संस्मरण : अड़िया महर का तिमावा गाँव / अखय राज मीणा

अड़िया महर का तिमावा गाँव
- अखय राज मीणा
        
            राजस्थान में जैसे-जैसे दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हैं वैसे-वैसे अरावली पर्वतमाला भी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती हुई नजर आती है।  अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बसा एक गाँव है तिमावा जिसे मीणा जाति के महर गोत्र का उद्गम स्थल माना जाता है। इसका इतिहास लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व यदुवंशियों के अड़िया महर तक जाता है। अड़िया महर इस गोत्र का आदि पुरुष है। कहते हैं तालचिड़ा गाँव में यदुवंशी कुल के 12 भाई रहते थे । अड़िया महर इन्हीं में से एक था। गिर्राज जागा ने एक बार लेखक को बताया कि किसी बात पर भाइयों से नाराज होकर अड़िया महर वर्तमान तिमावा गाँव के पहाड़ पर स्थित काड़ाथुमा नामक पहाड़ी चोटी पर आकर रहने लगा । उसने पहाड़ की चोटी से नीचे घाटोली गाँव बसाया जो बाद में ख़ूब समृद्ध गाँव बना। बाद में घाटोली से तिमावा गाँव निकला और उससे 12 गाँव महर गोत्र के निकले। पुराना घाटोली गाँव उजड़ गया, जिसके अवशेष के अब भी देखे जा सकते हैं । आज जो घाटोली गाँव है वह तो तिमावा गाँव से ही निकले लोगों द्वारा फिर से बसाया गया है। पुराने समय में तिमावा गाँव की भू सीमा में ही महर गोत्र की आराध्या मां घटवासन का मंदिर हुआ करता था किन्तु अब यह मंदिर गुढ़ाचंद्रजी कस्बे का हिस्सा माना जाता है। बुजुर्ग लोग बताते हैं कि अड़िया महर ही मालवा के युद्ध के समय मां घटवासन को लाया था। बाद में गुढ़ाचंद्रजी के चौहान शासक ने मां घटवासन का मंदिर बनवाया।

            तिमावा में नांद गाँव की तरफ एक तालाब है जिसकी पक्की पाल (पाड़ ) चूने और पत्थर से बनी है। इस तालाब की पाल की चौड़ाई इतनी है कि दो रथ एक साथ चल सकते हैं। पाल की लंबाई लगभग 550 फीट है। वर्तमान में पाल की ऊंचाई 18 फीट है किंतु बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि इतनी ही पाल जमीन के अंदर भी है। हमारे पूर्वज बाबा मनसा ने यह तालाब बनवाया था। बाबा मनसा को तालाब बनाना था जिसके लिए उसे अपने ही भाई से खेत लेना था किंतु बाबा मनसा के भाई ने खेत देने से इनकार कर दिया। बाबा मनसा ने हार नहीं मानी और जब आषाढ़ में पहली बारिश हुई तो अपने खेत में बीज बोने के लिए चल दिए। उन्हें देखकर उनका भाई भी बीज बोने चल दिया और अपने खेत में बाजरा बोकर आ गया। किन्तु बाबा मनसा तो बाजरे की जगह बजरी बोकर आया था ।भाई के खेत में फसल लहलहा रही थी और बाबा मनसा का खेत खाली । अब भाई को देना था राजा को भेज (एक प्रकार का राजस्व कर) । भाई का खेत बाबा मनसा ने भेज चुकाकर अपने खाते ले लिया और फिर तालाब बनवाया। तालाब के नीचे ही एक कुंड हुआ करता था । आज यह तालाब अपनी दुर्दशा पर रो रहा है क्योंकि इसमें पानी रुकने नहीं दिया जाता। एक जमाना था जब यह पूरे गाँव की पेयजल एवं सिंचाई की आवश्यकता पूरी करता था। कुंड तो बेचारा मृत्यु को प्राप्त हो चुका है। साल 97 की बात है हमारी दादी के तीये की बैठक में आया मेरा एक मित्र नहाते वक्त इस कुंड के जल में हमेशा के लिए समा गया। यह कुंड कभी गाँव के बच्चों का स्विमिंग पूल हुआ करता था। मैं और मेरे साथी जब इंग्लिश वाले टीचर रहमान जी के डर से क्लास बंक करके जाते थे तो यह कुंड ही हमारा आश्रय स्थल हुआ करता था। यही था जो छुट्टी होने तक हमें सारी दुनियादारी से बेफिक्र बना देता था ।     
            
             गाँव में होली का डांडा गड़ते ही फाग प्रारम्भ हो जाती थी। महिलाएं दोहरावण दे देकर फाग गाती थीं। कुछ फाग अश्लील भी होती थी पर फाग गायन की जगह पर महिलाओं का पूरा साम्राज्य होता था, पुरुष फटकता भी नहीं था। हम जब ज्यादा ही छोटे थे तब मईया (ताई जी को मेरे सभी भाई बहन ,यहां तक कि उनके बच्चे भी यही संबोधन देते हैं) हमें साथ ले जाया करती थी। बहुत आनन्द आता था। थोड़े बड़े हुए तो महिलाओं की दोहरावण देखना बंद हो गया, किन्तु पुरुष मंडली द्वारा किए जाने वाले होली नृत्यों का आनंद लेना प्रारंभ हो गया। काका रामचरण का महिलाओं की पोशाक में नृत्य तो गजब का ही होता था।करीब रात्रि 1:00 तक यह नृत्य का कार्यक्रम चलता था।उसके बाद गाँव के मेरे जैसे साथी होली दहन के लिए छाना चुराई (उपले चोरने) के काम में लग जाते थे। उपले चोरी का कार्य इतनी बारीकी से किया जाता था कि घर के मालिक को पता भी नहीं लगता था। कभी घर के मालिक को पता लग जाता तो हम बच्चों की तो शामत ही आ जाती थी। घर का मालिक तो गाली देकर फिर भी छोड़ देता था, किंतु हमारे घर वाले जरूर कुटाई करते थे। कार्तिक मास में महिलाएं तथा बालिकाएं प्रातः 4:00 बजे ही उठकर कार्तिक नहाया करती थीं। मैं नींद से जाकर उन्हें देखता तो नहीं था, पर रात्रि के सन्नाटे में महिलाओं के गायन की आवाज मेरे कानों तक स्पष्ट रूप से आती थी,जो मेरी नींद का आनंद दुगुना कर देती थी।  

            मैं जब बहुत छोटा था,पहली कक्षा में पढ़ता था तब हमारी कक्षा गाँव के बीच बने मंदिर में ही लगती थी। हम मंदिर के अंदर बरामदे में बैठते थे, किन्तु हमारे एक दो हरिजन साथी मंदिर के बाहर बैठकर ही पढ़ाई करते थे। आज समय बदल गया है। अब सभी बच्चे एक साथ कक्षा में पढ़ते हैं लेकिन आदमी में मन से ऊँच-नीच का भाव पूरी तरह मिटा नहीं है। जब मैंने प्रवेश लिया था तब यह प्राथमिक विद्यालय हुआ करता था, बाद में उच्च प्राथमिक हो गया। उच्च प्राथमिक के बाद हमें पढ़ने के लिए गुढ़ाचंद्रजी जाना पड़ा,क्योंकि आस पास मैं केवल गुढ़ाचंद्रजी में ही उच्च माध्यमिक विद्यालय था। आज तो मेरे गाँव में ही उच्च माध्यमिक विद्यालय है। शिक्षा से बदलती गाँव की तस्वीर के बल पर ही आज गाँव के कोई सौ-सवा सौ युवा राजकीय सेवा में है। कुछ लोग राजकीय सेवा से बड़े महत्वपूर्ण पदों पर जिम्मेदारी निभाकर सेवानिवृत्ति प्राप्त कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश लोग गाँव में नहीं रहते लेकिन गाँव के विकास के लिए ये लोग तत्पर हैं। इनमें से कुछ युवाओं ने अपने अग्रजों के मार्गदर्शन में एक गैर सरकारी संगठन का गठन किया है, गाँव में खेल के मैदान के विकास में अभी यह संस्था समर्पित भाव से संलग्न है किंतु मेरे गाँव के बाशिंदे ही आज बँटे हुए नजर आते हैं। वे आपस में लड़ने-लड़ाने में, ताश खेलने में, दूसरे की मेड़ काटने में और अतिक्रमण करने को आमादा हैं। ऐसे में सोचता हूँ कि क्या हम उन्हीं पूर्वजों के वंशज हैं जो छपनिया  अकाल (विक्रम संवत 1956)के समय चांदी के सिक्कों से भरा ढकोला लेकर देवी मां के थान पर बैठ गए और गाँव छोड़कर जाने वाले लोगों से कहा कि भाइयों, आप गाँव छोड़कर मत जाओ। यदि गाँव छोड़कर जाने की नौबत ही आई तो हम सभी छोड़ कर साथ चलेंगे। अभी तो आप इन रूपयों से काम चलाओ। जब ये बीत जाएंगे तब सभी साथ चलेंगे। कहते हैं हमारे उस पूर्वज का नाम फूल्या था। हम उस रतन पटेल की भी संतान शायद नहीं है जो गाँव के तालाब का पानी तालाब से ठीक विपरीत छोर पर (गुढ़ाचंद्रजी की तरफ ) स्थित अंतिम खेत को सबसे पहले सिंचाई का पानी पहुंचना सुनिश्चित करता था, चाहे वह खेत उसके विरोधी का ही क्यों न हो। एक छोटी नहर से तालाब का पानी ठोडी घाटोली तक पहुंचता था, पर मजाल कोई बीच में पानी फोड़ ले। आज तो रातोंरात पाइपलाइन स्मैक (युवाओं में बढ़ते नशे की लत की वजह से) की भेंट चढ़ जाती है। एक वह समय था जब गाँव में न पेयजल की समस्या थी न सिंचाई के जल की। वह भी तब जब कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती थी, ऊपर से जमीन की भेज भी बहुत ज्यादा होती थी । हरकारे सारी की सारी उपज को उठा ले जाते थे । इससे बचने के लिए किसान आवश्यकता भर की जमीन में खेती करना पसंद करता था और पशुपालन ज्यादा करता था। रात के समय अनाज तैयार किया जाता था और इसमें से आवश्यकतभर का अनाज रात में ही मेहमान के बैठने की जगह पर गड्ढा खोदकर व उपचारित कर छिपा दिया जाता था और उसके ऊपर मेहमान के लिए खाट बिछा दी जाती थी। हरकारे को भी उसी खाट पर बिठाया जाता था। हरकारा सोच भी नहीं सकता कि वह अनाज के ढेर पर बैठा है।अंग्रेज देश के ऊपर और देशी चौहान शासक हमारे पूर्वजों के ऊपर बैठे थे,फिर भी लोग खुश रहते थे, पता नहीं ये कैसे लोग थे। तब न खेत समतल थे,न रास्ते पक्के थे और न आज की तरह मोटर गाड़ियां थीं।फिर भी वे लोग खुश थे। वे आज के लोगों की तरह रास्तों पर कब्जा करके नहीं बैठते थे।मुसीबत में, एक दूसरे के दुःख दर्द में सहारा बनते थे,कम संसाधनों में ही काम चला लेते थे। आज संपन्नता है, संसाधन हैं, लेकिन दुख दर्द पूछने वाला नहीं है।गाँव के बुजुर्ग तो मानो अनाथ ही हो गए हैं, उनका संबल वृद्धावस्था पेंशन है वो भी तब जब नौकरी करने वाले बेटे-बहू लेने दे।

            एक प्रसंग और स्मरण आ रहा है कि जब मैं छोटा था, प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ा करता होऊँगा तब हमारे गाँव के सरपंच हुआ करते थे भाई रामकिशन मीना जी जिनका पढ़ाई पर इतना ध्यान था कि यदि कोई बच्चा स्कूल के समय गाँव में कहीं खेलता हुआ मिल गया, तो उसकी कुटाई निश्चित थी। इसलिए हम बच्चे भाई रामकिशन को देखते ही स्कूल की तरफ दौड़ पढ़ते थे। गाँव के बड़े बुजुर्ग तथा परिवार के बड़े भाई भी बच्चों को सही रास्ते पर चलने के लिए डांटते-पीटते रहते थे। कभी-कभी तो वे सारे बच्चों को एक जगह खड़ा करके प्रश्न पूछने लगते थे। मैं तो अपने भाई (ताऊजी के लड़के) पूनिया राम मीना से इतना डरता था कि जो दसवीं में फेल हुआ तो उनके पूछने पर बहाने ही बनाता रहा, लेकिन उनको बताया नहीं कि मैं फेल हो गया। उस समय मुंबई में रेलवे में नौकरी करते थे। उनके मुंबई चले जाने के बाद ही घरवालों को रिजल्ट के बारे में बताया। आज कोई किसी को सीख नहीं देता है,न ही सही रास्ते पर चलने के लिए कहता है और न ही कोई किसी की बात मानता है।

              आज जब मैं कई बार अकेले में बैठकर अपने और अपने गाँव के बारे में सोचता हूँ और पुरानी बातों को याद करके वर्तमान से तुलना करता हूँ तब कभी तो मैं घोर निराशा में डूब जाता हूँ और कभी उम्मीद के साथ देखता हूँ। गाँव के युवाओं में बढ़ती नशे की लत, प्रेम और आपसी सहयोग का अभाव... निराशा से भर देता है वहीं दूसरी ओर गाँव की बालिकाओं का कबड्डी में राज्य स्तर पर खेल कर आना उत्साह और सकारात्मकता से भर देता है। बच्चों के लिए खेल मैदान को तैयार करने में लोगों द्वारा जिस प्रकार से अपने ट्रैक्टर और जेसीबी से कार्य करवाया, लड़कियों पढ़ने और खेलों में भाग लेने के लिए सहयोग हेतु परिजन जिस तरह तत्पर रहते हैं वह एक उम्मीद की सुनहरी किरण है ।
            
अखय राज मीणा
कार्यवाहक प्राचार्य एवं सह आचार्य, राजनीति विज्ञान, राजकीय कन्या महाविद्यालय, सिकन्दरा,  जिला दौसा (राजस्थान)


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

1 टिप्पणियाँ

  1. स्मृति पुंज की कुशलतापूर्वक अभिव्यक्ति हुई है। बदलते दौर में तालाबों, बावड़ियों और कुंडों की दशा छिपी नहीं है। शिक्षा के प्रसार से गांव में बही बदलाव की बयार को आपने व्यक्त किया है। पूर्वजों के जीवन मूल्य, सद्भाव और संकटकालीन एकजुटता का परिचय मिला। गांव में बढ़ती संवेदनहीनता, नशाखोरी और स्वार्थ की प्रवृत्ति के प्रति आपकी चिंता जायज है।
    बढ़िया लिखा है अखय जी, बधाई।

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