तद्भव : अखिलेश की सम्पादकीय दृष्टि
- जूही त्रिपाठी
बीज शब्द : हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाएं, ‘तद्भव’ पत्रिका, कथाकार अखिलेश, सम्पादकीय लेखन, ‘तद्भव’ के सम्पादकीय, संपादक अखिलेश, हिन्दी साहित्यिक बहसें, विचार, राजनीति, समाज, संस्कृति, आलोचना, समकालीन साहित्य, संपादन कला।
मूल आलेख : सम्पादकीय किसी पत्र या पत्रिका की नीति और संपादक के दृष्टिकोण का परिचायक होते हैं। पत्रिका के पहले पन्ने पर प्रकाशित होने वाले केवल सम्पादकीय लेखों को पढ़ कर बहुत हद तक उस पत्रिका के मूल स्वर की पहचान की जा सकती है। ठीक उसी तरह ‘तद्भव’ जैसी पत्रिका को समझने के लिए सबसे प्रामाणिक तरीका है उसके सम्पादकीय लेखों का अध्ययन जो पत्रिका की दृष्टि और तेवर का पता देते हैं। ‘तद्भव’ के सम्पादकीय आरंभ में ही इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि पत्रिका न तो किसी पूर्व निर्धारित वैचारिक खेमे का हिस्सा है और न ही विचारधारा तटस्थ है। बल्कि इसकी अपनी एक स्वतंत्र और खास तरह की विचारधारा है जो सीधे जनता और उसके सरोकारों से जुड़ती है। इस दृष्टि से ‘तद्भव’ स्वतंत्र राजनीतिक दृष्टिकोण और जनपक्षधरता के विचारों से लैस विशिष्ट साहित्यिक संचयन है। पत्रिका के प्रवेशांक में संपादक अखिलेश लिखते हैं, “‘तद्भव’ महज शब्दों की परिवर्तित वक्तृता नहीं है, बल्कि इसके प्रयोग में एक खास तरह का जीवन-दर्शन है, समाजशास्त्र है। भिन्न प्रकार की राजनीतिक दृष्टि और विचारधारा समाहित है ‘तद्भव’ में।...’तद्भव’ ‘सामाजिक सरोकार’ के ‘पुराने’ औजार का पक्षधर है। हालांकि उसकी पक्षधरता के औजार नए होंगे।”1 ‘तद्भव’ के शुरुआती सम्पादकीय लेखों में हिन्दी साहित्य की समकालीन प्रवृत्तियों, सरोकारों और समय के साथ साहित्य में नए बदलावों को अपनाने की ओर ध्यान देने पर बल रहा है। 21वीं सदी की शुरुआत में सस्ती और हल्की टिप्पणी द्वारा चर्चा में बने रहने की फिल्मी प्रवृत्ति को हिन्दी साहित्य जगत में लागू होता देख संपादक व्यथित है। ‘कथादेश’ के फरवरी, 2001 अंक में ‘मैं और मेरा समय’ स्तंभ के अंतर्गत आलोचक विष्णु खरे द्वारा अपने समय के पांच प्रतिष्ठित रचनाकारों- नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया और काशीनाथ सिंह के मूल्यांकन में अभद्र भाषा का प्रयोग तथा ‘वर्तमान साहित्य’ के जनवरी, 2001 अंक में राजेंद्र यादव के विवादास्पद लेख ‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ पर टिप्पणी करते हुए संपादक अखिलेश इस बात पर चिंता जाहिर करते हैं, “इक्कीसवीं सदी में जब मनुष्यता और साहित्य के समक्ष संकट गहरे हो रहे हैं, जब नए प्रश्न और चुनौतियां हमें घेर रही हैं, जब हमें अभेद्य एकता और नए ढंग की तैयारियों की जरूरत है तब यह रुग्ण मानसिकता, भाषिक वीभत्सता का खेल और जूतमपैजार हो रहा है। अच्छी रचना की तुलना में गालियां और विकृत विचारों को प्रसिद्धि के लिए अधिक कारगर माना जा रहा है।...बीसवीं सदी के अंतिम दौर में जिस बाजारवाद के खिलाफ लड़ने की बातें की जा रही थीं, इक्कीसवीं सदी में उसी बाजारवाद के दलदल में लिथड़ने का दृश्य उपस्थित है।”2
बदलते समय में जबकि ‘नई अस्मिताएं अपनी पूरी शक्ति के साथ सक्रिय हैं’, किसी रचना की व्याख्या पूर्ववत् नहीं की जा सकती। नई अस्मिताओं के संदर्भ में उन पर नए सवाल खड़े किए जाएंगे जो बदलते समय और संदर्भ के साथ रचना के पुनर्पाठ की मांग करते हैं। अक्टूबर, 2002 में देहरादून में आयोजित ‘संगमन’ की संगोष्ठी में कुछ नई लेखिकाओं ने धूमिल की प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ की पंक्ति ‘हरेक का दरवाजा खटखटाया है/ मगर बेकार...। मैंने जिसकी पूंछ/ उठायी है उसको मादा/ पाया है।’ पर न केवल प्रश्न चिह्न लगाया बल्कि इस पर अपना आक्रोशपूर्ण विरोध भी दर्ज कराया। उनका कहना था, “यहां मादा बतौर गाली के रूप में इस्तेमाल किया गया है जैसे कि उसके भीतर हमदर्दी, बहादुरी और सामाजिक चेतना हो ही नहीं सकती।”3 इसी संदर्भ में संपादक अखिलेश हिन्दी रचनाओं के पुनर्पाठ की आवश्यकता पर बल देते हैं। इलाहाबाद की एक गोष्ठी में आलोचक नामवर सिंह द्वारा प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘ईदगाह’ का ‘वंचित वर्ग और अभिजन वर्ग की सौंदर्य दृष्टियों की टकराहट’ के संदर्भ में तथा अमरकांत की ‘दोपहर का भोजन’ कहानी में ‘घर में स्त्री की स्थिति। उसका दायित्व, कर्तव्य और उसके हिस्से का प्राप्य’ के संदर्भ में पुनर्पाठ का उदाहरण देते हुए संपादक अखिलेश यह स्थापित करते हैं - “पुनर्पाठ की यह प्रणाली केवल परंपराओं के ध्वंस के लिए नहीं है। ...वस्तुतः यह प्रणाली प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा निर्मित, पोषित और संरक्षित परंपराओं के विखंडन का काम करती है तो दूसरी तरफ उनके द्वारा दमित की गयी प्रति-परम्पराओं की प्रतिष्ठा करने की सार्थक कोशिश।”4 इस तरह ‘तद्भव’ के ये सम्पादकीय न केवल अपने समय की साहित्यिक बहसों से टकराते हैं बल्कि एक सार्थक और मजबूत हस्तक्षेप द्वारा नई बहस को भी जन्म देते हैं।
एक साहित्यिक पत्रिका का सरोकार केवल साहित्यिक चिंतन तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि उसे समसामयिक घटनाओं व हलचलों का दस्तावेज भी होना चाहिए। ये जरूर है कि इस रूप में साहित्यिक पत्रिका की भाषा समाचार-पत्र की भाषा की तरह सपाट नहीं हो सकती। उसमें वैचारिक आग्रह और संवेदनशीलता के लिए पर्याप्त अवकाश होगा। संपादक अखिलेश अपने समय के जरूरी प्रश्नों से टकराते हैं और उन्हें सम्पादकीय के रूप में ‘तद्भव’ में दर्ज करते हैं। इन सम्पादकीय लेखों में समसामयिकता होते हुए भी एक तरह की वैचारिकता और साहित्यिक कोमलता होती है। यही कारण है कि ये सम्पादकीय अपने अस्तित्व में दीर्घजीवी मूल्य रखते हैं। ‘तद्भव’ ने बाजार, स्वतंत्रता, सत्ता-पूंजीपति गठजोड़, विज्ञान, इंटरनेट, हिंसा व घृणा, सांप्रदायिकता, केंद्रीय सत्ता के शासन में वर्तमान दुरवस्था, महामारी, चुनाव, अभिव्यक्ति आदि सभी जरूरी विषयों पर एक जिम्मेदार की तरह अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। इन सामयिक विषयों पर लिखे गए सम्पादकीय कहीं से भी तात्कालिक वर्णन प्रतीत नहीं होते बल्कि अखिलेश की विशिष्ट भाषा-शैली इन्हें इस तरह से प्रकट करती है कि वे रचनात्मक और वैचारिक निबंध से प्रतीत होते हैं। “संपादकीय पृष्ठ में जिन समस्याओं को उठाया जाता है, वे समस्याएं समाज में कभी-कभी यथावत् बनी ही रहती हैं। इसलिए संपादकीय पृष्ठ अल्पजीवी न होकर दीर्घजीवी होता है और अंततः संपादकीय पृष्ठ भावी पीढ़ी के लिए यदा-कदा कालजयी कृति का कार्य करता है।”5 बीते वर्ष 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान राम की प्राण- प्रतिष्ठा के अवसर पर देश में बने धार्मिक माहौल तथा जनता के उल्लास व अति उत्साह को संपादक अखिलेश कुछ इस तरह दर्ज करते हैं - “हमारे देश में इस बार 2024 का जनवरी माह हर बार के जनवरी सरीखा नहीं लग रहा है; ऐसा महसूस हो रहा है जैसे सब उल्टा-पुल्टा हो गया। जैसे पैरों के बल चलते-चलते यथार्थ सिर के बल चलने लगा है। संविधान और गणतंत्र का उत्सव मनाने के बजाय उस पर संकट के बादल गहराते दिख रहे हैं। ...चतुर्दिक राम मंदिर, हिंदुत्व को लेकर उत्साह फैला हुआ है। 22 जनवरी के करीब आ जाने पर घरों, दुकानों, इमारतों पर भगवा झंडे लहरा रहे थे, उद्घोष करते हुए जुलूस निकल रहे थे।... 22 की रात दीपावली की तरह थी, दीप जल रहे थे और पटाखे छूट रहे थे। बेशक इस त्यौहार सरीखे वातावरण की पृष्ठभूमि में राज्य की इच्छा, शक्ति, सहयोग और नियंत्रण काम कर रहे थे, किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि हमारी बहुसंख्यक जनता की इसमें स्वाभाविक, ऐच्छिक और सहर्ष भागीदारी थी।... जो जोश दिख रहा था उसमें भक्ति भाव से अधिक धार्मिक उन्माद था। भक्ति हमेशा मनुष्य को शांत और अंतर्मुखी बनाती है जबकि यहां बहिर्मुखता ही बहिर्मुखता थी।... लोगों की जो भावमुद्रा थी उसमें अपने पूजागृह के निर्माण की प्रसन्नता से ज्यादा विजेता की गर्वानुभूति थी। इसी बिंदु पर आस्था की उपर्युक्त अभिव्यक्ति उस अश्वमेध यज्ञ में बदल जाती है जिसमें राजा लोगों द्वारा अपनी अधीनता स्वीकार कराता है। इस प्रकार एक धार्मिक गतिविधि में राजनीतिक निहितार्थ सम्मिलित हो जाते हैं। जीते जागते ऊर्जा से भरे हुए मनुष्यों के समूह को अश्वमेध यज्ञ के अश्व में बदलते हुए देखना बेहद तकलीफदेह है।”6 आज की स्थिति में धर्म और राजनीति का घालमेल सम्पादक की चिंता का विषय है। राजनीति द्वारा बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को अपने फायदे के लिए उद्वेलित करना एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में सांप्रदायिकता की खाई को ही चौड़ी करना है। राजनीति जहां अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म का इस्तेमाल करने लगे ऐसे में वह सामाजिक सौहार्द एवं सद्भाव के लिए खतरा है। संपादक अखिलेश इसी खतरे की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
इसी तरह बाजारवाद और उपभोक्तावाद जैसी संस्कृति की नई चुनौतियों पर अखिलेश ने अपने सम्पादकीय में लगातार लिखा है एवं इसके पीछे छिपी चालाकियों और खतरों से हमें आगाह करने की कोशिश की है। विज्ञान और तकनीक ने मानव श्रम में कटौती कर उसके समय की बचत तो की है लेकिन इस बचे हुए समय को बाजार ने किस तरह अपने पक्ष में मोड़कर, मनुष्य को मनोरंजन में डुबो कर उससे चिंतन का अवकाश छीन लिया है इस पर संपादक चिंता जताते हैं। अक्टूबर, 2015 की सम्पादकीय में वे लिखते हैं, “भूमंडलीकरण की कोख से पैदा हुए बाजारवाद की नियामक शक्तियां शुरू से पहचान रही थीं कि तकनीकी विकास का करिश्मा अप्रत्याशित अतिरिक्त समय को जन्म देगा। अतः उन शक्तियों ने अपने पक्ष में किलेबंदी की। मनुष्य की रुचियों को भयंकर रूप से पतनोन्मुख मनोरंजन, जीवनशैली, पठन-पाठन, अप-संस्कृति की ओर मोड़ा गया। इस कारगुजारी से एक तरफ व्यापार को तूफानी विस्तार मिलना था तो दूसरी तरफ सुरक्षा की भरपूर गारंटी बनती थी क्योंकि उपर्युक्त कुरुचियों में लिप्त समाज अफीम के नशे में डूबे नशेड़ी की तरह अधिक अफीम की चाहत रखता है न कि व्यवस्था परिवर्तन की।”7
अखिलेश सामाजिक-राजनीतिक चेतना संपन्न कथाकार-संपादक हैं। वे अपने विषय को सहजता और स्पष्टता के साथ पाठकों के सामने रखते हैं लेकिन उनकी खासियत ये है कि कलात्मकता से वे कभी विमुख नहीं होते। वे गंभीर विषयों का वर्णन भी इस तरह से करते हैं कि पाठक को वह मात्र ब्यौरा या सपाटबयानी न लगे तथा पाठक उसे आद्यंत पढ़ने को बाध्य हो जाए। “संपादकीय लेखन में अद्भुत कौशल की तकनीक अपनाने के बाद निखार आता है। सफल संपादकीय ही सीधे प्रभाव डालने वाले होते हैं। ऐसे संपादकीयों को पढ़कर पाठक एकदम सतर्क हो जाता है और वह मनोयोग से संपादकीय पूरा पढ़ डालता है और फिर उससे प्रभावित हुए बिना रहना उसके लिए दुष्कर हो जाता है। श्रेष्ठ संपादकीय की यह विशेषता भी है, क्योंकि वह आद्यंत पठनीय होता है।”8 ‘तद्भव’ के 49वें अंक में अखिलेश साहित्य के समग्र प्रभाव की बात करते हैं। प्रसिद्ध रूसी कथाकार अंतोन चेखव की कहानी ‘ग्रीफ’ के उदाहरण के माध्यम से वे यह बताते हैं कि आखिरकार कोई रचना अपनी प्रस्तुति और प्रभाव में बड़ी क्यों हो जाती है। ‘ग्रीफ’ के मुख्य पात्र एक स्लेज ड्राइवर आयोना पोतापोवा की दुःखभरी कहानी को वे समाज से खत्म हो रही संवेदना के संदर्भ में व्याख्यायित करते हैं। पोतापोवा अपने बेटे की मृत्यु की पीड़ा को किसी से साझा करना चाहता है जिससे उसका दर्द कुछ कम हो सके। इस क्रम में वह कई लोगों को अपनी कहानी सुनाने की कोशिश करता है लेकिन कोई भी ठहरकर उसकी दुःखभरी कहानी सुनने को तैयार नहीं है। सहानुभूति के बजाय उसे लोगों से उपेक्षा ही मिलती है। अंत में निराश होकर वह एक घोड़े को अपना दर्द सुनाता है। समाज से खत्म हो रही संवेदना की इस भयावह स्थिति पर अखिलेश लिखते हैं, “हमारी पीड़ाओं में लोगों की दिलचस्पी नहीं रह गई है।... आज हर किसी इंसान के पास, और इंसान ही क्यों पहाड़ों, वनों, पार्कों, नदियों आदि के पास अपनी अपनी अनेक दुःखद कहानियां हैं। ये सभी कहानियां कही जा रही हैं, किंतु सुनी नहीं जा रही है।”9 और फिर वे साहित्य में अभिव्यक्ति के कौशल की बात करते हैं। संपादक के अनुसार अभिव्यक्ति संसार में अपरिहार्य है लेकिन कई बार कौशल के अभाव अथवा शक्ति केन्द्रों के भय आदि के कारण वे चुप लगा जाते हैं। साहित्य इन अभिव्यक्तियों को बिना किसी भावुकता के, बिना किसी रुदन या हाय-हाय के साधारण विवरणों के जरिये असाधारणता में प्रकट करता है। उसका लक्ष्य पाठक को रुलाना नहीं बल्कि बेचैन करना होता है। उसे स्तब्ध करना होता है। एक अच्छे और सच्चे साहित्य की यही पहचान है और यही उसे करना भी चाहिए। इसी तरह 8वें अंक के सम्पादकीय की शुरुआत अखिलेश धूमिल की कविता से करते हैं। तात्पर्य यह है कि अखिलेश का कलात्मक कौशल सम्पादकीय जैसी औपचारिक लेखनी को भी दिलचस्प और पठनीय बना देता है।
‘तद्भव’ में अखिलेश कई बार बड़े साफ शब्दों में राज्य के निरंकुश शासन की आलोचना करते हैं और यह होनी भी चाहिए। साहित्य को राजनीति के सदा आगे रहना चाहिए और अपने मंतव्य को स्पष्ट करना चाहिए। “कभी-कभी संपादक अपने विवेक द्वारा बताता है कि भविष्य में किस प्रकार के घटनाक्रम की आशा की जा सकती है। उस अवस्था में वह सतर्क भविष्य वक्ता होकर, समाज को जाग्रत करने के लिए प्रेरणा देता है। संपादक द्वारा लिखे गये ऐसे संपादकीय विशेष रूप से भाषा एवं तर्क शैली की दृष्टि से सशक्त हुआ करते हैं।”10 जुलाई, 2009 के सम्पादकीय में राज्य के दमनकारी चरित्र को उद्घाटित करते हुए अखिलेश लिखते हैं, “बहरहाल यह सपनों के विध्वंस का दौर है, महान सपनों का सृजन करने वाली स्वप्नगर्भा परिस्थितियों के सूनी होने का समय है, इसलिए हम राज्यविहीन समाज की चर्चा को विराम देते हुए महज इतना कहना चाहते हैं कि राज्य का विरोध करने वाली शक्तियां हमेशा रही हैं और आज भी हैं।”11 इस प्रक्रिया में वे साहित्य की जिम्मेदारी तय करते हुए यह लिखते हैं, “साहित्य की दुनिया में हमें राज्य की रणनीति, होशियारी को उजागर करना होगा। उसके दमन का प्रतिपक्ष बनना होगा। हमें राज्य की ताकत का शिकार बने उजड़े हुए, मिट रहे, बिछुड़े हुए, लथपथ हुए लोगों के पक्ष में खड़ा होना होगा।”12 साहित्य केवल मानव जीवन का द्रष्टा और लेखक नहीं है बल्कि वह उसकी आवाज, प्रेरणा और मार्गदर्शक भी है। राजनीति का मजबूत प्रतिपक्ष यदि कोई हो सकता है तो वह साहित्य ही है। ऐसे में संपादक अखिलेश एक सजग भविष्य वक्ता की तरह आगामी राजनीति के भविष्य और समाज में साहित्य की जिम्मेदारी पर बात करते हैं। इसके ठीक तेरह साल बाद राजनीति का दमनकारी चरित्र और भी चिंताजनक रूप में संपादक के सामने आता है और इस बार वह फैसला लेने का हक साहित्य के कलमकारों के हाथ में छोड़ता है। ‘तद्भव’ के जनवरी, 2023 के अंक में अखिलेश का कथन है, “इन दिनों जब आगत की आहटों पर हम ध्यान देते हैं तो आसार अच्छे नहीं दिखते। बहुत सारी अप्रिय और आक्रामक आवाजों, दृश्यों का उपद्रव करीब आता हुआ महसूस होता है। इसी के समानांतर प्रतिरोध की गतिविधियों की हलचलें भी मुकाबिल मिलती हैं। अब यह लेखक को फैसला लेना होगा, वह सत्ता तंत्र के साथ है या उससे निरपेक्ष है अथवा वह उसके साथ भी और विरुद्ध भी का दोमुंहा रिश्ता रखने में यकीन रखता है? या इन सबसे भिन्न वह पूरी तरह उसके विरुद्ध है।”13 जब राजनीति ने हर प्रकार की विरोधी ताकतों को प्रलोभन के जाल में फांस लिया हो ऐसे में बुद्धिजीवी-साहित्यकार उससे अछूते रह जाएं यह कहना कठिन है। संभवतः इसी कारण संपादक उचित-अनुचित के निर्णय का विवेक इस बार स्वयं लेखक पर छोड़ता है।
‘तद्भव’ ने साहित्य, समाज, राजनीति और संस्कृति आदि से जुड़े प्रमुख मुद्दों को सम्पादकीय में पूरी मुखरता के साथ उठाया है। पत्रिका के सम्पादकीय ने साहित्य और राजनीति, राजनीति और समाज, साहित्य और समाज, भाषा और साहित्य, समाज और संस्कृति के रिश्तों को न केवल स्पष्ट किया है, बल्कि एक बेबाक वैचारिकी द्वारा उसे दिशा देने का काम भी किया है। संपादक का दृष्टिकोण इन सम्पादकीय लेखों में बिना किसी लब्बोलुआब के बेहद साफ नजर आता है। अप्रैल, 2014 के सम्पादकीय की शुरुआत अखिलेश अप्रैल, 1936 में लाहौर में आयोजित आर्य समाज के भाषा सम्मेलन में प्रेमचंद के उद्बोधन में व्यक्त इस कथन से करते हैं, “साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं, उसके आगे चलने वाला एडवांस गार्ड है। वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति और कुरुचि से होता है।”14 और फिर वे समकालीन समय में राजनीति के चरित्र के बरक्स साहित्य का राजनीति से संबंध को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “मुश्किल साहित्य के ‘राजनीति के पीछे चलने वाली चीज’ नहीं होने में नहीं है, बल्कि आगे चलने वाला ‘एडवांस गार्ड’ और ‘आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई’ बनने में है।... यहां साहित्य के राजनीति से संलग्न अथवा विच्छिन्न होने की बात नहीं कही गयी है बल्कि आशय यह है कि राजनीति से वाबस्ता होते हुए भी साहित्य राजनीति के अधीन नहीं है।... राजनीति को अपने वक्त की शक्ति संरचना के रूप में ग्रहण करना चाहिए और उसके सत्य को उद्घाटित करने के लिए एडवांस गार्ड बनना पड़े या मशाल दिखानी हो, जो भी बन पड़े, करे। खुद प्रेमचंद का साहित्य लोक इस बात का साक्ष्य है कि उन्होंने अपने वक्त की समस्त शक्ति संरचनाओं को चुनौती दी थी।”15
समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले कथाकार अखिलेश अपनी रचना और अपने संपादन में पक्षधर हैं। उनकी पक्षधरता उस असमानता, अप-संस्कृति, दमन और अन्याय के खिलाफ है जो मनुष्य से उसकी कुदरती विशेषता सोचने-समझने की क्षमता का हरण कर उसे महज टाइप में तब्दील करती है। जनता और उसके सरोकार अखिलेश के लिए सबसे ऊपर हैं और इसकी रक्षा के लिए वे सत्ता की कटु आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटते। यही कारण है कि न केवल उनकी कहानियों बल्कि ‘तद्भव’ में भी उनकी स्पष्ट वैचारिक दृष्टि दिखाई पड़ती है। अखिलेश ने केवल साहित्यिक सरोकारों और चर्चाओं पर ही नहीं बल्कि समकालीन राजनीति, सांप्रदायिकता, हिंसा, वैश्विक हलचलों और चुनौतियों पर भी खुल कर लेखनी चलायी है। वर्ष 2002 की शुरुआत में गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। बदले की भावना से प्रेरित समुदाय विशेष के प्रति भड़की इस हिंसा को राज्य के समर्थन से जोड़कर देखा गया। इस धर्मांधता में सांप्रदायिक ताकतों ने प्रसिद्ध उर्दू कवि और ग़ज़लकार वली दकनी की अहमदाबाद स्थित मजार को भी नहीं छोड़ा और उसे तहस-नहस कर दिया। वडोदरा में महान शास्त्रीय गायक फैयाज अली खां के मकबरे को ढहा दिया गया। इस स्थिति पर ‘बनास जन’ के जनवरी-जून, 2015 के विशेषांक में प्रकाशित अपने लेख में राकेश ने अखिलेश के सम्पादकीय के उदाहरण के माध्यम से उनकी चिंता को सामने रखा है। अखिलेश ‘तद्भव’ के अप्रैल, 2002 के सम्पादकीय में लिखते हैं, “सांप्रदायिक ताकतें साहित्य, कला-संस्कृति के लोगों को निशाना बनाती हैं। साम्प्रदायिकता मनुष्य को संवेदनहीन, कट्टर और अमानवीय बनाती है। जबकि कला, साहित्य इसका प्रतिलोम रचते हैं।”16 आगे जनवरी, 2004 के सम्पादकीय में वे राजनीति के सामंतवादी चरित्र और पूंजीवाद से उसके गठजोड़ पर निशाना साधते हैं - “भाजपा, संघ, विश्व हिंदू परिषद आदिम बर्बरता और निर्मम उत्तर-आधुनिकता दोनों के विचित्र किंतु स्वाभाविक मिलाप से अपने को सुदृढ़ कर रही है। पूंजीवाद सामंतवाद से गठजोड़ करके पनपा है और अब उत्तर-पूंजीवाद खूंखार सामंतवाद से ब्याह रचा रहा है।”17 अक्तूबर 2013 के 28वें अंक के सम्पादकीय में अच्छे-बुरे, दया-क्रूरता, संवेदनशीलता-संवेदनहीनता, अहिंसा-हिंसा, प्रेम-घृणा जैसी तमाम अवधारणाओं पर अखिलेश की सम्पादकीय दृष्टि को राकेश अपने लेख में दर्ज करते हैं और यह बताते हैं कि अखिलेश न केवल अपने समय की हिंसा का बारीक विश्लेषण करते हैं बल्कि अपने सम्पादकीय के माध्यम से ऐसे कठिन समय में साहित्य की जिम्मेदारी भी तय करते हैं - “इतिहास साबित करता है कि साम्राज्यवादी या पूंजीवादी दमन की शक्ति पर निर्मित कोई भी सामाजिक व्यवस्था अन्ततः समस्याग्रस्त होती है साथ ही यह भी कि हिंसा उसका स्थायी उत्पाद होती है। इसी तरह हम यह कह सकते हैं कि अनैतिक, अपवित्र और आपराधिक तरीके से अर्जित की गयी सम्पन्नता भी आत्मा को दागी बनाने का काम करती है। अब जैसे-जैसे अमेरिका और अमीरी का जयघोष चतुर्दिक व्यापक और प्रगाढ़ होता जा रहा है वैसे-वैसे हिंसा की शक्तियां बेखौफ हो रही हैं। ... दुनिया को पतन के गर्त में ढकेलना निश्चय ही हिंसा का वीभत्सतम रूप है लेकिन इस कार्रवाई पर चुपचाप बैठे रहना और प्रतिरोध की आवाजों का न उठना भी एक प्रकार की हिंसा है। कहना न होगा कि जबसे दुनिया ने विचारों को विदाई देने की रस्म चलाई है दोनों प्रकार की हिंसा में भारी उछाल आया है ...भावावेश माना जा सकता है, इसका खतरा उठाते हुए भी कहना पड़ेगा कि उपरोक्त परिदृश्य में जो साहित्य रचा जा रहा है उसमें यदि अपने वक्त की छवियां और विरोध के स्वर नहीं हैं और वह जन-निरपेक्ष होकर शब्द क्रीड़ा कर रहा है तो इसे भी सामाजिक और आपराधिक हिंसा की कोटि में रखा जाना चाहिए।”18 आज दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी हुई है। इस बारूद में कब एक चिंगारी से विस्फोट हो जाए और मनुष्यता लहूलुहान हो जाए इसका खतरा और डर बराबर बना हुआ है। सहनशीलता अब खत्म हो रही है। ऐसे में साहित्य की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि वह आगे बढ़ कर और खुल कर इसका विरोध करे। साहित्य को क्रांति की मशाल बनने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है।
स्वतंत्रता सबसे बड़ी नेमत है किंतु युद्ध के समय सबसे पहले इसे ही कुचला जाता है। बेड़ियों में जकड़ा व्यक्ति या समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता। एक स्वस्थ और विकसित समाज के निर्माण में वहां के बाशिंदों का स्वतंत्रता का अधिकार मूल कारण है। जुलाई, 2007 के अंक में सन् 1857 की 150वीं जयंती के अवसर पर अखिलेश स्वतंत्रता के महत्व पर बात करते हुए आज के समय के नये चलन छद्म स्वतंत्रता की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं जिसमें बाजार या सत्ता, स्वतंत्रता का मायाजाल दिखाकर एक नये तरह की गुलामी में हमें कैद कर रही है। इस सच्चाई की ओर हमारा ध्यान ले जाते हुए अखिलेश कहते हैं, “एक सच्चाई यह भी है कि कई बार गुलामी स्वतंत्रता का मुखौटा पहनकर आती है। रीतिकालीन स्त्री हो या स्वतंत्र होने का भ्रम रचती समकालीन स्त्री दोनों ही एक बंधन से मुक्ति हासिल करके दूसरे प्रकार की गिरफ्त में गमन कर जाती हैं। इसी तरह आज के उपभोक्ता समाज के विज्ञापनों और भूमंडलीकरण के प्रवक्ताओं की व्याख्याओं का विखंडन करें तो देखा जा सकता है कि स्वतंत्रता की उपलब्धि से लबालब बिम्बों के पीछे मनुष्य को नये प्रकार की गुलामी में जकड़ने की परियोजना काम कर रही है। हमेशा सत्ता यही करती रही है – गुलामी जब इतनी असह्य हो जाये कि लोग बिलबिलाकर निर्णायक विरोध में खड़े हो जाने वाले हों तो उन्हें उससे मुक्त होने देकर दासता के नवीन जाल में फंसा दिया जाता है।”19 स्वतंत्रता आंतरिक और बाह्य दोनों रूपों में जरूरी है। स्वतंत्रता की समग्रता इसी में है। इस बात को स्पष्ट करते हुए अखिलेश कहते हैं, “वस्तुतः स्वतंत्रता एक परिपूर्ण बोध है। यह वास्तविक रूप में तभी संभव है जब भीतर और बाहर समग्र रूप में हो। यदि किसी मनुष्य के बाहर का परिवेश स्वतंत्रता की अनुभूति कराने वाला हो किंतु वह दिल-/दिमाग से स्वतंत्र नहीं है तो वह कदापि स्वतंत्र नहीं कहलाएगा। इसकी उलटी प्रक्रिया को लेकर भी यही बात कही जा सकती है। इसी तरह हम कह सकते हैं कि वह समाज या वह राष्ट्र कभी सच्चे अर्थ में स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता जिसके व्यक्तियों का छोटा या बड़ा समुदाय किसी न किसी रूप में पराधीन हो, उसी तरह जैसे कोई समाज या राष्ट्र परतंत्र है तो उसका व्यक्ति चाहे जितना स्वयं को स्वतंत्र मानता हो, होता नहीं है। यहीं पर भारतीय आजादी का मिथक और भारत में दिग्विजय पर निकले भूमंडलीकरण से हासिल स्वतंत्रता का मिथक ध्वस्त होता है।”20 सत्ता और विश्व बाजार द्वारा केवल वोटर या ग्राहक में तब्दील होता जा रहा मनुष्य किस प्रकार अपनी स्वतंत्रता के हनन से अनजान है इस ओर अखिलेश बड़ी बारीकी से हमारा ध्यान खींचते हैं।
निष्कर्ष : ‘तद्भव’ और अखिलेश के सम्पादकीय योगदान को यदि समग्र रूप में देखें तो यह केवल ‘तद्भव’ की वैचारिक पहचान भर नहीं है बल्कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के लिए भी एक मानक रचती है। अखिलेश की संपादकीय दृष्टि ने ‘तद्भव’ को हिन्दी साहित्य जगत में एक नई पहचान दी है। अखिलेश की सम्पादकीय कुशलता, विषय चयन और प्रभावपूर्ण प्रस्तुति के रूप में न केवल ‘तद्भव’ के सम्पादकीय बल्कि उत्कृष्ट सामग्री चयन के रूप में संपूर्ण पत्रिका में दिखाई देती है। ‘तद्भव’ में आरंभ से ही उच्च कोटि की साहित्यिक सामग्री प्रकाशित होती रही है। संपादक ने कभी भी इससे समझौता नहीं किया। उन्होंने अपने विरोधियों की उत्कृष्ट रचना को छापने अथवा अपने करीबियों की औसत रचना को इनकार करने में कभी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। यही नहीं कई नए रचनाकारों को भी ‘तद्भव’ ने मंच दिया। पत्रिका के सम्पादकीय पृष्ठ इसके पाठकों के लिए अलग आकर्षण रखते हैं। स्पष्ट वैचारिक दृष्टि, समय की नब्ज पर पकड़ और साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता वह विशेषताएं हैं जो ‘तद्भव’ के सम्पादकीय को लंबे समय तक याद किए जाने का कारण बनती हैं। अपने साहसी तेवर और निष्पक्षता के चलते ‘तद्भव’ की सम्पादकीय दृष्टि में वही जीवंतता और प्रतिबद्धता बनाए रखने की संभावना है, बशर्ते यह संवाद और असहमति दोनों के लिए समान रूप से खुला मंच बना रहे।
संदर्भ :
- अखिलेश. सदी के अंत में एक प्रारंभ (संपादकीय). तद्भव, मार्च, 1999, अंक-1
- संपादकीय. तद्भव, अप्रैल, 2001, अंक-5
- संपादकीय. तद्भव, अक्टूबर, 2002, अंक-8
- वही
- डॉ. ठाकुरदत्त शर्मा ‘आलोक’ : हिन्दी पत्रकारिता एवं जनसंचार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 85
- संपादकीय. तद्भव, जनवरी, 2024, अंक-48
- संपादकीय. तद्भव, अक्टूबर, 2015, अंक-32
- डॉ. ठाकुरदत्त शर्मा ‘आलोक’ : हिन्दी पत्रकारिता एवं जनसंचार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 84
- संपादकीय. तद्भव, जुलाई, 2025, अंक-49
- डॉ. रामचंद्र तिवारी : पत्रिका संपादन कला, आलेख प्रकाशन, दिल्ली, 1977, पृष्ठ 66
- संपादकीय. तद्भव, जुलाई, 2009, अंक-20
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- संपादकीय. तद्भव, जनवरी, 2023, अंक-46
- संपादकीय. तद्भव, अप्रैल, 2014, अंक-29
- वही
- राकेश : ‘तद्भव के संपादकीय आलेखों के बहाने अखिलेश’ (लेख). बनास जन : आख्यान में अखिलेश, सं. – राजीव कुमार, जनवरी-जून, 2015, अंक (विशेषांक) -11, पृष्ठ 195-196
- वही
- वही
- संपादकीय. तद्भव, जुलाई, 2007, अंक-16
- वही
जूही त्रिपाठी
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश- 221005
tripathijuhi83@gmail.com
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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