- बृहस्पति भट्टाचार्य, अम्बुज कुमार सिंह, नयनसी प्रिया, राजीव कुमार जायसवाल
प्रस्तुत लेख में नृवंशविज्ञान सम्बन्धी अनुसंधान-पद्धति को अपनाते हुये साहित्यिक विश्लेषण के माध्यम से काशी के धार्मिक एवं सांस्कृतिक उत्सवों में प्रयुक्त मृत्तिका कला सम्बन्धी उत्पादों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
बीज शब्द: काशी, कला, मृत्तिका कला, कुम्भकार, लोक परम्परा, उत्सव, मेला, पञ्चकोशी, आत्मनिर्भरता, आजीविका।
स होवाचाजातशत्रु काश्यं ब्रह्म ते ब्रवाणीति।1
यहां तक कि पुराणों में काशी की सीमाओं तक का वर्णन प्राप्त होता है, यथा - मत्स्यमहापुराण में काशी (अविमुक्तक्षेत्र) की सीमा के विषय में कहा गया है -
अर्धयोजनविस्तीर्णं दक्षिणोत्तरतः स्मृतम्।
वाराणसी तदीया च यावच्छुक्लनदी तु वै॥2
काशी के नाममात्र का इतना माहात्म्य है कि स्कन्दपुराण में वर्णन मिलता है कि जो व्यक्ति काशी से दूर रहकर भी काशी का नामोच्चारण करता है उसे मृत्यु के पश्चात् ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
अन्यत्रापि सतस्तस्य पुरो मुक्तिः प्रकाशते॥3
इस प्रकार, सनातनी परम्परा में काशी का महत्त्व सर्वातिशायी परिलक्षित होता है, साथ ही मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में भी यह नगरी अन्यतम है। इस क्षेत्र को वाराणसी, शिवपुरी, आनन्दकानन, रुद्रवास, अविमुक्तक्षेत्र आदि नामों से भी जाना जाता है।
पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः॥4
परम्पराओं में काशी के माहात्म्य एवं धार्मिक सर्वातिशायी महत्त्व के साथ ही साथ पुरातात्त्विक दृष्टि से भी काशी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल है जो प्राचीन काल से व्यापार केन्द्र भी था। पुरातत्त्व की दृष्टि से काशी (वाराणसी) की प्राचीनता का सर्वप्रथम प्रमाण अकथा और राजघाट के रूप में प्राप्त होता है, उत्तर वैदिक काल के लोगों का भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर से दक्षिण-पूर्व की ओर जाने वाला मार्ग, वस्तुतः वाराणसी के अकथा स्थल से होकर गुजरता था एवम् इसी अकथा को ऋषिपत्तन अर्थात् ऋषियों का निवासस्थान भी कहा जाता था।5
इसी के साथ सर्वप्रथम राजघाट की पहली बसाहट, जो प्राकृतिक मिट्टी की सतह पर स्थित थी, को कालानुक्रम में "प्रथम काल" (नारायण और रॉय) द्वारा कहा गया है एवं पूर्ववर्ती खुदाईकर्ताओं ने इसका समय लगभग ईसा पूर्व 800 वर्ष माना है। यह तिथि पुरातत्त्व के सामान्य मानकों के आधार पर निर्धारित की गई थी जिसे हाल ही में प्राप्त एक माइक्रोस्कोपिक डेटिंग (MS डेट) द्वारा प्रो0 विदुला जायसवाल ने लगभग ईसा पूर्व 765 के रूप में सिद्ध किया है।6
इस प्रकार साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक रूप से समृद्ध काशी के विषय में एक जनश्रुति प्रसिद्ध है - ‘सात वार नौ त्यौहार’ अर्थात् सप्ताह में तो सात ही दिन होते है पर काशी में उनसे ज्यादा नौ त्यौहार या उत्सव पड़ते है एवं वास्तव में काशी की जीवनशैली स्वयं में ही भिन्न प्रकृति की है तथा एक अल्हडपन या आनन्दपूर्ण मस्ती का भाव उसके लिये महत्त्वपूर्ण रहा है एवम् इसके साथ ही विभिन्न संस्कृतियों का सङ्गम इसकी जीवनशैली के साथ उत्सवों पर भी समान रूप से प्रभावी रहा है | यह नगरी न केवल धार्मिक केन्द्र रही है, अपितु कला, शिल्प, सङ्गीत और साहित्य का प्रमुख केन्द्र रही है तथा यहाँ का प्रत्येक उत्सव न केवल आस्था का प्रदर्शन है, बल्कि शिल्पकला की एक जीवन्त प्रदर्शनी भी है।
काशी शिल्पकला के लिए प्राचीन काल से ही एक महत्वपूर्ण व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है, जहाँ मृत्तिका कला, काष्ठ कला, रेशमी वस्त्र निर्माण, धातु शिल्प, रत्न जड़ाई एवं कारीगरी जैसी कलाओं का न केवल विकास हुआ, बल्कि उनका व्यापार देश-विदेश तक फैला। इन उत्सवों में मृत्तिकाकला (मिट्टी की कला) की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कला धार्मिक मूर्तियों, दीपकों, खिलौनों, आभूषणों, और सजावटी वस्तुओं के रूपों द्वारा विविध रूपों में प्रकट होती है तथा इस अध्ययन द्वारा काशी के पारम्परिक उत्सवों और उनमें प्रयुक्त मृत्तिका कला की परम्परा, उपयोगिता और वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
कला शब्द की व्युत्पत्ति-
संस्कृत में ‘कला‘ शब्द की व्युत्पत्ति डुकृञ् करणे धातु से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है- ‘करना‘ या ‘सृजन करना’, एवम् इस प्रकार से ‘कृ‘ धातु द्वारा निष्पन्न ‘कला‘ शब्द का अर्थ हो सकता है - प्रेरित करना, शब्द करना या ध्वनि करना, आदि। यद्यपि कुछ विद्वान् इसकी व्युत्पत्ति कड् धातु से भी से मानते है, जिसका अर्थ है- प्रसन्न करना। अतः, इस प्रकार सृजनात्मकता का आनन्द प्रकाश करने का माध्यम बनती है, कला।
भारतीय साहित्य में कला के विषय में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है किन्तु अलग-अलग शास्त्र ग्रन्थों में इनकी संख्या अलग-अलग दी गयी है। यथा, जहां कामसूत्र एवं शुक्रनीतिसार में 64 कलाओं का वर्णन प्राप्त होता है, वहीं ललितविस्तर में इनकी संख्या 86 है तथा प्रबन्धकोश में यहीं संख्या 72 हो जाती है। इसी प्रसङ्ग में श्रीकृष्ण द्वारा महर्षि सान्दीपनि के आश्रम में 64 दिनों तक रहते हुए उनसे 64 कलाओं एवं 14 विद्याओं को सीखने का वर्णन भी प्राप्त होता है एवं श्रीकृष्ण द्वारा सीखी गयी 64 कलाएं एवं शिवतत्त्वरत्नाकर में उद्धृत 64 कलाएं एक समान है, जिसमें से एक कला मृत्क्रिया के रूप में दृष्टिगत होती है जो मृत्तिका अर्थात् मिट्टी से निर्मित कला अथवा शिल्प को द्योतित करती है। भारतीय संस्कृत साहित्य में कला के लिए शिल्प शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एवं प्रामाणिक प्रयोग भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है-
इस प्रकार, कला की सङ्ख्या तथा वर्णन के विषय में संस्कृत साहित्य में अनेक मत प्राप्त होते है।
मृत्तिका शब्द की व्युत्पत्ति- मृत्तिका शब्द, मूलतः संस्कृत के मृद् धातु से स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् प्रत्यय के योग से बना है तथा सम्पूर्ण स्थिति - मृद्+क्तिन्+टाप् से प्राप्त होती है जिसका अर्थ है - मिट्टी, मिट्टी का गारा, पिंडोर। अतः, इस प्रकार मृत्तिका कला का सामान्य अर्थ होता है – मिट्टी द्वारा निर्मित सृजनात्मक स्वरूप।
सम्प्रति, मृत्तिका कला के स्वरूप चर्चा के पश्चात् काशी के पारम्परिक उत्सवों में इसका महत्त्व परिलक्षित किया जा सकता है।
काशी के पारम्परिक उत्सवों में मृत्तिका कला (मिट्टी की कला) की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह कला न केवल धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति का माध्यम है अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं की निरन्तरता को भी दर्शाती है। इसकी उपयोगिता निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझी जा सकती है -
1. धार्मिक प्रतीकों के रूप में मृत्सा मूर्तियों का निर्माण
काशी में प्रमुख पर्वों जैसे सोरहिया मेला, नागपञ्चमी, कृष्णजन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, दीपावली एवं कजरी जैसे उत्सवों में मिट्टी से निर्मित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं जो श्रद्धालुओं की पूजा का मुख्य केन्द्र होती है।
सोरहिया मेला
संस्कृत में लिखित शास्त्रीय ग्रन्थों में मिट्टी की देवी अर्थात् प्रतिमाओं का पूजन करने का विधान प्राप्त होता है, यथा-
तौ तस्मिन्न् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्।8
मार्कण्डेयपुराण में नदी किनारे मिट्टी से निर्मित देवी की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करने का विधान दिया गया है एवम् अद्यावधि भी इसका प्रतिरूप हमें सोरहिया मेले के रूप में मिट्टी की प्रतिमा (देवी लक्ष्मी) का पूजन करने के प्रसङ्ग में देखने को मिलता है। यह मेला वाराणसी के लक्सा स्थित लक्ष्मीकुण्ड पर प्रति वर्ष भाद्र शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन जीवित्पुत्रिका व्रत तक चलता है जिससे इसकी अवधि 16 दिनों की हो जाती है किन्तु वर्तमान समय में प्लास्टर ऑफ पेरिस जैसी वस्तुओं द्वारा कम मूल्य में मिट्टी के समान ही किन्तु उससे अधिक आकर्षक प्रतिमाओं के मिलने के कारण इसका प्रारूप बदलता भी दिख रहा है, जिस कारण सोरहिया मेले से मृत्तिका कला का ह्रास होता दिख रहा है। पारम्परिक इस प्रचलन के ह्रास का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण, मृत्तिका शिल्पकारों की विवशता भी है जिसमें उनके लिए कार्य करने हेतु स्थान का अभाव एवं कच्चे माल की उपलब्धता में समस्या प्रमुख है। यद्यपि, ह्रास के कारणों में एक अन्य कारण भी दिखता है कि शिल्पकारों का ध्यान अब दैनन्दिन जीवन के प्रयोग में आने वाले पात्रों के निर्माण में अधिक हुआ है क्योंकि यह कार्य उनके नित्य आय का कारक है जो कि वार्षिक मेले द्वारा सम्भव नहीं है।
नागपञ्चमी
वाराणसी के जैतपुरा स्थित नागकुआँ में प्रति वर्ष नागपञ्चमी (श्रावण शुक्लपक्ष की पञ्चमी) के दिन लगने वाले मेले में श्रद्धालु यथासामर्थ्य धातुओं से बने शिवलिङ्ग एवं नागों की पूजा-अर्चना करते है एवम् उसी में कुछ ऐसे श्रद्धालु भी होते है जो अपनी श्रद्धानुरूप मिट्टी से निर्मित पार्थिव शिवलिङ्ग की स्थापना एवं पूजन करते है।
पार्थिव (मिट्टी से निर्मित) शिवलिङ्गों की स्थापना करके पूजन करने का विधान पुराणों से ही प्राप्त होना प्रारम्भ हो जाता है जिसमें लिङ्गपुराण में धातु आदि से निर्मित सात प्रकार के शिवलिङ्गों में पाँचवे प्रकार के शिवलिङ्ग के रूप में मिट्टी से निर्मित लिङ्ग का विधान किया गया है।
मृन्मयं पञ्चमं लिङ्ग द्विधा भिन्नं द्विजोत्तमा।9
इसके महत्त्व के रूप में लिङ्गपुराण में कह गया है कि मिट्टी से निर्मित पार्थिव लिङ्ग शुभ एवं सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली होता है।
मृन्मयं चैव विप्रेन्द्राः सर्वसिद्धिकरं शुभम् ॥10
चित्र संख्या- 4,5 नागकुआं पर नागपञ्चमी के दिन पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर पूजन करता युगल, जैतपुरा, वर्ष 2024
श्रीकृष्णजन्माष्टमी
मत्स्यपुराण में कथन है कि जो मनुष्य इस श्रीकृष्णाष्टमी व्रत का अनुष्ठान करता है, वह इक्कीस सौ कल्पों तक देवताओं द्वारा सम्मानित होकर शिवलोक में पूजित होता है।
पुमान् सम्पूजितो देवैः शिवलोके महीयते ॥11
यहां ध्यान देने की बात है कि किस प्रकार से प्राचीन शास्त्र पृथक् सम्प्रदायों में सामञ्जस्य को प्रेरित करते है कि श्रीकृष्णजन्माष्टमी के पालन से शिव प्रसन्न होते है एवम् इस प्रकार के प्रसङ्गों की आज महती आवश्यकता प्रतीत होती है | जन्माष्टमी में बड़ी मूर्तियों के साथ साथ छोटी मूर्तियों का प्रचलन प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त रहा है किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी मूर्तियों की मांग बढ़ने से मृत्तिका मूर्तियों का प्रयोग कम हुआ है।
चित्र संख्या-6 जन्माष्टमी सम्बन्धित मूर्तिया एवं सजावटी मृत्सा वस्तुएं, दशमी (सरायनन्दन), वाराणसी, वर्ष 2024
दीपावली
सनातनी परम्परा में दीपावली का पर्व भारतवर्ष में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में धूम-धाम से मनाया जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण पर्व है। रामायण के युद्धकाण्ड में इसके वर्णनप्रसङ्ग में लोगों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन एवं घर की सजावट का वर्णन देखने को मिलता है- अयोध्या के लोग श्रीराम के स्वागत-सत्कार हेतु सूर्योदय तक अपने-अपने घरों को साफ करने के साथ साथ उसे नाना प्रकार के अलंकरणों से सजाने के कार्योंपरान्त सन्ध्या काल में घरों को तिल के तेल युक्त दीपक को जलाकर घरों और मन्दिरों आदि स्थानों को प्रकाशित करते हुए श्रीराम आदि के आगमन की खुशी मनाते हैं ।
स्त्रग्दाममुक्तपुष्पैश्च सुवर्णैः पञ्चवर्णकैः॥12
ततस्तैलप्रदीपांश्च पर्यङ्कास्तरणानि च।13
जैसा कि पूर्व से ही विदित है कि दीपावली में मिट्टी द्वारा निर्मित लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाओं का पूजन होता रहा है, साथ में प्रायशः सभी अपने-अपने घरों को दीये एवं ग्वालिनादि सजावटी वस्तुओं से भी सजाते है परन्तु आज के समय में इसका स्वरूप बदल रहा है जिसमें दिये के स्थान पर झालर तथा मिट्टी की मूर्तियों के स्थान पर घरों में प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित मूर्तियों का प्रचलन बढ़ा है किन्तु आज भी कुछ घरों में पारम्परिक पूजन विधान में प्रयुक्त होनी वाली मिट्टी से निर्मित तार युक्त लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाओं का ही पूजन करते है।
चित्र संख्या- 7,8 दीपावली के अवसर पर बिक्री हेतु रखे गए दीपक और ग्वालिन, सरायनन्दन एवं लठिया, वाराणसी, वर्ष 2024
दुर्गा पूजा
सनातनी परम्परा में शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा का पूजन सम्पूर्ण भारतवर्ष ही नहीं अपितु विश्व भर में होता है किन्तु इस प्रसङ्ग में स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में दुर्गापूजा का विशेष महत्त्व परिलक्षित होता है जहां कहा गया है कि - जो मानव कुशलता चाहते हैं, वे बन्धु-बान्धवों के साथ प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र काल में यत्नतः इनका उत्सव करें। मानव दुर्गाकुण्ड में स्नान करके सर्वदुर्गतिहारिणी दुर्गा देवी की इस प्रकार से यथाविधान नवरात्र अर्चना करके नौ जन्मों के अपने पापों से छुटकारा पा लेता है।
शारदं नवरात्रञ्च सकुटुम्बैः शुभार्थिभिः ॥
दुर्गाकुण्डे नरः स्नात्वा सर्वदुर्गार्तिहारिणीम्।
दुर्गा सम्पूज्य विधिवन्नवजन्माघमुत्सृजेत्॥14
वस्तुतः, काशी में दुर्गापूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है अपितु यह स्थानीय कलाओं, परम्पराओं और भावनाओं का सम्मिलित उत्सव है। इनमें सर्वप्रमुख स्थान मृत्तिका (मिट्टी) कला का है, जो पूजन की आत्मा है क्योंकि प्रतिमा निर्माण इसी कला का प्रस्फुटन है तथा काशी में मृत्तिका यानी मिट्टी से मूर्तियाँ बनाने की परम्परा सदियों पुरानी है जिसे स्थानीय कुम्हारों, शिल्पकारों और कारीगरों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्भाल कर रखा है। विशेषतः, दुर्गा पूजा के अवसर पर मिट्टी की भव्य और मनोहारी मूर्तियाँ बनाई जाती है।
काशी में सन् 1767 ई० में काशी के बंगाली टोला में स्थित पुराना दुर्गा बाड़ी में सर्वप्रथम मिट्टी की बड़ी प्रतिमा का पूजन आरम्भ माना जाता है जो कि 258 वर्ष पूर्व स्थापित की गयी वह प्रतिमा आज भी वैसी स्थिति में विद्यमान है। वह प्रतिमा पुआल, मिट्टी, भूसी, सुतली और बास से निर्मित है।
चित्र संख्या- 9,10 पुराना दुर्गा बाड़ी में स्थापित 258 वर्ष पुरानी मृत्तिका दुर्गा प्रतिमा एवं मन्दिर, बंगाली टोला, वाराणसी, 2024
दुर्गापूजा के समान ही सरस्वतीपूजा, गणेश पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि विभिन्न पर्वों में देवी-देवताओं की बड़ी मृत्तिका प्रतिमाओं का पूजन किया जाता रहा है। यह आयोजन केवल मिट्टी की प्रतिमाओं तक ही सीमित नहीं रहता अपितु विभिन्न पर्वों तथा उत्सवों में मिट्टी से निर्मित कलश, दीया/दीपक, ग्वालिन, मटका/हाँडी एवं सजावटी वस्तुओं का प्रयोग भी समानान्तर रूप से देखने को मिलता है।
अतः, इस प्रकार हम समझ सकते है कि इन उत्सवों एवं पर्वो के आयोजनों द्वारा मृत्तिकाशिल्प से जुड़े स्थानीय कुम्भकारों की आजीविका भी जुड़ी हुई है | (तालिका 1) प्रस्तुत तालिका द्वारा उत्सवों के आयोजनों के माध्यम से इनकी सम्भावित आय के साथ ही साथ प्रचलित वस्तुओं, सम्बन्धित क्षेत्रों एवं मृत्तिकाकारों की संख्या आदि की सूची भी देखी जा सकती है |
तालिका 1- विभिन्न उत्सवों एवं पर्वों द्वारा कुम्भकारों की आजीविका स्रोत विवरण तालिका-
उपर्युक्त तालिका के माध्यम से काशी के स्थानीय कुम्भकारों की आय का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि वस्तुतः उनकी अतिरिक्त आय का ही स्रोत हैं। इस प्रकार हम देख सकते है कि लोकपरम्पराओं का आर्थिक पक्ष स्वयं में ही एक सबल पक्ष है एवम् इसके साथ ही मृत्तिका कला लोकपरम्पराओं की अभिव्यक्ति में भी सहायक सिद्ध होती है।
2. मृत्सा कला के माध्यम से लोकपरम्पराओं की अभिव्यक्ति
काशी केवल धार्मिक नगरी ही नहीं अपितु सांस्कृतिक, कलात्मक एवं लोक परम्पराओं की एक जीवन्त नगरी भी है। यहाँ की लोकपरम्पराओं ने विविध कलाओं के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त किया है जिसमें मृत्तिकाकला, काष्ठकला एवं पटकला (साडियां), अपनी अनूठी विशेषताओं के लिये जानी जाती है । इनमें भी मृत्तिकाकला का विशेष स्थान है क्योंकि यह कला अपने माध्यम से लोकप्रचलित स्थानीय उत्सवों एवं मेलों में देवी-देवताओं, से लेकर दैनन्दिन प्रयोग में आने वाले मृत्तिकापात्रों के साथ पौराणिक कथाओं के पात्रों को भी मूर्त रूप देती है जिससे पीढ़ियों से चली आ रही परम्परायें आज भी जीवित हैं। जैसे - हरितालिका तीज, देव दीपावली, लोटा-भण्टा मेला, पञ्चकोशी यात्रा, आदि परम्पराओं में मृत्तिका द्वारा निर्मित पात्रों का प्रचलन आज भी देखने को मिलता है।
हरितालिका तीजोत्सव
लोकपरम्पराओं में हरियाली तीज, हरितालिका तीज और कजरी तीज, यह तीनों पर्व काशी की उत्सवभूमि के लिये महत्त्वपूर्ण है | कजरी तीज जहां भाद्र कृष्णपक्ष की तृतीया, वहीं हरियाली तीज श्रावण शुक्लपक्ष की तृतीया एवं हरितालिका तीज, भाद्र शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है | प्राचीन पारम्परिक मान्यताओं के अनुरूप ही आज भी हरितालिका व्रत का पालन काशी में कच्चे मिट्टी से निर्मित शिव-पार्वती की प्रतिमा के पूजन से होता है जिसे जहां विवाहित स्त्रियाँ पति के सौभाग्य एवं लम्बी आयु के लिये रखती हैं तो वहीं अविवाहित कन्यायें, उत्तम वर प्राप्ति के लिये ।
चित्र संख्या- 11,12 हरितालिका तीजोत्सव पर बिक्री की जाती शिव-पार्वती परिवार की कच्ची मिट्टी की प्रतिमा, रामनगर, वर्ष 2024
देव दीपावली
काशी की लोकपरम्पराओं में देव दीपावली की विशेष मान्यता है तथा इसकी विश्वप्रसिद्ध ख्याति है। देव दीपावली कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है अर्थात् दीपावली से 15 दिनों बाद इसका आगमन होता है तथा इसे देवताओं की दीपावली भी कहा जाता है। इस पर्व के विषय में पौराणिक कथा है कि भगवान् शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था एवम् उसी उपलक्ष्य में देवताओं ने दीप जलाकर दीपावली मनाई थी, माना जाता है कि इस दिन देवतागण पृथ्वी पर आते है और उन्हीं के निमित्त गङ्गा के घाटों पर मिट्टी के दीये में दीप जलाकर दीपावली मनायी जाती है।
इसी प्रसङ्ग को मत्स्यपुराण में इस प्रकार बताया गया है - तब नन्दीश्वरने यज्ञोपवीत-मार्गसे (अर्थात् जनेऊ पहननेकी जगह-बाएँ कंधेसे लेकर दाहिने कटितट तक) तिरछे रूपमें तारकासुरके शरीरको विदीर्ण कर दिया और भयंकर गर्जना की। फिर तो वहाँ तारकासुरके मारे जानेपर गणेश्वरोंके भयंकर सिंहनाद गूंज उठे और उनके शङ्खोंके भीषण शब्द होने लगे ॥
यज्ञोपवीतमार्गेण चिच्छेद च ननाद च।
ततः सिंहरवो घोरः शङ्खशब्दश्च भैरवः ।
गणेश्वरैः कृतस्तत्र तारकाख्ये निषूदिते ॥15
लोटा-भण्टा मेला
देव दीपावली के पांच दिन बाद मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को यह मेला जंसा, रामेश्वरम् मन्दिर, पञ्चशिवाला-हरहुआ के बीच वरुणा नदी के तट पर लगता है। मान्यता है कि रावण का वध करने से श्रीराम जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया था जिसका प्रायश्चित्त करने के लिये श्रीराम काशी आए और यहां पर एक मुठ्ठी रेत/मिट्टी से शिवलिङ्ग बनाकर लोटे के जल से पूजन के पश्चात् बाटी-चोखा बनाकर भगवान् शिव को भोग लगाया एवम् उस प्रसाद को खाकर श्रीराम ने अपने प्रायश्चित्त व्रत का उद्यापन (समापन) किया | मान्यता है कि तब से आज तक यह परम्परा उसी प्रकार से जीवन्त है। लोटा-भण्टा के मेला में मान्यता रहा है कि मिट्टी के पात्र में ही भोजन बनाकर खाने-पीने का विधान रहा है। यह व्रत जनश्रुति पर आधारित है तथा लोकप्रचलन के कारण काशी में ही इसका प्रसार दिखता है |
(15)
पञ्चकोशी यात्रा
काशी के विषय में अनेको किंवदन्तियां प्रसिद्ध है जो इसके धार्मिक प्रसार एवं व्यापकता को पुष्ट करती है तथा इन्हीं के परिणामस्वरूप काशी के मन्दिरों का दर्शन एवं पूजन हेतु कई प्रकार की यात्राएं की जाती है जैसे- सामान्यदर्शन, नित्यदर्शन यात्रा, अन्तर्गृही/अन्तर्वेदी परिक्रमा तथा पञ्चकोशी परिक्रमा, इत्यादि।
काशी में पञ्चकोशी यात्रा एक प्राचीन धार्मिक परम्परा है जो हर वर्ष एकदिवसीय परिक्रमा के रूप में महाशिवरात्रि को एवं पञ्चदिवसीय परिक्रमा, जब वर्ष में अधिमास अर्थात् मलमास (जिसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है) में की जाती है। यह यात्रा मणिकर्णिका घाट से शुरू होकर पुनः वहीं समाप्त होती है, जिसमें भक्त अलग-अलग मन्दिरों और पवित्र स्थलों से होकर आते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान् राम ने रावण वध के बाद ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए यह यात्रा की थी एवं द्वापर युग में पाण्डवों ने भी अज्ञातवास के दौरान यह यात्रा की थी। साथ ही पुरुषोत्तम या अधिमास (मलमास) के समय पञ्चदिवसीय यात्रा के दौरान श्रद्धालु पाँचों पड़ावों पर रात्रि विश्राम करते है और वहाँ मृत्तिका पात्रों में भोजन बनाकर खाते है जो न केवल उनके धार्मिक यात्रा की शुचिता को बनाये रखता है अपितु पर्यावरण की दृष्टि से भी यह प्रथा प्रकृति के अनुकूल है।
इस प्रकार हम समझ सकते है कि काशी उत्सवों का एक ऐसा उद्यान है जहां विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यतायें पुष्पित तथा पल्लवित हुई है एवम् अनेक इन उत्सवों में मृत्तिकाकला का साक्षात् उपयोग यदि नहीं भी दृष्टिगत हो तब भी अपरोक्ष रूप में इन उत्सवों में सजावट आदि कार्यों में भी मृत्तिका पात्रों का प्रयोग होता ही है चाहे वह मिट्टी का दीपक, कलश, हाँडी, गगरी या अन्य प्रकार की सजावटी वस्तुयें ही क्यों न हो।
चित्र संख्या- 16, 17 जन्माष्टमी एवम् अन्य उत्सवों पर बिक्री हेतु सजावटी मृत्तिका वस्तुएं, दशमी (सरायनन्दन), वाराणसी, वर्ष 2024
4. मृत्तिकाकारों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
काशी के स्थानीय कुम्हारों एवं मृत्तिका कलाकारों के लिए मृत्तिकाकला ही आजीविका का मुख्य स्रोत है। उत्सवों के दौरान इन वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है, जिससे उनका आर्थिक सशक्तिकरण होता है | जहां सामान्य दिनों में ये अपनी मृत्तिकानिर्मित वस्तुओं से 6000-10000 तक की मासिक आय ही प्राप्त कर पाते है एवम् इस आय हेतु भी सम्पूर्ण परिवार को लगना पडता है वहीं येन केन प्रकारेण आजीविका का निर्वहन करते हुए यहीं कुम्भकार परिवार विशेष उत्सवों में हजारों से लाख रुपये तक भी प्राप्त कर लेते है जो कि काशी के उत्सवों का इनके जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव को प्रदर्शित करता है।
उपसंहार
उपसंहार रूप में यह कहा जा सकता है कि काशी के पारम्परिक उत्सव न केवल धार्मिक अनुष्ठान अपितु जीवन्त सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ होने के साथ ही साथ कला की सांस्कृतिक झांकी भी है तथा इनमें प्रयुक्त मृत्तिका कला इस परम्परा को एक नये क्षितिज पर ले जाती है जिसमें स्वदेश की मिट्टी के भाव के साथ ही साथ कुम्भकारों के अथक परिश्रम का प्रकाश एवम् उनके जीवनयापन का प्रवाह भी परिलक्षित होता है। यह कला, धार्मिक क्रिया-कलापों, लोकपरम्पराओं के साथ ही साथ अन्य कलाओं, पर्यावरण, आत्मनिर्भरता के साथ अर्थव्यवस्था के विकासादि को समवेत स्वर में बांधती है। अतः, इसे संरक्षित करते हुए इसका प्रसार करने में केवल कुम्भकार ही कारक नहीं है अपितु समाज की जागरुकता के साथ ही प्रशासन का संवर्धन भी इसे वास्तविक आकार प्रदान करेगा एवं यह कला अपने पुराने गौरव को भी नये कलेवर के साथ देख पायेगी।
आभार ज्ञापन
प्रस्तुत लेख हेतु लेखकगण भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली के प्रति विशेष आभारी है जिनके द्वारा प्रायोजित शोध-परियोजना “काशी की मृत्तिकाकला: अतीत, वर्तमान एवं भविष्य” द्वारा अभिलेखीकरण एवं सर्वेक्षण के कार्य सम्पन्न हुए। इसके साथ ही परियोजना स्थल के रूप में वसन्त महिला महाविद्यालय, राजघाट, वाराणसी के साथ प्राचार्या प्रो० अलका सिंह महोदया के प्रति भी आभार ज्ञापित करते हैं।
बृहदारण्यकोपनिषद्, गोरखपुर, गीताप्रेस, 2001, पृ. 402
मत्स्यपुराण, गोरखपुर, गीताप्रेस, 2024, पृ. 697
स्कन्दपुराण, चतुर्थ खण्ड, वाराणसी, चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, 2023, पृ. 666
श्रीराम शर्मा : गरुड़ पुराण, द्वितीय खण्ड, बरेली, संस्कृति संस्थान, 1968, पृ. 445
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(पुनरावृत्ति—उपर्युक्त के समान)
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रामायण, द्वितीय खण्ड, गोरखपुर, गीताप्रेस, 2021, पृ. 650
रामायण, द्वितीय खण्ड, गोरखपुर, गीताप्रेस, 2021, पृ. 657
स्कन्दमहापुराण, चतुर्थ खण्ड, वाराणसी, चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, 2023, पृ. 759–60
मत्स्यपुराण, गोरखपुर, गीताप्रेस, 2024, पृ. 495
बृहस्पति भट्टाचार्य
सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, वसन्त महिला महाविद्यालय, राजघाट, वाराणसी
अम्बुज कुमार सिंह
शोध सहायक (संस्कृत), काशी की मृत्तिकाकला: अतीत, वर्तमान एवं भविष्य, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली
नयनसी प्रिया
शोध सहायिका (पुरातत्त्व), काशी की मृत्तिकाकला: अतीत, वर्तमान एवं भविष्य, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली
राजीव कुमार जायसवाल
सहायक आचार्य, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, वसन्त महिला महाविद्यालय, राजघाट, वाराणसी

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