शोध आलेख : लोक देवता वीर तेजाजी : जीवन मूल्य / शिम्भुराम

लोक देवता वीर तेजाजी : जीवन मूल्य
- शिम्भुराम

शोध सार : जीवन मूल्य मानव समाज की सभ्यता व संस्कृति के परिचायक तत्व हैं। भारतीय दर्शन में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ऐसे जीवन मूल्य हैं जिनमें सभी जीवन मूल्यों का समाहार किया गया है। भारतीय लोक परम्परा में लोक देवता केवल धार्मिक श्रद्धा के केन्द्र नहीं होते, बल्कि वे सामाजिक चेतना के जीवंत प्रतीक भी होते हैं। राजस्थान के प्राचीन लोक मानस में वीर तेजाजी का स्थान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे न केवल एक वीर योद्धा के रूप में याद किए जाते हैं, वरन् एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिन्होंने वचन पालन, धर्मनिष्ठा, नारी सम्मान, पारिवारिक उत्तरदायित्व एवं प्राणीमात्र के प्रति करुणा जैसे जीवन मूल्यों को मूर्त रूप प्रदान किया है। वीर तेजाजी द्वारा वचन निभाने हेतु घायल अवस्था में भी नाग देवता के समक्ष उपस्थित होना प्रतिज्ञा-पालन की पराकाष्ठा को दर्शाता है। लोक गाथा के अनुसार तेजाजी ने गौ माता के रक्षण के लिए ही अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

बीज शब्द : लोक देवता, तेजाजी, लोक साहित्य, लोक गाथा, सिलोका, जीवन मूल्य, वचन पालन, धर्मनिष्ठा, गौरक्षा, नारी सम्मान, वीर योद्धा, नाग देव, बांबी, सर्पदंश, लीलण, पेमल, लाछां गूजरी।

मूल आलेख : जीवन मूल्यों से तात्पर्य उन सिद्धांतों व विश्वासों से है जो हमारे जीवन को निर्देषित करते हैं। ये हमारे जीवन को दिशा व उद्देश्य प्रदान करते हैं। जीवन मूल्य मानव समाज की सभ्यता और संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाले महत्त्वपूर्ण आधार हैं। किसी भी समाज की उन्नति उसके जीवन मूल्यों पर ही आधारित होती है। सभी जीवन मूल्य अंततः मानव कल्याण की भावना से जुड़े होते हैं। जीवन मूल्यों का मूल उद्देश्य मानव जीवन को संयमित और व्यवस्थित कर सुखद परिणति करना है।

भारतीय दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ऐसे प्रमुख जीवन मूल्य हैं, जिनमें समस्त जीवन मूल्यों की सार्थक अभिव्यक्ति समाई हुई है। धर्म में सामाजिक और नैतिक मूल्य समाहित हैं। अर्थ का संबंध भौतिक मूल्यों से है। काम में सौंदर्य और कला संबंधी मूल्य समाहित हैं। मोक्ष में आध्यात्मिक मूल्य आ जाते हैं। जीवन मूल्य हमारी संस्कृति के संवाहक तत्व हैं। ये व्यक्ति के व्यक्तित्व को चरितार्थ करते हैं।

भारतीय लोक परंपरा में लोक देवता मात्र धार्मिक आस्था व पूजा-आराधना के विषय नहीं, बल्कि वे सामाजिक चेतना के सशक्त प्रतीक हैं। राजस्थान की लोक परंपराओं में वीर तेजाजी का स्थान अत्यंत सम्माननीय रहा है। वे केवल रणभूमि के वीर नहीं, बल्कि लोकजीवन के आदर्श पुरुष के रूप में पूजे जाते हैं। तेजाजी का व्यक्तित्व वचनबद्धता, धर्मनिष्ठा, नारी के प्रति आदर सम्मान, परिवार के प्रति उत्तरदायित्व और प्राणी मात्र के प्रति प्रेम व करुणा जैसे जीवन मूल्यों का सजीव प्रतीक हैं। घायल अवस्था में भी नागदेवता के समक्ष वचन निभाने के लिए पहुँचना उनकी सत्यनिष्ठा और प्रतिज्ञा-पालन की अटल भावना का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। लोक देवता वीर तेजाजी का लोक जीवन में स्थान केवल चमत्कारी रक्षक का नहीं, अपितु नैतिक आदर्शों के सगुण मूर्त रूप का है।

लोक साहित्य के आधार पर लोक देवता वीर तेजाजी के जीवन मूल्यों का निरूपण निम्नानुसार कर सकते हैं-

वचन पालन :

वचन का शाब्दिक अर्थ है ‘शब्द’ या ‘प्रतिज्ञा’ और पालन का शाब्दिक अर्थ है ‘निभाना’ या ‘पूरा करना’। दूसरे शब्दों में वचन पालन का अर्थ अपने दिए हुए शब्द या किये गये वादे को निभाने से है। भारतीय संस्कृति और दर्शन में इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण जीवन मूल्य माना गया है।

असाधारण व्यक्ति एक बार वचन देकर पीछे हटना अपना अपमान समझते हैं। उन्हें प्राण देकर भी वचन पालन प्रिय होता है। इसी कारण लोक को तेजाजी में देवता जैसा आदर्श दिखाई देता है। लोक देवता वीर तेजाजी संबंधी लोक साहित्य कहता है कि तेजाजी ने नाग देवता को वचन दिया था कि गौरक्षा के उपरांत वे स्वयं को विषदंश के लिए उनके समक्ष प्रस्तुत करेंगे। वे मीणाओं से युद्ध में बुरी तरह से घायल होने के बाद भी वचन पालन हेतु लौटे।

‘‘बांचा थे तो देय पधारो रै लीलण वाळा
बांचा रा बांध्या बांबी पर आवज्यौ’’[1]

अर्थात् सर्प तेजाजी को कहता है कि तुम वचन देकर जाओ कि लाछां गूजरी की गायों को मीणाओं से छुड़ाने के बाद वापस बांबी पर आओगे।

‘‘आयी ज्यूं ही पाछी घिरज्या अे लीली रेंवत
बचनां का बंध्योड़ा बांबी चालस्यां’’[2]

अर्थात् तेजाजी निःस्वार्थ भाव से एक सर्प को दिये अपने वचन को निभाने के लिए लाछां गूजरी की गायों को मीणाओं से छुड़ाकर वापस सर्प की बांबी पर जाते हैं। वीर तेजाजी लीलण घोड़ी को कहते हैं कि अब जैसे आई हो, वैसे ही वापस मुड़ जाओ और अब वापस बांबी पर चलो, तेजा वचनो का बँधा हुआ बांबी पर जायेगा।

‘‘सूतो है तो नाग जगावो अे भोळी नागण
बचनां को बंध्यो बंबी आयगो’’[3]

अर्थात् वीर तेजाजी नाग की बांबी पर पहुँचकर नागदेव का आह्वान करते हैं और नागिन से कहते हैं कि यदि नाग सो रहा है तो उसे जगाओ तथा कहो कि वचनो का बँधा हुआ तेजा बांबी पर आ पहुँचा है।

‘‘आयो ज्यूं ही पाछो घिरज्या रै कंवर तेजा
कुळ में कहीजै तूं धोळ्यो अेकलो’’[4]

अर्थात् नाग बांबी से बाहर निकलकर आता है और तेजाजी से कहता है कि तुम जैसे आए हो वैसे ही वापस चले जाओ, तुम अपने धोलिया कुल में अकेले हो।

नाग अपनी बांबी से बाहर आते हैं और तेजाजी से कहते हैं कि- हे तेजा! मैं तेरे वचन निभाने की प्रतिज्ञा से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। मैं तुझे अभयदान देता हूँ। तेजाजी ने कहा कि- ‘‘है नागदेव! तुम अपना वचन निभाओ। मेरा धर्म का कार्य पूरा हुआ।

‘‘कठै थांके डंक भरूं रै कंवर तेजा
कठै घालूं थांकै बेसणूं’’[5]

अर्थात् नाग कहते हैं कि- हे तेजा! तेरी तो नस-नस फूट पड़ी है। तेरे रोम-रोम से खून टपक रहा है। मैं कहाँ डसूँ। मेरा कुँवारी जगह पर डसने का प्रण है। मैं अपना प्रण नहीं तोड़ सकता हूँ।’’

‘‘हाथ में हथाळी कुंवारी रै बासग देवता
मूंडे में जीभ कुंवारी
मुख से म्हारै डंक भरो रै बासग देवता
लीलण के हाने घालो बेसणा’’[6]

अर्थात् तेजाजी ने अपने हाथों की हथेलियाँ, पैरों की पगतलियाँ तथा मुँह से जीभ निकाल कर दिखाई और कहा कि यह कुँवारी जगह है। हे नागदेव! डस लीजिए और मुझे अपना वचन निभाने दीजिए।

लोक में प्रचलित तेजाजी का सिलोका में भी उनकी वचनबद्धता का उल्लेख मिलता है-

‘‘कोल तणौ भारत हुयौ, गायां लायौ तेज।
बचना बंध्यौ बाम्बी जावसूं, घड़ी पळ री नीं जेज।।
भालो रोपियो सूरमो, बाम्बी ऊपर जाय।
टप-टप झरै लोईड़ौ, काळौ किणविण खाय।।’’[7]

तेजाजी ने अपना भाला जमीन पर लगाया। लीलण ने अपना एक पैर ऊपर उठाया। नागदेव ही लीलण के पैर के लपेटा लगाते हुए भाले का सहारा लेकर ऊपर चढ़ता है। तेजाजी अपनी जीभ बाहर निकालते हैं और नागदेव तेजाजी की जीभ पर डसते हैं।

तेजाजी द्वारा वचन पालन की पुष्टि करते हुए मनसुख रणवां ‘मनु’ ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान के संत-शूरमा एवं लोक कथाएं’ में लिखा है कि रास्ते में बालू नाग को तेजाजी ने मरने से बचाया। नाग ने तेजाजी को डसना चाहा तो तेजाजी ने वचन दिया कि दुश्मन से गायों को छुड़वाकर वापस जरूर आऊँगा। तेजाजी गायों को छुड़वाकर वापस नागराज के पास आए तब नागराज ने तेजाजी के प्राण लेने में आनाकानी की तथा बोले, “तेजा! मैं तुम्हारी वीरता और ईमानदारी से प्रसन्न हूँ। मैंने पीढ़ी-पीढ़ी का वैर चुकता कर लिया है। तुम कुल के देवता कहलावोगे।”[8]

तेजाजी बोले, “नागराज! तुम कायर मत बनो। मैं वचनों से बँधा हूँ। मैं भिखारी नहीं हूँ। मुझे मेरा वचन पूरा करना है। तुम मेरी कुँवारी जीभ पर हमला कर दो।”[9]

नागराज ने कहा, “धन्य है तेजा तुम्हारे जन्मदाता। धन्य है तुम्हारी शूरवीरता और प्रण। आज कालिया हार गया और धौलिया जीत गया। आप देवता के रूप में पूजे जावोगे। सर्प का काटा हुआ और छोटे बालक को तेरी ताँती बाँधने से ठीक हो जायेगा। हल जोतते वक्त किसान तुम्हारा ही नाम लेगा। यह मेरी अमर आशीष है।”[10]

उपर्युक्त तथ्यों से यह पता चलता है कि लोक ने वचन पालन को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है और इसी कारण तेजाजी को लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।

वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व में वचन भंग की प्रवृत्ति कई समस्याओं की जननी है। आज घर, परिवार, समाज व राजनीति इत्यादि सभी जगहों पर यदि लोग तेजाजी की तरह अपने आदर्श, अपने वचन पर अडिग रहे तो अनेकानेक समस्याएं तो अपने आप ही समाप्त हो जायेगी। अतः आज हमें तेजाजी को अपना आदर्श मानकर उनके बताए मार्ग पर चलना चाहिए।

गौरक्षा :

भारतीय संस्कृति में गाय मातृ तुल्य है। कहा भी गया है- ‘‘गावोः विश्वस्य मातरः‘‘ अर्थात् गाय विश्व की माता है। इस कारण वह सम्माननीय व रक्षणीय है। गायों के रक्षार्थ अपने प्राण देना वीरों के लिए गौरव की बात रही है। राजस्थानी समाज में जहाँ ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा पशुपालन से जुड़ा हुआ हैं, यही कारण है कि राजस्थान के अधिकांश लोक देवी-देवताओं के लोक आख्यानों में जीव रक्षा, मवेशियों के लिए संघर्ष के आख्यान जुड़े हुए हैं।

लोक गाथा के अनुसार तेजाजी हर समय गौ माता की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने भी गौ-पालन व चारण तो किया ही था, साथ ही गौ माता के रक्षण के लिए ही अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

तेजाजी के सिलोका में उनके द्वारा गोचारण का उल्लेख आता है। यथा-

‘‘चटियो लीन्हो हाथ में, दड़यां खेलण जाय।
धोरां पर तो धामण घणूं, कंवर चरावो गाय।।’’[11]

अर्थात् तेजाजी बचपन में खेलने के साथ-साथ खेतों में गायों को चराने भी जाते थे।

डॉ. महीपालसिंह राठौड़़, डॉ. जयपालसिंह राठौड़ ने अपनी पुस्तक ‘लोक देवता तेजाजी’ में लिखा है कि जब लाछां गूजरी की गायें मीणा चुराकर ले जाते हैं, तब वह पुकार करती हुई तेजाजी के पास आती है और कहती है कि आप मेरी गायें मीणाओं से छुड़वाकर लाएं। लाछां गूजरी तेजाजी को आकर कहती हैं कि गायों की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है।

‘‘हिन्दू थारो धरम हट्यौ रै कंवर तेजा रै
गोरयां में अरड़ावै बाळक बाछड़ा’’[12]

अर्थात् गायों की रक्षा करना हिन्दू का धर्म है। गायों के छोटे बछडे़ दूध के लिए रम्भा रहे हैं।

मेवाड़ अंचल में प्रचलित तेजाजी की लोक गाथा में उल्लेख मिलता है कि तेजाजी माना गूजरी की गायें मीणाओं से छुड़ाने के लिए जाते हैं।

‘‘गायां म्हारी छोड़दो ओ मीणां ढेडां नीतर मारूंला अबकी मोत ओ।
पराई गायां के तेजल पूंचड़े मार्यो जावे क्यूं वन्ना मोत ओ।
पराई गायां मत जाणो रे बली का मीणा ई गायां म्हारो प्राण छे।
सूधी मती सूं गायां छोड़ दो मीणा ढेडां मार्यो जावोला नीतर बरड्या मांयने।’’[13]

अर्थात् चोरों ने तेजाजी से कहा कि- ‘पराई गायों के लिए वीर तुम क्यों अपनी जान गँवाते हो?’ तेजाजी बोले कि- ‘इन्हें तुम पराई न समझो। ये मेरी प्राण हैं, तुम इन्हें छोड़ दो अन्यथा मैं तुम्हें जीवित नहीं छोडूँगा।’ मीणा डर गये और उन्होंने गायें तेजाजी को सौंप दी।

‘‘गायां थारी गण गण संभालो ए हीरां गूजरी लायो म्हूं सगली छुड़ाय ओ।
गायां म्हारी सगली ले आया ओ जीजाजी म्हारा एक न लाया काण्यो केरड़ो।’’[14]

अर्थात् तेजाजी ने सारी गायें लाकर हीरा गूजरी को सौंप दी। गायें गिनकर हीरा गूजरी ने तेजाजी से कहा कि सारी गायें तो मिल गई हैं परन्तु एक काण्या केरड़ा वहीं रह गया है जिसे तुम्हें जाकर लाना पड़ेगा।

तेजाजी संबंधी मारवाड़, मेवाड़ व हाड़ौती अंचल में प्रचलित लोक गाथाओं को देखें तो कुछ असमानताओं के बावजूद सभी लोक गाथाओं में गौरक्षा एक महत्त्वपूर्ण जीवन मूल्य के रूप में उभरकर सामने आयी है।

इतिहास में अधिकांश लड़ाइयाँ जर, जोरू और जमीन को लेकर लड़ी गई लेकिन तेजाजी ने निःस्वार्थ भाव से गौरक्षा के लिए मीणाओं से युद्ध किया। इस देश में गोपालन आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। वर्तमान समय में समाज में गायों सहित सभी पशुओं की बहुत दुर्दशा हो रही है। यदि आज का समाज तेजाजी की गौरक्षा के आदर्श को अपना ले तो उनकी दुर्गति नहीं होगी।

वीरता :

वीरता शब्द उस स्थिति या भावना का परिचायक है जिसमें व्यक्ति में साहस, धैर्य, और बिना भय के कार्य करने की क्षमता होती है। दूसरें शब्दों में, वीरता तब होती है जब कोई व्यक्ति अपने डर को पराजित करके धीरज और पराक्रम दिखाता है। यह व्यक्ति के साहस को दर्शाता है, जो निर्भय होकर अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए खड़ा होता है।

वीरता केवल युद्ध और रणक्षेत्र तक सीमित नहीं है, यह दैनंदिन जीवन, सामाजिक बाधाओं और आत्मिक संघर्षों में भी हो सकती है। जब कोई व्यक्ति विशाल हृदय, निर्भयता, निष्ठा और कोई भी कठिनाई सहकर, उच्च आदर्शों का पालन करते हुए अडिग इरादे से आंतरिक व बाह्य बाधाओं का सामना करता है तब उस भाव को वीरता कहा जाता है।

“तू ही भी एकलो दीखै छै रै
खिलाड़ी तेजा तूई ऐकलोऽऽ
सांवत रै देखां मीणां भी घणां छै
ऐर घणां छै नै रै साढा ई कीजै तीन सौ तो,” आऽऽऽऽ[15]

अर्थात् मीणा, तेजाजी को कहते हैं कि तुम अकेले हो व हम साढा तीन सौ हैं, तुम युद्ध में मारे जाओगे इसलिए वापस चले जाओ।

लोक साहित्य में तेजाजी द्वारा अकेले ही लगभग 350 डाकुओं से लड़कर की गायों को वापस छुड़ाना वीरता को अलौकिक जीवन मूल्य के रूप में दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि वीरता न केवल समाज में आदर्श स्थापित करती है बल्कि सामाजिक बदलाव की प्रेरणा भी बनती है।

‘‘चिमटी तीर चलायो रै सांवत सूरमो
चोरां के आभा में चिमकी बीजळी’’[16]

अर्थात् तेजाजी ने अपना शस्त्र बीजल सार का भाला सम्भाल लिया। तेजाजी और मीणाओं में लड़ाई छिड़ गई। तेजाजी मीणाओं पर तीरों से हमला करते हैं। इस प्रकार लोक साहित्य केवल युद्ध कौशल का ही वर्णन नहीं करता, बल्कि नैतिक दृढ़ता, जन-हित में संघर्ष, स्वाभिमान की रक्षा हेतु प्राणोत्सर्ग की भावनाओं को भी दर्शाता है।

लोक साहित्य में वीरता केवल बाहरी लड़ाई का प्रतीक नहीं, बल्कि यह नैतिक आदर्श, जनहित, और आत्म‑समर्पण की भावना का प्रतिबिंब है। इस प्रकार, लोक साहित्य वीरता की भावना को जीवंत करता हुआ समाज को साहस, न्याय और मानवता की ओर प्रेरित करता है।

नारी सम्मान :

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात् जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं, यह दर्शाता है कि नारी सम्मान भारतीय संस्कृति की आत्मा है, जहाँ महिला का सम्मान सर्वोच्च माना जाता है। नारी सम्मान का भाव बहुत व्यापक है, यह केवल एक शब्द नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, समाज और व्यक्तिगत आचरण में नारी के प्रति आदर, मर्यादा और बड़प्पन दिखाने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

लोक साहित्य में भी नारी परिवार और समाज की धुरी है। नारी को न केवल माता के रूप में, बल्कि गृहिणी, बहन, भाभी और पत्नी के रूप में भी सम्मानित स्थान मिला है।

लोक साहित्य समाज के आदर्श और वास्तविक दोनों रूपों का प्रतिबिम्ब होता है। लोक साहित्य वास्तविक जीवन के भावों, कठोरताओं और सामाजिक मूल्यों को भी प्रतिबिंबित करता है। लोक साहित्य में यह संतुलन साफ दिखाई देता है, जहाँ एक ओर आदर्श चरित्र सामने आते हैं, वहीं सामाजिक विषमताएँ, आर्थिक कठिनाइयाँ और पारिवारिक संघर्ष भी नजर आते हैं।

लोक साहित्य के अनुसार तेजाजी के मन में नारी के प्रति सम्मान की भावना थी। असहाय नारी की सहायता करना, वह अपना धर्म मानते थे। तेजाजी ने लाछां गूजरी की गायें वापस दिलाकर असहाय की सहायता व नारी सम्मान दोनों कार्य एक साथ किये।

तेजाजी सभी नारियों के प्रति सद्भावना रखते थे। तेजाजी को उनकी माता जब पूछती है कि तेजा तुम्हें किसने ससुराल जाने की शिक्षा दी और किसने तुझे ताना मारा तब तेजाजी अपनी माता को कहते हैं कि साथियों ने मुुझे शिक्षा दी और भाभी ने ताना मारा है।

‘‘साथीड़ां की नार मरो रै जाया म्हारा
भावज को मरज्यौ रै मोबी डीकरो’’[17]

अर्थात् तेजाजी को उनकी माता उनसे कहती हैं कि तुम्हारे साथियों की पत्नी मरे और भाभी का बड़ा लड़का मृत्यु को प्राप्त हो।

‘‘साथ्यां की ओ माताजी म्हांकी बेल बदो ये माता जरणी अे
भावज को फळज्यो कड़वो नीम ज्यूं’’[18]

अर्थात् तेजाजी अपनी माता को कहते हैं कि मेरे साथियों की वंश वृद्धि हो और भाभी भी कड़वे नीम की तरह फले-फूले। इस प्रकार तेजाजी सभी नारियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करते हैं।

लोक देवता वीर तेजाजी द्वारा लाछां गूजरी की गायों की रक्षा का संकल्प नारी की संपत्ति और सम्मान की रक्षा के लिए जीवन समर्पित करने के आदर्श को प्रदर्शित करता है। तेजाजी की पत्नी पेमल का चरित्र भी लोक साहित्य में उज्ज्वल रूप से उपस्थित हुआ है। लाछां गूजरी के साथ उनके संवाद से यह स्पष्ट होता है कि तेजाजी के माध्यम से लोक साहित्य ने स्त्रियों को केवल पारिवारिक भूमिकाओं में नहीं, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित किया है।

तेजाजी जब बैल खरीदने मेले जाते हैं तब वह अपनी भाभी से पैसे माँगते हैं जो यह दर्शाता है कि उस समय परिवार में नारी का अर्थ पर अधिकार था। लोक साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि नारी परिवार की आर्थिक स्थिति पर अधिकार रखती थी। तेजाजी भाभी के पास जाकर मेले से बैल खरीदने के लिए रुपये माँगते हैं। भाभी तेजाजी को रोकड़ी रूपये निकाल कर दे देती है।

‘‘अ! रिप्या भी रोकड़ी दे री छै रैऽऽ
देवर थारी भाभी रिप्या
देवर्या देखां मैळा का लावो नै
अर लावो नै रै, मारू भी कीजै कैरड़ा, अराऽऽऽऽ’’[19]

अर्थात् तेजाजी की भाभी उनसे कहती है कि मैं तुम्हें रोकड़ी रुपये दे रही हूँ। तुम मेले से बैल खरीदकर लाना।

समाज में हम देखते हैं कि नारी की स्वतंत्रता में नारी ही विरोधी है। तेजाजी संबंधी लोक साहित्य में लोक का यह रूप निम्न उदाहरण द्वारा प्रतिबिंबित होता है।

“सासुड़ी म्हारी भी दुत्यारी रै
बीराओं म्हारी सासूड़ी दुत्यारी वांऽऽ
बीराजी म्हारा नणद दूतली
ऐर दूतली नै रै परण्या सूं दूती खावैगी,” आऽऽऽऽ[20]

अर्थात् राधा तेजाजी को कहती है कि उसकी सास उसे बहुत कष्ट देती है तथा ननद उसके पति से उसकी बुराई करती है।

इस प्रकार तेजाजी संबंधी लोक साहित्य में नारी सम्मान के विविध रूप मिलते हैं परन्तु लोक जीवन में घुले-मिले होने व समय के साथ परिवर्तनशील होने के कारण इनमें नारी जीवन का व्यावहारिक रूप भी दिखाई देता है।

न्याय व धर्म की प्रतिष्ठा :

धर्म मूल्यों व नैतिक सिद्धांतों का एक ऐसा ढांचा है जो व्यक्ति को अपने कर्मों और व्यवहार में निर्देशित करता है। न्याय एक निष्पक्ष प्रणाली है जो अधिकारों और समान व्यवहार की गारंटी देती है। धर्म और न्याय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। धर्म मूल्यों और नैतिक सिद्धांतों को प्रदान करता है जो न्याय की नींव बनाते हैं। न्याय धर्म के सिद्धांतों को लागू करके, लोक जीवन में व्यवस्था और सद्भाव बनाए रखता है।

लोक देवता वीर तेजाजी ने समाज में न्याय और धर्म की प्रतिष्ठा की। तेजाजी ने निःस्वार्थ भाव से लाछां गूजरी की गायें छुड़ाने के लिए मीणाओं से युद्ध कर धर्म की रक्षा की और न्याय की प्रतिष्ठा की। मीणाओं के दल का सरदार कालिया मीणा जब तेजाजी से कहता है कि यह गायें तुम्हारी नहीं है और लाछां गूजरी की गायों को लेकर तुम अपना जीवन क्यों खतरे में डाल रहे हो, तब तेजाजी जवाब देते हैं कि प्रश्न अपनी व परायी गायों को लेकर स्वार्थ का नहीं है बल्कि प्रश्न तो न्याय और अन्याय को लेकर है। मेरा जीवन रहे या न रहे पर मेरे रहते तुम्हें अन्याय नहीं करने दूँगा। यथा-

‘‘गायां म्हारी छोड़दो ओ मीणा ढेडां नीतर मारूंला अबकी मोत
पराई गायां के तेजल पूंचडे मार्यो जावे क्यूं वन्ना मोती ओ
पराई गायां मत जाणो रे बली का मीणा ई गायां म्हारो प्राण छे।‘‘[21]

अर्थात् तेजाजी मीणाओं से कहते है कि तुम मेरी गायों को छोड़ दो नहीं तो मारे जाओगे। मीणा उन्हें कहते हैं कि दूसरों की गायों को लिए तुम क्यों अपनी जान दे रहे हो, तब वह जवाब देते हैं कि गायों को दूसरों की मत जानो, वह तो मेरे प्राण हैं।

मारवाड़ अंचल में प्रचलित तेजाजी लोक गाथा में उल्लेख मिलता है कि जब लाछां गूजरी की गायें मीणा चुराकर ले जाते हैं, तब वह पुकार करती हुई तेजाजी के पास आती है और कहती है कि आप मेरी गायें मीणाओं से छुड़वाकर लावें, गायों की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। यथा-

‘‘हिन्दू थारो धरम हट्यौ रै कंवर तेजा रै
गोरयां में अरड़ावै बाळक बाछड़ा’’[22]

अर्थात् गायों की रक्षा करना हिन्दू का धर्म है। यदि तुम गायों को नहीं लाते हो तो तुम्हारे धर्म की हानि होगी। गायों के छोटे बछडे़ दूध के लिए रम्भा रहे हैं।

लोक मान्यता के अनुसार नाग देवता द्वारा अंततः तेजाजी को अमरत्व का वरदान देना धर्म की विजय का प्रतीक माना जाता है।

“काळा को खायो भी ऊगलै रै
ऊतारी तेजा काळा को खायोऽऽ’’[23]

अर्थात् नाग देवता तेजाजी को वरदान देते हैं कि तुम्हारे नाम से साँप के जहर का असर नहीं होगा व जहर से मुक्ति मिलेगी।

लोक संस्कृति ने लोक साहित्य के माध्यम से तेजाजी का जीवन, धर्म और सामाजिक न्याय के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित किया है। अतः उनके जीवन-मूल्य न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व रखते हैं, अपितु समकालीन सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होते हैं।

प्राणी मात्र के प्रति प्रेम :

मनसुख रणवां ‘मनु’ ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान के संत-शूरमा एवं लोक कथाएं’ में लिखा है कि ‘‘जेठ का महीना था। प्रदेश में बरसात हो गई। सवेरे-सवेरे तेजाजी की माँ ने तेजाजी से हलोत्या करने को कहा। माता की आज्ञा का पालन कर तेजाजी ने बैलों के संग हल, बीजणा-बीजू, रास-पिराणी लिए और खेत में लंबी आवड़ी लेकर बाजरा बीजना शुरू कर दिया। तेजाजी ने स्यावड़ माता से प्राणीमात्र का पेट भरने के लिए धान माँगा जो प्रजा प्रेम, प्राणी प्रेम का प्रतीक है।’’

लोक साहित्य में तेजाजी हमेशा अपनी घोड़ी को पहले खिलाकर ही स्वयं बाद में भोजन करते थे जो उनके पशु प्रेम को दर्शाता है। यथा-

‘‘पेली कांसो घोड़ी के परूसो माना गूजरी पछे अरोगां फलका थारा पातला।’’[24]

लोक में प्रचलित जीव मात्र के प्रति दया का भाव, गाय को माता मानने का भाव तेजाजी संबंधी लोक साहित्य में देखा जा सकता है। गौ माता के लिए ही तेजाजी ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उनका अपने बैलों व लीलण घोड़ी से अत्यधिक स्नेह था। तेजाजी ने अग्नि में जलते हुए सर्प को देखा तो उसे भाले की नोक से अग्नि से बाहर निकालते हैं।

हाड़ौती अंचल में प्रचलित तेजाजी लोक गाथा में उल्लेख मिलता है कि जब पनिहारिनें पानी छानकर तेजाजी को पिलाने के लिए लाती हैं तब तेजाजी उन्हें पहले घोड़ी व बैलों को पानी पिलाने का कहते हैं।

“पहली भी घोड़ी नै पादी ज्यै रै
पणग्यारी म्हारी पहली भी धोळ्यां नै
बियांण म्हारी धोळ्या तसाया
बियांण म्हारी घोड़ी तसाई
ऐर तसाई नै रै आगी पंण पणघट बावड्या पै,” आऽऽऽऽ[25]

घोड़ी व बैलों के पानी पी लेने के पश्चात तेजाजी भी पानी पीते हैं। यथा-

ओ! “पैहली तू घोड़ी नै पवावो रीऽऽ
साळा की हेली पैहली घोड़ी नै
पणग्यांराओ ओ री पाछी पीवूंगों
अरी पीवूगों री, जळ भी थांका हाथ को,” अराऽऽऽऽ[26]

यह उनके पशु प्रेम को दर्शाता है।

तेजा गाथा में कई जगह पशुओं के प्रति आदर व प्रेम भाव दिखाई देता है। आज भी गांवों में पशुओं के प्रति इस प्रकार की भावना दिखाई देती है। दिपावली पर्व पर गाय-बैलों की पूजा तथा पशुओं को समर्पित गोवर्धन पूजा इसका एक उदाहरण है।

निष्कर्ष : राजस्थान के ग्रामीण समाज में लोक देवता वीर तेजाजी की प्रतिष्ठा केवल धर्म या चमत्कार के आधारों पर नहीं टिकी हुई है, अपितु वे नैतिक अनुशासन, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं धर्मपालन के प्रतीक रूप में लोकमानस में गहरे स्थापित हैं। वीर तेजाजी केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं हैं, वे लोक मानस के आदर्श हैं, जो जीवन-मूल्यों के मूर्त रूप में समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं। अतः स्पष्ट है कि वीर तेजाजी का लोक जीवन में स्थान केवल एक लोक देवता का नहीं, अपितु नैतिक संहिता के जीवंत उदाहरण का है।

समकालीन संदर्भ में, जब समाज उत्तरदायित्वविहीनता, संकल्पहीनता एवं स्वार्थवृत्ति की ओर अग्रसर हो रहा है, तब लोक साहित्य का यह मूल्यबोध एक सशक्त आदर्श प्रस्तुत करता है। आज जब समाज सांप्रदायिक तनाव, स्त्री अत्याचार, प्रकृति से विमुखता एवं वचनहीनता की ओर अग्रसर है, ऐसे समय में लोक साहित्य तेजाजी के जीवन गाथा से यह बोध कराता है कि केवल सत्ता या बल के द्वारा ही नहीं, अपितु सत्य, करुणा, धर्म एवं निष्ठा के द्वारा ही समाज का वास्तविक कल्याण संभव है। लोक साहित्य में तेजाजी के जीवन से प्रकट होने वाले शाश्वत जीवन मूल्य जैसे- वचनबद्धता, गौरक्षा, नारी-सम्मान, प्राणी मात्र के प्रति करुणा, न्याय व धर्मनिष्ठा, आस्था व विश्वास, वीरता आदि समाज में सदैव प्रासंगिक थे, हैं और रहेंगे।

संदर्भ 
1. महीपालसिंह राठौड़, जयपालसिंह राठौड़: लोक देवता तेजाजी, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2012, पृ. 62
2. वही, पृ. 66
3. वही, पृ. 67
4. वही, पृ. 67
5. वही, पृ. 67
6. वही, पृ. 67
7. रामरतन लटियाल: सतवादी तेजाजी रौ सिलोकौ, अरिहंत प्रकाशन, जोधपुर, 2022, पृ. 34
8. मनसुख रणवां ‘मनु’: राजस्थान के संत-शूरमा एवं लोक कथाएं, कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, 2010, पृ. 26
9. वही, पृ. 26
10. वही, पृ. 26
11. महीपालसिंह राठौड़, जयपालसिंह राठौड़, पूर्वोक्त, पृ. 120-21
12. वही, पृ. 57
13. महेन्द्र भानावत: लोकदेवता तेजाजी, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1970, पृ. 42
14. वही, पृ. 42-43
15. मदन मीणा: तेजाजी गाथा, कोटा हैरिटेज सोसायटी, कोटा, 2012, पृ. 266
16. महीपालसिंह राठौड़, जयपालसिंह राठौड़: लोक देवता तेजाजी, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2012, पृ. 64
17. वही, पृ. 25
18. वही, पृ. 25
19. मदन मीणा: तेजाजी गाथा, कोटा हैरिटेज सोसायटी, कोटा, 2012, पृ. 35
20. वही, पृ. 63
21. महेन्द्र भानावत: लोकदेवता तेजाजी, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1970, पृ. 42
22. महीपालसिंह राठौड़, जयपालसिंह राठौड़: लोक देवता तेजाजी, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2012, पृ. 57
23. मदन मीणा: तेजाजी गाथा, कोटा हैरिटेज सोसायटी, कोटा, 2012, पृ. 312
24. महेन्द्र भानावत: लोकदेवता तेजाजी, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1970, पृ. परिशिष्ट पृ. 18
25. मदन मीणा: तेजाजी गाथा, कोटा हैरिटेज सोसायटी, कोटा, 2012, पृ. 53
26. वही, पृ. 178

शिम्भुराम
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, श्री बी. आर. मिर्धा राजकीय महाविद्यालय, नागौर (राजस्थान)
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान)

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