आदिवासी कविताओं में राजनीतिक चेतना
- एमलेन बोदरा
शोध सार : आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था (राजनीतिक व्यवस्था) उनकी संस्कृति की तरह ही विशिष्ट है, जो भारत के सभी समुदायों के बीच अपनी अलग पहचान रखती है। उनकी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। भारत का संविधान उनकी स्वशासन व्यवस्था को कानूनी मान्यता प्रदान करती है। लेकिन बाहरी हस्तक्षेप के कारण उनके ग्राम सभा अर्थात् स्वशासन व्यवस्था के संवैधानिक अधिकारों की लगातार अवहेलना हो रही है। उनके निर्णय लेने के अधिकार को छीन कर उन्हें कमजोर किया जा रहा है, जिसके कारण आज आदिवासी समुदाय अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो रहा है। उनके जल-जंगल-जमीन की लगातार लूट हो रही है, और विडंबना यह है कि इस लूट में पूरा शासन-तंत्र शामिल है। आदिवासी कविता इस लूट और शोषण के विरुद्ध तीव्र प्रतिरोध दर्ज करती है। राजनीतिक मुद्दों पर बहस करती है, और अपनी बात को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रेषित करने की कोशिश करती है।
बीज शब्द : ग्राम सभा, स्वशासन, पत्थलगड़ी, दिकु, अबुआ दिसूम अबुआ राईज, हूल, उलगुलान, लोकतंत्र, जल-जंगल-जमीन इत्यादि।
मूल आलेख : भारत का संविधान लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है, जो सभी भारतीय नागरिकों को समान अधिकार एवं शोषण से सुरक्षा की गारंटी प्रदान करती है, लेकिन भारत का आदिवासी समुदाय जो इस देश के मूल नागरिक हैं, आज सबसे ज्यादा राजनीतिक भेद-भाव के शिकार हो रहे हैं। आदिवासियों के इतिहास को खंगाला जाए तो पाएंगे कि आदिवासी सबसे ज्यादा शोषण, दमन और पक्षपात के शिकार हुए हैं, जो लोकतांत्रिक भारत में आज तक जारी है। औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों और उनके पिट्ठू सूदखोरों, जमींदारों से अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए आदिवासियों ने ही सबसे पहले तीर-धनुष उठाई और उन्हें सबक सिखाया, लेकिन मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उनके संघर्ष और बलिदान को विस्मृत कर दिया। कहीं जिक्र भी किया तो उसका आंकलन कमतर किया, तो कहीं ‘जंगली लोगों का अराजक उपद्रव मात्र’ कहकर उनके बलिदान को अपमानित किया। भारतीय इतिहास 1857 में लड़े गये सिपाही विद्रोह को पहला स्वतंत्र संग्राम कहता है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि आदिवासियों ने उससे कई साल पहले ही अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई का शंखनाद कर दिया था। 1857 के सिपाही विद्रोह के एक साल पहले लड़ी गई 1855 के उस महान हूल को इतिहास ने विस्मृत कर दिया जिसने तीर-धनुष के बल पर ही अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। ऐसे ही भूमकाल आंदोलन, पहाड़िया आंदोलन, चुआड़ विद्रोह, कोल विद्रोह, तेलंगा खड़िया का आंदोलन, बिरसा उलगुलान आदि कई आंदोलन जिसने आजादी की पहली शंखनाद की थी, का जिक्र तक मुख्यधारा के इतिहास में नहीं मिलता। इसीलिए आदिवासी कवि अपनी कविता को फाल के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं जो काल के गर्भ में समा चुके उनके इतिहास और जन नायकों के अमर बलिदान को ढूंढ निकलती है। अनुज लुगुन शोषण से मुक्ति के इस संघर्ष को ‘फूल खिलने’ की संज्ञा देते हैं और ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ नामक लंबी कविता में कहते हैं-
“फूल खिलते रहे हैं सृष्टि के आरंभ से/आरंभ से ही जीवन के प्रश्न को लेकर/खिलते रहे हैं लाल-लाल रक्त-बीज के फूल/बाहर की दुनिया में अज्ञात थे सुगना के खिले फूल/जो ज्ञात थे वे अर्द्ध-ज्ञात थे वैदिक सदी में/और जीतने ज्ञात फूल थे/ वे फूल नहीं, उनके इतिहास का उपहास था,...... /फूल खिले 1764 में/1830 में, 1832 में, 1855 में/ उलगुलान में, भूमकाल में, मानगढ़ में”[1]
1947 में देश को अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति मिली, लेकिन आदिवासियों को शोषण से मुक्ति नहीं मिली। शोषण का सिलसिला चलता ही रहा, बस उसका रूप बदला। देश की आजादी के बाद अंग्रेज तो चले गए लेकिन आदिवासियों के शोषक दल शक्तिशाली जमींदार, महाजन और ठेकेदार बने रहे। उनमें से कुछ लोग सत्ता की कुर्सियों पर आसीन होकर अधिक शक्तिशाली बन गए और आदिवासियों के दमन चक्र की रफ्तार को बढ़ा दिया। आजाद भारत में सिर्फ सत्ता बदली लेकिन समस्याएं और शोषण की प्रक्रिय खत्म नहीं हुई, बल्कि स्थिति और भी दयनीय हो गई है। आजाद भारत में आदिवासियों के साथ भेद-भाव बढ़ता गया जो उनके लिए बिल्कुल असहनीय है। सबसे पहले तो उन्हें सम्मान सूचक शब्द ‘आदिवासी’ नहीं दिया गया। संविधान ने उन्हें नया नाम ‘अनुसूचित जनजाति’ देकर उनके इतिहास, सम्मान और स्वभिमान को एक झटके में खत्म कर दिया।
देश की आजादी के बाद अन्य भारतीयों की तरह आदिवासियों ने भी अपने खुशहाल जीवन की उम्मीद जताई थी, लेकिन भारत ने जो विकास नीति अपनाई, उससे आदिवासियों को विनाश के अलावा कुछ नहीं मिला। विकास की जो नीति अपनाई गई थी, उसने आंतरिक उपनिवेशवाद को जन्म दिया। आंतरिक उपनिवेशवाद के कर्ता-धर्ता बड़े औद्योगिक घरानों के मालिकों ने सरकारी संरक्षण में जल-जंगल-जमीन की लूट को चरम पर पहुँचा दिया है। इन सब प्रक्रिया में संविधान प्रदत पेशा कानून के अस्तित्व को ही खत्म किया जा रहा है। पेशा कानून आदिवासियों के जनतान्त्रिक परंपराओं, संस्थाओं को जो उनके समुदाय में पहले से मौजूद थी, उसे पुनर्जीवित और सशक्त बनाने के लिए अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों में पारित किया गया है। पेशा कानून ग्राम सभा को संवैधानिक मान्यता प्रदान करता है। पंचायत उपबंध 1996 के 73 वें संशोधन के भाग अनुच्छेद 243-क के अनुसार विकास योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण, प्रभावित परिवार के पुनर्वास, गौण खनिज की निकासी या खनन से संबंधित मामलों में ग्राम सभा से विचार-विमर्श जरूरी है, लेकिन इस उपबंध की लगातार अवहेलना हो रही है। केंद्र और राज्य सरकार भी इन उपबंधों को विलोपित कर रही है। इससे सत्ता के मंसूबों को पहचाना जा सकता है, कि वे आदिवासियों के हित में कितना चिंतनशील है। ग्राम सभा से बिना विचार-विमर्श किए विकास योजनाओं को इन क्षेत्रों में लागू किया जा रहा है, और लाखों परिवारों को विस्थापित किया जा रहा है। “छोटा नागपुर टैनेसी एक्ट (1908) में किए गए 1947 के संशोधन, सार्वजनिक उद्देश्य के नाम से किसी की भी जमीन ली जा सकती है, ने आदिवासी जमीन की लूट का पूरा अधिकार सरकार को दे दिया है।’’[2] नाममात्र का मुआवजा देकर लाखों परिवारों को उनके घरों और जमीनों से खदेड़ा जा रहा है। औपनिवेशिक काल में कर्ज और पहलवानों के दम पर जमीनें लूटी जाती थी, लेकिन अब तो संवैधानिक तरीकों से यह काम किया जा रहा है। जहाँ कानूनी दाँव-पेंच काम न आता, वहाँ भोली-भाली और निराक्षर आदिवासियों को पुलिस का भय दिखाकर बंदूक की नोक पर जबरन कोर कागजों पर ठप्पे लगवा कर आदिवासियों की जमीन छीनी जा रही हैं। जसिन्ता केरकेट्टा कहतीं है-
“बराबरी का हक न मिल सके इसीलिए/इतिहास ने एकलव्य का अंगूठा छीना था/पर अब जंगल के आदमी के हाथ में/एक अंगूठा भर छोड़ दिया जाता है/जो हर सफेद कागज पर जबरन/ठप्प लगवाने के काम आता रहे”[3]
विंडबना यह है कि विकास का केंद्र आदिवासी क्षेत्र ही बनाए जा रहे हैं। बिजली परियोजन के लिए बड़े बाँध, बड़े-बड़े औद्योगिक केंद्र बनाए जा रहे हैं फिर भी आदिवासी भूखे और बदहाल हैं। विकास का लाभ उन्हें मिल तो नहीं रहा है लेकिन पूरे देश के विकास का बोझ आदिवासी ढो रहे हैं। आदिवासी क्षेत्रों से निकाले गए खनिज, झरनों, नदियों का पानी, बिजली राजधानी और बड़े शहरों तक पहुँच रहा है, लेकिन आदिवासी गाँव अंधकार में डूबा हुआ है। सरकार के इस सौतेला व्यवहार का पर्दाफाश करते हुए बस्तर की आदिवासी कवि पूनम वासम कहती है-
“बँटवारे में बच्चों के हिस्से/कभी नहीं आया पहाड़ का वह हिस्सा/जिस पर लोहे/की फसल पककर तैयार होती है,/बल्कि यह जरूर हुआ/कच्चे माल को साफ करने के लिए इस्तेमाल की जाती रही/इनके हिस्से की नदी”[4]
1996 के पंचायत राज विस्तार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य था कि संसाधनों पर गाँव वालों का पहला हक हो और वे अपनी जरूरतों के हिसाब से उसका उपयोग कर सके, लेकिन सरकार गाँव वालों के इस अधिकार को जमीनी स्तर पर लागू नहीं कर रही है। प्रकृति के संरक्षण के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में ग्राम सभा कुछ नियम बनाती है और उन नियमों का पालन कड़ाई से ग्राम वासियों को कराती भी है, लेकिन ग्राम सभा के नियमों का उल्लंघन बड़े औद्योगिक घरानों के मालिक लगातार कर रहे हैं। “भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनःस्थापना(उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार)अधिनियम 2013 की धारा 42 कहता है कि जहाँ तक संभव हो, कोई भी सरकार अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि का अधिग्रहण नहीं करेगी। इन इलाकों में भूमि अधिग्रहण अंतिम विकल्प होना चाहिए और इसे प्रमाणित किया जाना चाहिए। अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण या हस्तांतरण के सभी मामलों में संबंधित ग्राम सभा या पंचायतों या स्वायत्त जिला परिषदों की पूर्व सहमति अनिवार्य है।”[5] ये अधिकार और नियम सिर्फ संविधान के पन्नों में ही बंद है जबकि सच्चाई यह है कि विकास के नाम पर आदिवासी जमीनों का अधिग्रहण और उनका विस्थापन आज भी जारी है।
आदिवासियों को विकास विरोधी कहा जाता है, लेकिन उनका साफ मानना है कि गाँव में भी कल-कारखाने खुले, लेकिन पहले ग्राम सभा की अनुमति ली जाए। उन औद्योगिक कारखानों से होने वाले लाभ में ग्रामसभा की भी कुछ हिस्सेदारी हो। कारखानों के निर्माण के दौरान विस्थापित गाँवों का सांस्कृतिक पुनर्वास हो, लेकिन सरकार ऐसी कोई व्यवस्था कर नहीं रही है, न ही ग्रामसभा को अंगीकृत करन चाहती है। पंचायत उपबंध अधिनियम धारा 4(3)(प) गौण वनोपज पर ग्राम सभा का स्वामित्व प्रदान करने का निर्देश देता है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य का आंकलन करने पर पता चलता है कि वनों पर से आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को छीन कर ठेकेदारों को सौंप दिया गया है। एक सुखी लकड़ी लेने पर भी आदिवासी मौत के घाट उतार दिए जाते हैं और यहाँ तो पूँजीपतियों द्वारा पूरा का पूरा जंगल साफ किया जा रहा है और सत्ता मौन है, क्योंकि यह सब सत्ता के साँठ-गाँठ पर ही हो रहा है। आदिवासी वनों की पारिस्थितिकी के लिए खतरे बताए जाते हैं जबकि प्रकृति की रक्षा के लिए वे पहले भी बलिदान हुए और उनकी बलिदानी आज भी जारी है।
औद्योगिकरण की प्रक्रिया के साथ आदिवासी क्षेत्रों में गैर-आदिवासी लोगों का प्रवेश बढ़ता गया और इसके साथ ही उनके सामाजिक-प्रशासनिक कार्यों में बाहरी लोगों का हस्तक्षेप भी बढ़ता गया। अनुसूचित क्षेत्रों में उनके लिए सुरक्षा अधिनियम के होते हुए भी जबरन गैर-आदिवासियों की कानूनी व्यवस्था को थोप दिया गया और उनकी पारंपरिक न्याय व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया। नयी सुरक्षा व्यवस्था ने आदिवासियों को शोषण के नए दौर में धकेल दिया है। आदिवासी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े पुलिस और सेना के बंदूक की गोलियों, हवश एवं दरिंदगी के शिकार बन रहे हैं। नक्सली के नाम पर निहत्थे आदिवासियों पर गोली चलाना आम बात हो गयी है। आज कई इलाकों में बच्चों की निश्छल हँसी, पक्षियों के कलरव और नदी-झरनों के गीतों की जगह बंदूक की गोलियों की आवाजें गूंज रही है। जसिन्ता केरकेट्टा प्रशासन के सुरक्षा व्यवस्था की शोषण का पोल खोलते हुए कहती हैं-
“हथियारबंद पुलिस को जंगल में देख/गाँव के निहत्थे लोग भागने लगे/पुलिस ने कहा रुको, पर वे नहीं रुके/वे शहर की भाषा नहीं समझते थे/पुलिस ने झुँझलाकर गोली चला दी/और कुछ लोग मारे गए”[6]
आदिवासी क्षेत्रों में न्याय और सुरक्षा व्यवस्था ने आदिवासियों के मन में दहशत को जन्म दिया है। कानूनी दाँव-पेंच में फँसाकर आदिवासियों की जमीन हमेशा से लूटी जाती रही है। सत्ता पर दिकुओं का कब्जा है, न्याय व्यवस्था उनकी, पुलिस और सेना उनकी, जो आदिवासियों का कभी भला नहीं सोचती, ऐसे में आदिवासी कैसे और कहाँ से न्याय की आशा कर सकते हैं। इस देश के ‘न्यायालय के रास्ते काफी घुमावदार, थकाऊ और अंतहीन हैं’, जिसका चक्कर आदिवासी न्याय पाने की आस लिए सदियों से काट रहे हैं। न्यायालयों में आज भी आदिवासियों द्वारा दर्ज कई मामले लंबित हैं। देश में कानून, संविधान, सुरक्षा व्यवस्था, न्यायालय सभी हैं, लेकिन यह आदिवासियों के हितों में नहीं है। उन्हें अन्याय से बचाने वाला पुलिस प्रशासन नहीं, अधिकार दिलाने वाला संविधान नहीं, न्याय देनेवाला न्यायालय नहीं है। संविधान में आदिवासियों की सुरक्षा से संबंधित कई नियमों के रहते आदिवासी शोषित-पीड़ित हैं। इसीलिए महादेव टोप्पो प्रशासन से तीखा सवाल करते हुए कहते हैं-
“कि नीति, सिद्धांत, दृष्टिकोण और जनमत का गणित/मेरे गाँव से राजधानी तक हमेशा विपरीत दिशा में क्यों चलते हैं?/हमारे लिए, संविधान के सिद्धांत व्यवहार में इतना अंतर क्यों?/कर्तव्य और अधिकार का चेहरा/धन और सत्ता के रंग में पुतकर, बदरंग और वीभत्स क्यों है?’’[7]
आजाद भारत के अंदर आदिवासी मूलभूत आधिकारों से आज भी वंचित हैं। इसीलिए अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के सपने ‘अबुआ दिसूम अबुआ राईज’ (अपना देश अपना स्वशासन व्यवस्था) को आगे बढ़ाते हुए आदिवासियों ने अलग झारखंड राज्य के मांग में आंदोलन किया। लंबे आंदोलन के बाद सन् 2000 ई. में आदिवासियों का अलग राज्य झारखंड बन भी गया, लेकिन आज भी अधिकांश आदिवासी समुदाय अपने राज्य झारखंड में भी उपेक्षित और शोषित हैं। अलग राज्य बनने के बाद झारखंड के विकास के नाम पर कई योजनाएं पारित हुई, लेकिन उन योजनाओं का लाभ सिर्फ सत्ताधारियों और नौकरशाहियों को ही मिला। साधारण आदिवासी उससे वंचित ही रहे। सुदूर गाँव बड़े शहरों में तब्दील हो गए। गैर-आदिवासी झारखंड के शहरों में बसा दिए गए, और आदिवासी सुदूर दुर्गम के गाँवों में या तो धकेल दिए गए या फिर राँची और बड़े शहरों में अपना जमीन खोकर नौकर बनने को विवश बना दिए गए। आदिवासी अपने ही राज्य में फिर से उपेक्षित हो गए। झारखंड अब आदिवासियों का प्रदेश न रहकर एक बाजार और कामधेनु बन गया है, जिसके नाम पर लूट और बर्बादी मची हुई है। इंजीनियर, बी.डी.ओ., दरोगा, चिकित्सा अधिकारी, आदिवासियों के रक्षक बनकर झकझक पोशाक बनकर आए लेकिन उनका उद्देश्य आदिवासियों का हित करना नहीं बल्कि उन्हे लूटना है।
‘अबुआ दिसूम अबुआ राज’ में शोषण मुक्त आदिवासी समाज के सपने देखे गए थे लेकिन झारखंड बनने के 24 वर्षों बाद भी वे सपने पूरे नहीं हो सके। सवाल अब भी वही है, जो झारखंड बनने के पहले था। आज भी आदिवासी ‘प्रश्नों के साथ खड़े हैं चौक चौराहों में’ धरना-प्रदर्शन और जुलूस जारी है संसद के आगे अपने अधिकारों के लिए। नव झारखंड में छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम की धज्जियां उड़ाकर आदिवासी जमीनों की लूट और उनका विस्थापन चरम पर पहुँच चुका है। ग्रेस कुजूर के शब्दों में कहें तो-
“वे नव झारखंड में/विशाल अट्टालिकाओं की रोपनी में/खोद रहे अपनी ही जमीन/माँ, बहन, बेटियाँ/कंधों पर बैग लटकाए/स्मार्ट फोन पर बतियाते/अपने ही हाथों बनाई अट्टालिकाओं में/ कर रही झाड़ू पोंछा।/गाँव से गायब होते युवा/कहीं दूर प्रांतों में/अपने ही देश में परदेशी होकर/कर रहे मजदूरी”[8]
अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए आदिवासी ‘पत्थलगड़ी’ की परंपरा को अंतिम विकल्प के रूप में देख रहे हैं। पत्थलगड़ी आदिवासियों की संस्कृति का हिस्सा था लेकिन अब यह राजनीतिक अधिकारों का प्रतीक भी बन गया है। अपने गाँव के सीमा पर वे पत्थर गाड़कर अपने मालिकाना हक पेश करते हैं, क्योंकि जमीन के सरकारी पट्टे से आदिवासियों के नाम गायब हैं। ऐसे में पुरखों के याद में गाड़े गए पत्थर ही उनके मालिकाना हक के साक्षी हैं। औपनिवेशिक काल में पत्थलगड़ी अपनी जमीन बचाने का प्रतीक था। वे पत्थर गाड़कर अपने जमीन की सीमा तय करते थे और उस पर अपना कानूनी अधिकार अंकित करते थे। 1996 में पेशा एक्ट के पारित होने के बाद इन्ही पत्थरों में पेशा एक्ट भी अंकित किया जाने लगा है। अंग्रेजों ने जब उनसे जमीन की सरकारी पट्टे मांगे तब आदिवासियों ने पत्थरों को ही साक्षी के रूप में पेश किया था। आज वही पत्थर आदिवासियों के अस्तित्व की रक्षा में फिर खड़े हो रहे हैं। कवि अनुज कहते हैं-
“पुरखों के नाम पर पत्थर गाड़कर/हम तैयार होते रहें/ नए मोर्चे पर लड़ाई के लिए/ये पत्थर....../ धरती को बचाने में उनका न्यायपूर्ण हस्तक्षेप है”[9]
आदिवासियों की शक्ति उनकी सामूहिकता में है। समूह में रहकर ही उन्होंने घने जंगलों में अपने आप को बचाए रखा। जमींदारों, सामंतों और अंग्रेजों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ी और बचे रहे। दिकू जानते हैं कि उनकी सामूहिकता को तोड़े बिना उन्हें मिटाना असंभव है इसीलिए उन्हे बांटने की कोशिश समय-समय पर होती रही है। कभी सरना ईसाई के सांप्रदायिकता में धकेलने की कोशिश हुई तो कभी ‘घर वापसी’ के नारे लगाकर उनमें फूट डालने की कोशिश होती रही है। तरह-तरह के प्रलोभन देकर कभी हिन्दू तो कभी ईसाई बना कर उन्हें बाँटा गया। प्रशासन व्यवस्था ने तो जनगणना के कॉलम में से आदिवासियों के कॉलम को ही हटा दिया है। यह उनके अस्तित्व मिटाने की गहरी साजिश जान पड़ती है। सत्ता को बचाए रखने के लिए धर्म सबसे बड़ा हथियार है। हमेशा से धर्म जरिया भी बना रहा आदिवासियों को लूटने के लिए। व्यवस्था के इस साजिश का खुलासा कवि महादेव टोप्पो करते हैं-
“कभी मेरे हाथों में पकड़ा दिया जाता है/क्रॉस तो कभी त्रिशूल, कभी तलवार तो कभी कुछ/छाप दी जाती है तस्वीर/मेरे भटक जाने की/कभी ‘घर वापसी’ का खेल खेला जाता है नाटक”[10]
आदिवासी कवियों ने राजनेताओं के भ्रष्ट चरित्र की पोल खोल कर रख दी है। रामदयाल मुंडा ने अपनी लंबी कविता ‘पुनर्मिलन’ में ‘राम-हनुमान के संवाद’ के जरिए रामराज्य के असली चेहरे को सामने रखा है। सत्ता की कुर्सी जीतने और उसे बचाए रखने के लिए किस हद तक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जाती है, उसे रामदयाल दर्ज करते हुए कहते हैं-
“सामान्यता जिसने दारू पिलाया/वही चुनाव जीत गया’’[11]
चुनाव से पहले विभिन्न पार्टियों के नेता कई-कई लुभावने वादे लेकर आते हैं। भूख, अशिक्षा, शोषण, लूट से आजादी दिलाने के मुद्दे लेकर वोट बटोरने आते हैं, लेकिन सत्ता की कुर्सी में आसीन होते ही उनके मुद्दे संसदों तक कभी पहुँच नहीं पाते। आदिवासियों की समस्या - भूख, जल-जंगल-जमीन की लूट, हत्या, अत्याचार, बलात्कार, संविधान प्रदत्त आदिवासियों के अधिकार एवं सुरक्षा अधिनियम कभी मुद्दे नहीं बनाए जाते। सत्ता पर आसीन होते ही ये राजनीतिक दल के नेता पूँजीपतियों के साथ जल-जंगल-जमीन की लूट में शामिल हो जाते हैं। स्वंय आदिवासी नेता भी सत्ता की कुर्सी पर आसीन होकर अपने समुदाय के लोगों को भुला देते हैं। आदिवासी समस्याओं को मुद्दे बनाकर अनुसूचित जनजाति क्षेत्र के रिजर्व सीटों से जीत हासिल कर लेते हैं, लेकिन बन जाते हैं दिकू शासन व्यवस्था के गुलाम, उनके ही मस्तिष्क से संचालित होते हैं। आदिवासियों को लूटने, बेहाल और शोषण करने में ये आदिवासी नेता भी दिकुओं का साथ देने में जरा भी नहीं कतराते हैं। ऐसे लोग तटस्थ होकर आदिवासियों की बर्बादी देखते रहते हैं। ये वही लोग हैं जो ‘रेमण्ड का सूट पहनकर आदिवासियत का राग भूल जाते हैं’। ऐसे लोगों को कवि अनुज लुगुन ‘अप्राकृत बाघ’ कहते हैं और उन्हें निशाने पर लेते हैं-
“रिसा मुंडा और मदरा मुंडा के/गणतंत्र के विरुद्ध/हमारे ही परवर्ती कुछ मुंडाओं ने भी आचरण किया है/यानि गणतंत्र के विरुद्ध आचरण भी बाघपन है”[12]
आपसी विचार-विमर्श राजनीतिक अराजकता और असंतोष की भावना पनपने की संभावना को कम करती है। वर्तमान में हमारे देश की राजनीति में जनता के साथ विचार-विमर्श को महत्व नहीं दिया जाता है। शासन व्यवस्था अपने विचार और नीतियाँ जनता पर थोप देती है, जिसके करण राजनीतिक असंतोष और संघर्ष का माहौल तैयार हो जाता है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या आम बात हो गई है। सत्ता पर आसीन लोग महत्वाकांक्षी हो गए हैं उन्हें जनता के हितों एवं उनकी समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है। इस ‘युग में शासन भूखे को भात नहीं, आदर्श देता है’, और जो उनके आदर्शों को मानने से मना करता, देशद्रोही और नक्सली ठहरा दिया जाता है। लेकिन आदिवासी कविता बड़ी ही बेबाकी से निर्भय होकर सत्ता के हर उस चेहरे को बेनकाब करती है जो अपनी कुर्सी बनाए रखने के लिए राजनीति के गंदे खेल खेलती है- जसिन्ता केरकेट्टा कहती है-
“अगर वह मनुष्य जीवन की गरिमा को/गर्त में ले जाता हो/और आग में जल रहे एक देश को/चाँद पर पानी मिल जाने पर/गर्व करने को कहता हो/तब मैं ऐसे राजा के खिलाफ बोलूँगी/मैं ऐसे हर उस राजा के खिलाफ बोलूँगी जो मेरे नाम पर इंसानों की हत्या कर सकता है”[13]
निष्कर्ष : आदिवासी कविताओं में राजनीतिक छद्मों का पर्दाफाश करने और उनके गलत नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने का अद्भुत साहस देखा जा सकता है। उनके झूठे वादे और धोखे के विरुद्ध उनकी कविताएं सवाल करती हुई खड़ी होती है। चूंकि सवाल करती जीभ संगीनों के निशाने पर होती है, फिर भी वे यह साहस कर रहे हैं क्योंकि अस्तित्व की रक्षा में उन्हें आर या पार की लड़ाई लड़नी है, वे समझ चुके हैं कि यह लड़ाई उन्हें ही लड़नी है। ‘कोई नहीं आएगा उनके पक्ष में लड़ने’। यह आदिवासियों के राजनीतिक चेतना का ही उदाहरण है कि अब वे ‘अ’ से अनार और ‘आ’ से आम नहीं लिख रहे हैं, बल्कि ‘अ’ से अधिकार लिख रहे है। संविधान प्रदत्त अधिकारों की मांग और अस्तित्व की लड़ाई में पूरे देश के आदिवासी एकजुट हो रहे हैं। पुलिस सेना की बंदूकों का सामना अपनी सामूहिकता और सहभागिता के बल पर कर रहे हैं। प्रशासन जितनी आवाजों को दबा रही है उससे अधिक आवाजें बुलंद हो रही है क्योंकि वे रक्तबीज हैं जितनी गिरेंगी, उससे ज्यादा उठ खड़ी होंगी।
संदर्भ :
1.अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृ.40
2.केदार प्रसाद मीणा, आदिवासी समाज, साहित्य और राजनीति, अनुज्ञ बुक्स दिल्ली, संस्करण 2014, पृ.101
3.जसिन्ता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2023, पृ.165
4.पूनम वासम, मछलियाँ गायेंगी एक दिन पंडुम गीत, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2021, पृ.37
5.महादेव टोप्पो(सं) पद्मश्री रामदयाल मुंडा, अनुज्ञा बुक्स दिल्ली, संस्करण 2025 पृ.193-194
6.जसिन्ता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली संस्करण 2023, पृ.163
7.महादेव टोप्पो, जंगल पहाड़ के पाठ, अनुज्ञ बुक्स दिल्ली, संस्करण 2017, पृ.77
8.ग्रेस कुजूर, एक और जनी शिकार, अनुज्ञा बुक्स दिल्ली, संस्करण 2020, पृ.142-43
9.अनुज लुगुन अघोषित उलगुलान, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2023, पृ.98
10.महादेव टोप्पो, जंगल पहाड़ के पाठ, अनुज्ञ बुक्स दिल्ली, संस्करण 2017, पृ.16
11.रामदयाल मुंडा, वापसी पुनर्मिलन और अन्य नगीत, सुकृत प्रेस राँची संस्करण 1988, पृ.22
12.अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृ.70
13.जसिन्ता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली संस्करण 2023, पृ.64
एमलेन बोदरा
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कूचबिहार पंचानन वर्मा विश्वविद्यालय, कूचबिहार 736101
8250394492, emlenbodra18jun@gmail.com
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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