राजस्थानी लोककथाओं में सांस्कृतिक संदर्भ
- प्रभा पंत एवं मुकेश कुमार
शोध सार : श्रुत परम्परा से चली आ रही कथाओं को ‘लोककथा’ कहते हैं। ये मौखिक होती है, जिसका एक-दूसरे से सुनकर अथवा सुनाकर हस्तान्तरण किया जाता है। लोकगीतों व लोकगाथाओं में एक प्रकार की कथा चलती है, इसलिए लोककथाओं को लोक साहित्य की प्रमुख विधा माना जाता है। इन कथाओं को राजस्थान में ‘बात’ कहते हैं। बात कहना और सुनना राजस्थान की संस्कृति का अभिन्न अंग है। राजस्थान में पशु-पक्षियों, वृक्षों, राजा-महाराज, अस्त-शस्त्र, किले, मंदिर आदि से सम्बन्धित बात सुनाई जाती है। इन बातों में समाज में प्रचलित रीति-रिवाज व सांस्कृतिक हस्तांतरण के विविध चित्र हर्ष के साथ उकेरे जाते हैं। बात कहने वाले कोई विशिष्ट लोग नहीं होते, जो व्यक्ति कहने की कला में निपुण हो वही बात कहता है। राजस्थान में मनोरंजन, उपदेश तथा धार्मिक प्रेरणाओं की कथा सुनाई जाती हैं। ये कथाएँ राजस्थानी संस्कृति के इर्द-गिर्द गढ़ी जाती हैं, लोककथाएँ संस्कृति संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
बीज शब्द : लोकसाहित्य, लोककथाएँ, राजस्थान, लोकसंस्कृति, बातसाहित्य, मनोरंजन, परंपरा, रिवाज, लोकदेवता, राजपूताना।
मूल आलेख : देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित राजस्थान सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा पर्यटन की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। राजस्थान अपने शौर्य और संस्कृति के लिए विश्व विख्यात है। “ब्रिटिश काल में यहाँ के मुख्य भाग को ‘राजपूताना’ के नाम से पुकारा जाने लगा था, किन्तु ‘राजस्थान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक ‘एनाल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ (1829, लन्दन) में किया जो कालान्तर में सामान्य हो गया।”[1] यहाँ की विशिष्ट लोक संस्कृति है, इस प्रदेश के लोक जीवन में संस्कृति के विविध रंग दिखाई देते हैं।
राजस्थान के लोकजीवन में लोकगाथाएँ, लोकगीत, लोककथाएँ बसी हैं। मौखिक परम्परा से प्राप्त गीत तथा कथा साहित्य को लोकसाहित्य कहते हैं। लोकसाहित्य में लोकसंस्कृति प्रतिबिंबित होती है। राजस्थान की संस्कृति को व्यापक बनाने के लिए संतों, भक्तों और लोक देवताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग तथा उनके निवासरात क्षेत्र को समान रूप से प्रभावित किया। संतों ने लोक देवताओं के अनुष्ठान के साथ सांस्कृतिक समारोह आयोजित किए। “इन सांस्कृतिक समारोहों द्वारा एक ओर जन-जीवन उदार, आत्मीय, सरस तथा शालीन बनता है तो दूसरी ओर इनके अन्तर्गत आयोजित विभिन्न क्रियाओं द्वारा जन साधारण का पर्याप्त मनोरंजन भी किया जाता है।”[2] प्रकृति ने राजस्थान को मरूस्थल, अकाल, कम वर्षा जैसे अभाव प्रदान किए, इन अभावों ने भी यहाँ के रहवासियों की उमंग और उत्साह को कम नहीं होने दिया। राजस्थान के लोगों ने लोकसाहित्य को मनोरंजन का साधन बनाकर वहाँ की सांस्कृतिक आत्मा को जीवित रखा है। राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर विश्व प्रसिद्ध है, उनकी कलाकारी लोगों को आकर्षित करती है। “जैसलमेर के जालीदार झरोखे, मण्डोवर के माळिये, जयपुर की कमानीदार छतरियाँ, पीछोला के पानी चूमते छज्जे वाले गोखड़े, देलवाडा का मंदिर, रणथम्भोर का किला। ये हैं हमारे शिल्प नमूने। देश-विदेश के लोग इन्हें देखने आते हैं।”[3]
लोकगाथा व लोकगीतों में वर्णित कथा मनोरंजन के साथ-साथ समाज की स्थिति को भी दर्शाती है। समाज की मान्यताओं तथा परंपराओं को लोककथाओं के माध्यम से प्रसारित किया जाता है। ये कथाएँ स्वच्छ दर्पण जैसी होती हैं, समाज को साफ और स्पष्ट प्रतिबिम्बित करतीं हैं। “मध्यकालीन राजस्थान का सामाजिक चित्रण लोक कथाओं में अत्यन्त समृद्धि के साथ अंकित है। यहाँ की जातीय व्यवस्था, शासन प्रणाली, जागीर प्रथा, नैतिक विचार, भाग्यवादिता, कला, सृजन, साहित्यिक वातावरण, सामयिक राग रंग, रूढ़ि निर्वाह और मानव सिद्धान्तों के विविध चित्र इन लोककथाओं के जरिये हमें बहुत हर्ष के साथ मिलते हैं।”[4] राजस्थान में लोककथाओं को ‘बात’ कहते हैं। यहाँ बात कहने का प्रचलन प्राचीन है। राजस्थान में बात कहने से पहले छोगा सुनाया जाता है। ”बात भली दिन पाधरा पैडैं पाकी बोर, घर भूंडण घोड़ा जणै लाडू मारै चोर।”[5] कथा कहने वाले कभी-कभी छोगा न सुनाकर राजस्थानी गौरवशाली दोहों का पाठ करते हैं। “साळ बखांणू सिंध री, मूंग मंडोवर देस। झीणौ कपड़ौ माळवै, मारू मरूधर देस। बोर मतीरा बाजरी, खेलर काचर खांण। धांन न धीणा धोपटा, बरसाळौ बीकांण।”[6] कथा के अन्त में कुछ विशिष्ट पक्तियाँ सुनाकर कथा समाप्त की जाती है। मांडकर कही जाने वाली दीर्घ कथाओं की समाप्ति में जीवन को कल्याणकारी बनाने वाले नीतिज्ञान के संदेश सुनाए जाते हैं।
राजस्थान में बातपोश द्वारा सुनाए कथानक से अधिक महत्त्व उसके द्वारा बात कहने की कला को दिया जाता है। श्रुत परम्परा के कारण लोककथाओं में प्रत्यक्ष सामाजिक बिंबों के दर्शन होते हैं। जो लोक संस्कृति के संरक्षण में लोककथाओं की विशेष भूमिका को स्पष्ट करते हैं। लोककथाओं को लिपिबद्ध इसलिए किया जाता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनको याद किया जा सके। लिपिबद्ध लोक कथाएँ हू-ब-हू सुनाने पर उतनी आनंदित नहीं करतीं, उनको सुनते समय श्रोताओं की रूचि के अनुसार उनमें फेरबदल करना होता है तभी सुनने वालों को आनंद आता है। “लोककथाओं की शैली वक्ता पर निर्भर करती है। प्रत्येक वक्ता का अपना विशेष ढ़ंग होता है। इस ढ़ंग में वह जितना पारंगत होगा, उसके द्वारा कही गयी कथा भी उतनी ही रोचक और श्रुति-प्रिय होगी।”[7] राजस्थान में भाग्यवाद पर आधारित लोककथाएँ कही जाती हैं। कथा के माध्यम से बातपोश सुनने वालों को अच्छा व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। ‘भाग्य की बात’ लोककथा में एक सेठ के तीन पुत्र थे, तीनों अलग प्रकृति के थे। उनमें केवल सबसे बड़ा परिश्रम करता था, मझला शिव भक्त था और सबसे छोटा घूमता-फिरता रहता था। सबसे बड़ा सोचता था कि सारे लोग उसके परिश्रम के कारण सुखी हैं। एक बार उसे समझाते हुए, “सेठ ने खिड़की की राह नीले साफ आकाश को देखकर कहा, बेटा! तेरे कमाने के पीछे तू अकेला नहीं है। हाँ, तेरा पुरुषार्थ अकेले का जरूर है पर भाग्य सबके शामिल हैं। मनुष्य किस-किस भाग्य का खाता है कोई नहीं जानता? इसलिए यह घमण्ड झूठा और व्यर्थ है। निरर्थक है। सब अपने भाग्य का खाते हैं।”[8] इसी प्रकार की अन्य भाग्यवादी लोककथाएँ सुनाकर लोगों को जागरूक किया जाता है।
राजस्थानी आशावादी होते हैं। राजस्थान में रेतीली भूमि होने के कारण पानी की समस्या है, राजस्थानी लोककथाएँ जलवृष्टि को समाज की आशाओं, भावनाओं तथा प्रकृति और मनुष्य के गहरे सम्बन्धों को दर्शाती हैं। लोकसंस्कृति में वर्षा का स्थान भावनात्मक व पवित्र है। राजस्थानी वर्षा को प्रतीक्षा का फल और उर्वरता का प्रतीक मानकर, उसका सम्मान करते हैं। सूखे मौसम के बाद वर्षा ऋतु का आना राजस्थानियों के लिए सुख-दुःख का पर्याय है, बरसते बादलों का वर्णन यहाँ के लोगों के मन में उमंग भर देता है। “राजस्थान की लोककथाएँ बारिश को एक देवता के रूप में ही नहीं बल्कि एक राजा और मनुष्य की तरह भी देखती हैं।”[9]
राजस्थान के लोग प्रकृति-प्रेमी होते हैं, राजस्थान की कथाओं में मनुष्य के प्राकृतिक जीवन की महत्ता को प्रतिपादित किया है। प्रकृति से जुड़ी प्रत्येक वस्तु वहाँ के लोगों के लिए पूजनीय है। लोककथाओं में पेड़ बोलते हैं, रक्षा करते है। इन कथाओं में मनुष्य वनों में पक्षियों के बीच रहकर शान्तिपूर्ण जीवन यापन करना श्रेयस्कर समझता है। राजस्थानी लोकजीवन में वृक्षों की पूजा की जाती है व वृक्षों को काटना पाप माना जाता है। यहाँ वृक्ष आस्था और पवित्रता के केन्द्र माने जाते हैं। राजस्थान में एक जाट जिस स्थान में हवेली बनवा रहा था, उस स्थान में एक कीकर का वृक्ष था। जाट ने सोचा वृक्ष को कटवा कर उसकी लकड़ी का प्रयोग घर बनाने में करेगा। “गाँव के लोगों ने कहा कि कीकर के वृक्ष में ‘खेतरपाल’ (क्षेत्रपाल) का निवास है, अतः वृक्ष को कटवाना नहीं चाहिए। अनिष्ट की आशंका से जाटनी ने जाट को वृक्ष काटने से मना कर दिया।”[10] लोक परम्पराओं में वृक्षों को चेतना और दिव्यता का प्रतीक माना गया है। खेजड़ी वृक्ष का राजस्थानी संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह राजस्थान का राज्य वृक्ष भी है। इस वृक्ष के बारे में एक कहावत प्रचलित है- ‘सिर साटै रै साटै, पण खेजड़ी न देवे।’ लोककथाओं में इस वृक्ष को बूढ़ा संत व वृक्ष देवता कहकर पुकारा जाता है। बिश्नोई समाज में यह वृक्ष बलिदान का प्रतीक है। राजस्थान में पीपल, आम, बरगद के वृक्षों को पवित्र माना जाता है, हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इन वृक्षों को पूजा जाता है तथा घर में होने वाले अनुष्ठानों में इनके पत्तों का प्रयोग किया जाता है। लोक परम्पराओं के अनुसार पीपल के वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास माना जाता है। लोक में कही जाने वाली कहावत ‘पीपल में विष्णु का वास, डाल-डाल में देव निवास’ पीपल वृक्ष में ईश्वरीय वास को बताती है। ‘धर्म से धन-वृद्धि’ लोककथा में “सेठ-सेठानी बड़े धर्मात्मा। अपने घर में पीपल की पूजा करते। व्रत करते। कहानी कहते और आँवल भर सोना दान करने के बाद ही अन्न-जल लेते।”[11] पीपल के वृक्ष के नीचे बने चबूतरे में चैपाल लगती है तथा लोग बैठकर आपस में बातें सुनाते हैं। यह वृक्ष ऑक्सीजन देता है, राजस्थान में विज्ञान को मान्यताओं के साथ जोड़ते हुए इस वृक्ष के नीचे बैठकर शुद्ध ऑक्सीजन ग्रहण करने का प्रचलन है। “कई कथाओं में वर्णित बेर की झाड़ी सत्य-पथ के राही को भक्ष्यार्थ बेर प्रदान करती हुई और दुर्नीति रखने वाले चरित्रों को काँटे चुभाती दिखाई देती है। कुछ पेड़ भविष्यवाणियाँ भी करते हैं।”[12]
लोक कथाएँ शिक्षा का अनमोल भंडार हैं। राजस्थानियों के लोक जीवन में नैतिकता एवं मूल्यबोध नीति संबंधी कथाओं से आतीं हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन कथाओं से राजस्थान के प्रत्येक क्षेत्र में नैतिक मान्यताओं का स्थानांतरण हुआ है। इनको सुनकर लोग अपने जीवन को नीतिगत बनाते हैं, बुराइयों से बचने के लिए इनका प्रयोग ढाल के रूप में किया जाता है। इन कथाओं में सद्व्यवहार की शिक्षा होती है। “इनमें ईमानदारी, सच्चाई, न्याय प्रियता, समानता, सहानुभूति एवं नीति संबंधी बातें होती हैं। अंग्रेजी में इन्हें फेबल (नीति कथा) कहते हैं। यूरोप में ईसप की फेबल या कथाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत में इन्हें पंचतंत्रीय कहानी कहते हैं। दुष्टों के चंगुल से बचना, विपत्ति में धैर्य धारण करवाना आदि उद्देश्य इस प्रकार पाये जाते हैं।”[13] ये कथाएँ रोचक, सहज एवं चित्रात्मक वर्णन से जीवन जीने के लिए आवश्यक नैतिक शिक्षाओं को समझाती हैं। इन कथाओं के माध्यम से श्रोता ज्ञानोपलब्धि के साथ-साथ अपनी विचार धारा में परिवर्तन लाता है। अल्पज्ञ मनुष्य स्वयं द्वारा किए अविवेकपूर्ण कार्यों का पश्चाताप कर अपने विचारों को परिष्कृत करता है। सांस्कृतिक मान्यताओं को मानते हुए ये कथाएँ लोक में जागरूकता एवं बुरे कार्यों को लेकर लोगों को सचेत करने का काम भी करती हैं। कथा सुनते समय लोग इतने भावविभोर हो जाते हैं कि वे कथा सुनते-सुनते ही उनका हृदय परिवर्तित हो जाता है। “एक दिन संयोग से एक चोर भी कथा सुनने के लिए आ बैठा। महात्मा के उपदेश का चोर के मन पर बहुत गहरा असर हुआ उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि आज से चोरी नहीं करूँगा।”[14]
सम्पूर्ण भारत में वैदिक परम्पराओं का पालन किया जाता है। राजस्थान में वैदिक विधि-विधानों को एक विशिष्ट क्षेत्रीय रूप में सम्पन्न किया जाता है। जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कार राजस्थानी स्वरूप में किए जाते हैं जो अद्भुत लगते हैं। संस्कारों के प्रारम्भ में परिवार के सभी सदस्य मिलकर ग्राम देवता व कुल देवता से कार्य की सफलता हेतु प्रार्थना करते हैं। राजस्थान में शिशु जन्म से पूर्व ही लगभग नौ प्रमुख विधि-विधान हैं। ये संस्कार ज्योतिषियों अथवा पण्डितों से पूछकर शुभ घड़ी के अनुसार किए जाते हैं। शिशु जन्म के बाद नामकरण के समय ज्योतिषी द्वारा जन्मकुण्डली बनाई जाती है। जन्मकुण्डली की गणना कर ज्योतिषी आजीवन मनुष्य जीवन की संभावित घटनाओं की जानकारी देते हैं तथा अनिष्ट की स्थिति में उसे टालने का उपाय भी बताते हैं। ‘जंगली से सभ्य’ लोककथा में तेजपाल नामक राजा की एक पटरानी व पन्द्रह रानियाँ थी, “राजा के इतनी स्त्रियाँ होने के बाद भी कोई संतान नहीं थी। राजा ने ज्योतिषियों और पंडितों को बुलाया तो उन्होंने कहा कि आपके संतान का जोग अवश्य है पर कब होगी, कहना कठिन है।”[15] राजस्थान में संस्कार धूमधाम से कराए जाते हैं।
राजस्थानी परम्पराओं के अनुसार उपनयन संस्कार किसी नदी तट पर कराना अधिक फलदायक माना जाता है, इसलिए इसे हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर कराया जाता है। राजस्थानी लोककथा ‘काल आयां बंचै कोनी’ में “जब लड़का बारह साल का हुआ तो उसने अपने पिता से कहा कि पिताजी आप हम सब को लेकर हरिद्वार चलिए। वहीं मेरा यज्ञोपवीत संस्कार होगा।”[16] उपनयन संस्कार बह्मणों में वेदाध्ययन, धार्मिक उत्तरदायित्त्व तथा गुरू-गृहवास के लिए किया जाता है। “मध्यकाल में सिर्फ ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार होता था जो आज भी जारी है। शाही राजपूत परिवारों में उपनयन विधिपूर्वक विवाह के दौरान ही किया जाता था।”[17] इसे मुंडन अथवा जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में यज्ञ का आयोजन किया जाता है, कुल पुरोहित द्वारा बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर उसके कान में मंत्र बोला जाता है। उसके पश्चात बालक विद्यारम्भ करता है।
राजस्थानी बात साहित्य में अति प्राकृतिक तत्त्वों से युक्त कथाएँ भी कही जातीं हैं। इन कथाओं में मानवेतर पात्र भी मनुष्यों जैसा व्यवहार करते हैं। भूत-प्रेत, दैत्य, परी, नाथ तथा सिद्धि प्राप्त जोगी कथाओं के प्रमुख पात्र होते हैं। ये पात्र दैवत्त्व गुण से सम्पन्न होते हैं तथा रहस्यमय कार्य करते दिखाई देते हैं। ‘सवा करोड़ का फूल’ लोककथा में डाड़ादेव के आशीर्वाद से ब्राह्मण के घर पुत्री ने जन्म लिया, उसके मुँह पर फूल खिलते थे। बेटी का रहस्य खुलने के डर से ब्राह्मण ने बेटी का विवाह कर जँवाई को अपने घर ही रखा। ब्राह्मण का डर तब भी नहीं गया उसने जँवाई को मारकर जंगल में फेंक दिया, “उसी समय डाडादेव उधर से घूमते निकले। उन्होंने अमृत का छींटा दे मृतक को जीवित कर दिया।”[18] ऐसी अन्य अद्भुत घटनाएँ जैसे पानी में चलना, अदृश्य हो जाना, चमत्कार करना इन पात्रों के लिए आसान होती हैं। लोककथाओं में तपस्या के बल पर प्राप्त सिद्धियों से साधु, जोगी, नाथ जादू करते दिखाई देते हैं। राजस्थानी लोक-कथाओं में सामाजिक हित-चिन्तन करने वाले साधुओं की भी अनेक कथाएँ मिलती है। इन साधुओं को तपस्या के बल पर नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इन सिद्धियों का उपयोग ये साधु-विरोधी तत्त्वों (भूत-प्रेत, खबीस, डाकी, डाकण के निवारणार्थ) के विनाश हेतु किया करते हैं।
निष्कर्ष : लोककथाओं में सांस्कृतिक चेतना का अंश होता है। इनमें लोक संस्कृति का सांस्कृतिक तत्त्व उपस्थित होता है। बातपोश कथा के माध्यम से संस्कृति को उजागर करते हुए शिक्षा, नैतिक विचार, लोक देवताओं पर आस्था तथा सामाजिक परंपराओं आदि को उजागर करते हैं। उनके द्वारा सुनाए कथानकों में समाज में घटित घटनाओं के प्रतिबिम्ब दिखाई देते है। लोग उन घटनाओं को समाज से जोड़कर बेहतर समाज की संकल्पना करते हैं। लोककथाओं में प्राकृति के सुन्दर वर्णन से समाज आनन्दित होता है, इसी आनन्द की प्राप्ति के लिए उसके मन में प्रकृति के संरक्षण के भाव जागृत होते हैं। इन्हीं भावों से उसने प्रकृति को लोक धर्म से जोड़ा, पहाड़ों में जंगल को लोक देवता को समर्पित कर दिया जाता है। जिससे वहाँ मानव की गतिविधियों नहीं होती और जंगल सुरक्षित रहता है। लोक देवताओं के रहस्यों को लोककथाओं के माध्यम से सुनकर लोग उनमें अधिक विश्वास करने लगते हैं। लोककथा सुनकर मनुष्य सही-गलत की परख कर स्वयं को बदलने के लिए प्रेरित होता है।
लोककथाओं में स्थित सौन्दर्य, नवीन संस्कृति के निर्माण में सहायक है। समाज के बदलते स्वरूप के साथ लोकसंस्कृति बदलती रहती है, लोककथाओं के माध्यम से मूल संस्कृति को संरक्षित किया गया है। लोककथाएँ मौखिक परम्परा से आगे बढ़ती हैं अतः इन्हें संग्रहित कर संरक्षित करने से सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण संभव होता है।
सन्दर्भ :
- डॉ० हरिमोहन सक्सेना, राजस्थान का भूगाल, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2022, पृ० 03
- डॉ० दिनेश चन्द्र शुक्ल, राजस्थान के प्रमुख संत एवं लोकदेवता, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2020, पृ० 124
- रानी लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत, सांस्कृतिक राजस्थान, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2022, पृ० 80
- नानूराम संस्कर्ता, राजस्थानी लोक साहित्य, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2020, पृ० 115
- डॉ० डी० एस० चारण, राजस्थानी लोक साहित्य MARJ - 04, वर्धमान महाबीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा, 2009, पृ० 78-81
- डॉ० सोहनदान चारण, राजस्थानी लोक साहित्य का सौद्धांतिक विवेचन, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2016, पृ० 126
- डॉ० सोहनदान चारण, राजस्थानी लोक साहित्य का सौद्धांतिक विवेचन, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2016, पृ० 181
- यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, राजस्थान की लोककथाएँ, पूज्य प्रकाशन दिल्ली, 2012, पृ० 67
- डी० आर० आहुजा, अनुवाद- वागीश कुमार झा, राजेश कुमार झा, राजस्थान लोक संस्कृति और साहित्य, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, 2014, पृ० 27
- गोविन्द अग्रवाल-चुरू, संपादन कालीचरण केशान, राजस्थानी कथा कोश भाग 1, नीता प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ० 127
- महेंद्र भानावत, राजस्थान की लोककथाएँ, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2022, पृ० 47
- डॉ० सोहनदान चारण, राजस्थानी लोक साहित्य का सौद्धांतिक विवेचन, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2016, पृ० 167
- नानूराम संस्कर्ता, राजस्थानी लोक साहित्य, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2020, पृ० 123
- गोविन्द अग्रवाल-चुरू, संपादन कालीचरण केशान, राजस्थानी कथा कोश भाग 1, नीता प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ० 115
- यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, राजस्थान की लोककथाएँ, पूज्य प्रकाशन दिल्ली, 2012, पृ० 123
- गोविन्द अग्रवाल, राजस्थानी लोककथाएँ, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2019, पृ० 320
- डी० आर० आहुजा, अनुवाद- वागीश कुमार झा, राजेश कुमार झा, राजस्थान : लोक संस्कृति और साहित्य, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, 2014, पृ० 53
- महेंद्र भानावत, राजस्थान की लोककथाएँ, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2022, पृ० 84
प्रभा पंत
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मोतीराम बाबूराम रा० स्ना० म० हल्द्वानी, जिला- नैनीताल, उत्तराखण्ड 263139
dr.prabhapant@gmail.com, 9411196868
मुकेश कुमार
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मोतीराम बाबूराम रा० स्ना० म० हल्द्वानी, जिला- नैनीताल, उत्तराखण्ड
kohlimukesh91@gmail.com, 8476867684
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

एक टिप्पणी भेजें