह्मण और आर्य सभ्यताओं को प्रश्नांकित करने वाले इस शक्तिशाली ऐतिहासिक आन्दोलन के दौरान स्त्रियों को साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होने का मौक़ा मिला।

भक्ति आंदोलन में स्त्रियों के रचनात्मक योगदान की तफ़सीस करते हुए वह जैन धर्म, बौद्ध धर्म और थेरीगाथाओं तक जाते हैं। जैन धर्म में स्त्रियों के लिए अधिक उदारता थी जिसके फलस्वरूप अनेक स्त्रियाँ जैन साध्वियों का जीवन बिताने के लिए संघ में आयीं। महावीर जैन की परंपरा में चन्दना पहली महिला सन्त थीं। वे स्वयं महावीर के परिवार से ही जुड़ी थीं। बाद में जैन धर्म के दो पन्थ हो गये। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था लेकिन श्वेताम्बरों ने उनके लिए रास्ता खुला रखा। बुद्ध भी आरम्भ में संघ में महिलाओं को शामिल करने के प्रश्न पर उदासीन थे लेकिन बाद में उन्होंने स्त्रियों के लिए संघ के रास्ते खोल दिये। घरेलू जीवन की त्रासदियों और घर-गृहस्थी की प्रताड़ना से त्रस्त सैकड़ों स्त्रियाँ बौद्ध संघ की ओर आकर्षित हुईं। समाज की बन्दिशों की अपेक्षा उन्हें यहाँ मुक्ति का अनुभव हुआ। थेरीगाथा में ऐसी अनेक बौद्ध भिक्षुणियों का काव्य संवाद मिलता है।

लेखक की इस मान्यता से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि स्त्रियों की मुक्ति का प्रश्न सामाजिक मुक्ति से गहरे तक जुड़ा हुआ है, क्योंकि समाज जितना उदार होगा, बदलाव की संभावना उतनी ही बढ़ेगी। सामाजिक जड़ताएँ ही रही हैं, जिन्होंने स्त्रियों को घर की चारदीवारी में लम्बे समय तक कैद रखा, उन्हें यातनाएँ दीं, उनके अधिकार छीने, उनका जीवन दूभर बना दिया। इस संदर्भ में देखा जाए तो निश्चित ही अक्क महादेवी का संघर्ष ‘सामाजिक बदलाव के संघर्ष’ के रूप में सामने आता है। वे जिस रास्ते पर थीं, वह जड़ताओं की मुक्ति से होकर जाता है। वह वाणी और व्यवहार के अन्तर को अस्वीकारती हुई एक ऐसे समाज का सपना देखती हैं जहां कोई भूखा न हो, कोई बेकार न हो। आगे चलकर कबीर और रैदास जैसे अन्य संतों ने इसी बुनियादी मांग को बारम्बार रेखांकित किया ।

जहां तक महादेवी की रचनाओं में तत्कालीन परिवेश की अभिव्यक्ति का सवाल है, लेखक ने उनकी रचनाओं का साक्ष्य देते हुए तद्युगीन परिस्थितियों की गहरी पड़ताल की है। इस पड़ताल में वह देखते हैं कि उनकी रचनाओं में तत्कालीन जीवन के कई रूपक दिखाई देते हैं। ग़रीबी, क़र्ज़ और लेन-देन, मछेरों के जीवन, खान-पान, खेती-बाड़ी से संबंधित ब्योरों का जिस सधे हुए ढंग से इस्तेमाल करती हैं और उन्हें आकर्षक आध्यात्मिक रूपकों में बदल देती हैं, यह अपने देश-काल के बारे में उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण-दृष्टि को दर्शाता है। फल, फूल, बीज, वृक्ष से लेकर जंगल और पहाड़ के विराट वैभिन्य और उसकी जैविकी को उन्होंने जिस तरह गहराई से देखा है, उससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि प्राकृतिक जीवन की गतिशीलता से उनकी गहरी आत्मीयता रही होगी! वह आम जीवन की गतिविधियों, वंचनाओं, विवशताओं, राज-काज की कार्यवाहियों से लेकर अपने चारों ओर फैले जन-जीवन और प्रकृति के रंग-अन्तरंग को देखती, बाँचती हुई चल रही थीं। यह सब जगह-जगह उनके वचनों में आया है लेकिन यथातथ्य विवरण की तरह नहीं, रूपकों और बिम्बों के रूप में। उनके बहुत कम वचन हमारे पास हैं फिर भी जीवन का जितना विस्तार उनमें दिखायी पड़ता है, उससे समकालीन समय को, उसकी गतिकी को, उसकी बुराइयों को और उसके सौन्दर्य को देखने की महादेवी की विलक्षण मेधा का पता चलता है। वे इस दुनिया के बहिरंग को अपनी दुनिया के अन्तरंग के साथ इस तरह विन्यस्त कर देती हैं कि उससे हम तत्कालीन परिस्थितियों को महसूस कर पाते हैं।

लेखक अक्क की संघर्षगाथा के बीच ‘स्त्री की स्वयं चुनी हुई नग्नता’ के माध्यम से लेखक उन निर्मितियों को चीन्हने का उपक्रम करता है जिनके चलते एक स्त्री को नग्नता का चुनाव करना पड़ता है! नग्नता को हम जब निर्वस्त्रता के अर्थ में लेते हैं, तब वह समस्या के रूप में उपस्थित होती है किंतु जब हम अध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, तब नग्नता का अपना विशेष महत्व हो जाता है। इस लेखकीय मंतव्य से असहमत होने की गुंजाइश नहीं रह जाती कि नग्नता की यात्रा बाहर से भीतर की यात्रा है। अक्क की यह यात्रा एक ओर अध्यात्म की यात्रा थी तो दूसरी ओर सामाजिक हदबंदियों और जड़ताओं से मुक्त होने की उनकी ज़िद थी। अक्क महादेवी के जीवन और रचनात्मकता के इस पाठ को भक्ति आन्दोलन के अन्य स्त्री रचनाकारों के समानांतर पाठ के रूप में देखा जा सकता है। देह की दृष्टि से महादेवी दक्षिण की तीन अन्य महत्वपूर्ण कवियों अवइयार, कराइकल अम्माइयार और आण्डाल से भिन्न नज़र आती हैं। अवइयार ने विवाह की ज़रूरत नहीं समझी लेकिन जब उन्हें अपने दैहिक सौन्दर्य की कठिनाई समझ में आयी तो उन्होंने एक बूढ़ी स्त्री के रूप में ख़ुद को बदलने का स्वाँग रचा। खुद को इस तरह प्रस्तुत करना शुरू किया कि उन्हें जो भी देखे, उसके भीतर उनके प्रति अरुचि पैदा हो जाए। वे कामयाब हुईं। इसी के साथ उनके विवाह की संभावना ही समाप्त हो गयी। कराइकल अम्मइयार भी अपूर्व सुन्दरी थीं। उन्हें लगता था कि इस सौन्दर्य की उन्हें कोई ज़रूरत नहीं है। उन्होंने स्वयं को एक कुरूप स्त्री में बदल लिया। आण्डाल ने देह की आत्मरति को कृष्ण के प्रति प्रेम की ओर मोड़ दिया। अद्वितीय रूप, सौन्दर्य महादेवी के पास भी था लेकिन उन्होंने इसे अपनी यात्रा में कभी बाधा नहीं बनने दिया। वे देह से भागती नहीं और सारे सामाजिक आग्रहों को ठुकराती हुई नग्न ही निकल जाती हैं। यहाँ वे ललद्यद के क़रीब दिखती हैं। उनके प्रारम्भिक वचनों में पारिवारिक जीवन, रिश्तों, प्रेम, यौनिकता, शरीर के बिम्ब आते हैं। इसे वे अपने प्रिय से अलगाव, प्रेम, दर्द और अपने द्वन्द्व को अभिव्यक्ति देने के लिए इस्तेमाल करती हैं लेकिन जैसे-जैसे वे अपनी यात्रा में आगे बढ़ती हैं, इन रूपकों के अर्थ बदलते जाते हैं। सवाल उठता है कि इन स्त्री चरित्रों में विवाह को लेकर इतनी अरुचि क्यों है! कहीं इसके मूल में पितृसत्ता की नियंत्रकारी निर्मितियां तो नहीं हैं ! इस संबंध में डॉ. काशीनाथ अंबलगे कथन रेखांकनीय है कि “पुरुष प्रधान समाज में केवल पुरुष ‘स्त्रियों को नियमों के बन्धनों में’ बाँध कर रख सकता है, न कि स्त्री।” (अक्क महादेवी और स्त्री विमर्श, पृष्ठ-48)

लेखक ने आलोचना की समाजिकता को बरकरार रखते हुए केवल अक्क महादेवी तक ख़ुद को सीमित नहीं रखा है, वरन वह अक्क के ‘महादेवी’ बनने की यात्रा में बसवण्णा और अल्लम प्रभु के अप्रतिम योगदान को अलक्षित नहीं होने दिया है। उन्होंने बसवण्णा की प्रखर सामाजिक राजनीतिक चेतना और अल्लम प्रभु के अंतर्विवेक से मिलकर बनने वाली विलक्षण युति के प्रभाव को बड़ी शिद्दत से उभारने का यत्न किया है। इस वास्तविकता को भुलाया नहीं जा सकता कि बसवण्णा ने अपने समय मे आध्यात्मिक-सामाजिक आन्दोलन को नयी गति और नया तेवर दिया। वीरशैव आन्दोलन ने पारम्परिक भारतीय दर्शन के विपरीत व्यक्ति और समाज, दोनों का महत्व प्रतिपादित किया। उनकी विचारधारा केवल व्यक्ति के कल्याण की नहीं थी। उसमें समाज भी शामिल था। यह ‘वीरशैव’ या ‘शरण आन्दोलन’ के नाम से जाना गया। शिव के वीर और साहसी भक्त। बसवण्णा और उनके कई समकालीन वचनकारों की रचनाओं में 'वीरशैव' शब्द का उल्लेख मिलता है। स्वयं अक्क महादेवी ने अपने एक वचन में ‘वीरशैव’ शब्द का प्रयोग किया है। हालाँकि लेखक मानते हैं कि इस आन्दोलन में शामिल अल्लम प्रभु, बसवण्णा और अक्क महादेवी को किसी ख़ास शब्द की छतरी के नीचे खड़ा करना कठिन है, क्योंकि इनके व्यक्तित्व और रचना संसार में जो वैविध्य है, वह ‘वीरशैविज्म’ के अर्थ से परे भी अपना वजूद रखता है।

लेखक ने अपनी शोध और अध्येता दृष्टि से वीरशैव आंदोलन को ‘बारहवीं सदी की विलक्षण सामाजिक क्रान्ति’ के रूप रेखांकित किया है। इस आन्दोलन ने मनुष्यता, अहिंसा, करुणा और समानता के सिद्धान्तों पर आधारित समाज रचना का स्वप्न देखा । यह आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन की नवोन्मेषी अवधारणाओं पर खड़ा हुआ था, जिसमें संस्कृति और परंपरा के नाम पर प्रचलित भ्रान्तियों और जड़ताओं को ख़ारिज किया गया और श्रम, स्वतन्त्रता एवं समाजवाद के सिद्धान्तों के आधार पर वर्णाश्रम मुक्त, जाति और भेद-विहीन नयी समाज रचना प्रस्तावित की गयी। इस आन्दोलन की लोकप्रियता का बड़ा कारण उसकी संवादधर्मिता थी। हुक्म नहीं बातचीत, आदेश नहीं संवाद। किसी भी निर्णय पर गम्भीर विमर्श ही पहुँचा सकता है। संवाद की गुंजाइश होगी तभी प्रश्न भी होंगे। प्रश्न ही समाधान का रास्ता है। ज़ाहिर था कि वचनकारों को शास्त्रीय वार्ता नहीं करनी थी, इसीलिए उन्होंने अपनी बात कहने के लिए संस्कृत की जगह स्थानीय कन्नड़ भाषा का प्रयोग किया। इसमें श्रेष्ठतावाद और ब्राह्मणवाद को ख़ारिज करने का अभिप्राय भी सन्निहित था। उन्हें पता था कि जनता जो भाषा बोलती है, उसमें कही गयी बात दूर तक पहुँचेगी।

वीरशैव आन्दोलन एक तरह से स्त्री मुक्ति का आन्दोलन था जिसने स्त्रियों को पितृसत्ता से तो मुक्त किया ही, जाति सत्ता से भी बहुत हद तक मुक्त होने में मदद की। छोटी जातियों से निकलकर तमाम स्त्रियाँ इस आन्दोलन से जुड़ीं। अल्लम प्रभु, बसवण्णा और दासिमय्या जैसे सिद्ध वचनकारों ने खुल कर उनका स्वागत किया। पुरुष की श्रेष्ठता के विचार को इस आन्दोलन ने एक सिरे से खारिज कर दिया। इसका तत्कालीन कन्नड़ समाज पर व्यापक असर पड़ा। बड़ी संख्या में महिलाएँ वीरशैव आन्दोलन से जुड़ीं। उनमें से अनेक श्रेष्ठ वचनकार के रूप में भी सामने आयीं। कन्नड़ साहित्य की श्रीवृद्धि में उनका बड़ा योगदान है। लेखक के अनुसार “बारहवीं शताब्दी में कल्याण और उसके आसपास साठ से ज़्यादा शिव शरणियाँ रहती थीं जिनमें से लगभग पैंतीस शिव शरणियों की रचनाएँ आज उपलब्ध हैं। अक्क महादेवी के अलावा जिनके नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं, उनमें नीलाम्बिके, वीरम्मा, नागम्मा, सत्यक्का, मुक्तायक्का, अक्कम्मा, अमुगे रायम्मा और मोलिगे महादेवी शामिल हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य है कि इनमें से 12 छोटी जातियों से आयी थीं और आठ अविवाहित थीं।” (उपर्युक्त पृष्ठ-132)

पुस्तक की खासियत है कि इसमें ऐतिहासिक और समकालीन पहलुओं के बदलते स्वरूपों और सत्ता के साथ उसके प्रकट और अदृश्य संबंधों की अलग-अलग कोणों से पड़ताल की गई है। लेखक ने यहाँ विवेचना की ऐसी शैली अपनाई है जिससे केवल यही पता नहीं चलता कि अक्क महादेवी का जीवन संघर्ष किस राह से होकर आगे बढ़ता है, बल्कि यह भी स्पष्ट होता चलता है कि नियंत्रणकारी सत्ताएं किस तरह स्त्री की मुक्ति में अड़चने पैदा करती हैं। महादेवी ‘उडुतडि’ से होते हुए श्रीशैल तक की एक मधुर काव्य-यात्रा की कड़ी बनाती हैं। इस कड़ी में अल्लम प्रभु और अक्क के वार्तालाप को लेखक ने बड़े रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है। ऐसी दार्शनिक नियोजना, दार्शनिक समझ के बिना संभव नहीं। यह सचेत सर्जक की भाषा में नियोजित एक ऐसा दार्शनिक संवाद है जिसमें धर्म, अध्यात्म, आत्मा और जीवन की कई गुत्थियां खुलने लगती हैं। विवरणों की पुनर्रचना करने के प्रयास में कुछ जगहों पर पुनरावृत्ति दिखाई देती तो कुछ जगहों पर भावनापूरित कथानात्मक अतिव्याप्तियाँ भी। मसलन, “तमाम भक्त कवियों ने जीवन की जड़ता के विरुद्ध उल्लास के अद्भुत और अनोखे गीत गाए हैं लेकिन उनमें अक्क महादेवी विरल हैं, अतुलनीय हैं । उनका कथ्य, उनकी शैली, उनकी भाषा, उनके वचन, सब कुछ भक्ति की भारतीय परंपरा के श्रेष्ठतम अवदान का हिस्सा है।” (दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी, पृष्ठ-334)

इस पुस्तक का सबसे आलोकित करने वाला हिस्सा है- अक्क महादेवी की प्रेरणा से लिखी गयीं छाया कविताएँ। इन छाया कविताओं में गहरा अर्थ-संश्लेष है। यहाँ महादेवी के वचनों में अन्तर्निहित जीवन के अनेक रंग बिखरे दिखाई देते हैं- कहीं धूसर, कहीं चटख तो कहीं बिल्कुल उज्जर। इन कविताओं की रोशनाई से जीवन का वह पक्ष भी आभाषित होने लगता है जिसका इल्हाम किसी और माध्यम से संभव नहीं। इन छाया कविताओं को इस लिहाज से भी पढ़ा जाना चाहिए कि वीरशैव आंदोलन ने पारंपरिक और स्थापित मान्यताओं को बदलने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और महादेवी की कविताओं में उसका किस हद तक असर दिखाई देता है! 'वचनों' में अंतर्निहित अध्यात्म, प्रकृति, जीवन, अनुभव और सौंदर्य को समझने में भी इन छाया कविताओं महत्व असंदिग्ध है क्योंकि 'वचन' सिर्फ़ कविता नहीं बल्कि ज्ञान और अनुभव का एक ऐसा चेतना-संकुल प्रवाह है जिसके भीतर कन्नड़ साहित्य का कम-से-कम चार शताब्दियों का इतिहास नत्थी है।

शशिभूषण मिश्र
सहायक प्राध्यापक हिंदी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बाँदा
9457815024

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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