मूल आलेख : लोक साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा अभी तक तय नहीं की जा सकी है। अनेक विद्वानों ने अपने तरीके से इसे परिभाषित किया है। शास्त्र और पद्धति से विहीन एवं नगर से बहिर्भूत ग्राम-साहित्य को लोक-साहित्य कहा गया परंतु कुछ विद्वान इसे भ्रामक मानते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि लोक शब्द का अर्थ ग्राम अथवा जनपदीय नहीं है। लोक का तात्पर्य है नगर एवं ग्राम में प्रसारित समस्त जन-समूह जिनका व्यवहारिक ज्ञान का आधार शास्त्र नहीं होता है। ये जन-समूह नगर के शिष्ट, सुसंस्कृत एवं परिष्कृत रुचि संपन्न लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन जीते हैं। लोक-साहित्य उन्हीं लोगों के द्वारा स्वाभाविक रीति से निर्मित होकर उन लोगों के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, यथार्थ और कल्पना को अलंकृत एवं आवेगात्मक अभिव्यक्ति देता है।
पंडित राजेश्वर झा के अनुसार “भूमि, जन एवं संस्कृति इस त्रिकोण के भीतर जितने जीवन का विस्तार है, वही लोक है।”1
विश्व भर में लोक-साहित्य को मान्यता दी गई है। वर्तमान में दलित-साहित्य और महाद्वीप के उस पार रचित ‘अश्वेत-साहित्य’ को लोक-साहित्य की संज्ञा दी जा सकती है। दलित अथवा अमेरिका का एफ्रो-अमेरिकन लेखन, कनाडा का इन्नुइट लेखन, लैटिन अमेरिका का मुलैटोजका साहित्य, संपूर्ण अफ्रीकी साहित्य, पूरा भारतवर्ष और दक्षिण पूर्व एशिया का लोक-साहित्य सभी एक ही सूत्र में गुँथे हुए हैं।
“दलित, लोक और अश्वेत लेखन प्रमुख साहित्य धारा का एक विकल्प प्रस्तुत करता है। क्रोध और दुःख-सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों के भाव दलित और अश्वेत-साहित्य में सबसे ज्यादा असरदार ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं। उदाहरणस्वरूप पाश्चात्य-साहित्य का दृष्टांत द्रष्टव्य है। यथा - नीग्रो ब्लूज, निकोलस, ग्यूलेने, कियो पोल्ड सेंगोर, नामदेव ढ़साल तथा नारायण सुर्विक, शोक-गीत में रिचर्ड, गल्फ, एडिशन, जेम्स वाल्डविन, चिनुआ अचेने एवं जेम्स न्युगी के उपन्यास में गीत इसके प्रमाण है।”2
मैथिली के साहित्यकार स्वर्गीय कांची नाथ झा ‘किरण’ ने लोक साहित्य के विषय में कहा था – “जैसे मिथिला के जीवन का संपूर्ण परिचय प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय से लेकर डोम-दुसाध के जीवन-क्रम का अध्ययन आवश्यक है, वैसे ही मिथिला का पूर्ण चित्र देखने के लिए पंडितों के काव्य के साथ-साथ लोक-साहित्य का अध्ययन करना भी आवश्यक है।”3
किरण जी की यह उक्ति लोक-साहित्य की विशिष्टता और उपादेयता को बताती है। वास्तव में पंडितों की कविता चुनरी-पटोर, गहना-गुड़िया, पसाहनि-उसाहनि से सजा साफर अंतर में बसी बौआसिन कुलवधू है तो लोक-साहित्य आडंबरहीन, निर्मल हृदय, सत्यमयी, बाट-घाट, जंगल-झाड़ आदि प्रवृत्ति के विशाल क्षेत्र के अनुभव से भरी हुई मुनि-कन्या के समान है।
लोक-साहित्य के अंतर्गत लोक-गाथा एक सशक्त विधा है। दीर्घ आख्यान पर आधारित गेयात्मक कथा को लोक-गाथा कहा जाता है। ये आख्यान ऐतिहासिक हो सकते हैं या नहीं भी, उसमें कल्पना का मिश्रण भी हो सकता है। कथा में धारावाहिकता होती है जो महाकाव्य से निकटता रखती है परंतु इसे महाकाव्य की श्रेणी में परिगणित किया भी जा सकता है और नहीं भी।
श्री जी. एल. किटरेज के अनुसार – “वैलेड गीत कथा व कथात्मक गीत है।”4
श्री फ्रेंक सिजविक के अनुसार – “वैलेड सरल वर्णनात्मक गीत है।”5
डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भोजपुरी लोक साहित्य का अध्ययन’ में इसकी परिभाषा देते हुए कहते हैं – “लोकगाथा वह कथा है जिसे गीत के माध्यम से कहा जाता है।”6
डॉ. दिनेश कुमार झा के अनुसार – “दीर्घ आख्यानपरक गेय कथा को लोकगाथा के नाम से जाना जाता है।”7
लोक-गाथा की उत्पत्ति का सिद्धांत इस प्रकार है – समुदायवाद - जर्मनी के विद्वान जेकल ग्रीन के अनुसार – “लोक काव्य का निर्माण किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है। विभिन्न पर्वोत्सवों के अवसर पर विशिष्ट समुदाय एक साथ मिलकर इन सब गाथाओं की रचना करते होंगे।”8
इस तरह से लोक-गाथा समस्त जाति की धरोहर मानी जाती है। जैसे - लोरिकाइन यादव जाति, सलहेश गाथा दुसाध जाति, दीनाभद्री मुसहर जाति, छेछन गाथा डोम जाति एवं चमार जाति। अधिकांश लोक-गाथा में कवि के नाम एवं व्यक्तित्व का उल्लेख नहीं मिलता है।
प्राचीन भारतीय साहित्य पर लोक-गाथाओं की अमिट छाप है। ऋग्वेद इसका उदाहरण है। ऋग्वेद अति प्राचीन ईश्वर प्रदत्त भंडार है जिसमें ‘गाथिन’ शब्द का प्रयोग गायक के लिए किया गया है।
अमरकोश में गाथा का शाब्दिक अर्थ है – पितरगण, परलोक या ऐसे विषयों से संबंधित अनुश्रुति पर आधारित पद्य या गीत।
सायण भाष्य में उल्लेख है कि ‘रैमी’ एवं ‘नाराशंशी के नाम से प्रसिद्ध गीत, विविध वैवाहिक एवं अन्य अवसरों पर भी गाया जाता था।
प्राचीन काल से ही लोक-गाथा प्रचलन में थीं। धीरे-धीरे ये विलुप्त होती गईं। उस समय इन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जाता था। यह साहित्य लोक-कंठ से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता गया। इस कारण इसमें अनेकरूपता आती गई और यह सामाजिक धारा से पृथक होता गया। अब यह विलुप्त होता जा रहा है। लोक-गाथा में संगीत और नृत्य का अभिन्न साहचर्य होता है। इसमें स्थानीयता का प्रभाव एवं उपदेशात्मक प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव रहता है। लोक-गाथा में अलंकरण एवं स्वाभाविकता आद्यन्त वर्तमान रहती है। टेक पद की बार-बार पुनरावृत्ति होती है। इसकी कथावस्तु विस्तृत और दीर्घ होती है। भगवान बुद्ध से संबंधित गाथा और कथा का विपुल भंडार प्राकृत और पालि साहित्य में लिखा गया है जो आज भी उपलब्ध है। अपभ्रंश काल में ‘संदेशरासक’ पुस्तक में लोक-गाथा का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
“हमारे देश में समय-समय पर विदेशी यात्री आते रहे हैं जिन्होंने संपूर्ण भारत का भ्रमण किया, यहाँ के इतिहास, भूगोल, शिक्षा, व्यापार, राज्य-व्यवस्था आदि के विषय में विस्तृत जानकारी दी जिनमें फाह्यान और ह्वेनसांग का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है। ये दोनों चीनी यात्री थे जो भारत में शिक्षा ग्रहण करने आए थे। उस समय भगवान बुद्ध की महिमा को गीत गाकर, दुंदुभी बजाकर नृत्य करते हुए प्रस्तुत जाता था। भारतीय यात्रा के क्रम में ह्वेनसांग ने लोक-गीत एवं लोक-गाथा की परंपरा पर प्रकाश डाला है।”11
प्राचीन भारत में छह प्रकार के गायकों की चर्चा की गई है। यथा- सूत, मागध, बंदी, कुशीलव, वैतालिक एवं चारण। मध्य-युग में गायक को भाट एवं योगी के नाम से जाना जाता था। आज भी गाँव में गाथा-वाचक अनपढ़ होते हैं फिर भी वे गाथा-वाचन करते हैं और इस परंपरा को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। आधुनिकता के आक्रमण के बावजूद गाथा-धर्म को गाथा-वाचक सहेजकर रखते हैं जो सुंदर व आदर्श सामाजिक चेतना और साहित्यिक विशेषता के कारण संरक्षित है।
"मैथिली लोक-गाथा द्विजेतर समाज की रचना है इसमें द्विजेतर जाति की सामाजिक-सांस्कृतिक वस्तुस्थिति का यथार्थ परिचय मिलता है। भिन्न-भिन्न लोक-गाथा में अनेक जाति के नायक-पुरुष का अवतरण हुआ है। अभी भी मिथिला में अनेक लोक-गाथाएँ गाँव-घर में फैली हुई हैं परंतु इसका भंडार लोक-कंठ में विराजमान है। गाथा क्रम में क्रमशः लोरिक, सलहेस, अनंग कुसुमा, सती बिहुला, दुलरा-दयाल, राय रणपाल, दीना-भद्री, चूहरमल आदि। लोरिक का प्रचार गोप जाति के मध्य, सलहेस दुसाध जाति के मध्य, दीना-भद्री मुसहर जाति के मध्य और छेछन डोम एवं चमार जाति के मध्य देवता स्वरूप पूजे जाते हैं। मैथिली लोक-गाथा में मुख्यतः वीर रस, शृंगार और सिद्धि-साधना को अभिव्यंजित किया गया है परंतु इसमें विभिन्न वर्ण, जाति, धर्म-संप्रदाय, रीति-रिवाज, देवी-देवता धारणा-विश्वास आदि की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है।”12
श्री प्रफुल्लू कुमार सिंह ‘मौन’ के अनुसार – “मिथिला-नेपाल सीमा का विस्तृत भू-भाग लोरिक का वीर भूमि, सलहेस, कुसुमा, दीना और काजरी-मांजरि का रंगलोक, नैका-बनिजारा, शोभा बनिजारा आदि का व्यवहार क्षेत्र, महाचोर चुरक का परीक्षा-स्थल, राजा धनपाल और रइया रणपाल की विलासभूमि, विजयमल, अमर सिंह, जय सिंह आदि की रणभूमि, कुमार ब्रिजभान का आखेट-केंद्र, दुलरा-दयाल, चंपा डगरैनी, माधो सिंह, कनक सिंह, सरिसों, सुब्बइ, बंठा चमार आदि तांत्रिक लोगों की सिद्ध भूमि, बख्तौर, बसावन, कारी भुईया, दया राम, रघुनाथ, कालू राम आदि का विलास क्षेत्र रहा है।"13
मैथिली लोक गाथा में कारिख पंजियार का स्थान अभीष्ट है। इन्हें कारिख धर्मराज भी कहा जाता है। पजियार का अर्थ होता है गुनी अथवा विशेषज्ञ। कारिख को बहुत योग्य, गुणी और विशेषज्ञ कहा जाता है। इनका नाम दिव्य एवं विशिष्ट रूपों में लिया जाता है। कारिख का अर्थ है काला, धर्मराज का रंग भी काला है। यम को धर्मराज कहा जाता है , जो सूर्य-पुत्र हैं। जिनमें धर्म की कसौटी पर तौलने की सर्वशक्ति विद्यमान है। मनुष्य के अंतिम समय में उचित-अनुचित का आंकलन यम ही करते हैं। किसको सजा देनी है और किसको मुक्ति, यह उन्हीं का फैसला होता है।
कारिख पजियार - सूर्य अथवा दीनानाथ की असीम कृपा से अवतरित हुए थे और उन्होंने अपनी लीला से लोगों का कल्याण किया था। विकृत सामाजिक व्यवस्था के कारण कुछ जाति विशेष ने इन्हें संकुचित कर दिया। आज भी मिथिला के गाँवों में कुछ-कुछ ब्राह्मणों के घर में इनका गहबर है और गोंसाई के रूप में इनकी पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त मल्लाह, सुरी, हलवाइ, यादव, अनुसूचित जाति खासकर दुसाध वर्ग में प्रायः इनकी पूजा होती है। मिथिला में अति प्राचीन काल से ग्राम-देवता (डीहवार) के पूजन की परंपरा चली आ रही है। इसी परंपरा में कहीं-कहीं ग्राम-देवता और कहीं-कहीं गृह-देवता के रूप में कारिख पजियार की ‘पीड़ी’ स्थापित है। इनकी गाथा गायन भक्ति गीत के रूप में और पूजा विधानपूर्वक की जाती है। अक्षत, फूल, पान, चीनी का लड्डू, बताशा आदि चढ़ाया जाता है। उपस्थित जन-समूह दंडवत होकर उनके आगे सिर झुकाता है और साल में एक बार सामाजिक रूप से भव्य पूजा का आयोजन होता है। इस पूजा में बाहर से विशेषज्ञ पुजारी को बुलाया जाता है। कोसी क्षेत्र में ‘चौपहरा’ पूजा का आयोजन किया जाता है। सभी सेवक पीली धोती पहनते हैं। भगत-नायक खड़े होकर महाराई गाकर इनकी स्तुति करते हैं। ‘डाली’ लगाई जाती है और प्रत्येक व्यक्ति अपने मन की मुराद पूरी करने की प्रार्थना करता है। काला ‘छागर’ (बकरी का नर बच्चा) की बलि-प्रदान की जाती है। गहवर के अंदर कारिख पजियार की और बाहर उनकी ज्योति की पूजा होती है। सेवक के घर में जो भी भोजन सामग्री बनती है, वह पहले उन्हें चढ़ाई जाती है। उसके बाद घर के सदस्य उसे भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति उनकी अवहेलना करता है तो उसका अनिष्ट होना तय है।
इन गाथाओं पर विचार करने पर बहुत से गाँव, स्थान, पात्र, घटना, युद्ध, रोमांस, हास्य-रुदन का परिचय प्राप्त होता है। कारिख गाथा से लोक-परंपरा, भाव-धारा, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक परिवेश की रूप-रेखा प्रकट होती है। समस्त गाथा गद्य-पद्य रूप में समन्वित है। समय-स्थान की वजह से गाथा का भाषा, बोली और पात्रों में थोड़ा हेर-फेर हो गया है परंतु मौलिकता आज भी बनी हुई है। मिथिला, मैथिली के सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप में उपलब्ध कारिख गाथा धरोहर के रूप में आज भी सुरक्षित है। इस गाथा में एक तरफ मिथिला के आहार-व्यवहार, मैथिली के आत्मस्थ शब्दों को संजो कर रखा गया है तो दूसरी तरफ मिथिला की मिट्टी-पानी की गंध और लोक-जीवन का सजीव चित्रण किया गया है। मिथिला की समृद्ध लोक-गाथा परंपरा में कारिख पजियार बहुत चर्चित रहे हैं। इनका शौर्य, पराक्रम, लोक कल्याण की भावना के प्रभाव से आज भी मिथिलावासी अभिभूत हैं।
कारिख पजियार के पिता ज्योतिष पजियार सूर्यदेव के अनन्य भक्त थे। सूर्यदेव ने उन्हें हमेशा अपने साथ पर रहने का वरदान दिया था। एक बार सूर्यदेव कोढ़ ग्रसित रोगी बनकर ज्योतिष पजियार के समक्ष उपस्थित होते हैं लेकिन वे उन्हें पहचान नहीं पाते हैं और अनजाने में उनका अपमान कर बैठते हैं जिससे क्रुद्ध होकर सूर्यदेव उन्हें शाप दे देते हैं। अनुनय-विनय करने के पश्चात उन्हें कदली वन जाकर बारह वर्ष तक लगातार तपस्या करने के लिए कहते हैं। इस बात को सुनकर उनकी बूढ़ी माँ घबरा जाती है और रोते हुए अपने अपने पुत्र से कहती है-
हमरा ककरा पर हो लड़िकबा तहुँ छोड़ने जाय।।"
अर्थात् तुम तो बारह वर्ष के लिए केदली वन तपस्या करने के लिए जा रहे हो। मुझे किसके भरोसे छोड़कर जा रहे हो? मैं तो बूढ़ी हो गयी हूँ। कौन मेरा सहारा बनेगा? कौन मेरी देखभाल करेगा? मैं तो अकेली रह जाऊँगी।
माँ की व्याकुलता को देखते हुए ज्योतिष पजियार उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं-
हमरा लिखल गे अम्मा केदली वनवास।।”
अर्थात् माँ की अधीरता को शान्त करते हुए कहते हैं कि माँ तुम मत रोओ, दुःख मत करो। मेरी किस्मत में कदली वन का वनवास लिखा हुआ है। इसलिए मुझे जाना ही होगा। नहीं तो मुझे शाप से मुक्ति नहीं मिलेगी।
माँ की ममता फिर उन्हें अपने मोहपाश में बाँधना चाहती है। उन्हें यह लगता है कि कदली वन के पास में ही सेरा दल की धारा बहती है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। उसकी गति अत्यन्त तीव्र है। वो मेरे बेटे को बहाकर ले जाएगी। मेरा बेटा पानी में डूबकर मर जाएगा। माँ कहती है-
सेरा दल के धार हौ।। "
अर्थात तुम मेरे प्यारे पुत्र हो। मैं तुझे वहाँ नहीं जाने दूँगी। सेरा दल की धारा बहुत भयानक है। उसने कितनों को निगल लिया है। इसलिए तुम वहाँ मत जाओ मगर ज्योतिष पजियार माँ को समझा-बुझाकर चले ही जाते हैं।
परौली नेपाल राज्यान्तर्गत जनकरपुर से 10-20 किमी. पश्चिम में अवस्थित है। इसी स्थान पर ज्योतिष पजियार का जन्म हुआ था। उनके पुत्र कारिख पजियार का भी जन्मस्थान यहीं है। डॉ० मनोरंजन झा ने अपनी पुस्तक 'ज्योति गाथा' में परौली को 'पुहपिपर' के नाम से संबोधित किया है। इसे ‘परौड़ी चौड़’ के नाम से भी जाना जाता है। अभी भी वहाँ कारिख पजियार का गहवर अवस्थित है। वहाँ पुजारी रहता है। लोग अपने कल्याण के लिए मन्नत मांगते हैं और पूरा होने पर छागर (बकरी का बच्चा) चढ़ाते हैं, झाँप चढ़ाते हैं। यह स्थान धार्मिक स्थान के रूप में प्रसिद्ध है।14
दुसाध जाति के लोग उनकी नायक पुरुष के रूप में पूजा करते थे। यादव जाति के लोग गहबर (पूजा का स्थान) बनाकर धर्मराज के रूप में आज भी उनकी पूजा करते हैं। पूजा काल में ब्राह्मण लोग भी अपनी मन्नत पूरी करने के लिए डाली रखते हैं। अभिजात्य वर्ग गृह-देवता के रूप में कारिख-धर्मराज का स्थापना करके पूजा करता है।15
भाव का शाब्दिक अर्थ होता है स्थिति अथवा वृत्ति। सांख्यशास्त्र में इसके बौद्धिक भाव या शारीरिक भाव दो भेद किये गये हैं। मूलतः दो भाव हैं-सुख और दुःख । इसे राग और द्वेष भी कहा जाता है।16
धर्म किसी न किसी प्रकार का अति मानवीय, अलौकिक अथवा समाजोपरि शक्ति पर विश्वास है जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति और पवित्रता की धारणा है जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा या आराधना है।17
गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया है-
अभ्युत्थानमधर्मस्य तादात्मनं सृजाम्यहम्।।”18
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि होगी, दुष्टों का संहार करने के लिए मैं स्वयं धरती पर अवतार लूँगा और धर्म का उत्थान करूँगा। निष्कर्ष : कारिख गाथा मुख्यतः संगीतात्मक राग पर आधारित है। इसे गाथा-राग के नाम से भी जाना जाता है। गाथा का वाचन और गायन एक निश्चित राग-ताल-लय के अंतर्गत भाव-विह्वल होकर किया जाता है। मृदंग, झाल, करताल, ढोल लेकर संगीतात्मक भाव की मर्यादा को बढ़ाते हुए गायन किया जाता है। स्थान परिवर्तन के कारण इसके टोन में भी अंतर महसूस किया जा सकता है। कारिख गाथा बहुत प्राचीन है। इसकी रचना-शैली, भाषा-शैली, विचार, कथावस्तु तत्कालीन समाज, वातावरण और हाव-भाव इस बात की पुष्टि करता है। संभवतः वह गाथा-युग रहा होगा। कारिख गाथा में परौली नेपाल, उसरा डीह नेपाल, कदली वन, शैरा धार नेपाल, कामरू राज्य आसाम, काली दह, सरैसा समस्तीपुर, सेन्धु बोन पहाड़ नेपाल, बैसबीटिया सहरसा, अंगूलीवती सहरसा, ढिलनी नगर, नारायणपुर, तारापुर, उदयपुर, बिजलपुर आदि स्थान की चर्चा की गई है। समाज में बहुत से ऐसे लोक-गाथा के नायक मौजूद है जिनका अन्वेषण किया जाना है। अनुसंधान होने के पश्चात कला-संस्कृति और अधिक निखरकर सामने आएगी जिससे आने वाली पीढ़ी लाभान्वित होगी।
समाज के कुछ वर्ग के लोग इसे नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इस कार्य से उन्हें आर्थिक लाभ मिलता है साथ ही ऐसी लोक-गाथाओं को अमरता प्राप्त होती है। मिथिला में लोक-गाथा के नायकों को देवता का दर्जा प्राप्त है। आम जनता उनको पूजती है। उन्हें लोक कल्याणकारी माना जाता है। उनके द्वारा किए गए कार्य को गीतात्मक रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। सन्दर्भ :
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फ्रैंक सेजविक : ओल्ड वैलड्स कैम्ब्रिज यूनिर्वसिटी प्रेस, कैम्ब्रिज, 1908, पृष्ठ 31.
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दिनेश कुमार झा : मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास, तीसरा संस्करण, मैथिली अकादमी, पटना, 2007, पृष्ठ 55.
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ऐजन, पृष्ठ LIV.
ऐजन पृ० XXXVi
हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिन्दी साहित्य का इतिहास : आदिकाल, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1952, पृष्ठ 59-60.
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श्रवण कुमार : मतबंध- मिथिला के धर्मस्थल : एक सामाजिक सर्वेक्षण, वर्ष 87-88, पृ.- 56
गीता, अध्याय 4, श्लोक 7, अष्टादश सं०, 2023, प्र०- मोतीलाल जालान, गीता प्रेस, गोरखपुर, पृ-77.
सहायक प्राध्यापक, मैथिली विभाग, गंगा देवी महिला महाविद्यालय, पटना, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
ranjana.maithili@gmail.com, 9905693566

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