- नीरा जलक्षत्रि
बीज शब्द : सिनेमा अध्ययन, लोकप्रिय संस्कृति और सिनेमाई गीत, संस्कृति अध्ययन, साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध, फ़िल्मी-गीतों में काव्यात्मक सौन्दर्य, जनपक्षधर सिनेमा, सिनेमाई-गीतों में राजनैतिक और सामाजिक चेतना।
मूल आलेख : अपने एक साक्षात्कार में पंजाब के प्रसिद्ध कवि शिव कुमार बटालवी ने कहा था कि ‘जो इंटलेक्चुअल है, बौद्धिक है, उसके साथ ये ट्रेजेडी, ये दु:खांत रहेगा कि वो जानता है कि वो हर पल मर रहा है1. क्यूंकि जैसे-जैसे आप दुनिया को समझते जाते हैं आपका इससे मोहभंग होने लगता है| लगभग ऐसी ही बात अशरफ अज़ीज़ भी अपनी पुस्तक में एक पूरा अध्याय हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र की तुलना विश्वविख्यात कवयित्री सिल्विया प्लाथ की कविताओं से करते हुए उन्हें ‘आत्महत्या की गीतात्मक रूमानियत’ वाला कवि कहते हैं|2. यह शोध-आलेख शैलेन्द्र के गीतों को देखने-समझने का एक अलग नज़रिया भी देता है|
ये एक संयोग है कि अशरफ़ अज़ीज़ की लिखी क़िताब ‘हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत’ पढ़ने के ठीक बाद जो क़िताब हाथ में आई, वो थी, यूनुस ख़ान की वर्ष 2024 में प्रकाशित क़िताब ‘उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र सिनेमा में रचे गाने ज़िन्दगी में बसे गाने’ | इन दोनों किताबों में एक ही रचनाकार के लिखे गीतों का विश्लेषण दो अलग नज़रिए से किया गया है| अशरफ़ अज़ीज़, शैलेन्द्र के लिखे आठ सौ गीतों में से दो सौ गीतों को सुनकर, उनके मन के स्थायी भाव को पकड़ने का प्रयास करते हैं, वे शैलेन्द्र के जीवन-संघर्ष, उनकी संवेदनशीलता, वैचारिक प्रतिबद्धिता के आलोक में उनके गीतों में उन जगहों की तलाश करते हैं, जहाँ एक गहन जीवन-दर्शन और उदासी की छाया सर्वत्र मौजूद रहती है, चाहे गीत किसी भी भावभूमि का हो, शैलेन्द्र उसे अपनी अभिव्यक्ति में एक दार्शनिक पुट दे देते थे|
भाषा की सरलता और विचारों की गहनता उनके गीतों में एकसाथ उपस्थित होती हैं, इस बात का उल्लेख यूनुस भी अपनी किताब में करते हैं | अपने समय के सबसे प्रगतिशील और संवेदनशील गीतकारों में शुमार शैलेन्द्र का हाल ही में जन्मशताब्दी वर्ष बीता है और इसी अवसर पर उनके गीतों को केंद्र में रखकर यूनुस ख़ान ने एक विशिष्ट किताब लिखी है, ‘उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र’ | यूँ तो इस किताब से पहले भी शैलेन्द्र पर कई किताबें आयीं हैं, जिनमें एक उनकी बेटी अमला मजुमदार की लिखी किताब, ‘शैलेन्द्र अ लव लिरिक इन प्रिंट’, सपना भट्ट की ‘शैलेन्द्र द सूफ़ी लेफ्टिस्ट’, ब्रज भूषण तिवारी की ‘गीतों के जादूगर शैलेन्द्र’ और इन्द्रजीत सिंह द्वारा लिखित एवं संपादित किताबें क्रमशः ‘भारत के पुश्किन शैलेन्द्र’, ’धरती कहे पुकार के’ और ‘तू प्यार का सागर है’ भी शामिल हैं|3.
यूनुस ख़ान, पिछले पच्चीस वर्षों से अधिक समय से विविधभारती मुंबई में उद्दघोषक रहे हैं, इस क्रम में अगर फ़िल्मी दुनिया से जुड़े महान् कलाकारों से साक्षात्कार लेने, उन्हें क़रीब से जानने के अनुभव को भी अगर जोड़ लें, तो ये समझा जा सकता है कि उनके पास किस्सों का एक समृद्ध संसार है, वे पिछले तीन दशक से सिनेमा पर लगातार लिखते रहे हैं और उनकी दो अनुदित किताबें, गीतकार आनंद बक्षी पर केंद्रित ‘नग़में किस्सें बातें यादें’ और नसरीन मुन्नी कबीर से फिल्म निर्देशक-पटकथा लेखक और गीतकार गुलज़ार से बातचीत पर आधारित ‘जिया जले’ प्रकाशित हो चुकीं हैं |
दरअसल विगत वर्षों में साहित्य और सिनेमा की विविध विधाओं में रचनाकार और रचनाकर्म पर प्रायः कई शोधपरक किताबें आयी हैं, जो अपने विस्तृत अध्ययन और प्रमाणिक साक्ष्यों के उल्लेख के कारण विशेष लोकप्रिय हुईं, यह क़िताब कुछ अर्थों में पहले आई क़िताबों से अलग है| यह रचनाकार के जीवन-प्रसंगों का पर बात करने के साथ-साथ उनके गीतों की आत्मा और वैचारिक धरातल को समझने का प्रयास भी करती है, इस संदर्भ में स्वयं लेखक कहते हैं-“इस किताब में शैलेन्द्र के गानों का विश्लेषण फिल्म की पटकथा, किरदारों, उस समय और समाज की रोशनी में किया गया है | कुछ गानों के बनने की दिलचस्प कहानियां भी इस सफ़र में आपको पढ़ने को मिलेंगी और इन गानों को सुनने का आपका नज़रिया बदल जायेगा “4.
शैलेन्द्र की गीत-भाषा की सादगी, प्रतीकों की गहराई, और उनका जन-सरोकारी रवैया इस पुस्तक का केन्द्रीयतत्त्व है | इतना ही नहीं, शैलेन्द्र की युवावस्था, ’इप्टा’ से जुड़ाव, फ़िल्मी करियर की शुरुआत, निजी जीवन की घटनाओं और फिल्म जगत के दोस्तों के साथ के प्रसंगों को भी विस्तार से स्थान मिला है | उनके गीतों के पीछे छिपे जीवन–संघर्ष और विचारधारा के साथ-साथ समय-समाज की प्रतिध्वनियों को भी इस पुस्तक में सुना जा सकता है| स्वयं लेखक इस संदर्भ में लिखते हैं–“ गीतकार शैलेन्द्र विलक्षण हैं, विशिष्ट हैं | जिस समय और समाज में वो साँस ले रहे थे, उसके परिदृश्य, आकांक्षाओं, उम्मीदों और सपनों की झलक उनके फ़िल्मी गीतों में नज़र आती हैं, आज़ादी के बाद देश के निर्माण का सपना, उसके बाद हुआ मोह-भंग, बेरोज़गारी, लालफीताशाही, भेदभाव, दंगे, पूँजी का दबदबा, ज़ुल्म, अन्धविश्वास ,तमाम प्रवृतियाँ और बदलाव हैं, जो आपको शैलेन्द्र के फ़िल्मी-गानों में नज़र आते हैं”5.
लेखक शैलेन्द्र को महज एक गीतकार नहीं, बल्कि एक जनकवि की तरह प्रस्तुत करते हैं, ऐसा कवि जो आमजन की आशा, पीड़ा और संघर्षों को सरल शब्दों में बांध सकता है, संभवतः इसीलिए इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने अपने एक लेख में शैलेन्द्र को भारत का ‘बॉब डिलन’ कहा था|6. और जब गुलज़ार को प्रथम शैलेन्द्र सम्मान मिल रहा था तो उस अवसर पर दिए व्याख्यान में गुलज़ार कहते हैं-“एक आम और मामूली सिचुएशन को गाने में साहित्य का दर्जा दे देना, एक अदब बना लेना, शैलेन्द्र की बड़ी ख़ासियत थी.....शैलेन्द्र इज़ प्रोबब्ली द बेस्ट लिरिसिस्ट विच टू द हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री”7.
अशरफ़ अज़ीज़ भी अपने शोध-आलेख में उनके बारे में लिखते हैं-“वे सिनेमा गीतकार के रूप में पूर्णतया मौलिक थे, उनकी कविता फिल्म आख्यान में पूरी तरह समाहित होती थी,उनके गीत संक्षिप्त और आम बोलचाल की भाषा में सजे होते थे| अपने गीतों में उन्होंने ‘बिंबात्मक’ रूपकों का इस्तेमाल किया है जो दृश्य माध्यम के अनुकूल होते थे |”8.
गहन-गंभीर विचारों को सरलतम तरीके से कैसे कहा जाए, शैलेन्द्र इसका साक्षात् उदाहरण थे | उन्होंने कबीर की तरह गहरी बातों को सरल शब्दावली में ढालकर आमजन की जुबां पर चढ़ा दिया था | वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे | हाशिये का समाज और उसकी आवाज़ उनके गीतों के केंद्र में रही है इसलिए उन्हें हिंदी सिनेमा का पहला ‘सबाल्टर्न गीतकार’ भी कहा गया है| सिनेमा में आने से पहले, इप्टा के दिनों में उनका लिखा गीत जिसका ज़िक्र करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं- “मैं दादर में एक साथी के घर पर ठहरा हुआ था और सड़क पर मजदूर जुलूस निकालकर गाते हुए जा रहे थे, हर जोर-जुलुम की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है, यह गीत शंकर शैलेन्द्र का था|”9. शैलेन्द्र का यह गीत मात्र इप्टा का नारा नहीं था, बल्कि जनचेतना का उदघोष बन गया था। यूनुस ख़ान लिखते हैं “सलिल चौधरी की तरह शैलेन्द्र भी ‘इप्टा’ से आते थे, उनका झुकाव जगजाहिर था | मज़दूरों और मज़लूमों के लिए लिखे गए उनके गीत इप्टा में जोशो-ख़रोश से गाये जाते थे –
पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें शैलेन्द्र के बीस प्रतिनिधि गीतों को विश्लेषण की धुरी बनाया गया है। हर अध्याय किसी गीत के मुखड़े से आरंभ होता है, जिससे गीत के भाव-संसार में पाठक सहजता से प्रवेश कर पाता है। उदाहरणार्थ:-“मौसम बीता जाये, ‘तेरी आँखों में ये दुनियादारी न थी’,’ छोटा-सा घर होगा बादलों की छाँव में’, ‘ज़िन्दगी ख्याब है’,’ ज़िन्दगी का अजब फ़साना है’,’ भेद ये गहरा बात ज़रा सी’, ‘चूल्हा है ठंडा पड़ा हुआ और पेट में आग है’, ‘क्या हवा चली, बाबा रुत बदली’, ‘सहज है सीधी राह पे चलना’,’ हाय रे वो दिन क्यों न आये’, ‘ना मैं धन चाहूँ’, ‘ना रतन चाहूँ’, ‘चील–चील चिल्ला के कजरी सुनाए’, ‘मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना’, ‘फूल खिलेगा बागों में जब तक गुलाब का प्यारा’, ‘कुछ और नहीं इन्सान हैं हम’, ‘एक ऐसे गगन के तले, मुसाफिर जायेगा कहाँ,’ ‘तुम्हें याद करते-करते जाएगी रैन सारी’, ‘हाय गजब कहीं तारा टूटा’,’ गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो”11. अंतिम अध्याय उनके द्वारा भोजपुरी फिल्म में लिखे गीतों पर आधारित है|
प्रायः राजकपूर की फिल्मों में शैलेन्द्र एक ज़रूरी नाम की तरह दर्ज रहे हैं लेकिन सार्थक और लम्बी साझेदारी बिमल रॉय के साथ भी रही है, उन्होंने दो बीघा ज़मीन के अलावा नौकरी, मधुमती, यहूदी, परख और बंदिनी जैसी फिल्मों के लिए यादगार गीत भी लिखें हैं, जिन गीतों के साथ संगीत और रागों पर भी विस्तार से विश्लेषण इस पुस्तक में किया गया है |
बिमल राय की यथार्थवादी फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’, औद्योगीकरण की मार को झेलते किसान के अपनी ही ज़मीन से विस्थापित होने का मार्मिक आख्यान है, इस फिल्म के गीतों में शैलेन्द्र उस किसान के दर्द को जिस तरह उद्घाटित करते हैं, लेखक ने इस संदर्भ में लिखा है –“भारत में नवयथार्थवादी सिनेमा का जो मुहावरा विमल राय जैसे फिल्मकारों ने गढ़ा, सुचिंतित रूप से गाने में पिरोकर उसके असर को कितना सान्द्र किया है उसकी जीती–जागती मिसाल है ये गीत “12.
किसान से मजदूर बनाने की त्रासदी की कथा को वे इस तरह गीत में ढालते हैं, कि वे संसार भर के श्रमिक-जन के दुःख को मानो शब्द दे देते हैं| लेखक का कहना है –“ये गाना पूंजीवादी समाज पर तीखा प्रहार करता है....शैलेन्द्र उन गीतकारों की जमात का हिस्सा हैं, जिन्होंने फिल्म की कहानी और किरदारों के दायरे में रहकर अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, अपने सरोकारों का ऐलान किया है | इसी फ़िल्म में एक जगह एक गीत को वे मजदूर गा रहे हैं जो आज़ाद भारत के शुरुआती दौर में अपने-अपने गाँवों से निकलकर शहरों की ओर आने को मजबूर हो गए हैं |”14
शैलेन्द्र ने बिमल रॉय की फिल्म नौकरी के लिए वो यादगार गीत लिखा “छोटा–सा घर होगा बादलों की छाँव में “ लेकिन यही वो दौर है जब बेरोज़गारी, घूस ,लालफीताशाही आज़ादी के बाद के सपनों से मोहभंग की स्थिति भी पैदा करती है और शैलेन्द्र उस दौर के युवा के दर्द को गीत में पिरो देते हैं |
ये दिलचस्प है कि बिमल रॉय की एक और फिल्म ‘परख’ ऐसी ही फिल्म है जो समाज के खोखले चरित्र पर तीखा प्रहार करती है और उसके गीत ही नहीं संवाद भी शैलेन्द्र की कलम से ही निकलें हैं एक संवाद देखें –
तेरा हाजमा ठीक हैं न ?
पोस्टमैन – सब चीज़ें हज़म नहीं होती| ख़ासकर के हमदर्दी| अगर इसकी कहीं ज़्यादती हो जाती है, तो खट्टी-खट्टी डकारें आने लगती है डाक-साहब17.
बहरहाल लेखक परख के गीतों में ख़ासकर ‘ओ सजना’ गीत की रचना–प्रक्रिया के विषय में लिखते हैं-“शैलेन्द्र यहाँ एक बड़ा ही दिलचस्प प्रयोग करते हैं | पहला अंतरा दो पंक्तियों का है जबकि दूसरे अंतरे में दो के बजाय पांच पंक्तियाँ है | हिंदी सिनेमा में संचारी का अद्भुत प्रयोग है यह“18 बहरहाल संचारी के इतिहास के बारे में बताते हुए इस बात का भी ज़िक्र है कि इसका सबसे पहले प्रयोग रविन्द्रनाथ ठाकुर ने किया था | इस तरह के अनेक अनसुने किस्सों और तथ्यों से यह किताब समृद्ध है | एक अन्य गीत “चूल्हा है ठंडा पड़ा हुआ और पेट में आग है” यह गीत आर्थिक विषमता की पीड़ा का चित्रण करता है।
शैलेन्द्र के गीतों के नायक प्रायः किसान, श्रमिक, बेरोज़गार, मानवीय संबंधों में यकीन करने वाले नौजवान और हाशिये का समाज रहा है, यद्यपि स्त्री-मन और जीवन की भावनाओं को भी उन्होंने पूरी संवेदनशीलता से अभिव्यक्त किया है, गाइड फिल्म का गीत ‘काँटों से खींच के ये आँचल’ या फिर जैसे ‘बंदिनी’ फिल्म का ये निम्नवत् गीत, जिस पर लेखक ने विस्तार से लिखा है |
इस पुस्तक में लेखक इन गीतों के विश्लेष्णात्मक अधययन द्वारा फिल्मों की पटकथा, संवादों, चरित्रों की बुनावट के उन बारीक रेशों को पकड़ते हैं, जिनके सूत्र शैलेन्द्र के गीतों का अहम् हिस्सा हैं| विशेषकर राजकपूर की शुरुआती फिल्मों के सभी ‘थीम सॉंग’ शैलेन्द्र ने ही लिखे हैं, बरसात, आवारा, श्री 420, जिस देश में गंगा बहती है, जागते रहो, संगम जैसी अनेक फ़िल्में हैं | उनका लिखे ‘आवारा’ फिल्म के गीत को ‘आवारा हूँ’ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली थी|
लेखक गीतों को उस दौर के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए बताते हैं कि सिनेमा में सफल होने के बाद भी शैलेन्द्र का मार्क्सवादी रुझान उनके गीतों में श्रम, प्रेम, सामूहिक चेतना और प्रगतिवादी मूल्यों को स्थापित करते हैं, फिल्म ‘तीसरी कसम’ के निर्माण में शैलेन्द्र की संपूर्ण प्रतिबद्धता उनके रचनात्मक आदर्शवाद की परिचायक ही है। तीसरी कसम की नेपथ्य-कथा भी पुस्तक के अध्याय में सम्मिलित है |
दार्शनिकता और यथार्थ का द्वंद्व भी उनके गीतों में रह-रहकर उभर आता है जैसे-“ज़िंदगी ख्वाब है,” गीत या फिर ‘गाइड’ फ़िल्म का गीत जो संसार की नश्वरता पर टिप्पणी करता है | इन विश्लेषणों में लेखक ने गीतों के प्रतीकों, बिंबों, भावधारा और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान दिया है।
शैलेन्द्र की भाषा लोकजीवन से उपजी हुई है – न तो वह क्लिष्ट है, न शुष्क शास्त्रीय। यही कारण है कि उनके गीत जनमानस की जुबान बन गए। लेखक ने इन गीतों का विश्लेषण करते हुए यह स्थापित किया है कि शैलेन्द्र के गीतों में एक विशिष्ट लोकधर्मी काव्य भाषा है, जिस पर भारत के अलग-अलग प्रान्त के लोकगीतों का गहरा प्रभाव है, जो शुष्क शास्त्रीयता से मुक्त है और आमजन की संवेदना से सीधे संवाद करती है, यही वजह है कि दशकों बाद भी उनके गीत लोगों की जुबान पे रचे-बसे हैं |
पुस्तक का स्वरूप मुख्यतः कथात्मक और भावनात्मक है। लेखक ने शैलेन्द्र के जीवन और गीतों को फिल्म-विश्लेषण, चरित्रों, पटकथा तथा समकालीन समाज की पृष्ठभूमि में बाँधने का प्रयास किया है। इसमें उन्होंने निजी अनुभवों और गीतों के बनने की कहानियों को आत्मीय शैली और सरल–सहज भाषा में प्रस्तुत किया गया है। हालाँकि यह शैली पाठक को बाँधती है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि पुस्तक में कालानुक्रमिक प्रवाह और विषयगत वर्गीकरण की कमी है। कई स्थानों पर विषयों की पुनरावृत्ति और भावनात्मक वर्णन तथ्यपरक विश्लेषण पर हावी हो जाते हैं। इस कारण पठनीयता में प्रवाह–भंग की समस्या भी पैदा होती है, यद्यपि लेखक स्वयं रेडियो और फिल्मी दुनिया से लंबे समय से जुड़े रहे हैं, लेकिन यह पुस्तक संस्मरणात्मक वर्णन अधिक प्रतीत होती है, शोधपरक ग्रंथ कम। पुस्तक में कई स्थलों पर तथ्यात्मक जानकारी दी गई है, किन्तु संदर्भ-स्त्रोतों का व्यवस्थित उल्लेख नहीं किया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं छिटपुट कुछ तथ्यों का उल्लेख लेखक बताते चलते हैं, लेकिन उन्होंने उसे किस साक्षात्कार, पुस्तक, पत्रिका, पत्राचार या संदर्भ ग्रंध से उल्लेखित किया है, इसकी सूचना नहीं मिलती है| उदाहरणस्वरूप, जब लेखक बिमल राय, गुलज़ार, राजकपूर, सलिल चौधरी,हसरत जयपुरी और सचिन देव बर्मन से जुड़े प्रसंगों का उल्लेख करते हैं तो उनके संदर्भ-स्त्रोत नहीं बताते| फिर भी, पुस्तक में अनेक स्थलों पर शैलेन्द्र के विचार, प्रेरणाएँ, रचना-प्रक्रिया और उनके गीतों में छिपी सामाजिक दृष्टि की सूक्ष्म व्याख्या की गई है, जो इसे महत्त्वपूर्ण बनाती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है ‘उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र’ पुस्तक न केवल एक गीतकार की जीवन-यात्रा का दस्तावेज़ है, बल्कि यह हिंदी सिने गीतों की विचारधारात्मक और सौंदर्यपरक भूमिका की पुनर्व्याख्या का भी प्रयास है। यह पुस्तक साहित्य, सिनेमा और संस्कृति के छात्रों, शोधार्थियों एवं गीत रचना-प्रक्रिया में रुचि रखने वाले सामान्य पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। यह पुस्तक अकादमिक शोध का प्रतिस्थापन नहीं, बल्कि एक सजग, अनुभवी और भावनात्मक दृष्टि से सम्पन्न लेखन है, जो शैलेन्द्र को एक सृजनशील जनकवि के रूप में स्थापित करता है। शैलेन्द्र के गीतों को केवल सुनना ही नहीं, समझना और महसूस करना इस पुस्तक का मूल आग्रह है और यही इसकी उपलब्धि भी।
संदर्भ :
https://www.youtube.com/watch?v=ulDl2McDjfc बीबीसी को दिए साक्षात्कार में|
अशरफ़ अज़ीज़, अनुवाद एवं सं. जवरीमल्ल पारख, हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, 2022, पृष्ठ 172
सं.इन्द्रजीत सिंह, धरती कहे पुकार के-गीतकार शैलेन्द्र, वी. के. ग्लोबल पब्लिकेशन, 2019.
सं. इन्द्रजीत सिंह, गीतकार शैलेन्द्र: तू प्यार का सागर है, वी.के.ग्लोबल पब्लिकेशन, 2020.
इन्द्रजीत सिंह, भारत के पुश्किन शैलेन्द्र, वी.के.ग्लोबल पब्लिकेशन, 2024.
यूनुस खान, उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2024, पृष्ठ सं. 12
यूनुस खान, उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2024, पृष्ठ सं. 11
सं.इन्द्रजीत सिंह, गीतकार शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है, वी. के. ग्लोबल पब्लिकेशन, 2019, पृष्ठ 44
सं.इन्द्रजीत सिंह, गीतकार शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है, वी. के. ग्लोबल पब्लिकेशन, 2019, पृष्ठ 200
अशरफ़ अज़ीज़, अनुवाद एवं सं. जवरीमल्ल पारख, हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, 2022, पृष्ठ 163
रामविलास शर्मा , धरती कहे पुकार के, सं. इन्द्रजीत सिंह,वी. के. ग्लोबल पब्लिकेशन, 2019, पृष्ठ सं 13.
यूनुस खान, उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2024, पृष्ठ सं. 7
यूनुस खान, उम्मीदों के गीतकार शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2024, पृष्ठ सं. 17
वही, पृष्ठ सं. 24
वही, पृष्ठ सं. 23
वही, पृष्ठ सं. 25
वही, पृष्ठ सं. 25
वही, पृष्ठ सं. 49
वही, पृष्ठ सं. 105
वही, पृष्ठ सं. 112
वही, पृष्ठ सं. 169
वही, पृष्ठ सं. 215