शोध आलेख : जगदीश गुप्त : आधुनिक हिंदी काव्य का विकास / गौरव

जगदीश गुप्त : आधुनिक हिंदी काव्य का विकास
- गौरव

शोध सार : हिन्दी साहित्य में काव्य रचनाएं अपने शुरुआती दौर में ‘प्राकृत एवं अपभ्रंश’ भाषाओं में लिखी गई। ऐतिहासिक तौर पर काल अवधि की बात हो तो अपभ्रंश भाषा का साहित्यिक रूप में प्रयोग सर्वप्रथम ‘हर्षबर्धन’ के काल में मिलता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं, “बाण ने ‘हर्ष चरित’ में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है।”1 हिंदी साहित्य में काव्य परंपरा का इतिहास अन्य किसी साहित्यिक विधा की तुलना में पुराना एवं विस्तृत रहा है। “यह निश्चित है कि जनता की चितवृति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।”2 इसी कारणवश समाज में समय के साथ आये बदलावों को हम साहित्य की धरा पर भी भलीभाँति देख सकते हैं, जो काव्य अपने शुरुआती दौर में केवल शौर्यगान के लिए प्रसिद्ध रहा। बाद में वह समाज से धीरे-धीरे जुड़ता चला गया। साहित्य की यह विधा अपनी रचनाक्रम का एक लंबा सफर तय करती हुई वर्तमान में अपने एक नये रूप-रंग में हमारे सामने विद्यमान है। भाषाई तौर पर इसका विकासक्रम देखा जाए तो यह काव्य अपभ्रंश से होते हुए हिंदी की अन्य भाषाओं ‘ब्रज तथा अवधी’ में एक लंबा समय व्यतीत करती हुई अपनी वर्तमान स्वरूप को धारण करती है। इसी विकास यात्रा को बीसवीं सदी में एक नया मोड़ देने का श्रेय डॉ. जगदीश गुप्त को जाता है।

इस शोध लेख में हम हिंदी साहित्य में डॉ. जगदीश गुप्त के योगदान पर चर्चा करेंगे। साथ ही उनके साहित्य से गुजरते हुए उनके काव्यों के पीछे के मर्म को समझने की कोशिश करेंगे। इस लेख के माध्यम से हम डॉ. जगदीश गुप्त के दोहरे व्यक्तित्व लेखकीय और संपादकीय जैसे रूपो से भी रूबरू हो सकेंगे। जब बात हिंदी कविता की हो रही हो। तो हमे ध्यान रखने की आवश्यकता है कि जो हिंदी वर्तमान में प्रचलित है क्या वह अपने शुरुआती दौर में ठीक ऐसी ही थी? सर्वप्रथम तो प्रश्न यही उठता है कि ‘हिंदी आरंभ में किस रूप में विद्यमान रही होगी?’, ‘उसका रूप क्या रहा होगा?’ तथा इसका ‘आविर्भाव कहाँ और कैसे हुआ?’

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मूल आलेख : आधुनिक काव्य के विकासक्रम में अगर स्वतंत्रतापूर्व की बात हो तो सबसे प्रमुखता से महावीर प्रसाद द्विवेदी का नाम लिया जाता है, जिन्होंने केवल लेखकीय तौर पर ही नहीं संपादकीय तौर पर ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिंदी काव्यधारा को एक नया रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ठीक ऐसी ही भूमिका स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में डॉ. जगदीश गुप्त भी निभाते हैं। जो “हिंदी नयी कविता के प्रमुख कवियों जगदिश गुप्त, रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजयदेव नारायण साही में से एक हैं।”3 उन्होंने बीसवीं सदी के छठे दशक में ‘नयी कविता’ नामक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका ने साहित्य में हिंदी काव्य को एक नयी चेतना से जोड़ने का कार्य किया।

डॉ. जगदीश गुप्त का जन्म “3 अगस्त 1924 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में स्थित शाहाबाद में हुआ था।” भारत की स्वतंत्रता के पश्चात समाज में हो रहे बदलावों को भारतीय साहित्यकारों ने भी बखूबी अपने साहित्य में उकेरा है जिसमें डॉ. जगदीश गुप्त का नाम अग्रणी रूप से लिया जाना चाहिए। डॉ. जगदीश गुप्त आधुनिक काव्य की चली आ रही परंपरा में एक नयी चेतना का प्रवाह करते दिखाई देते हैं। हिंदी काव्य के विकास में जगदीश गुप्त के योगदान को हम दो रूपों में देखते हैं पहला तो एक कवि के रूप में तथा दूसरा एक सफल संपादक के रूप में।

जब हम डॉ. जगदीश गुप्त के साहित्य से जुड़ते हैं तो यह पाते हैं की इनका सम्पूर्ण साहित्य मानवता कि पेरवी करता है। “वास्तव में डॉ. गुप्त ऐसे ही कालजयी कवि हैं जो मानवीय मूल्यों को स्थापित करते हैं, उनकी कविता में सामान्य व्यक्ति का स्वर बनने की ताकत है तथा जीवानानुभवों के आधार पर वेदना व्यक्त करने का सामर्थ्य है।”4 यह सामर्थ्य व्यक्ति को उसके स्वयं के निजी अनुभव ही सिखाते हैं, क्योंकि कवि के व्यक्तित्व के निर्माण में तत्कालीन परिस्थियों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान सदा से ही रहा है। यथार्थ की महत्ता को डॉ. जगदीश गुप्त ने भली-भाँति समझा है, वह यथार्थ के मानवीय रूप को ‘भावों’ के रूपों में देखते हुए कहते हैं, “यथार्थ के परिवेश से विलग होकर भाव की प्रतिष्ठा की माँग यहाँ नहीं की जा रही है। मेरे निकट ‘भाव’ को स्वीकार करना यथार्थ को मानवीय रूप में स्वीकार करना है।”5

डॉ. जगदीश गुप्त ने अपने जीवन काल में अनेकों साहित्यिक रचनाएं की जिनमें उनकी काव्यरचना मुख्य हैं। डॉ. जगदीश गुप्त की काव्ययात्रा के तीन महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, जिसमें पहला पड़ाव ‘ब्रजभाषा कविता’ का है, दूसरा ‘नयी कविता’ और तीसरा ‘समकालीन कविता’ का है। डॉ. जगदीश गुप्त का झुकाव ब्रजभाषा की ओर शुरू से ही रहा। इसी कारण से उनकी शुरुआती रचनाएं हमें इसी भाषा में देखने को मिलती हैं। “आधुनिक काल में ब्रजभाषा के सुष्ठु एवं परिनिष्ठित छंदों में ‘छंद-शती’ की रचना करने वाले”6 डॉ. जगदीश गुप्त ही थे। ‘छंद शती’ एक ऐसा काव्य है जिसमें भावों की जितनी गहराई दिखाई देती है उतनी ही कला की उचाई भी दिखती है। परंतु समय की मांग के अनुरूप उन्होंने अपनी रुचि के परे जाकर भी साहित्य लिखा है।

डॉ. जगदीश गुप्त कहते हैं “काव्य में नये विषयों और नयी शैली को अपनाने की मांग ब्रजभाषा के संदर्भ में मुझे कभी उतनी उपयुक्त नहीं लगी जितनी खड़ी बोली के संदर्भ में क्योंकि जितनी क्षमता, उर्वरता तथा अनुकूलता नये माध्यम से होती है उतनी पुराने में नहीं।”7 इसी कारण ब्रजभाषा से अलग हट कर उन्होंने हिंदी खड़ी बोली को अपनाया तथा हिंदी काव्य को एक नये धरातल पर ला खड़ा किया। उनके द्वारा लिखे गए काव्य समकालीन समस्याओं के साथ-साथ वैयक्तिक चेतना को स्वयं में सँजोय हुए हैं। जहाँ उनकी काव्य रचनाओं में ‘युग्म’, ‘हिम-विद्ध’, ‘नाव के पांव’, ‘आदित्य एकांत’, ‘शब्द-दंश’, ‘गोपा-गौतम’, ‘शंबूक’, इत्यादि काव्य कृतियाँ शामिल हैं।

डॉ.जगदीश गुप्त हिम-विद्ध कविता के माध्यम से लेखन कला पर प्रकाश डालते हैं, वे इसमें आने वाली कठिनाइयों से अनभिग्य नहीं हैं वे इसके संदर्भ में लिखते हैं कि “बाहर के वातावरण की बात कठिन है। ‘भाव’ जीवन के अंतरंग सत्य की गरिमा है, वह व्यक्ति के अस्तित्व का विशिष्ट रूप ही नहीं स्वयं अस्तित्व है।”8 इसी भाव की प्रधानता हमें उनके काव्य में देखने को मिलती है। यह काव्य कृतियाँ हिंदी साहित्य में एक नयी चेतना को लेकर अवतरित हुई हैं, यह “आधुनिक चेतना प्रत्यक्षत: अनुभूत होने वाले वस्तु-जगत अर्थात मानव और प्रकृति के अतिरिक्त किसी अन्य अलख – अरूप में भावना को संस्थापित करने की प्रेरणा नहीं देती।”9 इनमें समाज की प्रत्येक इकाई से जुड़ी बातों को सँजोया गया है। जिसमें मानवीय संबंधों को ‘युग्म’ में पिरोया गया है तो वहीं सामाजिक विषमता को डॉ. जगदीश गुप्त ने ‘गोपा-गौतम’ एवं ‘शंबूक’ जैसी रचना में बखूबी दर्शाया है।

‘गोपा-गौतम’ में डॉ. जगदीश गुप्त ने मनोलोक के अंकन का प्रयास किया है। तो वहीं डॉ. जगदीश गुप्त ‘शंबूक’ में दलित चेतना को प्रदर्शित करते हैं। ‘शम्बूक’ कविता में रामायण का एक प्रसंग है, जब ‘शंबूक’ नाम का शूद्र तपस्वी स्वर्ग की लालसा में तप कर रहा होता है। तब उसको सभी देवतागण कैसे रोकते हैं। जब नारद वशिष्ट से मिलते हैं और बताते हैं ‘राम राज्य में जितनी भी अनहोनी हो रही है उसका कारण दंडकवन में शूद्र द्वारा स्वर्ग के की जाने वाली तपस्या है।’ तथा उसके उपचार में नारद क्या कहते हैं ? उसी को डॉ. जगदीश गुप्त लिखते हैं “विपिन जाकर / शूद्र-मुनि-वद्य / जब करेंगे राम, / होगा तभी जीवित / सहज परिणाम।10

यह सुन कर ही राम ने शंबूक का वध करने का निश्चय किया। कविता में डॉ. जगदीश गुप्त आदिकाल से चलें आ रही जाति-भेद को चिन्हित करते हुए समाज की मानसिकता को दर्शाते हैं कि सभी पाप या अनहोनी का कारण केवल और केलव वह ‘शंबूक’ शूद्र है। इसी पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं “मारते हो और कहते हो इसे उद्धार / चलेगा कब तक तुम्हारा यह घृणित व्यापार।”11 कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उनका यह काव्य दलित चेतना से प्रेरित काव्य है। और उनके लिए एक बुलंद आवाज उठाते हुए डॉ. जगदीश गुप्त को देखा जा सकता है।

वहीं दूसरी ओर डॉ. जगदीश गुप्त का काव्य किसी चरित्र कि महिमा के वर्णन मात्र नहीं है उनका काव्य अनेकों विचारों का समन्वय है, जिसमें यथार्थ, सच्चाई और न्याय मुख्य रूप से देखने को मिलते हैं। ‘शंबूक’ कविता में जब राम पुष्पक विमान से दंडकवन के ऊपर से जा रहे होते हैं तब वह अहिल्या को याद करते हैं कि कैसे उसको उन्होंने उस बंधन से स्वतंत्र किया था और फिर सीता की वर्तमान दशा पर अश्रु बहा रहे होते हैं। डॉ. जगदीश गुप्त कि यह पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती नजर आती हैं “एक नारी को सुगति दी / एक को परिताप / छोड़ जाऊंगा जगत पर / कौन सी मैं छाप”12

डॉ. जगदीश गुप्त समाज की दोहरी मानसिकता को यहाँ चित्रित करते हैं तथा एक ही काल में एक स्त्री को वन से बाहर निकाल कर भगवान राम हो गए तो दूसरी स्त्री (सीता) को वन में जाने का आदेश दे दिया। समाज की न्याय व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए ही जगदीश गुप्त ने अपनी अन्य रचनाएं भी रची हैं। इन रचनाओं के पीछे उनकी समकालीन परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं, क्योंकि एक कवि का व्यक्तित्व उसके जीवन के तत्कालीन संदर्भों तथा उस समय के सांस्कृतिक विकासक्रम का प्रतिफल होता है और यही संघर्ष हमें उनके साहित्य में भी दिखाई देता है।

डॉ. जगदीश गुप्त अपने ही समय के सवालों से मुठभेड़ करते नजर आते हैं वहीं उनकी ख्याति की एक अन्य वजह उनका चित्रकार होना भी है। कविता के अतिरिक्त डॉ. जगदीश गुप्त का मुख्य व्यसन चित्रकला है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि “डॉ. गुप्त के रेखांकन में उनका कवि रूप बोलता है इसलिए उनके चित्र सुंदर कविता जैसे सरस, सरल और प्रिय लगते हैं और शायद इसी कारण रंगों की नई भाषा और भाव उनके चित्रों में मिलते हैं, तो कविताओं में पूरी चित्रात्मकता।”13 उन्होंने अपने लेखनी के साथ-साथ अपनी चित्रकला का भी जगह-जगह पर प्रदर्शन किया है। डॉ. जगदीश गुप्त जैसे “हिन्दी साहित्य जगत में बहुत कम ही रचनाकार है जिन्होंने कविता तथा लेखन कार्य करते हुए चित्रकला, पुरातत्व तथा अन्य दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया।”14 उनकी लेखनी कभी कविता के रूप को सँजोती तो कभी चित्रकला के रंगीन संसार का विवरण करती थी। डॉ. जगदीश गुप्त कि इस कला ने साहित्य में चित्रमय काव्य परंपरा को पुनर्जीवित किया है। आधुनिक काव्यधारा में महादेवी जी ने इस कला अर्थात चित्र और काव्य में जो संबंध स्थापित किया था उसी का विकसित रूप हमें डॉ. जगदीश गुप्त के काव्य में दिखाई पड़ता है। डॉ. जगदीश गुप्त ने शुरुआत में महादेवी के पुस्तकों के कवर पेज के लिए चित्र बनाए हैं। जिस कारणवश डॉ. जगदीश गुप्त हमेशा ही उनके लिए अत्यंत प्रिय रहे। आगे चलकर उन्होंने साहित्य की सभी विधाओ में लिखना आरंभ किया। कहा जा सकता है कि डॉ. जगदीश गुप्त की लेखनी किसी एक विधा की कायल या पक्षधर नहीं थी।

चित्रकला को लेकर उन्होंने अनेकों शोध एवं पुस्तके लिखी इस कारण उनको अनेकों सम्मान प्राप्त हुए, जिसमें “उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला’ पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया। डॉ जगदीश गुप्त को उनके द्वारा रचित ‘छंद शती’ पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत किया गया तथा 1984 ईo में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इसी कृति पर उनको सम्मानित किया गया।”15 इसके पश्चात डॉ. जगदीश गुप्त को 1998 में ‘भारत भारती’ सम्मान से भी नवाजा गया। परंतु डॉ. जगदीश गुप्त कहते हैं कि उनको पुरस्कार शब्द उचित नहीं लगता वह सम्मान शब्द के पक्षधर नजर आते है “सम्मान और पुरस्कार में मौलिक अंतर स्पष्ट करते हुए वह कहते है – ‘जो स्वत: मिल जाय, वह सम्मान है। पुरस्कार शब्द मुझे उचित नहीं लगता। वस्तुत: पुरस्कार शब्द का अर्थ है – जो अपरिचित है उसे सामने लाना। किन्तु जो सुपरिचित है उनके लिए पुरस्कार शब्द ठीक नहीं, सम्मान शब्द ही उचित है”16 साहित्य और डॉ. जगदीश गुप्त का संबंध दिनों-दिन गहरा होता गया।

साहित्य के उत्तर छायावाद और प्रगतिवादी दौर में डॉ. जगदीश गुप्त ‘परिमल’ संस्था से जुड़े। उसके पश्चात ही गुप्त जी ने काव्य धारा में एक परिवर्तन का सूत्रपात किया। जहाँ एक ओर जगदीश गुप्त पुरातात्विक वस्तुओं की गवेषणा में बेहद रुचि लेते थे तो दूसरी ओर सम्यक विवेचना, अध्यापन कौशल और सफल सम्पादन में भी वे श्रेष्ठ रहे हैं। उन्होंने सन 1954 से 1968 तक ‘नई कविता’ नामक पत्रिका डॉ. राम स्वरूप चतुर्वेदी के साथ शुरू की तथा उसका सम्पादन कार्य संभाला। इसको हिंदी साहित्य के काव्य परंपरा की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है। जहां से हिंदी काव्य धारा अपने स्वरूप को एक नयी दिशा की ओर ले जा रही थी।

हिन्दी साहित्य में डॉ. जगदीश गुप्त के प्रयासों से आई यह पत्रिका नई चेतना और प्रगति का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है। वहीं आगे चलकर उन्होंने ‘उद्धव शतक्’ तथा ‘नवधा’ पुस्तकों का भी सम्पादन किया। देखा जाए तो नई कविता का संस्कार इसी पत्रिका के माध्यम से माना जाता है। इस काव्य धारा में जगदीश गुप्त ने काव्य में चली आ रही सपाट बयानी के स्थान पर प्रतीक बहुलता एवं बिम्बधर्मिता को ज्यादा महत्व दिया, इसी प्रकार की रचनाएँ डॉ. जगदीश गुप्त ने रची भी जिसमें ‘नाँव के पाँव’, ‘युग्म’, ‘शब्द दंश’, ‘हिमविद्ध’, जैसी रचनाओं में यह प्रवृति विशेष रूप से लक्षित होती हैं। वहीं नई कविता के साथ-साथ डॉ जगदीश गुप्त ने अपनी साहित्यिक सफर में छोटे-बड़े कुल मिलाकर लगभग तीस से ज्यादा ग्रंथ लिखे हैं।

नयी कविता पद्धति कि कविता का एक मुख्य वैशिष्ट्य उसका रागात्मक होना है जिसके फलस्वरूप ही कविताओ में प्रकृति चेतना पुन: जीवित होती नजर आती है। विद्वानों का कहना है कि मानो इन्हें  ‘देख कर नव्य छायावादी सौन्दर्यबोध पुनर्जीवित हो उठा हो।’ डॉ. जगदीश गुप्त द्वारा निकाली गई पत्रिका ‘नयी कविता’ के विभिन्न अंकों में छपी। अंतः उनके विषयों में मानों उन्हीं का निजी अनुभव वर्णित हो रहा हो। ‘नयी कविता पत्रिका में ही ‘कनुप्रिया’ और ‘अंधा युग’ जैसी रचना प्रकाशित हुई। ‘नयी कविता’ का संपादक होना उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा। इसके संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं “नयी कविता के संपादकीय दायित्व ने मुझे निरंतर अपने को टटोलते रहने की प्रेरणा दी और मैंने उस प्रक्रिया में बहुत सी मूलभूत समस्याओं का समाधान निजी रूप में खोजने की चेष्टा की तथा बहुत सी मौलिक और तत्व की बातें भी हाथ आयी जो अन्यथा शायद की उपलब्ध हो पाती।”17 डॉ. जगदीश गुप्त ने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्यिक सेवा में ही बिताया है।

उनका साहित्य समाज की समस्याओं को चिन्हित करता है, मानव जीवन के संघर्ष को दर्शाता है वह कहते हैं “अपनी कला या कविता के प्रति निष्ठावान और समर्पित रहने मात्र से मनुष्यता का संकट दूर  हो जाएगा ऐसा मैं नहीं मानता। कवि कलाकार के लिए रचना तो करणीय है ही, किन्तु समाज की समग्र गतिविधि पर दृष्टि रखकर मानवीय स्वाभिमान की रक्षा करते हुए, उसके अपने अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए एक नागरिक की तरह संघर्ष करना भी आवश्यक समझता हूँ।”18

डॉ. जगदीश गुप्त का साहित्यिक संसार व्यापक एवं विस्तृत है ‘युग्म” में जहाँ मानव संबंधों में नारी की भूमिका बताते हैं। उनका कहना है “नारी को जन्मत: निकृष्ट मानकर किसी भी प्राकर के स्वस्थ मानव संबंध का विकास नहीं हो सकता। यदि नारी सदोष है तो नर भी अदोष नहीं है अत: नये युग के अनुरूप मूल्य दृष्टि में परिवर्तन अनिवार्य है।”19 वहीं ‘बोद्धि वृक्ष’ में मनुष्यता के प्रेरक स्रोत के रूप में डॉ. जगदीश गुप्त धर्म को देखते हैं जिसमें वह बौद्ध धर्म का उदाहरण सबके समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

अंतत: आज वर्तमान में तथाकथित यह धर्म निरपेक्षता अधर्म के लिए कवच का कार्य कर रही है। वर्तमान में जिस धर्म निरपेक्षता का प्रचार-प्रसार राजकीय स्तर पर किया जा रहा है, असल में वह इतनी सतही है, दिखावटी है कि देश के भीतर समाज में मानवीय मूल्यों का ह्रास दिन प्रतिदिन होता जा रहा है। डॉ. जगदीश गुप्त “‘युग्म’ में समाहित वृति की विरागात्मक परिणति, ‘शंभुक’ के जाति-वर्ण-विरोधी उदार वैचारिक आधार को और अधिक समृद्ध एवं प्रशस्त करने की भावना, अर्थ-केंद्रित भौतिकवादी जीवन-दर्शन की अपर्याप्तता और संकीर्णता का बोध”20 करवाते नजर भी आते हैं। अंत: कहा जा सकता है कि “पुराण, महाभारत, रामकथा एवं बौद्ध ग्रथ आदि के अध्ययन तथा सर्जनात्मक प्रयास के पश्चात वे ‘जयंत’, ‘शंबूक’, ‘गोपा-गौतम’ और बौद्धि वृक्ष की रचना करने में सफल हुए।”21 हिंदी साहित्य में नयी कविता एक नये रूप में अवतरित हुई परंतु अपने नयेपन के बावजूद देखते ही देखते वैसे ही स्थापित हो गई “जैसे प्रसाद - पंत - निराला - महादेवी के जीवन-काल में ‘छायावाद’ स्थापित होकर हिंदी साहित्य के इतिहास का अंग बन गया था।”22 डॉ. जगदीश गुप्त को हिंदी काव्यधार को एक नये रूप रंग में लाने का श्रय जाता है। हम कह सकते हैं साहित्य के प्रति उनकी भक्ति ने हिंदी काव्य धारा को एक नया रूप रंग भी दिया है।

संदर्भ :
  1. रामचंद्र, शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, पृ सं 21
  2. रामचंद्र, शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, पृ सं 17
  3. रामस्वरुप, चतुर्वेदी, नयी कविता एक साक्ष्य, लोकभारती प्रकाशन, 1976, भूमिका
  4. डॉ. अजय सिंह, चौहान, डॉ. जगदीश गुप्त और उनका ब्रजभाषा काव्य, के के पब्लिकेशन्स, 2008, पृ सं 117,
  5. डॉ. जगदीश, गुप्त, हिम-विद्ध, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1964 वाराणसी, पृ सं 7,
  6. डॉ अजय सिंह, चौहान, डॉ जगदीश गुप्त और उनका ब्रजभाषा काव्य (शतक काव्य परंपरा के विशेष संदर्भ में), के के पब्लिकेशन्स, 2008, आवरण पृष्ठ
  7. डॉ. जगदीश, गुप्त, छंद शती, लोकभारती प्रकाशन, 1980, पृ सं 11
  8. डॉ. जगदीश, गुप्त, हिम-विद्ध, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1964, पृ सं 5,
  9. वही, पृ सं 5
  10. डॉ. जगदीश, गुप्त, शंबूक वध, पृ सं 12
  11. डॉ. जगदीश, गुप्त, बोद्धि वृक्ष, वाणी प्रकाशन, 1987, पृ सं 8
  12. डॉ. गुप्त जगदीश, शंबूक वध, पृ सं 22,
  13. डॉ. अर्चना, द्विवेदी, कवि चित्रकार जगदीश गुप, 2014, पृ सं 13,
  14. डॉ अजय सिंह, चौहान, ‘डॉ जगदीश गुप्त और उनका ब्रजभाषा काव्य’ (शतक काव्य परंपरा के विशेष संदर्भ में), के के पब्लिकेशन्स , 2008, पृ सं 118,
  15. वही, पृ सं 118
  16. वही, पृ सं 119
  17. डॉ जगदीश, गुप्त, नयी कविता : स्वरूप और समस्याएं, भारतीय ज्ञानपीठ,1971, पृ सं 4
  18. सं जगदीश, गुप्त, त्रयी-3, , नयी कविता प्रकाशन, 1989, पृ सं 20,
  19. डॉ. गुप्त जगदीश, ‘युग्म’ पृ सं 26
  20. डॉ. जगदीश, गुप्त, बोद्धि वृक्ष, ,वाणी प्रकाशन, 1987, पृ सं 7
  21. डॉ अजय सिंह, चौहान, ‘डॉ जगदीश गुप्त और उनका ब्रजभाषा काव्य’, (शतक काव्य परंपरा के विशेष संदर्भ में), के के पब्लिकेशन्स, 2008, पृ सं 138,
  22. डॉ. जगदीश, गुप्त, छंद शती, लोकभारती प्रकाशन, 1980, पृ सं 10
गौरव
शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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