- मलय नीरव, मंजरी खरे
शोध सार : समय बदलता है, विचार बदलते हैं, धर्म, संस्कृति, मूल्य इस बदलते समय के साथ सिकुड़ते, फैलते रहते हैं। अभी हम 21वीं सदी में हैं। आज से 100 साल बाद हम, हमारा समाज, हमारा परिवेश कैसा होगा, यह जानना असम्भव और सम्भव के बीच कहीं अटका हुआ है। भविष्य की हल्की-सी झलक हमें अतीत में विचरने से अक्सर मिल जाती है। सौ साल बाद हम कहाँ होंगे इसका जवाब कहीं इसी में छुपा होता है कि 100 साल पहले हम कहाँ थे। ऐसे ही कई सवालों में से एक सवाल यह भी है कि आज से एक सदी पहले आधी आबादी की स्थिति क्या थी? इन्टरनेट, सोशल मीडिया के बिना वह 20वीं सदी महिलाओं को कितना और क्या बोलने, पहनने, जीने और सोचने की आज़ादी दे रही थी? उन्हें कौन-कौन से अधिकार समाज से मिले थे? क्या उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व था या वे पराश्रिता थीं? इन सवालों के जवाब उस समय के साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र की किताबों से मिल सकते हैं। हमें लेखिकाओं के साहित्य में मिल सकते हैं दमन के अनेक स्वरूप। तब तक स्त्री विमर्श का दौर शुरू हो गया था, अनेक लेखिकाएँ खुल कर अपनी भावनाओं को शब्द दे रहीं थीं, अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कर रहीं थीं। कुछ प्रमुख नारीवादी लेखिकाएँ हैं- सिमोन द बुआ, वर्जीनिया वूल्फ, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, पंडिता रमाबाई, सरला देवी चौधरानी, महादेवी वर्मा इत्यादि। इन सभी के साहित्य से गुजर कर हम उस समय के अदृश्य लेकिन हर तरफ मौजूद दमन को समझ सकते हैं। वर्जीनिया वुल्फ, महादेवी वर्मा के माध्यम से हम दो सभ्यताओं, पाश्चात्य सभ्यता और भारतीय सभ्यता में मौजूद लैंगिक भेदभाव के जटिल पहलुओं से अवगत हो सकते हैं। इस शोध आलेख के माध्यम से इसी भेदभाव के बहुरूपी रंग-ढंग को समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : समकालीन, गुलामी, इतिहास, आधी आबादी, साहित्य, आत्मा, अपराधबोध, तटस्थ, मानवता, स्त्री-विमर्श, सृजनात्मक, क्रांति।
मूल आलेख : दो समकालीन लेकिन अलग-अलग देश की लेखिकाएँ अपने समय से भिन्न तेवर में साहित्य लिख रही थीं। उनके शब्दों में सदियों से चले आ रहे अन्याय, शोषण के प्रति खिलाफ़त थी। इतिहास को कटघरा में खड़ा कर उसको अपराधी कहने की अदम्य साहस था। आरोपी नहीं साफ-साफ अपराधी ही कह रही थीं। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी कि कौन है अन्यायी? तभी तो वुल्फ कहती हैं, “अपने पिता पर निर्भर करने से अपने पेशे पर निर्भर करना, गुलामी का एक कम घिनौना रूप है।“¹ वुल्फ की तरह ही महादेवी वर्मा भी आर्थिक सम्पन्नता को आधी आबादी की आजादी के लिए आवश्यक समझती थीं- “स्त्री के जीवन की अनेक विवशताओं में प्रधान और कदाचित् उसे सबसे अधिक जड़ बनाने वाली अर्थ से सम्बन्ध रखती है और रखती रहेगी, क्योंकि वह सामाजिक प्राणी की अनिवार्य आवश्यकता है।“²
वुल्फ लिखती हैं- “किताबें आत्मा के आईने हैं।”³ किताबों से गुजरकर हम पहले से बेहतर होते हैं। किताबें सड़क की तरह होती हैं जो हमेशा गतिशील रहने के लिए प्रेरित करती हैं। अगर आप एक साथ वुल्फ (अपना कमरा) और वर्मा (श्रृंखला की कड़ियाँ) की किताबों को पढ़ना शुरू करें तो निश्चित ही है कि कुछ अपराधबोध आपमें उभरेगा! कैसा अपराधबोध? समाज जिसके भाग हम सब हैं और जब वह समाज अपने ही नागरिकों के साथ लिंग के आधार पर दोयम दर्जे का बर्ताव करता हो और जिससे हम सब नज़र फेरे हुए थे, अचानक इन किताबों के माध्यम से वह तथ्य आक्रामक तरीके से हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। भले ही हम उस अपराध में शामिल न हो लेकिन एक अपराधबोध उभरता है। हमारी आत्मा किताबी आईने के सामने असहज हो उठती है। ‘समर शेष है’ कविता में दिनकर लिखते हैं न, “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।”⁴ हर दौर में समाज में तटस्थ व्यक्तियों की भरमार रही है और यही तटस्थता हमारे अपराधबोध की जननी है।
प्रयोग है..नई बातें हैं, कहन का नया सलीका है। आत्मीयता है। व्यक्तिनिष्ठता होते हुए भी वस्तुनिष्ठता है। ‘अपना कमरा’ कमरे का विस्तारीकरण है। महल से होते हुए मानवता तक पहुँचाती है यह किताब।
अलमारी का खोलना, उसमें रखी किताबों को देखना, देखते हुए उसे लिखना, मानो एक दृश्य चल रहा हो, लेकिन उन्हीं सबके बीच एक बात कह दी जाती है। वह बात अलमारी के बंद हो जाने के बाद भी हमारे तंतुओं को खुला रखती है। कहन के कहने में सजीवता है। यह सजीवता पाठकों तक तैरती हुई पहुंचती रहती है। वह जीवंत हो उठता है। देखने लगता है खुद के कमरे को।
‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में वस्तुनिष्ठता हावी है, इस हद तक कि उसमें दर्ज विचार पाठक को निर्जीव बनाता प्रतीत होता है। हालांकि कुछ जगह यह पुस्तक पाठक को चौंकती जरूर है लेकिन कुछ वैसे ही जैसे तेज हवा सूखे पेड़ को। “समाज यदि स्वेच्छा से उसके अर्थ-सम्बन्धी वैषम्य की ओर ध्यान न दे, उसमें परिवर्तन या संशोधन को आवश्यक न समझे तो स्त्री का विद्रोह दिशाहीन आँधी जैसा वेग पकड़ता जाएगा और तब एक निरन्तर ध्वंस के अतिरिक्त समाज उससे कुछ और न पा सकेगा। ऐसी स्थिति न स्त्री के लिए सुखकर है, न समाज के लिए सृजनात्मक।“⁵
वर्जीनिया वुल्फ सोचती हैं कि चलो देखते हैं इतिहास में स्त्री कहाँ है..इसके लिए साहित्य को देखना तय करती हैं, लेकिन कहाँ...किसी लाइब्रेरी में। वहाँ जाने के लिए निकलती हैं और रास्ते पर चल देती हैं लेकिन दुर्भाग्य से वह उस रास्ते पर चल रहीं होती हैं जो भद्रजन के लिए निर्धारित होता है। वहाँ से उन्हें हटना होता है, फिर भी वह लाइब्रेरी जाती हैं। वहाँ पहुँचने पर पता चलता है कि लाइब्रेरी में स्त्री को प्रवेश करने के लिए किसी पुरुष के साथ आना आवश्यक है या फिर किसी पुरुष का सिफारिशी पत्र। वह निकली थी खोजने स्त्री को इतिहास में, उसे जीती जागती स्त्री मिल गयी वर्तमान में। ऐसे में विमर्श का स्वरूप क्या होगा? इतिहास को जब हम वर्तमान में भोगते हैं तो वह ज्यादा दर्दनाक होता है। वह हमें इतिहास के ज्यादा करीब ले जाता है। ‘अपना कमरा’ में इतिहास के वर्तमान में आने और फिर वर्तमान के इतिहास का हाथ पकड़ अतीत के इतिहास में जाने की प्रक्रिया दर्ज है। साथ ही यहाँ अतीतोन्मुखी वर्तमान से भविष्य का मार्ग निकलता दिखता है।
महादेवी वर्मा के यहाँ प्रक्रिया नहीं, परिणाम पर बातें हो रही है। विमर्श है, लेकिन विमर्श तक पहुँचने का मार्ग अदृश्य। यहाँ अपनेपन का अभाव दिख रहा है। स्त्री के जीवन का वर्णन है, लेकिन चलती-फिरती स्त्री ही यहाँ से गायब है। “जिन स्त्रियों की पाप-गाथाओं से समाज का जीवन काला है, जिनकी लज्जाहीनता से जीवन लज्जित है, उनमें भी अधिकांश की दुर्दशा का कारण अर्थ की विषमता ही मिलेगी।“⁶ यहाँ महादेवी वर्मा वेश्यावृत्ति के लिए पूर्णतः स्त्री को ही दोषी बता रहीं हैं, इसके पीछे की जटिल प्रक्रिया और समाज की निर्लज्जता को स्त्री के ऊपर डाल कर वह मुक्त हो जाती हैं।
महादेवी वर्मा के शब्दों में कोमलता, असहायता, विनम्रता, सहयोग का आग्रह, निवेदन, विवशता झलकती है, वहीं वर्जीनिया वुल्फ में कठोरता, आक्रमण की मुद्रा, हक की हिस्सेदारी, अधिकार की गूँज सुनाई देती है। महादेवी विनम्र क्रांति के माध्यम से जन-जागरण की अभिलाषा रखती हैं, लेकिन वुल्फ के यहाँ क्रांति है, ऐसे जैसे वे युद्धरत हों। युद्ध के बीच में बैठकर लिख रही हों मानो ‘याचना नहीं, अब रण होगा’। उनके जितने करीब से गोली गुजरती है, शब्द में उतनी ही ज्यादा मारकता आ जाती है। आत्मविश्वास से लबलबाई।
वर्जीनिया वुल्फ को लिखने के लिए एक हत्या करनी पड़ी थी। हत्या, हाँ हत्या...एक भीमकाय राक्षसी की; जिसे वह घर की गुड़िया भी कहती थीं। आखिर कौन थी यह गुड़िया और क्यों उसकी हत्या करनी जरूरी थी? यह घर की गुड़िया कोई और नहीं वुल्फ का ही स्वत्व था, जिसका निर्माण हुआ था परिवेश से, समाज से। इस गुड़िया का सौंदर्य था लज्जा और उसकी पवित्रता। वह हमेशा उसे मर्द लेखक की तारीफ करने के लिए उकसाती थी। उसे दिमाग का इस्तेमाल करने से रोकती रहती थी। इन्हीं सब वजहों से उसे मार देना वुल्फ को जरूरी लगा। एक स्वतन्त्र समीक्षक बनने के लिए उन्होंने खुद के गढ़े व्यक्तिव को तिलांजलि दे दी।
महादेवी वर्मा के यहाँ विश्लेषणात्मकता अधिक है। आत्म की अस्मिता तक पहुँचने का उनका मार्ग परावलंबी होने का एहसास दिलाता है। एक रक्षक-पुरुष की तलाश लगातार महादेवी वर्मा करती रहती हैं, “जिस समाज में ऐसी घटनाएँ (महिलाओं का अपहरण) 12-13 की संख्या में प्रतिदिन घटित होती हों उसके युवकों को सुख की नींद आना संसार का आठवाँ आश्चर्य है।“⁷ यहाँ वह महिलाओं को आत्मरक्षा हेतु प्रेरित नहीं करतीं बल्कि युवकों को महिलाओं का सुरक्षाकर्मी बनने के लिए उकसाती हैं। समाज में व्याप्त किसी भी कुरीति को दूर करने के लिए समग्र समाज का प्रयास होना चाहिए, जिससे समाज में समावेशी माहौल पनपता है। इससे आपसी विश्वास बढ़ता है, न कि निर्भरता।
महादेवी वर्मा के रस, वेदना, संवेदना से पगे शब्द उद्वेलन नहीं ममता, सहानुभूति जगाते हैं। “भारतीय स्त्री की स्थिति में आदिम-युग की स्त्री की परवशता और पूर्ण विकसित समाज के नारीत्व की गरिमा का विचित्र सम्मिश्रण है। उसके प्रति समाज की श्रद्धा की मात्रा पर विचार कर कोई उसे पूर्ण संस्कृत समाज का अंग ही समझ सकता है, परन्तु उसके जीवन का व्यावहारिक रूप एक दूसरी ही करुण गाथा सुनाता है। सम्भवतः उस धर्मप्राण युग ने स्त्री को धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से उन्नत स्थान देकर ही अपने कर्तव्य की इति समझ ली; उसकी व्यावहारिक कठिनाइयों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जा सका। मातृत्व की गरिमा से गुरु और पत्नीत्व के सौभाग्य से ऐश्वर्यशालिनी होकर भी भारतीय नारी अपने व्यावहारिक जीवन में सबसे अधिक क्षुद्र और रंक कैसे रह सकी, यही आश्चर्य है।“⁸
दो तरह की जेल हैं। एक जेल जिसमें एक स्तरीय सुरक्षा है जिसे तोड़ने के लिए बस एक धक्के की जरूरत है। दूसरी जेल बहुस्तरीय सुरक्षा में है। कुछ कड़ियाँ तोड़ी गई हैं, लेकिन अधिकांश अब भी जेल की सुरक्षा में मौजूद हैं। पहली परिस्थिति में वुल्फ हैं, वहीं दूसरी परिस्थिति में महादेवी वर्मा। वुल्फ के पास यह उत्साह है कि बस आखिरी प्रयास और वे सब आजाद। महादेवी को आजादी के लिए उत्साह के साथ-साथ धैर्य की भी जरूरत जान पड़ती है और इसकी झलक उनकी किताब ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में दिखती है।
‘अपना कमरा’ शीर्षक क्या बतला रहा है, एक उपाय..स्त्री की साहित्यिक उन्नति हेतु। “एक औरत को अगर फ़िक्शन लिखना है तो उसके पास पैसा और उसका ख़ुद का एक कमरा होना चाहिए।“⁹ ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ शीर्षक से जो अर्थ हम तक पहुँचता है वह है, अनेक बाधाएँ जिनसे स्त्री घिरी हुई है। “हमारी अनेक जागृत बहिनें चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं, परन्तु उनमें से प्रायः अधिकांश पुरुष चिकित्सकों की हृदयहीनता सीख-सीख कर उसमें इतनी निपुण हो गई हैं कि अब उनके लिए जीवन का कोई मूल्य आँक लेना कठिन ही नहीं, असम्भव-सा है।... हमारे स्वतन्त्र होने की, शिक्षित होने की, समस्या तो है ही, उसके साथ-साथ यह नई समस्या उत्पन्न हो गई है कि कहीं हमारा शिक्षित तथा स्वतंत्र जीवन पक्षाघात से पीड़ित न हो जावे।“¹⁰
एक जगह (अपना कमरा) समाधान दिया जा रहा, वहीं दूसरी जगह (श्रृंखला की कड़ियाँ) स्त्री के समक्ष उपस्थित समस्या को सामने लाया जा रहा है। स्त्री यहाँ अगर आत्मनिर्भर हो रही हैं तो इसके साथ ही एक दूसरी समस्या साथ आ रही है- निष्ठुरता, हृदयहीनता! एक समस्या का समाधान दूसरी समस्या के लिए दरवाज़ा खोल रहा है। स्त्री का पुरुष की तरह धन-लोलुप होना समाज को अस्वीकार्य है! स्त्री आत्मनिर्भर हो लेकिन अपनी त्याग और ममता की मूर्ति को बरकरार रखते हुए! पुरुष ‘अल्फा-मेल’ का टैग छोड़कर कैसे आपके ममतामय गुणों को अपनाए? आपकी इस जिम्मेदारी को वह क्यों अपने सिर का बोझ बनाए!
जब स्त्री अपनी इच्छा, अपनी राय दोनों को अपनाना और जतलाना सीख जाएगी तब समाज में नागरिक की हैसियत पा जाएगी। लेकिन यह सीखना आसान नहीं है तभी वुल्फ कहती हैं, ”अधिकतर इतिहास में अज्ञात इंसान एक औरत थी।“¹¹
पुरुष प्रधान समाज की कसौटी बेहद अनोखी होती है। कैसी कसौटी...श्रेष्ठ स्त्री की कसौटी। उदाहरणस्वरूप...नारी की पवित्रता को उसका मुख्य सौंदर्य माना जाता है, उसकी लज्जा ही उसकी महानता समझी जाती है लेकिन पुरुष खुद को इस सौंदर्य और महानता की कसौटी से दूर ही रखता है। आखिर क्यों? इस कसौटी पर खरी उतरने की जद्दोजहद में ताउम्र लड़की, महिला, स्त्री, नारी लगी रहती हैं। एक बार भी अगर वे वुल्फ के इस विचार-'दूसरों की आँखें हमारे क़ैदखाने हैं; उनके विचार हमारे पिंजरे'¹², को समझने का प्रयास करेंगी तो उनका जीवन सहज, सरल और नैसर्गिक हो जाएगा। श्रेष्ठ बनने के इन पैमानों को फिर वे तोड़ सकेगीं।
महादेवी वर्मा बार-बार कुछ ऐसा लिख जाती हैं कि मैं थोड़ी देर के लिए खुद को किताब से अलग कर लेता हूँ, लेकिन भला कब तक दूर रह सकता हूँ। हाथ में मोबाइल है, उसमें शॉर्ट्स चल रहा होता है लेकिन ऐसा लगता है जैसे किताब का हिलता हुआ पन्ना बुला रहा हो। मानो कह रहा हो कि आधा-अधूरा पढ़कर कैसे लिख देते हो कि ‘अपना कमरा’ कई लेखकीय कड़ियों को तोड़ चुका है। आओ, पहले पूरी किताब पढ़ो फिर फैसला सुनाओ। रुकते, देखते न देखते आखिरकार शॉर्ट्स देखना बंद कर उठा ही लेता हूँ किताब। कुछ पाने, कुछ अपनाने, और फिर से कुछ झल्लाने!
..” जो सुयोग्य पत्नियाँ और वात्सल्यमयी माताएँ बन सकती थीं उन्हें आकंठ पंक में डुबा कर पुरुष अब यह कहते हुए भी लज्जित नहीं होता कि ये स्वेच्छा से ऐसा घृणित व्यवसाय (वेश्यावृत्ति) करने आती हैं।“¹³ क्या बन सकती थीं...सुयोग्य पत्नियाँ और वात्सल्यमयी माताएँ..स्त्री होना मतलब पत्नी और माँ होना! अच्छा होता अगर महादेवी यह भी जोड़ देतीं कि आज्ञाकारी बेटी और अनुशासित बहन भी बन सकती थीं! व्यवसाय नहीं, शोषण व अपराध को व्यवसाय का तमगा नहीं देना चाहिए था। कड़ियाँ बहुत मजबूत हैं, मानसिक कड़ियाँ, जिससे लेखिका भी बंधी हुई हैं।
महादेवी वर्मा लिखती हैं कि हमें वैसे योग्य शिक्षकों की जरूरत है जो भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे। योग्य शिक्षक योग्य नागरिक के निर्माण हेतु नहीं योग्य माताओं के निर्माण के लिए चाहिए। और सिर्फ यहीं नहीं रुकती हैं लेखिका। उन्हें शिक्षक नहीं, योग्य ‘शिक्षिका’ की तलाश है। इस लेख का वर्ष है 1936। छायावाद के अंत का, प्रगतिवाद के प्रारंभ का। अभी आजादी को आने में ग्यारह वर्ष और लगने हैं। और लगने हैं कई वर्ष वर्मा को वुल्फ बनने में! मैं यह निष्कर्ष लिख ही रहा था कि वर्मा कह उठीं, “आज हिन्दू स्त्री भी शव के समान ही निस्पन्द है।“¹⁴... “समाज केवल स्त्री को प्रलय की उथल-पुथल में भी शिला के समान स्थिर देखना चाहता है। ऐसी स्थिरता मृत्यु का शृंगार हो सकती है, जीवन का नहीं।“¹⁵
निष्कर्ष : क्या वुल्फ में वर्मा की तलाश करना अथवा इसका विलोम, उचित है! किसी रचनाकार का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, किन्हीं विचारों में वे एक जैसे भी हो सकते हैं, तो कहीं भिन्न या विपरीत, धुर विरोधी भी हो सकते हैं। वुल्फ को महादेवी में तलाशें या महादेवी को वुल्फ में, सभी अपने समय, समाज, परिवेश और संस्कृति को सामने रख कर विरोध करती हैं। पाश्चात्य जगत में वैचारिक खुलापन रहा है, स्वदेश में उतना नहीं। महादेवी का विरोध इसीलिए धैर्य की उंगली पकड़कर चलता है तो वहीं वुल्फ का विरोध विस्फोटक है। हालाँकि दोनों लेखिकाएँ इस सत्य को आत्मसात कर चुकी थीं कि समाज द्वारा गढ़े हुए आत्म को त्यागना ही होगा और स्वनिर्मित, स्व-विकसित आत्म को अपनाना होगा तभी सदियों की दासता से मुक्ति मिलेगी।
सन्दर्भ :
2)पोषम पा, स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्र्य का प्रश्न – महादेवी वर्मा का निबन्ध –https://share.google/DTJNBCtbgLNgG4DFh
3)Posham Pa, Virginia Woolf Quotes in Hindi | Hindi Quotes | https://share.google/pmxdbMFX7R3wmmOnG
4)रामधारी सिंह, ‘दिनकर-“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध। जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।” https://share.google/A9zsSevj156quKlvr
5)पोषम पा, स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्र्य का प्रश्न – महादेवी वर्मा का निबन्ध https://share.google/DTJNBCtbgLNgG4DFh
6)पोषम पा, स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्र्य का प्रश्न – महादेवी वर्मा का निबन्ध https://share.google/DTJNBCtbgLNgG4DFh
7) महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण: 2023, पृष्ठ संख्या:36
8)पोषम पा,स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्र्य का प्रश्न – महादेवी वर्मा का निबन्ध https://share.google/DTJNBCtbgLNgG4DFh
9)Posham Pa,Virginia Woolf Quotes in Hindi | Hindi Quotes | https://share.google/pmxdbMFX7R3wmmOnG
10) महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण: 2023, पृष्ठ संख्या:102
11) Posham Pa https://share.google/pmxdbMFX7R3wmmOnG
12) Posham Pa https://share.google/pmxdbMFX7R3wmmOnG
13) महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण: 2023, पृष्ठ संख्या:84
14) वही, पृष्ठ संख्या:126
15) वही, पृष्ठ संख्या:127
16) वर्जीनिया वुल्फ, अपना कमरा, अनुवाद: गोपाल प्रधान, संवाद प्रकाशन, मेरठ, द्वितीय संस्करण:2019

बहुत बढ़िया लेख है ।
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