विजय स्तम्भ : स्थापत्य एवं मूर्तिकला
- अभिमन्यु चावला
शोध सार : सारंगपुर युद्ध की विजय के उपलक्ष्य में महाराणा कुंभा ने चित्तौड़गढ़ में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया। य़ह स्मारक समय के साथ मेवाड़ के शौर्य का प्रतीक बन गया। लगभग सैंतीस मीटर ऊँचा और नौ मंजिला यह स्तम्भ लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से निर्मित है। ऊपर से नीचे तक इसकी दीवारें कहानियों से भरी हैं, विष्णु के दशावतार की बारीक मूर्तियाँ, शिव और शक्तिस्वरूपा के रूप, अष्टदिक्पाल, महाकाव्यों के प्रसंग, नृत्यांगनाओं की मुद्राएँ, वाद्ययंत्र, ऋतुओं के परिवर्तन सब कुछ यहाँ जीवंत प्रतीत होता है। इन चित्रणों में धार्मिक सहिष्णुता और कलात्मक गहराई के साथ-साथ उस दौर का दैनिक जीवन भी झलकता है।
बीज़ शब्द : विजय स्तम्भ, महाराणा कुंभा, स्थापत्य कला, मूर्तिकला, पंद्रहवीं शताब्दी, राजपूताना, मेवाड़ राज्य, सैन्य विजय, वैष्णव धर्म, हिंदू देवी-देवता, प्रतीकात्मकता, शिलालेख, लाल बलुआ पत्थर, सांस्कृतिक पहचान, भारतीय वास्तुकला।
मूल आलेख : पंद्रहवी शताब्दी में भारत में कई राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे। दिल्ली में तुगलक वंश का पतन हो चुका था इसलिए सैय्यद तथा लोदी वंश अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए संघर्ष में उलझे हुए थे। इस केंद्रीय कमजोरी के कारण कई प्रांत जैसे मालवा, गुजरात और जौनपुर शक्तिशाली बनकर उभर रहे थी। उस दौर में राजपूताना धरती पर मेवाड़ राज्य अपनी स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्षरत था। मेवाड़ को दोहरी समस्या से जूझने की चुनौती थी। मेवाड़ को दिल्ली की बची-खुची शक्ति से सतर्क रहना था और अपने पड़ोस में उभरती इन शक्तिशाली सल्तनतों जैसे गुजरात और मालवा से अपनी सीमाओं और की रक्षा भी करनी थी। मालवा के सुल्तान होशंग शाह और उनके उत्तराधिकारी महमूद खिलजी प्रथम मेवाड़ के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे और वे अपनी सीमाओं का विस्तार करने के लिए मेवाड़ पर निरन्तर आक्रमण कर रहे थे। इसी प्रकार गुजरात के सुल्तान भी मेवाड़ के लिए एक खतरा थे। गुजरात और मालवा ने कई बार मेवाड़ के विरुद्ध संयुक्त अभियान भी चलाए।[1] इसी पृष्ठभूमि में महाराणा कुंभा जैसे साहसी योद्धा का उदय हुआ। महाराणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को सारंगपुर युद्ध में निर्णायक रूप से पराजित किया। यह एक सैन्य विजय से अधिक मेवाड़ के बढ़ते प्रभुत्व और एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उसके उदय का प्रतीक थी। इस विजय ने मेवाड़ को एक बड़े खतरे से मुक्त करके पूरे राजपूताना में कुंभा की प्रतिष्ठा को चरम पर ला दिया। महाराणा कुंभा ने सन् 1437 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर अपनी शानदार विजय के बाद चित्तौड़गढ़ में विजयस्तंभ बनवाया जो हिंदू संस्कृति, गौरव और वास्तुकला को दर्शाता है।[2] ब्रिटिश कालीन इतिहासकार जेम्स बर्गेस ने विजय स्तम्भ को "राजपूत स्थापत्य का सबसे प्रतिष्ठित स्तम्भ" कहा और इसके स्थापत्य और प्रतीकात्मकता की विस्तार से प्रशंसा की।[3] यह स्तम्भ सिर्फ ऐतिहासिक संरचना नहीं बल्कि पंद्रहवी सदी के मेवाड़ के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और कलात्मक जीवन का एक दर्पण है जो हमें उस काल में झांकने का अवसर देता है। विजय स्तम्भ केवल एक सैन्य विजय का स्मारक नहीं है बल्कि इसकी गहराई में देखे तो यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में दिखाई देता है।
विजय स्तम्भ की स्थापत्य कला का विस्तृत अवलोकन :
विजय स्तम्भ स्थापत्य कला का जटिल परन्तु अद्वितीय नमूना है। यह नौ मंजिला इमारत हैl इसकी प्रत्येक मंजिल का एक खास महत्व और डिज़ाइन है। विजय स्तम्भ आधार में वर्गाकार है पर ऊपर की ओर जाते हुए यह संकरा हो जाता है। आठवीं मंजिल तक यह वर्गाकार है और नौवीं मंजिल गुम्बदाकार है, जो कीर्ति-मुख शैली की छत से ढका हुआ है। इस प्रकार की संरचना एकरसता को तोड़ कर विविधता प्रदान करती है और यह एक गतिशील दृश्य प्रतीत होता है। विजय स्तम्भ के निर्माण में मुख्य रूप से लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर का इस्तेमाल हुआ है। विजय स्तम्भ की ऊँचाई लगभग 37.19 मीटर है और इसमें कुल 9 मंजिलें हैं। स्तम्भ की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं, पौराणिक पात्रों और युगों-पुरुषों की अत्यंत सूक्ष्म नक्काशी की गई है जो मेवाड़ी स्थापत्य की श्रेष्ठता को प्रकट करती है।[4] विजय स्तम्भ की पहली मंजिल से आठवीं मंजिल तक सबकी ऊँचाई और खिड़कियों का डिज़ाइन अलग-अलग है। दीवारें भीतर ओर बाहर दोनों तरफ से मूर्तियों से सज्जित है। आंतरिक भाग में एक केंद्र के चारों ओर 171 सीढ़ियाँ है जो सर्पिलाकार रूप में है और ऊपर की ओर जाती हैं। आठवीं मंजिल विशेष रूप से महत्वपूर्ण यहां उपस्थित शिलालेख के कारण है जिसमें महाराणा कुंभा की वंशावली और उपलब्धियों का वर्णन है और साथ ही यहां कोई मूर्ति नहीं है। आठवी मंजिल से चित्तौड़ का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। नौवीं मंजिल को विजय स्तम्भ का का अंतिम भाग माना जाता है, शीर्ष मंजिल है । यह मंजिल बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त हो गई थी जिसे फिर बाद में महाराणा स्वरूप सिंह द्वारा इसका जीर्णोद्धार कराया गया। यह शिखर, स्तम्भ के मुकुट के भांति प्रतीत होता है। स्तम्भ का शीर्ष भाग एक मंडप के रूप में निर्मित है, जिसमें गुंबदाकार छत और शिखर प्रतीकात्मक विजय का संकेत देता है।[5]
विजय स्तम्भ का डिज़ाइन मानसार और समरांगण सूत्रधार जैसे प्राचीन भारतीय वास्तुकला ग्रंथों से प्रेरित लगता है l इसके मुख्य वास्तुकार के रूप में जैता की जानकारी हमें शिलालेखों से पता चलती है और इसमें जैता के पुत्रों नापा, पोमा, और पुंजा ने भी इस कार्य में सहयोग दिया। यह जानकारी इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इन महान कृतियों के पीछे गुमनाम कलाकार नहीं थेl यह शिल्पकार काफी सम्मानित थे ओर उन्हें व उनकी कला को राजकीय संरक्षण प्राप्त था। यह कुंभा के कला-प्रेम को भलीभांति प्रमाणित करता है। विजय स्तम्भ पर लेख उत्कीर्ण है जिन्हें 'कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति' कहा जाता है जो वर्तमान में काफ़ी हद तक नष्ट हो चुका है, इस संरचना के निर्माण के उद्देश्यों की जानकारी देता हैं। स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में 157 श्लोकों का एक लंबा शिलालेख उत्कीर्ण है, अत्रि और उनके पुत्र महेश द्वारा इन प्रशस्तियों की रचना की गई थी। इनमें महाराणा कुंभा की वंशावली, उनकी विजयों, और उनके द्वारा किए गए निर्माण कार्यों का विस्तृत वर्णन है।[6] यह एक आधिकारिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जो स्तम्भ के प्रतीकात्मक अर्थों की पुष्टि करता है।
मूर्तिकला का गहन प्रतीकवाद :
विजय स्तम्भ अपनी अद्भुत मूर्तिकला के कारण यह हिंदु देवी देवताओं का मूर्तिकोष है l विजय स्तम्भ की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियाँ केवल कलात्मक अभिव्यक्तियाँ नहीं, बल्कि धार्मिक प्रतीकों का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश जैसे देवताओं के साथ-साथ अष्टदिक्पालों की भी मूर्तियाँ अंकित हैं। यह दर्शाता है कि राणा कुम्भा की विजय को धर्म-रक्षित और वैध माना गया। स्तम्भ की निचली मंजिलों में शैव और वैष्णव मत का समन्वय भी दृष्टिगोचर होता है जो कुम्भा की धार्मिक नीति को दर्शाता है।[7] यहां भगवान विष्णु के दशावतारों का उत्कीर्णन किया गया है। स्तंभ के प्रवेश द्वार पर ही विष्णु की भव्य प्रतिमा भी है। इसके अलावा वैष्णव प्रतिमाओं की प्रमुखता के कारण इसे विष्णु ध्वज तक की संज्ञा दी गई है। मूर्तिकला की यह प्रकृति इस स्तंभ के वैष्णव चरित्र को दृढ़ता से स्थापित करती है। कुम्भा द्वारा नृसिंह और वराह अवतारों के चित्रण के माध्यम से स्वयं को धर्म के रक्षक और पृथ्वी के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया है। विजय स्तम्भ की मूर्तिकला कुम्भा की धार्मिक प्रकृति पर प्रकाश डालती है। कुम्भा द्वारा वैष्णव सम्प्रदाय की तरफ झुकाव होने पर भी अन्य सम्प्रदायों का भी पूरा सम्मान किया गया। उनके द्वारा शैव प्रतिमाएं जैसे अर्धनारीश्वर, कल्याणसुंदर व उमा-महेश्वर की मूर्तियाँ उनके शैव धर्म के प्रति सम्मान का प्रतीक है वहीं महिषासुरमर्दिनी, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी शाक्त प्रतिमाएं शक्ति के उपासना के महत्व को भी दर्शाती है। शैव व वैष्णव समन्वय के प्रतीक के रूप में हरिहर की मूर्ति को देखा जा सकता है। इंद्र, सूर्य, ब्रह्मा आदि को भी उचित स्थान दे कर कुंभा ने एक प्रकार से हिन्दू देवकुल के संरक्षक के रूप मे स्वयं को दर्शाया है।[8]
इन सब से इतर विजय स्तम्भ का एक विशेष पहलू है, विजय स्तम्भ की तीसरी मंजिल पर अरबी लिपि में नौ बार किया गया 'अल्लाह' का अंकन है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इसका कारण क्या है और इस पर इतिहासकारों के बीच भी एकमत नहीं है। एक मत के अनुसार यह मुस्लिम सुल्तान महमूद खिलजी पर अपनी विजय का प्रतीक है। इसके द्वारा कुम्भा अपनी सर्वोच्चता स्थापित करना एक उद्देश्य हो सकता हैं। इतिहासकारो के दूसरा मत के अनुसार यह कुम्भा की उदारता और धार्मिक सहिष्णुता का एक उदाहरण है। इतिहासकारों के तीसरा मत यह है की विजय स्तम्भ के निर्माण शामिल हुए मुस्लिम शिल्पकारों द्वारा उकेरा गया होगा।[9]
राजनीतिक शक्ति, धार्मिक संरक्षण और वैधता का प्रतीक के रूप में :
विजय स्तम्भ केवल सामरिक व सांस्कृतिक पहलू पर ही प्रकाश नहीं डालता है बल्कि यह कुंभा की राजनीतिक और सैन्य शक्ति का भी आह्वान करता है।[10] विजय स्तंभ की विशाल ऊँचाई और दुर्ग के केंद्र में इसकी स्थिति इसे एक अधिकार चिह्न के रूप में स्थापित करती है। इतिहास में बहुत से युद्ध लड़े गए परन्तु कुम्भा की सारंगपुर विजय को इस स्तंभ ने इतिहास में स्थायी रूप से अंकित कर दिया है। यह स्तंभ एक प्रकार से घोषणा करता है कि मेवाड़ की शक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती हैं। विजय स्तम्भ का निर्माण लगभग एक दशक चला जिससे मेवाड़ की मजबूत आर्थिक समृद्धि और स्थिरता का पता चलता है। यह मेवाड़ की क्षमता को बताता है कि राज्य युद्ध भी लड़ सकता है और शांति काल में कला और संस्कृति का पोषण भी कर सकता है।[11] कुंभा ने विजय स्तम्भ का निर्माण भले ही सामरिक विजय के प्रतीक के रूप किया है परन्तु उन्होंने विजय स्तम्भ को विष्णु ध्वज के रूप में प्रस्तुत किया और धर्म का कुशलतापूर्व उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी राजनीतिक शक्ति को दैवीय वैद्यता प्रदान करने का काम किया।[12] इसे कुम्भा की स्थिति एक सामान्य शासक से बढ़कर धर्म के रक्षक की समान हो गई। इस्लामी सल्तनतो के सांस्कृतिक प्रभाव के विरुद्ध कुम्भा द्वारा विजय स्तम्भ पर विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं का चित्रण तथा इसे विष्णु ध्वज के रूप में स्थापना करना एक सुविचारित सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतिक्रिया थी। यह अपनी पहचान को स्थापित करने का एक प्रयास था।[13]
विजय स्तम्भ की अन्य ऐतिहासिक सतम्भों से तुलना :
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में ही 12 वीं शताब्दी में विजय स्तम्भ से पूर्व एक और स्तम्भ का निर्माण हुआ था जिसे जैन कीर्ति स्तम्भ कहते है।[14] यह स्तंभ सात मंजिला है जिसे एक जैन व्यापारी जीजा बघेरवाल द्वारा बनवाया गया था। जैन कीर्ति स्तंभ आदिनाथ जो कि प्रथम जैन तीर्थंकर हैं को समर्पित है।[15] विजय स्तम्भ का उद्देश्य मुख्य रूप से सामरिक होने के बावजूद राजनीतिक और धार्मिक भी है, वहीं जैन कीर्ति स्तंभ का उद्देश्य धार्मिक व आध्यात्मिक प्रकृति का है। इसके अलावा जैन कीर्ति स्तम्भ की मूर्तिकला में केवल जैन तीर्थंकरों को ही स्थान दिया गया है वह विजय स्तम्भ एक संपूर्ण समावेशी हिन्दू देवकुल को प्रदर्शित करता है। संरचना के आकार की तुलना में भी विजय स्तम्भ को अधिक विशाल भी और अधिक अलंकृत पाते हैं। कुतुब मीनार जो दिल्ली में अवस्थित है का निर्माण भारत में तुर्की स्थापना के उपलक्ष्य में हुआ था।[16] विजय स्तम्भ वर्गाकार है और यह हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित है जबकि कुतुब मीनार इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करती है। यह गोलाकार है और इसकी सतह पर कुरान की आयतें उकेरी गई हैं।[17] विजय स्तम्भ हिन्दू धर्म और राजपूती शौर्य के प्रतिरोध और पुनरुत्थान का प्रतीक है। कुतुब मीनार इस्लाम की विजय का प्रतीक है। इन दोनों स्तंभों का निर्माण इनके निर्माता शासकों के अपने-अपने दृष्टिकोणो को बताता है l
महाराणा कुंभा: एक योद्धा, विद्वान और कला संरक्षक :
मेवाड़ की धरती पर कई महान शासक हुए, उनमें से एक थे महाराणा कुंभा जिन्होंने 1433 से 1468 ई. तक शासन किया। मेवाड़ के सबसे महान व प्रतापी शासकों में से वो एक थे। कुम्भा एक असाधारण योद्धा और सेनापति होने के साथ साथ कला, साहित्य और संगीत के भी महान संरक्षक थे। उनके शासनकाल में संगीत, स्थापत्य, काव्य और धर्म का पुनरुत्थान हुआ। विजय स्तम्भ उनके इस सांस्कृतिक और धार्मिक दायित्व का मूर्त रूप है।[18] वे न केवल योद्धा थे बल्कि एक संगीतज्ञ, वास्तुकार और धार्मिक विद्वान भी थे। उन्होंने स्वयं ‘कुंभकल्प’ नामक नाटक की रचना की और संगीत शास्त्र पर ‘संगीतराज’ नामक ग्रंथ लिखा। विजय स्तम्भ उनके विजयी सामर्थ्य और सांस्कृतिक चेतना का संगम है।[19] वे स्वयं एक विद्वान थे और उनका दरबार विद्वानों और कलाकारों से सुशोभित रहता था। कुम्भा द्वारा मेवाड़ में कुल 32 दुर्गों का निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया गया, जिनमें कुम्भलगढ़ का अजेय दुर्ग भी शामिल है। विजय स्तम्भ का निर्माण उनकी विविध प्रतिभा का प्रतीक है, जो उनकी सामरिक शक्ति और कलात्मक अभिव्यक्ति का उम्दा उदाहरण है।[20]
समकालीन भारत में विजय स्तम्भ की प्रासंगिकता व संरक्षण की चुनौतियाँ :
कुम्भा की सारंगपुर विजय के साक्षी के रूप में इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखने के साथ साथ विजय स्तम्भ वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक है। यह केवल एक पर्यटक आकर्षण का स्थान नहीं है। यह भारतीय वास्तुकला और इंजीनियरिंग के कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है। अक्सर साहित्य और राजनीतिक विमर्श में विजय स्तम्भ का उपयोग शक्तिशाली प्रतीक के रूप में किया जाता है। वर्तमान मे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने इसे एक संरक्षित स्मारक घोषित किया है। इसकी संरक्षण प्रक्रिया 20वीं शताब्दी से जारी है और आज भी इसे पर्यटकों हेतु प्रमुख आकर्षण केंद्र के रूप में विकसित किया गया है।[21] इसकी संरचना को स्थिर रखने और मूर्तियों को संरक्षित करने के लिए पुरातत्व सर्वेक्षण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सैकड़ों वर्षों से मौसम की मार झेलने के कारण पत्थर और मूर्तियाँ धीरे-धीरे क्षरित हो रही हैं। हर साल लाखों पर्यटक इसे देखने आते है इसलिए अनियंत्रित पर्यटन से स्मारक को नुकसान पहुँचने का खतरा रहता है। पर्यटन प्रबंधन में सुधार भी इसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अनियंत्रित पर्यटक आवागमन को नियंत्रित करने के लिए निर्धारित मार्ग और सीमित प्रवेश जैसी व्यवस्था लागू की जा सकती है। डिजिटल गाइड और वर्चुअल टूर के माध्यम से पर्यटकों को बिना अधिक भीड-भाड़ के इस स्मारक की ऐतिहासिकता से अवगत कराया जा सकता है। पर्यावरणीय क्षरण को कम करने के लिए आसपास हरियाली बढ़ाने, वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों को लागू करने और स्मारक के आसपास वाहनों की आवाजाही को सीमित करने की पहल भी महत्वपूर्ण होगी। बढ़ता वायु प्रदूषण भी पत्थरों की सतह को खराब कर रहा है। इस प्रकार विजय स्तम्भ वर्तमान में इन समस्याओं का सामना कर रहा हैl[22] स्थानीय समुदाय की भागीदारी इस संरक्षण प्रयास में अत्यंत आवश्यक है। यदि आसपास के निवासी इस स्मारक की महत्ता को समझेंगे तो वे इसके रखरखाव में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।
निष्कर्ष : उपरोक्त विस्तृत विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि चित्तौड़गढ़ का विजय स्तम्भ केवल एक सामरिक विजय का स्मारक न हो कर एक बहु-अर्थी ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। विजय स्तम्भ के रूप में यह महाराणा कुंभा के शासनकाल का एक मूर्त रूप है, जो उनकी उपलब्धियों ओर महत्वकांक्षाओं को दर्शाता है। इसकी नौ मंजिला संरचना जहाँ कुम्भा की राजनीतिक शक्ति और सैन्य कौशल का दर्शाती है, वहीं स्तम्भ की दीवारों पर उत्कीर्ण विविध देवी-देवताओं का चित्रण उनकी कला में रुचि व धार्मिक आस्था को बताता है। यह स्मारक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि जहाँ विजेता का शौर्य और कला के प्रति उनका प्रेम एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं। विजय स्तम्भ एक ऐसा स्मारक है जिसने सदियों से मेवाड़ की सांस्कृतिक चेतना को जीवित रखा है। यह स्मारक हर युग में राजपूत अस्मिता, गौरव और स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में देखा गया है। भारत की स्वतंत्रता संग्राम में भी इस स्तम्भ की तस्वीरें प्रेरणा स्वरूप उपयोग में ली जाती थीं। आधुनिक काल में यह राजस्थान पर्यटन का महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है।
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अभिमन्यु चावला
जूनियर रिसर्च फेलो, शोधार्थी, इतिहास विभाग, मेवाड़ विश्वविद्यालय, गंगरार, चित्तौड़गढ़
210 राणा सांगा बाजार चन्द्रलोक सिनेमा के सामने चितौडगढ
Abhimanyuchawla7259@gmail.com, 9352072470
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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