बोल किछोड़ा 'कऽअ'
- हेमंत कुमार
किताबों में पढ़ा कि छह रुत होती हैं और कोई रुतराज भी। मगर देखी तीन ही- सरदी, गरमी और बिरखा। सरदी में दो चीजें चलतीं। एक नाक। दूसरी रहळ (शीत लहर)। दूसरी को तेज चलती देख पहली भी अपनी गति बढ़ा देती। नाक दुनिया की इकलौती चीज है जो तापमान बढ़ने से नहीं घटने से पिघलती है। रुतराज से ज्यादा जान- पहचान नहीं पर रुतरानी मेरी जाण (समझ) में किसी को कहा जाए तो वह होगी बिरखा। आसमान में पानी की पोटली लादे बादलों की बाळद। चंग पर थाप देता सँवलाया आसमान। हड़हड़ हँसने से रह-रह कर पळके मारती बिजळी की चूँप (दाँतों में जड़ा सोना)। झिरमिर-झिरमिर झरता मेह। मेह में भीगती देह। चूती चैळ (छप्पर का बाहरी हिस्सा)। लाल रेशम की नन्हीं कतरन सी मेह-माई (वीरबहुटी)। जीव-जिनावर से मिनख तक सबके जीवन का आधार घास-पात, नाज-पात, बेल-बाल, दरखत-सरखत।
सियाळे (सर्दी) और चौमासे (वर्षा) के बीच धूणी तापते हठीले जोगी की मानिंद अटल अखाड़ा जमाए रहता उन्याळा (ग्रीष्म)। इस रुत में आसमान भोभर (गर्म राख) बरसाता। बळबळती भाळ (हवा) चलती जिसे 'लू' कहते। जमीं माता न जाने किस भोले शंकर को पाने पार्वती की तरह तपती। इसी रुत में खेजड़ी की डालियों पर सूखे खोखे खनकते। आँधी के आम मुहावरा किताब में बाँचने को मिला पर खाने को आँधी के खोखे ही मिले। अमूमन साँझ समय आसमान में खँख ( धूल का धुधलका) चढ़ता। अनखार (आँधी) भोडळ, कागद, घास-फूस को उलटती-पलटती-उछालती चलती। सबेरे खेतों में खेजड़ों के नीचे खोखों की बिसात बिछी मिलती। बीज खनकाते रेशेदार फोसरे (मुलायम) खोखे। सियाळे- उन्याळे टैम के पक्के थे। दस-बीस दिन की उँवार (देर) तो कोई उँवार नहीं होती। उडीकना (इंतजार) पड़ता रुतरानी बरखा को। वह ऐसी नखराली कि कभी लगते जेठ में ही बूँदों के बिछुए खनकाती आ जाए। कभी ऐसी रूठे कि सुरंगे सावन के सब रंग बदरंग हो जाएँ। कभी धरती को हरा लहरिया पहनाए तो कभी बेचारी से निर्जला ग्यारस कराए।
जैसे 'अकेला' का विलोम शब्द 'केला' नहीं होता। वैसे ही 'अकाल' का विलोम शब्द 'काल' नहीं होता। राजस्थान में तो काल का 'ल' जरा मुँह सुजाकर अकाल का पर्यायवाची बन जाता है -'काळ'। 'काळ' मौत का हमशक्ल जोड़ला भाई होता है।
जब तक बिरखा न आती तब तक मौसम का चार्ज उन्याळे के पास ही रहता। बिना चार्ज दिए कोई मौसम 'रिलीव' नहीं हो सकता। कार्यवाहक उन्याळा ज्यादा भारी पड़ता। बिरखा के वियोग में सारा आलम उदास होता। गाएँ सूखकर हड्डियों का ढाँचा रह जातीं। कटड़-कटड़ बाड़ की काँटी चाबकर पेट की आग में बळीता (इंधन) डालतीं गायों की हालत देखी न जाती। ग्याभण (गर्भिणी) गाय के पेट में घूमता, कोल में सिर मारता अजन्मा बछड़ा अपनी अठखेलियाँ बंद कर देता। उदासी उपासी गाय ममता कातर हो रंभाती - बाँऽआँऽऽऽऽऽआँ……बाँऽआँऽऽऽऽऽआँ……।
सूनी (आवारा) गाएँ बहुत तेजी से कमजोर होती जातीं। दो-चार दिन बाद वे बेसक्याँ (उठने, हिलने-डुलने में असमर्थ) पड़ जातीं। गाँव में जो कोई देखता, दो-चार लोगों को इकट्ठा कर बेसक्याँ पड़ी गाय के पेट के नीचे लकड़ी का मोटा -लम्बा डंडा डालकर उठवाता। तब भी न उठ पाती तो थोड़ा-बहुत चारा-पानी लाकर उसके पास रख देते। वह इतनी कमजोर कि मुँह के पास रखा चारा-पानी भी न खा पाती। काश! इतना सा चारा-पानी दो-चार रोज पहले नसीब होता! खैर, गाय की कमजोर अस्थी-पंजर मात्र देह का सारा दुख आँखों में सिमट आता और काली आँखों से बहा काला तरल दुख मुँह और जबड़े की ओर काली लकीर छोड़ता हुआ सूख जाता। सूखा दुख रह-रहकर हरा हो आता। प्राण का पखेरू बड़ा चीढा (कठोर) होता है। जर्जर से जर्जर देह भी वह आसानी से नहीं छोड़ता। जिस रात मौत आती गाय को लेने, पूँछ और कान तक हिलाने में लाचार गाय में जाने कहाँ से ताकत आती। वह मौत से जंग लड़ती। जीवन की चाह में अपनी धूजती टँटों (पीछले पैरों की बाहर उभरी तिकोनी हड्डी) के बावजूद मौत को लात पर लात मारती जाती। तमाम टाँगा-पछाड़ा के बावजूद आखिरकार मौत जीत जाती, तैंतीस करोड़ देई-देवताओं साँस के परिंदे के पंखों पर सवार हो उड़न छू हो जाते। जीवन और मृत्यु के बीच चले संग्राम के निशान गोबर और गौमूत्र सिंचित जमीन पर बचे रह जाते।
फिर खबर दी जाती छिगना बाबा को। आगे का कारज उन्हें ही करना होता। उससे आगे का कारज करते तळाव के एक ओर खड़ी ऊँची खेजड़ियों की टिकटोळी (शिखर) पर आळ्या (घोंसला) घालने वाले गिरज (गिद्ध) और आसमान से टोह लेते चील और काँवळे।
गाँव के बीचोंबीच बगीच्याँ जो आजकल बस स्टेंड है और किसी जमाने में साधुओं की समाधि-स्थली था, उसके बाएँ पासे ही तो छिगना बाबा का घर है। छिगना बाबा हुनरमंद आदमी। बाद (चमड़े) का काम ऐसा कि आदमी दो घड़ी देखे। समूचा गाँव उन्हीं के हाथों की बनी जूतियाँ पहन पर चलता - चरड़….चरड़…चरड़ड़चूँ..। पाँव में न ढीली, न ठस। पग एकदम डब्बी की जात रहे। नाप में सूत भर का फर्क न आए। और तो और जूतियों की चरड़-चरड़ चरड़ाट से कई लोग तो बिना देखे पहचान लिया जाए कि फलाना मकड़ा (फलां आदमी) आ रहा है। जैसी जूतियाँ वैसे तंगड़-पटिए। वैसी ही मजबूत जेलियाँ (एक कृषि ओजार) बाँधते- दोआँगळी, चौसिंगी, छाँगली। छाँगली कम बनती। न वैसे सिंगे मिलते न उनकी उतनी जरूरत पड़ती। छाँगली या छसिंगी लोग-बाग तब लाते जब फुस्करजी (पुष्कर) के मेले से जाते। ढाढी-मूँछवाले आदमी ढोल-पपिया तो लेने से रहे तो मेले से छसिंगी जेळती ही उठा लाते। छिगना बाबा छायले-खरोले (चारा डालने के पात्र) भी उसी गुणवत्ता से बनाते। काम के साथ राम भजने वाले आदमी। ईमानदार, नेकनीयत और दिल के सच्चे। कबीर साहब और रैदास भगत की लीक पर चलनेवाले, काम और राम को एक साथ साधने वाले छिगना बाबा के आराध्य थे लालगुरु। सो सुमिरते रहते जय अलख धणी लालगुरु! गले में कोई माला-साला भी पहनते थे शायद।
गाँव में स्कूल था तो बाबा ने अपने छोटे लड़के किशोर को पढ़ने भेजा। किशोर लंबे कद और दोलड़े हाडपगों (मजबूत शरीर) वाला किशोर। मोटी फैली नाक और उसी अनुपात में मोटे होंठ। रंग जैसे बिना पके मिट्टी के पुराने बर्तन का हो जाता है, कमोबेश वही रंग था उसकी त्वचा का। घर में पढ़ने को कोई माहौल न था तो पढ़ने में मन तो क्या लगता। बस पेड़ों में पानी डालने के घंटे में मजा आता। किताबें जी का जंजाल मालूम होतीं। सो ज्यादातर स्कूल से गायब ही रहता किशोर।
गाँव में जाति द्वेष तो न था, पर जातिभेद था। स्कूल में तो जो पान-सातेक नल लगे थे वे तो सही अर्थों में सार्वजनिक थे। सार्वजनिक ही नहीं बल्कि सार्वप्राणिक। मनुष्यों के अलावा चिड़िया, काग, घुरस्ली वहीं पानी पीते। कुत्ते टपकते नलों में जिस्म भिगोकर गर्मी मिटाते। शीशम, शिरीष और बबूल के गाछ भी वही पानी पीते थे। पर स्कूल के बाहर सिमेंट की काली चौकोर टंकी के चार टूँटियाँ और लगी थी, उनमें से तीन तो जातिवाचक टूँटियाँ थी और चौथी जो व्यक्तिवाचक टूँटी थी वह जातिवाचक न होकर जातिसूचक थी। चारों में से पहली का नाम टूँटी, दूसरी का नाम भी टूँटी और तीसरी का नाम भी टूँटी। पर चौथी का नाम था 'मैतराळी टूँटी'। तीनों टूँटियाँ समान रंग की थी। चौथी पर लाल पेंट किया गया था। बीच-बीच में से उखड़े पेंट से लोहे का काला रंग झाँकता था। जैसे लाल गाब्भों (वस्त्रों) में पक्के (साँवले) रंगवाली औरत। न जाने किस अलिखित संविधान की अदृश्य धारा द्वारा वह टूँटी किशोर या कहना चाहिए छिगना बाबा के परिवार के लिए रिजर्व की गई थी। बाकी सब जातियों की तीनों नल साझा थी। हमारे बाल मन को यह बेहद अन्यायपूर्ण लगता कि तीस-चालीस घर तो तीन ही टूँटियों से काम चलाए, खाली न होने पर अपनी बारी का इंतजार करें और एक घर के लिए पूरी एक सापती टूँटी एलॉट रहे! खाली रहने पर भी कोई उस टूँटी का इस्तेमाल करने की हिम्मत न कर सके। बड़े लोग असल में कितने छोटे होते हैं जो एक टूँटी के इस्तेमाल से डरते हैं।
किशोर स्कूल कम आता था , इसका एक कारण और भी हो सकता है। होने को और भी कारण हो सकते हैं पर मैंने जिस कारण के हो सकने का जिक्र किया है, वह यह है कि किशोर स्वाभाविक रूप से पढ़ने में थोड़ा कमजोर रहा होगा। उसके पिता माने छिगना बाबा की धार्मिकता भी असामान्य और कौतूहल का विषय रही होगी। तो स्थितियों को मिलाकर न जाने किस ऐबले आदमी ने तुकबंदी कर थी -
" बोल किछोड़ा 'क्- अ'।
लालगुरु की 'ज- अ'।"
किशोर को ' किशोरा या किशोर्या की स्वाभाविकता के विपरीत जो 'किछोड़ा' की तुतलाहट भरा संबोधन दिया गया था, वह तिलमिला देने वाला था। ऊपर से लालगुरु के जयकारे ने भी आग में घी का नहीं तो छाणे (उपले) का काम किया होगा। तो इस तरह किसी कुमाणस (दुर्जन) की कुचमाद (शरारत) ने किशोर को स्कूल से विमुख कर दिया होगा।
किशोर को काकी वाले घर पर कई बार देखा गया। हाँ, काकी को पुरा गाँव काकी ही कहता है आज भी। वैसे उनका पूरा नाम 'भोर्याळी काकी' है और 'भोर्या' भी असल में न तो भोर्या है, न भोळ्या बल्कि भँवरसिंह है। और तो और वह काकी का भतीजा भी नहीं है बल्कि सगा बेटा है। वह घर किशोर जैसों के लिए तो खासतौर से मित्रवत है। दूसरा आकर्षण शायद ज्यादा प्रबल है। वहाँ देवी का हथकढ़ प्रसाद बँटता है- बावळा पाणी (शराब)।
इसके अलावा किशोर को देखने की याद अपने घर की है। जिस बरस लम्बे सींगों और बड़े खुरोंवाली पीळती गाय सफेद झक बगुले सी धोळी धप बाछी लाई थी, वह बरस हम बच्चों के लिए सबसे ज्यादा खुशी का साल था। जिसने काले नाक, मुँह, काले खुर, काली पूँछ, ललाए कान और भूरे माथेवाला, दूध फेन से सफेद मुलायम रेशमी बदन वाला गाय का बछड़ा नहीं देखा, उसने दुनिया की सुंदरतम चीज नहीं देखी। नरगिसी नयन देखनेवालों को एकबार सफेद नवजात बछड़े की काँच सी चमकती काली कजरोटी आँखें जरूर देखनी चाहिए। उस मनमोहिनी बछिया का बड़े लाड़चाव से न्हावण पुजाया गया था। माथे पर रोली का टीका। गले में मोली का धागा बँटकर लाल कपड़े में सिला ताबीज!
पीळती गाय को न जाने क्या रोग लगा था, वह चल बसी थी। पशु की मौत किसान के लिए परिवार के सदस्य की मृत्यु सी ही दारुण होती है। खासकर धिणोड़ी (दुधारू) की मौत धिराणी (दुहनेवाली) को झकझोर देनेवाली होती है। बुलाने पर उस दिन किशोर आया था, बड़ा भाई पप्पू भी साथ में दो-एक मोटे जेवड़े(रस्से) लिए। उसने जेवड़ों से गाय के अगले -पिछले पैरों में जूण गाँठ लगाई। रस्सों से गाय को घसीटना शुरू किया तो गाय की गर्दन -मुँह पीछे को मुड़ गए जिधर बछड़ी बँधी थी। मुँह से लार की लकीर कुछ दूर मिट्टी पर खिंचती चली गई। बछिया खूँटे पर तुड़ाव कर रही थी। घिसटती गाय को देखकर लगता था जैसे घर बर का कलेजा खींच कर बाहर निकाला जा रहा हो….
दिन बीते छिगना बाबा के परिवार ने ढाँढा नाखने (ढोर ढोने) का काम बंद कर दिया। अब वे शादी-ब्याह, जागरण-सवामणी आदि ने गाँव भर में न्यूता बुलावा देने का काम करने लगे। फिर कुछ बरस बाद वे घरबार समेट कर न जाने कहाँ चले गए!
आड़दस बरस गए गाँव के कुछ धर्मप्राण लोगों को लगा कि सारी ऊमर बीत गई तीर्थाँ गए बगैर। अब तो साधन चल गए हैं। क्यों न एक बस किराए करके फुस्कर, कोलायत, बिनराबिन-मथरा-अयोध्याजी न्हाया जाए। आशु बाबा अगुवा बने। कुछ मौजिज आदमी तैयार हुए। कुछ मोट्यार-लुगाई जोड़े सहित तैयार हुए। गाँव की ठुकराणियाँ, बामणियाँ, खातणें, मालणे कौन-कौन तीर्थाँ जाने को तैयार न हुआ! भजन गाते, माळा-मणिया फेरते, धरम के माँ-बाप, बहन-बेटी बनाते तीर्थयात्रियों का टोला राम सुमरता आगे बढ़ता रहा। कोई किसी तीर्थ में किसी को गरु बनाता, कोई आलू खाना छोड़ता तो कोई तोरई। कोई ब्रत-उपवास सामता तो मंतर जाप। ऊमर भर कितना पाप किया। कीड़ियों पर दुवाई बुरकाई, ऊनरों के लिए फाकेवाली दुवाई रखी। बिना अस्नान किए रोटी खाई। चुगली-चाला किया। झूठ-साँच किया। बेइमानी की। अब वह पाप तीर्थों में धो रहे हैं ताकि आगे का जमारा सुधरे।
इस तीरथ धाम यात्रा में वह घटना घटी कि सबको अचुम्मा (अचंभा) भी हुआ और घोर कलजुग आने का अहसास भी। न जाने कौनसा तीरथ था, मथरा की जलमभूमि थी कि बिनराबिन की कूँजगळी। पर शायद आखरी तीरथ था उस यात्रा का । भूखे-तिसाए जातरू बस थाम कर एक जगह उतरे, किसी 'पवित्तर सुध साकारी' भोजनालय का नाम देखकर। चाय लगभग सबने पी। चावड़ी थी भी ठीक। किसी -किसी ने नाश्ता भी किया। किसी ने रोटी भी खाली होगी। कोई चाय का ब्याह कर रहा था बीड़ी सिलगाकर। कोई तीर्थों से घर के बच्चों के लिए खरीदे ख्यालुणे (खिलौने) संभाल रहा था तो कोई खोट की मूँदड़ी (अँगूठी)। ये कवायद चल ही रही थी कि एक आदमी भोजनालय के अंदर से आया और एक मेज के पास जाकर बोला , "आशु बाबा काँई लेसीं?"
आशु बाबा चकित कि यहाँ परदेश में उनको जाननेवाला कौन? चेहरा कुछ जाना पहचाना -सा लगा। पर आँखों पर सहसा यकीन न हुआ। कुछ औरतें घूँघट के भीतर से आँखों पर हथेली का छाजा बनाकर देखें तो कुछ अँगुली का गोल मोरीगेट बनाए टोर बाँधकर देखें- 'कौन हो सकता है भला! अनाण-सनाण पूछ नहीं सकतीं इतने मोट्यारों के बीच तो उणियारा (चेहरा-मोहरा) मिलाएँ।
इतने में आदमी फिर बोला, " और कियाँ आशु बाबा! धोक! राम-राम! जाण्यां कोनी कै ? ' बोल किशोरा 'क'....."
"अरे यार! किशोर्या तू!"
एक आखिरी तीर्थ और आखिरी पाप बाकी था। जो पानी से नहीं चाय से धुला। तीर्थ में आलू-प्याज छोड़ने से बड़ी चीजें छोड़ने को बची रह जाती हैं। आदमी ऐसी चीजें भीतर से खोज-खोजकर छोड़ता जाएँ तो घर बैठे ही तीर्थ क्या तीर्थंकर हो जाए!
हेमंत कुमार
सहायक आचार्य (हिंदी), श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालय, सीकर
hemantk058@gmail.com, 9414483959
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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