शोध आलेख: सारी पृथ्वी मेरा घर है और मेरा घर सारी पृथ्वी है / बलदेवा राम

सारी पृथ्वी मेरा घर है और मेरा घर सारी पृथ्वी है
- बलदेवा राम

शोध सार: तकनीक की शरण में जीते और सुविधाभोगी जगत में तेजी से बदलती आदमजात को संवेगों से खाली होते देख, पढ़ने-पढ़ाने से लेकर बच्चे पालने तक में कृत्रिम बुद्धिमता को आ जाते देख, आदमी में आदमीयत बचाए रखने के लिए कविता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। सेतु प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित विनोद पदरज का कविता संग्रह ‘सारी पृथ्वी मेरा घर है’ हमें अवसर देता हैं कि हम अपने चेहरे को छूएं, अपने मूंह पर हाथ फेरें, अपने भीतर उतरें, आखें खोलें और आसपास से बतियाएं। विनोद पदरज ने व्यक्ति, परिवार, परिवेश के बहाने लोक की सहज संवेदना को सहज भाषा एवं सरल वाक्य विन्यास में प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया है। काव्य संग्रह का शीर्षक एक घोषणा कर रहा है कि ‘सारी पृथ्वी मेरा घर है’, लेकिन कवि ने निज के घर और घर के आसपास से सारी पृथ्वी के संवेदन को कविता के शिल्प में उकेरा है।

बीज शब्द: परिवार, परिवेश, लोक, गाँव, प्रकृति, संवेदना, प्रकृति, भाषा आदि ।

मूल आलेख: कवि की यह उक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अनुध्वनि है, लेकिन यह नए समय की नई दुश्चिंताओं से उपजी सामयिक चेतना है जो पुराने संस्कारों के सर चढ़कर आती है। शीर्षक कविता कुटुंब के परिदृश्य को हमारे समक्ष बिम्बित करती है जिसमें एक बुढ़िया कहती थी कि “मेरे पेट के तो अस्सी हैं।”[1] कवि का कुटुंब और कवि की दृष्टि इससे भी व्यापक है, कविता की चेतना संवेदना के स्तर पर सबके लिए सुबकती है; चाहे वह अस्पताल से प्रसव करवाकर लौटी स्त्री हो या लाम से लौटते सैनिक। कविता दोनों में सृजन और प्रेरणा खोजा करती है चाहे वह निर्माण हो या नाश।

“आजकल मैं भी
उसी बुढ़िया की तरह हो गया हूँ
प्रतीक्षा करता हुआ कि सब लौटें
एक भी कम नहीं
सब लौटें
प्रसव को अस्पताल गयी स्त्रियाँ जरूर लौटें
नवजातों को लिये
लाम पर गये सैनिक जरूर लौटें
स्कूल गये बच्चे .......।”[2]

यह अंतहीन सूची है, लौटने की फ़िक्र सबके लिए है और वाजिब है। कविता ‘अपने’ के घेरे से बाहर निकलकर सबमें अपने को पाने का टोनिक है। सेतु प्रकाशन से सद्य प्रकाशित विनोद पदरज के कविता संग्रह ‘सारी पृथ्वी मेरा घर है’ में शीर्षक कविता हमें तमाम तरह की संकीर्णताओं से मुक्त होने को प्रेरित करती है।

विनोद पदरज की कविताओं में परिवार और परिवेश मुखरता से व्यक्त होता है, ‘जिन स्त्रियों ने मुझे पाला’ अपने ढंग की बहुत मार्मिक कविता है, वे परिवार और परिवेश के बहाने देश और समाज की चिंता करते हैं। विनोद पदरज इसी पारिवारिक और लोक चेतना के कवि हैं। संग्रह में शामिल ‘प्रभात’ की टिप्पणी कि “वे (विनोद पदरज) लोक के कवि नहीं है”[3] से मैं असहमत हूँ। मुझे लगता है कि वे लोक से बाहर ही नहीं निकलते, शायद यह इनकी सीमा है। इन्होंने अपने समूचे परिवेश को अपने से जोड़कर कविता में उतारा है। इस संग्रह के मकान, दूकान, बारिश, पानी, नदी, तालाब, पहाड़, माँ, पिता, भाई, पत्नी, बेटी, रास्ते, सांप, चींटियाँ, बैल, पेड़, बसंत, बेटा सब लोक की चेतना लिए हुए हैं। समालोचन के एक ब्लॉग में विनोद पदरज कहते हैं “ननिहाल में बचपन बीता जो पचास घरों का गांव था, सब खेतिहर, केवल नाना ही रिटायर्ड थे। मेले-ठेले, कउ तापना, हेला ख्याल की तैयारी, शादी ब्याह में पूरे गांव का जुटना, भागवत कथा, तमाशे, बहरूपिये, बिसाती, कस्बे से वैद्य का आना, रात-रात भर बातें सुनना, सारंगी पर आल्हा-ऊदल का गान।”[4] कवि का निर्माण इन सब से हुआ है। वे परिवार के जरिये सम्पूर्ण परिवेश को जिन्दा करते हैं, एक जीवित बोलती हुई भाषा के साथ।

“मैं अक्सर नाना को याद करता हूँ
जिन्हें सदैव बैलों के साथ देखा
एक लीला था एक राता
दोनों लाव खींचते थे हल चलाते थे कूळी प्यास
लाण ढोते थे चारा अन्न बोरियां कट्टे।”[5]

‘लीला’, ‘राता’, ‘लाव’, ‘कूळी’, ‘लाण’ जैसे शब्दों के प्रयोग हिंदी कविताओं में देखने को मिलें तो कैसे कह सकते हैं कि “हिंदी डाकण भाषा है जो राजस्थानी जैसी अनेक बोलियों को खा गयी।” कवि अपने समय की, अपने अनुभव जगत की पूरी संस्कृति को अपनी कविता में अमर करता है और भाषा भी उसी संस्कृति का एक अंग है। विनोद पदरज अपनी भाषा में बहुत दूर की कौड़ी पकड़ने का प्रयास नहीं करते, लगता है कि भाव के साथ पहले झटके में जो शब्द जुड़ आते हैं वे उन्हीं को आखिरी बना देते हैं। भाषा ही नहीं, इनके भाव भी सरल हृदय उद्दृत हैं। कविता में कोई बहुत बड़ा दर्शन, गहरी संवेदना अथवा कुछ विलक्षण की चाह, ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता, लेकिन पूरे संग्रह की तमाम कविताओं में एक प्रवृत्ति आम है और वो है मार्मिकता। शायद यह मार्मिकता इसलिए आ सकी है कि विनोद पदरज की कविताएँ उनके अंतर्मन की प्रामाणिक अनुभूति हैं। वे ए.सी. लगे बंद कमरों में बैठ कर किसान के पसीने पर कविता नहीं लिखते, इनका लिखा हुआ न केवल इनका भोगा हुआ है बल्कि भोगे हुए की गहरी छाप लिए हुए वे अपनी कविताओं में आते हैं। किसी के बचपन के अभाव और संघर्ष अपने सादेपन के साथ कविता में आ गए हैं। यहाँ ‘सादेपन’ का तात्पर्य यह है कि संघर्ष और अभाव के आने से कविता में कोई हाय तौबा नहीं मच गयी है, उनकी अभिव्यक्ति सहज संवेग के साथ हुई है, आवेग के साथ नहीं। ‘दाम्पत्य’ कविता में माँ कहती है –

“मैं तो गृहस्थी के जुए के नीचे जुती हुई थी इनके साथ
और ऐसी अकेली नहीं थी मैं
आसपास ज्यादातर लोग ऐसे ही थे
पर दुःख ही दुःख नहीं था जीवन में उल्लास भी था
तुम बच्चों की किलकारियां थी
हँसी ख़ुशी मिलना जुलना नाचना गाना भी था।”[6]

असल बात तो यह है कि दुःख और सुख भी स्थिति सापेक्ष और समय सापेक्ष होते हैं। जब सब लोगों के हालात एक ही तरह के हो तो फिर अपना दुःख भारी नहीं लगता। कभी ऐसा भी होता है कि जब हम संघर्ष या संकट की अवस्था में होते हैं तब हमें वह उतना बड़ा संकट नजर नहीं आता, लेकिन जब हम उसे पार कर सुख की स्थिति में पहुँच जाते हैं तो याद करते हैं कि हाय! हमने कितना संघर्ष किया। कविता में उभर आने वाला जीवन भर का संघर्ष कलात्मक होकर सामने आता है। जैसे कोई कलम से दो रेखाएं खींच दे, कूची से दो छींटे मार दे, उसी तरह कविता की दो पंक्तियाँ पूरे जीवन और जीवन संघर्ष को प्रामाणिकता के साथ समेट लेती हैं।

“उस बुढ़िया का चेहरा झुर्रियों से भरा है
बंटी हुई मूंज की रस्सी सी झुर्रियां
समय की नहीं, दुखों की है
बीच-बीच में कुछ स्निग्धता भी झलकती है
जो सुख नहीं
दुखों के बीच का अंतराल है
जिसे वह सुख समझती है।”[7]

कविता में कवि का परिवार का दायरा व्यापक है। वहां माँ, पिता, नाना के अलावा बैल, सांप, कमेड़ी और चींटियाँ भी हैं। इस पूरे परिवार में जिसे सबसे ज्यादा स्थान मिला है, वह है माँ, ‘माँ की मार’ कविता की एक पंक्ति कि “माँ मुझे नहीं मारती तो खुद मर जाती” बहुत गहरी व्यंजना रखती है। ‘काश’ कविता में बिनब्याही माँ अपनी तुलना ढोर डांगर से करते हुए कहती है कि “अरे पाल लेती मैं इसको / जो मैं डांगर ढोर होती / पाँख पखेरू होती।”[8] ऐसा नहीं है कि पिता पर कविताएँ नहीं लिखी गयी हैं। एक बच्चे की रफ कॉपी पर लिखा था कि “माँ के बिना घर सूना लगता है लेकिन पिता के बिना तो जीवन सूना लगता है।’ कवि पिता के बारे में कविता लिखते हैं परन्तु यह कहते हुए “मैं पिता पर कविता लिखना चाहता था / पर लिख नहीं पाता था / बीच में माँ आ जाती थी।”[9] संग्रह में एक माँ ऐसी भी है जिसे कवि ने ‘वह माँ’ कहा है।

“सूर्य चढ़े तक सोयी रहती है वह थकी हारी
फिर उठती है नहाती धोती है सजती संवरती है
और खड़ी हो जाती है झरोखे में
आते जाते ग्राहकों को बुलाती है ......
पर इस दौरान
उपरिवस्त्र नहीं उघाड़ती
हाथ हटा देती है बरजती है।”[10]

संग्रह के पहले ‘हाफ’ में ऐसा लगता है कि गाँव इन कविताओं का नायक है लेकिन आज का नहीं, बीता हुआ। जनसामान्य पुरानी सुखद स्मृतियों से जुड़कर एक आनंद महसूस करता है, कवि उस आम प्रवृत्ति से अछूता नहीं है। यह भी स्थिति सापेक्ष प्रवृत्ति है, अब जबकि बदले हुए गाँव टीस देते हैं तो हम पुराने घर, लोग, ढोर और खेतों की याद में दुबक जाते हैं। यह कविता की कमजोरी है। कवि विनोद पदरज ‘भाई और मुकदमा’ कविता में इसी नशे में है और आज की हकीकत को रचने से बच गये।

“वे दोनों भाई थे
दोनों के बीच बंटवारे का विवाद था
दोनों एक ही सीट पर बैठकर जाते अक्सर
और शहर पहुंचकर
अपने अपने वकील से मिलते
गाँव के लोग देखते थे कि आते जाते छोटा भाई
बड़े का थैला भी खुद के कंधे पर टाँगे रहता था।”[11]

बदलते गाँव के कविता में न आने का एक कारण कवि का पुराने के प्रति प्रेम भी है। विनोद पदरज की कविताओं में बीता हुआ समय ही चित्रित है और उसमें आज व्यंजित है जो ‘हाई प्रोफाइल सोसायटी में’ जैसी कविताओं में मुखर होकर भी सामने आता है। यूं कोई कविता ‘आज’ से खाली नहीं हुआ करती; लेकिन इनके विषय, पात्र आदि बीते हुए सुखद दौर के हैं। प्रेमचंद कहते हैं कि “बुजुर्गों के पास अतीत का सुख, वर्तमान का दुःख और भविष्य का सर्वनाश से प्रिय विषय कोई नहीं होता। अधिकतम भौतिक सुख की चाह ने आधुनिक परिवेश में बड़ा भारी बदलाव किया है और यह बदलाव हर संवेदनशील आदमी को (शायद प्राणी मात्र को) कचोटता है, अतः कवि संवेदना विध्वंसक बदलाव का शालीन विरोध करता है। ‘मेरा रास्ता’ कविता इस संग्रह की छोटी सी कविता है-

“मैं अब भी राष्ट्रीय राजमार्ग छोड़कर
वे रास्ते पकड़ता हूँ
जो गाड़ियों से आक्रांत नहीं हैं
जो गूगल मेप पर नहीं हैं ......
जहाँ राह में आदमी मिलते हैं
पैदल आते जाते हुए
खेतों में काम करते हुए
जिनसे मैं रास्ता पूछता हूँ
और वे काफी दूर तक छोड़कर आते हैं।”[12]

जहाँ गाड़ी, मकान, रुतबा सब बड़ा होना चाहिए उस समय में कवि किसी राहगीर के रोकने से रात भर रुक जाता है, यह समय की जरूरत है। साहित्य मानवीय संवेदनाओं का मूर्त आक्षरिक रूप होता है और इस कसौटी पर विनोद पदरज की कविताएँ खरी उतरती हैं। ईंट-पत्थर तक उस संवेदना से परिचालित हैं। बहुत पुरानी कहावत है कि “ईंटों से मकान तो बन जाते हैं, घर नहीं बनते।” ‘उदास मकान’ कविता किसी भी सहृदय को उद्वेलित करने का सामर्थ्य रखती है। घर का सम्बन्ध आदमी के हृदय से है, जितना हमारा हृदय संकुचित होगा, हमारे घर की सीमा उतनी ही छोटी होगी। इस कविता संग्रह का शीर्षक ही इस सम्बन्ध में बड़ी घोषणा करता है। दूसरी तरफ इस दौर में घर के संकुचन को दर्शाती कविता ‘मैं’ एक गहरी बात कहती है-

“मैं अपनी गली में
अपनी गली के आदमी से नहीं मिलता
पर शहर में अपने गली के आदमी से मिलकर
खुश होता हूँ
मैं अपने शहर में
अपने शहर के आदमी से नहीं मिलता
पर दूसरे शहर में
अपने शहर के आदमी से मिलकर
खुश होता हूँ ।”[13]

इस संग्रह की बहुत सुंदर कविता ‘ट्रेन में चींटियाँ’ अनेक भावों को उद्वेलित करती है और कहा जा सकता है इस कविता में हास्य रस, करुण रस, वीर रस, वात्सल्य रस, अद्भुत रस की व्यंजना हुई है। कविता में चींटियों के बहाने कुछ और बिम्ब भी मस्तिष्क में आ जाते हैं। पोटली लादकर उतरती चींटियाँ उन माओं (माताओं) की तस्वीर खड़ी करती है जो अपने बच्चों का पेट पालने को शहर-दर-शहर भटकती रहती हैं और अपने शरीर में लोहे की कमी लिए हुए दिन भर लोहे से सर फोड़ती हैं।

“ट्रेन में बिल तो होते नहीं
शायद उनके पास पोटलियाँ होंगी
नन्ही-नन्ही चींटियों की नन्ही-नन्ही पोटलियाँ
जिनमें इकट्ठा करती जाती होंगी वे
कि लौटकर जब आएँगी तो इन्हें माथे पर लेकर उतर जायेंगी
फिर निश्चित बारिशें बिताएंगी
बाल बच्चों के साथ अपने बिलों में।”[14]

ऐसा नहीं है कि इन कविताओं का कवि अपने समय से और इस समय में और कवियों की लिखी कविताओं से परिचित नहीं है, लेकिन कवि को स्मृतियों में जाना और वही विचरना अच्छा लगता है। यूँ देखा जाए तो अभी अर्थ, सम्प्रदाय, धर्म, जाति, मन्दिर-मस्जिद, लोकतंत्र. मीडिया, चुनाव, पन्द्रह लाख और भी बहुत कुछ कहने को है कविता में। विनोद पदरज नहीं कह रहे, अमूमन नहीं कह रहे। कहीं पलायनवादी तो नहीं? लेकिन इन विषयों पर भीतर कविता उठती तो बाहर अवश्य आती। विनोद पदरज व्यक्ति और परिवार को अपने परिवेश में देखते हैं, देश का मर्म भी इन्हीं के भीतर है। सारी पृथ्वी को घर से जोड़ते हैं क्योंकि आदमी को आदमी बनाये रखने के लिए जरूरी सामान घर और उसके आसपास मौजूद है|

जाहिर है कविता इस तरह भी लिखी जा रही है, उस तरह भी लिखी जाती। इस दुनिया में जितनी तरह की गड़बड़ियाँ हैं, कवि उनके मूल में मानव की मानवता खो जाने को एकमात्र कारण मानते हैं। यह ठीक भी है कि ऊपर जिन विषयों के कविता में न आने की चर्चा हमने की है वे आदमी में आदमियत के खो जाने से पनपे। ‘पक्षीनामा’ कविता में कवि लिखते हैं –

“गिद्धो
मिटते मिटते भी साफ़ करते रहना पृथ्वी को
कौओ
मेहमानों को टेरते रहना
कपोतो
अपनी सिधाई मत छोड़ना
आदमियों ने खो दी है अपनी बाण
अब तुम्हीं रखना काण।”[15]

विनोद पदरज सहज संवेदना के कवि हैं। वे धरती को माँ कहते हैं और बाबा को वृक्ष। जो बदलाव इंसानी दुनिया में हुए, वैसे प्रकृति जगत में हुए। दोनों में साथ-साथ हुए या फिर एक के कारण दूसरे में हुए, जो हो, कवि का ध्यान सिमटती नदियों, डूबते पानी, झरते पहाड़, सकुचाते पेड़, इन सब पर है। “नदी में धंसने से भी नदी पार नहीं होती थी/ सूखी नदियों पर पुल चमकते थे गाड़ियाँ दौड़ती थी बदहवास/ रात दिन रेत खोदी जा रही थी।”[16] कविता में देसीपन इतना भरा है कि चरित्र, भाषा, कहावतें, ढोर डांगर के साथ प्रकृति भी उसी रंग की है ।

“सूर्य धधकता था प्रचंड
झकर चलती थी सन्नाती
थपेड़े मारती
सब कहीं सांय सांय सूना था
हलचल विहीन
हरे कच्चे पत्ते तक
निर्जलीकरण से त्रस्त
निचुड़े हुए पस्त थे।”[17]

कवि की भाषा में कसावट है, कसावट के माने ये है कि दूर-दूर से ढोकर लाये गए शब्दों की भरती नहीं है। भाषा में एक गति है, ‘बारिश’, भादों आदि बहुत सी कविताओं में कवि रोचक गति का प्रयोग करते हैं। कविता को निरर्थक रूप से लम्बा करने के लिए नाहक रुकने की जरूरत नहीं। कविता भले ही लघु से लघुतम हो जाय। कभी-कभी तो बहुत सीधे वाक्यों का प्रयोग करते हैं, थोड़ी दूर चलने पर ही मालूम होता है कि कविता पढ़ी जा रही है। ‘सुबह’ कविता को पूरा पढ़िए –

“सूर्य प्रवेश कर रहा था हमारे जीवन में
पहाड़ों वृक्षों की रेखाएं उभर रही थी
कलरव शुरू हो गया था पहले ही
चाँद और तारे विदा ले रहे थे
कि कहीं से गंध का झोंका आया
वह मिलीजुली गंध थी शिरीष कि नीम की
जो दृष्टिगोचर नहीं थे
मैंने इसे फेंफडों में भर लिया
और सांस छोड़ते हुए सबको धन्यवाद कहा
सुबह हो चुकी थी।”[18]

..... और सांस छोड़ते हुए .... कविता यहाँ से शुरू होती है, ‘सुबह हो चुकी थी’ पर समाप्त हो जाती है। लेकिन कविता पढ़कर संवेदना की नमी अवश्य ही अनुभूत की जा सकती है। विनोद पदरज सहज कविता में सहज विषयों के कहे जाने के पक्षधर है। “विषयों की कमी नहीं पर कविता में अपने ढंग से बात कह सकूँ, जटिल को भी इतने बोधगम्य ढंग से कह सकूँ कि उसे मेरे जनपद के लोग पढ़ सकें, पहचान सकें, मुझे अपना मान सकें, मैं उनके सामने कविता पढ़ते हुए यह न सोचूं कि इसके पल्ले कुछ पड़ेगा कि नहीं, क्योंकि वह मुझसे अच्छी भाषा बोलता है. मुझसे अच्छी कविता कहता है, जिसे मुझे पाना शेष है।”[19]

आदमी किस तरह परिदृश्य से गायब होता है, ‘क्रमशः’ कविता इसका सुंदर बिम्ब है। संग्रह के आखिरी भाग में दो कविताएँ ‘बेटी’ और ‘बड़ी छोटी’ बहुत मार्मिक हैं। बेटी किस तरह माँ हो जाती है और छोटी किस संयोग से बड़ी हो जाती हैं, कविताएँ इस भाव को बहुत ही कोमल घटनाक्रम से दर्शाती है। बेटी जो अपनी माँ को बच्चे की देखभाल की हिदायत दे रही हैं, अतार्किक होते हुए भी जरूरी लगती है।

यह कविता संग्रह पढ़ा जाना आवश्यक है ताकि हम अपने को अपने परिवेश में खोज सकें, हमारा घर, गाँव, परिवेश, रिश्ते सब अनेक भाव, अनेक रंगों से भरे हुए हैं और आदमी इन सब से अनजाना यंत्र होता जा रहा है। हालत यह है कि आधुनिक मनुष्य या तो मशीन है या उपभोक्ता। ‘सारी पृथ्वी मेरा घर है’ कविता संग्रह किसी दर्शन के गोते नहीं लगवाता, किसी वैश्विक समस्या पर बौद्धिक चिन्तन को प्रेरित नहीं करता; बल्कि इन सबसे जरुरी शून्य पड़ चुके आदमी के भीतर के आदमी को संवेदनशील बनाता है। यह वर्तमान कविता का मुख्य कर्म होना चाहिए कि भौतिक जगत की जटिलताओं में फंसी मानव जाति को महसूस करना सिखाये, वह अपनी दीवार पर हाथ रखे, बेटी को निहारे, गाय को सहलाए, पत्नी संग बतियाए, माँ की तस्वीर साफ़ करे, कभी धूप में बैठें, कोई शाम दोस्तों संग गप्प मारे। जो हमसे छूट रहा है उसकी याद कराती विनोद पदरज की कविताएँ जितनी कथ्य और शिल्प में जितनी सहज हैं संवेदना के स्तर पर भी उसी सहजता से अपना प्रभाव छोड़ती हैं।

सन्दर्भ:
[1] विनोद पदरज : सारी पृथ्वी मेरा घर है, सेतु प्रकाशन, 2025, पृ. 12
[2] वही
[3] वही पृ. भूमिका
[5] विनोद पदरज : सारी पृथ्वी मेरा घर है, सेतु प्रकाशन, 2025, पृ. 13
[6] वही, पृ. 27
[7] वही, पृ. 108
[8] वही, पृ. 93
[9] वही, पृ. 158
[10] वही, पृ. 91
[11] वही, पृ. 32-33
[12] वही, पृ. 42
[13] वही, पृ. 48
[14] वही, पृ. 47
[15] वही, पृ. 54-55
[16] वही, पृ. 73
[17] वही, पृ. 56
[18] वही, पृ. 80

बलदेवा राम
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, श्रीमती नर्बदा देवी बिहानी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर (राजस्थान)

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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