जेएनयू डायरी (भाग-2) : नीम-बाज़ : इब्ने मरियम हुआ करे कोई
- सुमित कुमार
काश कि वक़्त कोई ऐसी चीज होती जिसे पकड़ कर हम मसल सकते और फिर गूँथे हुए वक़्त में से अपनी मर्जी की तस्वीरें और मुजस्सिमे बना सकते। तब हम क्या कुछ छोड़ देते और क्या कुछ जोड़ते? यादें सिर्फ मखमली सुरूर भरी नहीं होतीं। कुछ तो ऐसी तीक्ष्ण होती हैं जो कितनी भी परतों के भीतर छिपे भूत तक छेदती चली जाती हैं तो कुछ ऐसी खुट्टल भोथरी होती हैं जो व्यक्ति को कूट पीसकर बारीक करती रहती हैं। फिर भी यादें अनुभव का हिस्सा हैं और ये हमें सिखाती हैं कि जीवन असल में किताबों के बाहर कैसा है। जेएनयू में मेरा जाना जीवन के उस पड़ाव पर हुआ था जब लड़कपन छूट रहा होता है लेकिन समझदारी आई नहीं होती। जैसे घड़ा न कच्चा हो और न पका हुआ। बस धूप में सूखा भर हो। ऐसे में उस वक़्त के संस्कार मन पर ऐसे पड़े हैं कि मैं जहाँ भी जाऊँ जेएनयू मेरे साथ ही चलता है। जब हम स्नातक में अपनी एक क्लास ले रहे थे तब बाहर कॉरिडर में एक लड़का बहुत तेज़ी से शोर मचाता हुआ चला गया। न जाने किस बात से खुश और उत्साह से भरा हुआ होगा। हमें लगा कि जो प्रोफेसर हमें पढ़ा रही हैं वे जरूर बाहर जाकर इसे डाँटेंगी। लेकिन वे सिर्फ मुस्कुराईं और यह कहकर कि जीवन में तुम सब बहुत कुछ पाओगे लेकिन ये दिन फिर नहीं आने वाले, अपना टॉपिक पढ़ाने लगीं। आज लगता है कि उन्होंने ठीक कहा था।
पिछले दिनों कोयंबटूर में ईशा फाउंडेशन के आश्रम जाना हुआ था। वहाँ जिस विंग में मुझे रूम मिला उसमें सभी हॉस्टल नदियों के नाम पर थे। फिर जेएनयू की स्मृति हो आई। यहाँ भी हॉस्टल के नाम नदियों के नाम पर रखे गए हैं। लेकिन दोनों के बीच बुनियादी फ़र्क ये था कि वहाँ खटमल की समस्या बिल्कुल नहीं थी। यहाँ गंगा के किनारे सतलज और थोड़ा पीछे को झेलम, उधर थोड़ी ऊँचाई पर कावेरी और पेरियार के साथ गोदावरी तो इधर गड्ढे में अपना नर्मदा और उसी के पीछे साबरमती था। वही साबरमती जिसके सामने के लॉन की घटना ने जेएनयू को देश- दुनिया के घरों के लिविंग रूम तक और बसों-ट्रेनों में मुसाफिरों की बातचीत तक पहुँचा दिया था। उन्हीं दिनों जब जेएनयू के बारे में देश में कई तरह की राय बनती जा रही थी और उनमें से ज्यादातर पक्ष में नहीं थीं, एमए के विन्टर सेमेस्टर के बाद हम अपनी टोली के साथ नैनीताल घूमने निकले थे। ट्रेन उस वक़्त रुद्रपुर स्टेशन से होकर गुजरी ही होगी कि जेएनयू की किसी बात को लेकर हमारी एक सहपाठी एक सहयात्री से उलझ बैठी। बढ़ते- बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि खड़े होकर खूब जोर-जोर से बहस होने लगी। मैंने अपनी सीट से सर उकचा कर देखा तो पूरा कम्पार्ट्मेन्ट तो हमीं को देख ही रहा था, आगे-पीछे के कम्पार्ट्मेन्ट के लोग भी नज़ारा देखने आ पहुँचे थे। अच्छा हुआ कि किसी भले मानुष ने वीडियो बनाकर वायरल नहीं की वरना हमारा वाक् कौशल पूरा देश देखता। अच्छा यह भी हुआ कि ये ट्रेन की घटना थी। बस होती तो क्या पता हमें बीच रास्ते उतार भी दिया जाता। बात तो हम ठीक ही कह रहे थे लेकिन पूर्वाग्रह इतने जबरजस्त थे कि कोई सुनने को तैयार ही नहीं होता था। खैर इसका विस्तृत वर्णन फिर कभी। तो ऐसे ही कैम्पस के एक कोने में बना चंद्रभागा हॉस्टल था जहाँ मैं सबसे शुरू में टीआर के रूप में रहा। टीआर मतलब थर्ड रूममेट। जेएनयू में यह व्यवस्था थी कि जब तक आपको हॉस्टल अलोट न हो, आप अपने किसी जान पहचान वाले के साथ टीआर के रूप में रह सकते थे। हालाँकि जिनकी वजह से मुझे वहाँ रहने का मौका मिला उनसे मैं कभी मिल नहीं पाया। इस हॉस्टल के सामने एक बड़ा मैदान था जिसके एक कोने पर पड़ी लोहे की बेंच ने जाने जीवन के कितने पहले अनुभवों को छुआ है। इस मैदान के पीछे जेएनयू की लेक थी। या यूँ कहिए कि हमें लेक बताई गई थी। असल में था तो ये एक जोहड़ा जिसमें बरसात का पानी इकट्ठा हो जाता होगा। एक तरफ बनी सीमेन्ट की दीवार ने इसे एक छोटे बैराज का लुक दे रखा था। पानी इसका जिस वक़्त मैंने देखा तब तो हरा था और प्रकृति की चिंता करने वाले इसके भीतर प्लास्टिक की बोतलें, काँच की भी और चिप्स बगैरह के खाली पैकेट सजावट के लिए डाल गए थे। लेकिन इसकी एक खास बात थी कि यहाँ शांति बहुत थी। जब सूरज डूबता तो पानी का रंग बदलता था। मोहन राकेश की आखिरी चट्टान वाले रेत की तरह तो नहीं लेकिन इतना बदलता था कि पहले हरित द्युति से मेघवर्णी श्याम होकर सुरूर चढ़ाता फिर अचानक से भक्क कालापन ओढ़कर डराने लगता। यहाँ कई शामें गुजरी वैसे ही जैसे पीएसआर में कई सुबहें हुईं। पार्थसारथी रॉक्स को शॉर्ट में पीएसआर कहते थे जहाँ कुछ एक बड़े पत्थर थोड़ी ऊँचाई पर प्राकृतिक रूप से रखे हुए थे जो इसे एक छोटी चट्टान का लुक देते थे। लोगों ने बैठ-बैठकर इन पत्थरों को बिल्कुल साफ और चिकना कर दिया था। हाँ प्रकृति प्रेमी तरह-तरह की बोतलों और चिप्स के पैकेट से सजावट करना यहाँ भी नहीं भूले थे। एक बार पीएसआर पर सुबह 4 बजे जाकर बैठ गए कि आज तो सनराइज़ देखकर ही रहेंगे। सब तरफ उजाला फैल गया लेकिन सूरज का कहीं पता ही न था। और जब दिखाई दिया तो आधा आसमान में पहुँच चुका था। वो जो बड़े से शीतल आग के गोले की कल्पना कर हम बैठे थे वो तो कहीं था ही नहीं। हमारी अपेक्षा ही शायद गलत थी। दिल्ली कितना कुछ दे सकती है? तमाम सुविधाएँ और लकदक चकाचौंध देने के बदले क्या ये तुमसे तुम्हारे सूरज और चन्दा को भी न ले? लेकिन हाँ जेएनयू ने अपने हिस्से कि ठंडक अभी भी बचा कर रखी है। ब्रह्मपुत्र हॉस्टल की तरफ जाइएगा तो फ्रीजिंग पॉइंट आपको अपनी ठंडक से रूबरू जरूर कराएगा।
एम.ए. में हमें जो एक प्रोफेसर पढ़ाते थे वे कोई काव्यशास्त्रीय अवधारणा समझाते हुए अक्सर एक ही उदाहरण देते कि ‘सितंबर की एक शाम थी’ और शमशेर बहादुर सिंह की कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ शायद उनकी सबसे प्रिय कविता थी जिसकी वे अक्सर चर्चा करते। इसकी एक पंक्ति ‘ खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं’ और ‘ मुझे प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं झरने की तरह तड़प रहा हूँ’ तो हमने इतनी बार सुनी कि जुबानी याद हो गईं। हम आपस में अलग-अलग संदर्भों में उन्हें तोड़-मरोड़कर बोलते रहते। एमए के दूसरे साल में विशेष पेपर के अंतर्गत हमने ‘कबीर’ को चुना था और योजना बनी कि जिन्होंने ये पेपर लिया है वे संत कबीर के जीवन से जुड़ी जगहों पर भ्रमण के लिए जाएंगे और वहाँ के लोगों से बातचीत के आधार पर वर्तमान समय में जनमानस में कबीर की प्रासंगिकता विषय पर अपना संगोष्टी पत्र तैयार करेंगे। जेएनयू में हर पेपर में आंतरिक मूल्यांकन के तहत एक अवधी पत्र और एक संगोष्ठी पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य होता था। हमारे पेपर के संयोजक प्रोफेसर ने ही ये योजना बनाई थी और इसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, मगहर, गोरखपुर आदि जगहों पर भ्रमण का प्रस्ताव था। घूमने और ज्ञानवर्धन दोनों ही दृष्टि से ये अच्छा अवसर था। लगभग सभी लोग तैयार हो गए। मैंने अपने एक सहपाठी के साथ मिलकर ट्रेन की टिकटें कराईं। संयोजक प्रोफेसर साहब ने एयू, बीएचयू और गोरखपुर विश्वविद्यालयों के गेस्ट हाउस बुक करवाने की व्यवस्था करवा दी। विभागीय मीटिंग में भी शायद प्रस्ताव पास हो गया। कुल मिलाकर ऑल सेट वाली स्थिति थी। लेकिन तभी एक दूसरे प्रोफेसर साहब ने जो उसी सत्र में दूसरा पेपर पढ़ा रहे थे, रंग में भंग डाल दिया। हम 2 दिन के लिए क्लास स्थगित रखने या उस दौरान कम से कम कोई आंतरिक परीक्षा न कराने की माँग कर रहे थे। लेकिन वे नहीं माने। हालाँकि ज्ञान और अध्यापन के मामले में उन्हें उस समय के विभाग के सबसे अच्छे प्रोफेसरों में गिना जाता था और हम सभी इस दृष्टि से उनसे प्रभावित भी थे। लेकिन न जाने उन्होंने ऐसा क्यों किया। वास्तव में हम सबका बड़ा मन था कि वो ट्रिप हो। एक तो सीमित साधनों के चलते वैसे ही घूमने के मौके बहुत कम मिलते थे फिर सहपाठियों और मित्रों के साथ भ्रमण का ये पहला और आखिरी मौका होता जो शायद बड़ा यादगार रहता। शायद हमारी इस डायरी में कुछ और ऐसे किस्से होते। बहरहाल टिकटें कैन्सल हुईं। मन खिन्न हुए और हम न कुछ कह पाए न कर पाए। सिवाय इसके कि जब अगली बार उन्होंने ‘सितंबर की एक शाम थी’ का उदाहरण दिया तो हमारी एक सहपाठी ने कहा कि हर बार शाम सितंबर की ही क्यों होती है? फरवरी की शाम में क्या खराबी है? चूंकि इस ट्रिप की व्यवस्था के मूल सूत्रधारों में मैं भी था तो एक सहपाठी अक्सर चुटकी लेता कि क्या हाल है? मैं कहता कि बस खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं। उस दिन मैंने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा ‘ नसीब से ज्यादा और वक़्त से पहले कभी कुछ नहीं मिलता’। नीचे किसी ने कमेन्ट किया और इस तरह कबीर को जनमानस में ढूंढने की इच्छा का दमन कर दिया गया। अब परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं कि शायद अगले एक-डेढ़ साल बनारस आना-जाना होता ही रहेगा। लेकिन तब की बात कुछ और होती।
जेएनयू में कुछ बॉयस हॉस्टल हैं, कुछ गर्ल्स और कुछ मिक्स्ड। मिक्स्ड हॉस्टल होने का मतलब ये नहीं है कि लड़के-लड़कियाँ अगल बगल के कमरों में रहते हैं। मिक्स्ड हॉस्टल में लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग विंग होते हैं और मैस कॉमन होता है। लड़के किसी भी स्थिति में लड़कियों के विंग में नहीं जा सकते थे, लड़कियाँ लड़कों के विंग में जा सकती थीं लेकिन एक निश्चित समय के बाद रुकने की अनुमति नहीं होती थी। एक हॉस्टल का कोई निवासी भी दूसरे हॉस्टल में बिना रजिस्टर एंट्री किये नहीं रुक सकता था। बीच-बीच में वॉर्डन चेकिंग होती थी और कोई इस तरह पकड़ा जाता तो उसके खिलाफ़ कार्यवाही होती और जुर्माना भी लगता। जुगाड़ू लोग दुनिया के हर कोने में होते हैं और वे हर परिस्थिति में अपने लिए रास्ता निकाल लेते हैं लेकिन हम उनमें से नहीं थे। इन सब मामलों से बहुत दूर रहने वाले अच्छे बच्चे टाइप थे। लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि अपने एक सहपाठी के जन्मदिन पर सब लोग उसके रूम पर इकट्ठे हुए। वैसे जेएनयू में रात का ऐसा कोई वक़्त नहीं होता जब यह आपको सुनसान मिले। देर रात तक लाइब्रेरी में पढ़ने वाले जब लौट रहे होते तब तक सुबह जल्दी पढ़ने वाले जाने लगते थे। कुछ एक ऐसे भी थे जिनके पास कोर्स पूरा होने और नए कोर्स में एडमिशन मिलने के बीच कहीं और रहने का विकल्प नहीं होता था तो वे पूरी रात लाइब्रेरी में गुजार देते और दिन में अपने किसी जान पहचान वाले के रूम में सो लेते। फिर भी उस दिन गप्पबाज़ी और गाने बजाने के दौर में काफी रात हो गई। रात क्या सुबह ही होने को थी। सब थक कर उबासियाँ ले रहे थे और एक दो तो वहीं इधर उधर पड़े सो गए थे। तभी बाहर से दरवाजा खटखटाया गया। सबकी हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं। हमें लगा कि आज तो बुरे फँसे। जरूर ये वॉर्डन चेकिंग है क्योंकि अमूमन वो सुबह के इसी वक़्त होती थी। पूरे सेंटर में मजाक बनती और फाइन लगता सो अलग। आधी क्लास तो वहीं मौजूद थी। मैं तो शुतुरमुर्ग की तरफ़ मुँह तकिये के नीचे दबा कर पड़ गया। जिसका रूम था उसने जैसे तैसे गेट खोला। देखा तो सामने उसके रूममेट खड़े थे। सबके मुँह से ठंडी आह निकली। अच्छे बचे।
जेएनयू चूंकि एक क्लोज्ड कैम्पस है और ज्यादातर छात्र परिसर के भीतर ही रहते हैं ऐसे में अपने सहपाठियों के साथ क्लास से बाहर वक़्त गुजारने का मौका भी खूब मिलता था। इसी वजह से मैत्री भाव बड़ी तेजी से विकसित हुए और सब अपनी अपनी सुविधानुसार अगल-अलग ग्रुपों का हिस्सा बन गए। गुट नहीं लेकिन ग्रुप। ऐसे ही हमारी क्लास के एक ग्रुप को हम मजाक में बुद्धिजीवी वर्ग कहने लगे और वो नाम चल निकला। हालाँकि उनमें से कुछ वास्तव में प्रतिभाशाली थे भी। लेकिन एकाध सदस्य सिर्फ अपनी और दूसरों दोनों की बुद्धि खाकर सिर्फ बुद्धि के भरोसे ही जी रहा था। ऐसे में वही था जो बुद्धिजीवी वर्ग का सच्चा प्रतिनिधित्व करता था। क्षेत्रीय आधार पर भी सबकी अपनी अलग अलग प्रतिबद्धताएँ और प्राथमिकताएँ थीं। अपने से सीनियर बैच के साथ मेरा संवाद बहुत सीमित रहा। और सुपर सीनियर के साथ तो लगभग नगण्य। कारण मेरा बेहद संकोची और रिजर्व प्रवृत्ति का होना। लेकिन एक सीनियर के साथ मेरी बहुत गहरी आत्मीयता रही। हालाँकि बाद में धीरे-धीरे संवाद सीमित होते गए। लेकिन फिर भी कई बार पुरानी तस्वीरें देखते समय सबकुछ आँखों के सामने से गुजरता है तो लगता है कि काश एक बार फिर वही समय बिताने का मौका मिलता। सच तो ये है कि जीवन में कुछ लोग ऐसे जरूर आते हैं जिनके साथ के संबंध को आप कभी डिफाइन नहीं कर पाते। लड़ते-झगड़ते, बहस करते, इरिटैट होते और बेहद नाराज होते हुए भी आप कहीं भीतर से जानते हैं कि ये व्यक्ति अपना ही है। बाहर से बिल्कुल उदासीन और बेहद ठंडे होने के बावजूद वे आपकी चेतना का हिस्सा बनकर साथ रहते हैं। तो ये जो सीनियर थीं इनका एक दोस्त मेरे ही हॉस्टल में रहता था। वह जेएनयू के बाहर किसी ढाबे पर खाना खाकर आया था और उसकी तारीफ करते न रुकता था। जिन्होंने हॉस्टल के खाने को कभी खाया है वे जानते हैं कि उस वक़्त बाहर का खाना कितनी बड़ी लग्जरी होती है। तो इस ढाबे पर जाने का प्लान बना। संजय वन के पास किसी सरकारी इंस्टिट्यूट के सामने सड़क किनारे ये ढाबा था। एक लंबी दीवार के पीछे मैदान जैसा कुछ जिसमें लोहे की सरियों का गेट लगा था। गेट के किनारे हाथ धोने के लिए पानी की कुछ टोंटियाँ थीं। जब ऑटो से उतरे तो भूख से बिलबिलाते खाने पर टूट पड़े। इधर उधर कुछ देखा ही नहीं। खाना था तो औसत लेकिन स्वाद तो भूख में होता है। खाकर मैं और मेरी एक सहपाठी जब हाथ धोने के लिए उठे तो मेरी नजर लोहे के गेट से भीतर गई। टीन शेड के नीचे आग जल रही थी। मैंने अपनी सहपाठी से कहा कि इतनी सर्दी तो नहीं है ये कौन बोनफायर कर रहा है। तभी पानी के प्याऊ के पास लगे बोर्ड को देखा तो पता चला कि ये तो श्मशान है। और जो अंदर जल रहा है वो बोनफायर नहीं किसी की ताजी जलती हुई चिता है। वो मुँह में पानी भर कर उंगली से दाँत साफ कर रही थी। हमने एक दूसरे की आँखों को देखा। भाव बेहद कॉम्प्लेक्स किस्म के थे। श्मशान किनारे भोजन का ये अनुभव न जाने कैसा सा था। जीवन में कई बार वैराग्य और उत्सव, उल्लास और अंतर्वेदना जैसे विरोधी लगने वाले भाव साथ-साथ सामने आ जाते हैं। पिछले दिनों जब इलेक्शन में मजिस्ट्रैट की ड्यूटी लगी थी तब सड़क पर आती-जाती गाड़ियों को चैक करने का जिम्मा था। एक ही जगह खड़े-खड़े मैं देख रहा था कि कितनी तरह की संवेदनाएं सड़क पर दौड़ी चली जा रही थीं।कोई अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने जिम कॉर्बेट जा रहा है। कोई इलेक्शन की ड्यूटी करके लौट रहा है। कोई चुनाव के लिए जा रहा है। कोई दुल्हन जा रही है पार्लर से तैयार होकर। कोई दुल्हा सेहरा बांध के जा रहा है किसी का वरण करने। तो कोई मैय्यत में जा रहा है या लौट रहा है। कोई अस्पताल में खून देने जा रहा है। कोई होली या ईद मिलने जा रहा है। कोई लड़का अपने उस नौकरी की ट्रेनिंग करके लौट रहा है जिसका सपना उसने कभी पहले देखा था। इस एक दुनिया में कितनी दुनियाएँ एक साथ चलती हैं। एक ही समय में, एक दूसरे के समानांतर और अप्रभावित। लेकिन कभी- कभी प्रभावित भी। सुख, दुःख, उल्लास, नीरसता, उत्साह, विरक्ति सब इन सड़कों पर एक साथ दौड़े चला जा रहे थे और मैं वहाँ बैठा हुआ पढ़ रहा था, ‘अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का, अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है’।
एमए के पहले साल के साथ मैं कोचिंग भी ले रहा था।उस वक़्त एक कैब जेएनयू से जाती थी। जेएनयू में तो लाइब्रेरी रीडिंग रूम का नाम ही धौलपुर हाउस पड़ गया था। हर साल ठीक ठाक संख्या में अभ्यर्थी यहाँ से सफल होते भी थे। ऐसे में इस कैब के लिए बच्चे आराम से मिल जाते थे। शाम के समय हमारी कोचिंग होती और रात डिनर के वक़्त तक ही हम वापस जेएनयू पहुँच पाते। ऐसे में पहले कुछ महीने तो मैंने जेएनयू में शाम का माहौल देखा ही नहीं और न जाने कितने किस्से मैंने सिर्फ दूसरों से सुने।तो जो ये हमारी कैब थी इसमें एक लड़की कश्मीर से थी, एक छत्तीसगढ़ से, एक लड़का हरियाणा से था, एक आंध्र प्रदेश से, दो तमिलनाडु से, एक सिक्किम से, एक मैं उत्तर प्रदेश से और एक पूरे भारत और शायद थोड़ा भारत से बाहर से भी। पता नहीं सच बताता था या फेंकता था लेकिन उसने भारत के साथ- साथ रशिया, सिंगापुर और एक दो लैटिन अमेरिकी देशों से भी अपना कुछ संबंध बता दिया था। बहरहाल मैं पूरे साल भी समझ नहीं पाया कि वह मूल रूप से कहाँ से था। उसका शरीर और मस्तिष्क जितना विशालकाय था, बुद्धि से भी उतना ही भरा हुआ था। सामान्य तौर पर वह नीरस और उदासीन प्रकृति का था लेकिन मेरे प्रति उसका व्यवहार थोड़ा स्नेहिल था जो काफी बाद तक भी बना रहा। इस तरह ये कैब लगभग पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती। अकादमिक पृष्ठभूमि में भी अत्यधिक विविधता थी। कैब में जो सिक्किम का लड़का आता था उसे कैब के ड्राइवर भैया जनधन कहकर पुकारते थे। मैं सोचता तो था कि नॉर्थ ईस्ट में भी इस तरह के नाम होते हैं क्या? एक दो दिन बाद क्लीयर हुआ कि उसका नाम ज़ेनडेन था जिसका भैया ने सरलीकरण कर दिया था। मुझे रेणु की कहानियों और उपन्यासों की स्मृति ताज़ा हो आई। ज़ेनडेन बेहद ज़हीन और व्यवहारकुशल था। अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी के अलावा हिन्दी भी ऐसी धाराप्रवाह बोल लेता था। अकादमिक समझ के साथ ही दीन-दुनिया को लेकर भी उसके कान्सेप्ट काफी क्लीयर थे। अगले किसी साल वह यूपीएससी में अंतिम रूप से चयनित हो भी गया। इसी कैब में एक और सीनियर भी कभी- कभी कभार जाती थीं जो उस समय इंटरव्यू की तैयारी कर रही थीं। वे उसी साल चयनित हो गईं और शायद अभी केरल में उनकी पोस्टिंग है। बाद में तो धीरे धीरे सबसे संपर्क लगभग समाप्त हो गया लेकिन उस समय कैब में आते और जाते समय हमारे बीच पहले इनलेक्चूअल चर्चाएं हुईं जो धीरे-धीरे गप्पबाज़ी में तब्दील होती गईं। राजेन्द्र नगर से खरीदे गए समोसों और ऑटो के किराए का हिसाब अभी भी हुआ नहीं है। जब जेएनयू में नारेबाजी के मुद्दे को लेकर मुख्य रास्तों का घेराव किया जाने लगा और पूरे रास्ते मीडिया और पुलिस की गाड़ियों से चोक हुए पड़े थे तब सभी बाहरी वाहनों का प्रवेश परिसर में निषिद्ध हो गया। ऐसे में हम सबके सामने कोचिंग जाने की समस्या आ खड़ी हुई। तब हमनें कुछ चोर दरवाज़े खोज निकाले। किसी तरह एंट्री तो कर लेते लेकिन फिर अंदर कैंपस में पैदल चलना पड़ता। मेरा हॉस्टल गेट के सबसे नजदीक पड़ता था लेकिन आरके और अप्पू लोहित हॉस्टल में रहते थे जो सबसे दूर पड़ता था। वहाँ तक पहुँचने में दोनों पसीने-पसीने हो जाते और डिनर तब तक खत्म हो चुका होता तो वे बाहर का विकल्प खोजते। वैसे जेएनयू में ढाबों की कोई कमी नहीं है। लेकिन टेफ़्लाज़ हमें सबसे मुफीद पड़ता था। ये मेरे हॉस्टल के बिल्कुल सामने ही था। खाना था तो अच्छा लेकिन वक़्त बहुत लगता था। न जाने वे सब अब कहाँ- कहाँ होंगे। उनको मैं याद होऊँगा भी कि नहीं। लेकिन अपने इस मिनी भारत का जिक्र मैं अपने विद्यार्थियों के सामने बड़े गर्व से करता हूँ और आगे भी करता रहूँगा।
कभी लगता है कि हम न जाने क्यूँ वो सब करने, कहने से डरते हैं जो हम वास्तव में चाहते हैं। जिसे दुनिया समझदारी कहती है असल में वो अपनी असली शख्सियत के ऊपर परत दर परत चेहरे ओढ़ते जाने का नाम है। हम वो नहीं करते जो हमें सच में अच्छा लगता है। हम वो करते हैं जिसे हम समझते हैं कि दुनिया अच्छा समझेगी। और धीरे धीरे हम भूल जाते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं। पिछले कुछ वक़्त में कई ऐसे लोगों से मिलना हुआ जो जीवन के उस पड़ाव पर हैं जहाँ से लोग अक्सर पीछे पलटकर ज़िंदगी के नफा-नुकसान का हिसाब लगाया करते हैं। उन्हें सुनकर लगा जैसे उनमें से हर एक किसी और के हिस्से की ज़िंदगी जी रहा था। बाहर से वे काफी हद तक खुश और ऊर्जा से भरे दिखाई देते थे लेकिन जब उन्हें थोड़ा कुरेदा तो पाया कि वे सिर्फ कुछ खोखले हो चुके जिस्म थे जिनके ऊपर से लकदक रोशनी से नहाई बाहरी चकाचौंध का भ्रम था। ज्यों- ज्यों मैं दुनिया को जानता जाता हूँ त्यों-त्यों मेरा ये विश्वास पक्का होता जाता है कि दुनिया तमाम क्रूर सच्चाईयों के बावजूद असल में एक बेहद खूबसूरत जगह है लेकिन हम वो खूबसूरती कभी देख नहीं पाते क्योंकि हमारी आँखें उसकी अभ्यस्त नहीं हैं। लेकिन कल जब हम खुद उस पड़ाव पर पहुँच जाएंगे जहाँ से सिर्फ पिछला सफर देख भर पाने की इजाजत होगी क्या तब हम ये कह सकेंगे कि हाँ हमने जिंदगी को जी भर जिया है और वैसे ही जिया है जैसा हम चाहते थे? आज जेएनयू का वो वक़्त याद आता है तो सोचता हूँ कि अभिव्यक्ति सीखने में भी वक़्त लगता है। और कई बार तब तक वक़्त निकल चुका होता है। वो जो कहते हैं न कि ‘ मैं किसी तरह भी समझौता नहीं कर सकता, या तो सबकुछ ही मुझे चाहिए या कुछ भी नहीं’ वे सब बेबुनियादी बातें हैं। कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ता है। सब कुछ कहीं नहीं मिलता। न जीवन में, न मृत्यु में, न प्रेम में, न घृणा में, न सुख में, न दुख में, न संबंध में, न अलगाव में।
क्रमश:...
सुमित कुमार
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी, महामाया राजकीय महाविद्यालय, शेरकोट,बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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