शोध आलेख : रामधारी सिंह दिनकर : सांस्कृतिक अस्मिता और राष्ट्र निर्माण / आशीष

रामधारी सिंह दिनकर : सांस्कृतिक अस्मिता और राष्ट्र निर्माण

- आशीष


शोध सार : संस्कृति, भाषा एवं राष्ट्र के अंतर्संबंध ही रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य की मूल आत्मा हैं। वे संस्कृति को मानव सभ्यता की जीवन-शैली, मूल्यों और सामाजिक आचरण का संचय मानते हुए, इसके सतत परिवर्तनशील स्वरूप जोर देते हैं। संस्कृति द्वारा समाज-निर्माण, मानवीय गुणों के परिष्कार, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को वे एक सूत्र में पिरोते हैं। दिनकर के अनुसार संस्कृति केवल भौतिक उपलब्धियों का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मा का गुण है, जो पीढ़ियों तक संचित होता है। वे भाषा को भी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हैं, तथा यह भी स्वीकार करते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं के भेद से उत्पन्न चुनौतियां भारत की एकता को खंडित कर सकती हैं।


बीज शब्द : संस्कृति, राष्ट्र, भाषा, राष्ट्रीय एकता, सामासिक संस्कृति, मानवीय मूल्य, समाज-निर्माण, सांस्कृतिक अस्मिता, लोक मंगल, सभ्यता।


मूल आलेख : संस्कृति मानव सभ्यता की जीवन-शैली है। मनुष्य की सारी गतिविधियाँ जैसे उठना-बैठना, खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, वार्तालाप करना, चलना-फिरना, हँसना-रोना, लोक-व्यवहार, उत्सवधर्मिता, आचरण-व्यवहार आदि संस्कृति के ही पहलू हैं। संस्कृति वर्षानुवर्षों से चली आ रही है। इसका निर्माण किसी एक विशिष्ट समय में नहीं हुआ है। संस्कृति सातत्यपूर्ण क्रियाओं से बनती-निखरती है और मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग होती है। 

सृष्टि के आरंभ से ही हमारे पूर्वजों ने जीवन जीने के कुछ मानक तय किए और उनका अनुपालन करते हुए अपना जीवन निर्वाह किया। संस्कृति परिवर्तनशील है, अतः समय के साथ-साथ उसमें परिवर्तन होता रहता है। इसलिए पूर्वजों के समय में निर्धारित एवं स्वीकार्य मानक (मूल्य) समय के बहाव में परिवर्तित होते रहे हैं। समय-समय पर मनुष्यों ने यथावश्यकता नवीन मूल्यों का अंगीकार करते हुए जीवन को सुलभ बनाने का प्रयत्न किया है। संस्कृति वास्तव में जीवन सुलभ करने की ही एक पद्धति है। वह हमारे समाज जीवन में पैदा होती है और जीवन के अंतिम क्षण तक जुड़ी रहती है। वह मनुष्य के जीवन से अलगाकर देखने वाला तत्त्व नहीं है। मनुष्य एवं समाज जीवन से बाहर उसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए मनुष्य के जीवनानुकूल लाभकारी तत्त्व और क्रियाओं को संस्कृति कहा जा सकता है।


उल्लेखनीय है कि संस्कृति का सीधा संबंध मनुष्य और समाज जीवन से है। यह भी विवेचना का विषय है कि संस्कृति के लिए मान्य तत्त्वों की परख करना भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं और वह अपनी आवश्यकता एवं तात्कालिक सूझबूझ के आधार पर उन्हें क्रियान्वित करता है। ऐसा करते हुए वह उसके सांस्कृतिक पक्ष का आंकलन नहीं करता या उसकी वैसी तात्कालिक आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।


कुछ मनुष्य स्वभावतः क्रोधित, द्वेष, काम-वासना, ईर्ष्या आदि से ग्रसित होते हैं। ये सारे तत्त्व उनकी प्रकृति (मानवीय स्वभाव) कहलाते हैं, संस्कृति नहीं। इन तत्त्वों के साथ कोई भी मनुष्य संस्कारित नहीं कहा जा सकता। जब मनुष्य इन अवगुणों को नियंत्रित करने लगता है, तब उसमें संस्कृति का निर्माण आरंभ हो जाता है। अर्थात् मनुष्य के द्वारा किसी की हानि न हो एवं समाज में स्थिरता बनी रहे, जिससे मनुष्य का सर्वांगीण विकास हो, वही संस्कृति है। इस सदर्भ में सच्चिदानंद सिन्हा ने विचार करते हुए लिखा है किव्यक्ति को संस्कारित करने के लिए संस्कृति एक साँचे की तरह काम करती है। इसमें संस्कृति के विभिन्न अवयवों के अलग-अलग साँचे होते हैं।”[1]


संस्कृति का मुख्य आधार समाज ही है। इसीलिए समाज को नई दिशा संस्कृति के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। जब संस्कृति के तत्त्व या मूल्य मनुष्य और समाज के अंदर घुलते हैं, तो मनुष्य और समाज की आंतरिक विकृतियों का निराकरण होता है तथा दोनों को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। परिणामतः समाज में एकता और सहृदयता का भाव उत्पन्न होता है। यह संस्कृति ही है जो मनुष्य के मन में मनुष्यत्व का भाव पैदा करती है और इस तरह वह समाज में अपनी पैठ बनाती है। उदाहरण स्वरूप जिस प्रकार चीनी दूध में घुल कर उसको स्वादिष्ट और पीने योग्य बना देती है। उसी प्रकार संस्कृति मानव जीवन में घुल कर उसके जीवन को जीने योग्य और उपयोगी बना देती है। 


संस्कृति पर कई विद्वानों के विचार भिन्न होने के बावजूद किसी-न-किसी रूप में इस बिन्दु पर एकमत होते हुए दृष्टिगोचर होते हैं कि संस्कृति सार रूप में मनुष्य की दिनचर्या से लेकर मानवीय मूल्य, नैतिकता, सामाजिक दायित्व, सामाजिक संस्थाएँ एवं समाज में लोकमंगल की भावना आदि को संकेतित एवं प्रदर्शित करती है। संस्कृति मनुष्य की चेतना एवं अंतश्चेतना  से जुड़ी है। अतः चाह कर भी मनुष्य संस्कृति से अलग नहीं हो सकता। मनुष्य संस्कृति के मूल तत्त्वों का निर्वहन किसी-न-किसी रूप में कर रहा होता है। इस प्रकार वह संस्कारित होने का उपक्रम निरंतर करता रहता है।


रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तकसंस्कृति के चार अध्यायमें कहते हैं किसंस्कृति एक ऐसी चीज़ नहीं है कि जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, सोचते-समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से संस्कृति उत्पन्न होती है।[2] इससे जीवन और संस्कृति का सहज संबंध उजागर होता है। 


सामान्य दृष्टि से संस्कृति के विविध पक्ष हैं, जिसमें मनुष्य की दैनिक दिनचर्या, आचार-विचार, उसके व्यवहार, खान-पान, वेशभूषा, पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज, धर्म आदि शामिल हैं। संस्कृति का एक और पक्ष है, जिसमें कला, संगीत, साहित्य, लोक आदि शामिल हैं। संस्कृति के ये तत्त्व मनुष्य के भीतर स्थित अपशिष्ट तत्त्वों को परिष्कृत कर उनमें मूल्यों की स्थापना करते हैं। मूल्यों की स्थापना करना और लोकमंगल का भाव भी संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। दिनकर ने उचित ही लिखा है किसंसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयीं उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है।[3] इसलिए ऐसे कोई भी कार्य जो मूल्यहीन हो, जिसमें समष्टि कल्याण का भाव न हो, एकता न हो, स्वार्थ सिद्धि और असमानता हो उसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता। लोक मंगल की भावना और समष्टि कल्याण संस्कृति को बनाए बचाए रखते हैं। 


दिनकर ने संस्कृति, भाषा और राष्ट्र में लिखा है किआदिकाल से हमारे लिए लोग काव्य रचते आए हैं, चित्र और मूर्ति बनाते आए हैं, वे हमारी संस्कृति के रचयिता हैं। आदिकाल से हम जिस-जिस रूप में शासन चलाते आए हैं, पूजा करते आए हैं, मंदिर और मकान बनाते आए हैं, नाटक और अभिनय करते आए हैं, बर्तन और घर के दूसरे समान बनाते आए हैं, कपड़े और जेवर पहनते आए हैं, शादी और श्राद्ध करते आए हैं, पर्व और त्यौहार मनाते आए हैं अथवा परिवार, पड़ोसी और संसार से दोस्ती या दुश्मनी का जो भी सलूक करते आए हैं, वह सबका सब हमारी संस्कृति का ही अंश है। संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय और संग्रहालय (म्यूजियम), नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन होते हैं, क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।”[4]


इस सन्दर्भ में भाषा को भी संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भाषा, संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। भाषा समाज एवं संस्कृति को संरक्षित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। इसलिए भाषा को लेकर कई बार वाद-विवाद भी देखने को मिल जाते हैं। भारत की ही बात की जाए तो कई राज्य एक भाषा विशेष (हिंदी)  के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि एक देश एक भाषा होने से समाज में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल सकते हैं। उदाहरण स्वरूप हिंदी को यदि सर्वसम्मिति से स्वीकार कर लिया जाए तो शिक्षा के क्षेत्र में, जनसंचार के क्षेत्र में, कार्यालयों में और राष्ट्रीय एकता में सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं। 


रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तकसंस्कृति, राष्ट्र और भाषामें लिखा है कि भारत की दृष्टि से हिन्दी सर्वतः उपयुक्त भाषा है। वे लिखते हैं कियदि मिथिला का कोई आदमी गुजरात जाए और मैथिली में बोले, तो उसकी बात कोई नहीं समझेगा, परंतु हिन्दी में बोलने से उसका थोड़ा बहुत काम चल सकता है। इसी प्रकार गुजरात का कोई आदमी यदि असम पहुँच जाए, तो गुजराती समझने में तो असमी भाइयों को दिक्कत होगी परंतु टूटी-फूटी हिन्दी का आशय वे भी समझ लेंगे।”[5]


दिनकर हिन्दी कोजन संपर्ककी भाषा मानते हैं। वे अन्य भाषाओं की उपेक्षा नहीं करते अपितु उनसे ग्रहण कर हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप को विकसित करने पर ज़ोर देते हैं। उन्होंने लिखा है किउत्तर में तो संस्कृत ने अनेक भाषाओं को जन्म देने के साथ, एक ऐसी भाषा को भी जन्म दे दिया जो सभी भाषा-क्षेत्रों में थोड़ी-बहुत समझी जाती है, परंतु दक्षिण में ऐसी कोई भाषा उत्पन्न नहीं हुई, जो बिना सीखे तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम क्षेत्रों में समझी जा सके। अगर दक्षिण में भी कोई एक भाषा पैदा हुई होती, तो देश की भाषा-समस्या का समाधान आज की अपेक्षा कुछ कम कठिन हो जाता।”[6]


राष्ट्र और संस्कृति की एकता में क्षेत्रीय भाषा भेद व्यवधान बनता है। यद्यपि यह किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित भेद होता है तथापि जनमानस को कलुषित करने का साधन बन जाती है। भाषा भेद की दृष्टि से परे राष्ट्र एवं संस्कृति की एकता सहज दृष्टिगोचर होती है। कई विद्वान भारतीय भाषा के भेद विलगाव को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि सभी भाषाओं का सांस्कृतिक दृष्टि से एक गहरा अंतर्संबंध है। अतः रूप एवं संरचना में पार्थक्य होने के बावजूद भाषायी एकता सहज ही स्थापित है। 


एक राष्ट्र के सभी जन एक ही संस्कृति का निर्वाह करते हैं। पूर्वर्जों से प्राप्त मूल्यों को आत्मसात् करते हुए भावी पीढ़ी को अंतरित करते हैं। भारत की एकता और अखंडता हमारी संस्कृति का अंग है। इसलिए भारत की अखंडता को खंड-खंड करने के लिए आक्रांताओं ने विभाजनकारी बीज बोए। उन्होंने  भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का उद्यम किया और अपनी संस्कृति को थोपने का प्रयास किया। वे जानते थे कि संस्कृति ही एक ऐसा हथियार है, जिसके बल पर किसी भी राष्ट्र को तोड़ा जा सकता है और जोड़ा भी जा सकता है। समय-समय पर भारत के कई हिस्से हुए हैं परंतु उसकी अखंडता और संप्रभुता पर कभी भी चोट नहीं पहुँच पाई है। राष्ट्र के प्रति आदर्शवादी दृष्टि विकसित करने में संस्कृति सहायक होती है। सामाजिक एकता से सांस्कृतिक एकता और इन दोनों से राष्ट्रीय एकता का बोध निर्मित होता है। अतः किसी भी देश में एकता के लिए समानता का आग्रह सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है।


रामधारी सिंह दिनकरसंस्कृति क्या हैनिबंध में संस्कृति को गुण के साथ जोड़ते हैं। उन्होंने लिखा है किसभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है।[7] इसी लेख में अन्यत्र उन्होंने लिखा हैसंस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा पुनर्जन्म भी होता है।... संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है।[8] अर्थात् संस्कृति का जीवन के साथ अंतर्संबंध अघोषित रूप से ही मान लिया गया है। संस्कार, संस्कृति और जीवन के अंतर्संबंध के आधार पर सत्ता को प्रायः यह बताने का प्रयास किया जाता रहा है कि जैसी करनी होगी उसकी वैसी ही भरपाई भी होगी। संस्कारवान सत्ताधारी इस पक्ष को जानता है अतः वह जनक की भाँति समाज एवं संस्कृति उद्धारक भी बनता है। जन्म-जन्मांतर और पुनर्जन्म को इसी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है कि सत्ताधारी का संस्कारवान होना अत्यावश्यक है। ताकि सत्ता के प्रभाव से संस्कृति का एक सुगम रूप विकसित हो।


भारत राष्ट्र के रूप में एक है परंतु इस गणराज्य में प्रत्येक राज्य की अपनी एक प्रादेशिक संस्कृति देखने को मिलती है। जब भारतीय संस्कृति की बात होती है, तो सभी प्रादेशिक संस्कृतियों के समन्वय से भारतीय संस्कृति के विशाल स्वरूप का निर्माण होता है। इस तरह समन्वित भारतीय संस्कृति को सामासिक संस्कृति कहा जाता है। भारतीय संविधान में भी सामासिक संस्कृति पर विचार हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 351 में इसका उल्लेख मिलता है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपनी पुस्तकसंस्कृति का पाँचवाँ अध्यायमें लगभग इसी दृष्टि से राष्ट्रीय एकता के संबंध में लिखा है किसंस्कृति की एकता उन्हें पृथक नहीं होने देती उनका वर्गश: या मतशः पार्थक्य जातीय एकता का बाधक नहीं हो सकता ; क्योंकि एक जाति की एक ही संस्कृति होती है और सांस्कृतिक एकता सबको एक किए रहती है।”[9]


विष्णु प्रभाकर अपनी पुस्तकजन, समाज और संस्कृति: एक समग्र दृष्टिमें लिखते हैं किभारत में केवल हिन्दू ही तो नहीं रहते, मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि भी रहते हैं। यह सब स्वतंत्र हैं अपने-अपने धर्म का पालन और प्रचार करने में, पर यह स्वतन्त्रता वहाँ समाप्त हो जाती है जहाँ से पड़ोसी के धर्म की सीमा शुरू होती है। इस सूक्ष्म तत्त्व को समझना एक-दूसरे के प्रति अपने दायित्व को समझना है।”[10]


उपरोक्त कथन भारतीय संदर्भ में सटीक जान पड़ता है। भारतीय संस्कृति के उस सामासिक स्वरूप को देखने के लिए भारतीय पर्वों का उदाहरण लिया जा सकता है। प्रत्येक राज्य में एक ही त्यौहार अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। इन त्यौहारों को मनाने की रीति लगभग एक-सी है। जैसे ब्रह्ममुहूर्त में उठना, साफ-सफाई करना, स्नानोपरांत सूरज को प्रणाम करना, पशुओं को नहलाना, उनकी पूजा करना आदि-आदि। यह रीति लगभग सभी राज्यों में पाई जाती है। इसे एक गुण एवं नाम रूप अनेक कहा जा सकता है। भौगोलिक विविधता के कारण इन त्यौहारों को अलग-अलग समय में मनाया जाता है। इस तरह इन त्यौहारों के माध्यम से सामासिक संस्कृति और सांस्कृतिक एकता दिखाई देती है। इसके विपरीत कई स्थानों में यह भी देखने को मिला है कि कई सत्ताधारी अपने अनुसार धर्म एवं रीति-रिवाज को अनुसरण अपने अनुसार करवाने की हठ करते हैं।


कोई भी धर्म किसी भी काम या रीति को जबरन करने के लिए बाध्य नहीं करता, अपितु धर्मगुरुओं के वर्चस्व और उनके अधीन काम करने वाले लोग उनकी मानसिक गुलामी से त्रस्त होकर कई अनैतिक कार्य करते और करवाते हैं। लोगों को भी यह था कि उन्हें कार्य धर्म के नाम पर करने किए बाध्य कर दिया जाता है। यदि वह काम न किया गया तो उनको डराया जाता है। साथ ही लोगों पर मानसिक एवं शारीरिक दोनों तरह से वर्चस्व कायम करने का प्रयास भी किया जाता है। जैसे - क्या पहनना है? क्या खाना है? कहाँ जाना है? क्या करना है? आदि-आदि। यह सब संस्कृति के अंग है, परंतु सत्ताधारी इसमें हस्तक्षेप कर इसको अपने अनुसार व्याख्यायित या इसको पालन करने का आदेश देते हैं। उदाहरणस्वरूप जैन धर्म के अंतर्गत ही ऐसे कई मानक तय कर दिए गए, जिसका पालन करना जैन साधु-साध्वियों द्वारा अनिवार्य कर दिया गया। कोई भी धर्म जीवन की बाहरी ही नहीं वरन् आंतरिक शुद्धि, परिष्कार की बात करता है, ताकि मनुष्य में मनुष्यत्व जागृत हो और वह इंसान को इंसान समझे एवं समाज के लिए वह हित कर हो। इसलिए यह आवश्यक है कि संस्कृति जिस तरह मुक्तावस्था में है उसका पालन भी उसी तरह किया जाए।


निष्कर्ष : अतः कहा जा सकता है कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति होती है और उस राष्ट्र के निवासियों द्वारा उसके प्रति स्नेह और लगाव होता है। संस्कृति राष्ट्र की पहचान होती है। यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति पर हमला होता है तो उसे राष्ट्र पर हमला माना जाता है। इसलिए उसके संरक्षण और निर्वहन में वहाँ के निवासियों का अहम योगदान होता है। संस्कृति को राष्ट्र से और राष्ट्र को संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। राष्ट्र एवं संस्कृति का संबंध भावना से जुड़ा हुआ है। यह भी कि संस्कृति के अनेक अंग हैं, जिनमें धर्म भी एक पहलू है। कई विद्वान धर्म को संस्कृति से जोड़ कर भी देखते हैं। संस्कृति और धर्म के अंतर्संबंध को नकारा भी नहीं जा सकता। इसका अपना एक विशेष प्रभाव होता है। 


सन्दर्भ :

  1. सच्चिदानंद सिन्हा, संस्कृति-विमर्श, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण 2001  पृ. 51
  2. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति, भाषा और राष्ट्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 2013 पृ. 12
  3. वही, पृ. 5
  4. वही, पृ. 13
  5. वही, पृ. 197
  6. वही, पृ. 198
  7. वही, पृ.11
  8. वही, पृ.11
  9. किशोरीदास वाजपेयी, संस्कृति का पाँचवाँ अध्याय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृ. 19
  10. विष्णु प्रभाकर, जन, समाज और संस्कृति : एक समग्र दृष्टि, शब्दाकार प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम  संस्करण, 1986 पृ. 68

आशीष
सहायक प्राध्यापक, सेंट क्लारेट महाविद्यालय, बैंगलोर, कर्नाटक
ashish@claretcollege.edu.in9958232816

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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