शोध आलेख : भोजपुरी लोकसंस्कृति के सन्दर्भ स्रोत / मृत्युंजय, प्रभात कुमार, आशुतोष कुमार पांडेय

भोजपुरी लोकसंस्कृति के सन्दर्भ स्रोत[i]
मृत्युंजय, प्रभात कुमार, आशुतोष कुमार पांडेय

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शुकराना: आखर फेसबुक पेज

किसी भी लोक-भाषा संस्कृति के संदर्भ-स्रोतों को मुख्यतः तीन रूपों में जाना जा सकता है। पहला, उस भाषाई क्षेत्र में मौजूद लोकविधाएँ; दूसरा, उस विशेष भाषा-क्षेत्र के संदर्भ में लोकगीत, नृत्य, कथा, रीति-रिवाज, त्योहार, कला और परंपराओं का व्यवस्थित संकलन व शोध कार्य, और तीसरा,सामाजिक समता-विषमता को लेकर हुई बहसें और विमर्श। लोक संस्कृति के अध्ययन-उत्पादन के तीनों पक्ष सांस्थानिक भी रहे हैं और व्यक्तिगत भी। इनका वैश्विक पहलू भी है और राष्ट्रीय भी। इस लेख के पहले हिस्से में हम इन्हीं बिंदुओं के इर्द-गिर्द भोजपुरी लोकसंस्कृति पर हुए अध्ययनों की चर्चा करेंगे। आखिर में हम उन पुस्तकों का संदर्भ सहित सार-संक्षेप भी पेश करेंगे, जो भोजपुरी लोक साहित्य के अध्ययन के लिए किंचित प्रासंगिक हैं।

I

ज्ञान के अन्य अधुनातन अनुशासनों की तरह ही भारत में लोक साहित्य के अध्ययन का सिरा भी प्राच्यवादी व उपनिवेशवादी अध्ययनों से जुड़ा है जिसकी शुरुआत एशियाटिक सोसायटी की स्थापना और विलियम जोन्स से होती है।[ii] इसी परंपरा में हिन्दी प्रदेश में विलियम क्रूक और जॉर्ज ग्रियर्सन जैसे प्रशासक-विद्वानों द्वारा लोक संस्कृति का अध्ययन शुरू हुआ।[iii] मसलन जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने‘सेवन ग्रामर्स ऑफ द डायलेक्ट्स ऐंड सब-डायलेक्ट्स ऑफ द बिहारी लैंग्वेज’ (1883–1887)नामक शोधपरक ग्रंथ से देश-विदेश में लोकभाषा संबंधी शोधार्थियों का ध्यान बिहार की लोकसंस्कृति और भाषाओं की ओर आकर्षित किया। ग्रियर्सन मूलतः व्याकरणविद् और भाषाशास्त्र के अध्येता थे। इसी कारण उनके इस कार्य में भोजपुरी, मगही और मैथिली सहित विभिन्न बिहारी बोलियों की व्याकरणिक संरचनाओं का सरकारी उपयोग हेतु दस्तावेज़ीकरण किया गया। वैसे ही भोजपुरी मौखिक परंपरा को संरक्षित करने का प्रारंभिक कार्य डब्ल्यू. जी. आर्चर ने 1939 से 1941 तक किया। उन्होंने भोजपुर क्षेत्र (शाहाबाद) से यह सामग्री संग्रहित की थी। इसमें शगुन, मांगलिक अवसरों से जुड़े गीत, चैता, कजली, बरसाती आदि लोक-विधाओं पर बल दिया गया है। इस संग्रह को सबसे पहले‘जर्नल ऑफ द बिहार एंड ओड़िसा रिसर्च सोसाइटी’ में प्रकाशित किया गया था। यह पत्रिका बिहार और ओड़िसा के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ लोकव्यवहार, कला और संस्कृति संबंधी विचारों व कार्यों को बहस और अवलोकन के लिए स्थान देती थी। इसी समय हिन्दी और भोजपुरी की कुछ पत्रिकाएँ भी लोकसंस्कृति और भोजपुरी को स्थान देती थीं, जिनमें 1915 में बक्सर से निकलने वाली ‘बगसर समाचार’ मुख्य थी। इस पत्रिका में भोजपुरी जलसों से संबंधित ख़बरें छपती थीं। इसके अलावा ‘मतवाला’ जैसे कलकत्ता से छपने वाले हिन्दी साप्ताहिक में आज के चर्चा भइल बा स्तम्भ[iv] में भोजपुरी लोक संस्कृति और साहित्य पर चर्चा-परिचर्चा होती थी।

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शुकराना:साहित्यांगन

हिंदी साहित्य अध्ययन में लोक-संस्कृतियों के संकलन का प्रारंभिक कार्य रामनरेश त्रिपाठी ने 1925 से शुरू किया, जो ‘कविता कौमुदी’ भाग 5, 'ग्राम गीत' नाम से हिन्दी मंदिर, प्रयाग से 1929 में छपा। अवध क्षेत्र पर केंद्रित इस संकलन में एक ओर जनसामान्य में व्यापक रूप से प्रचलित सभी जातियों, वर्गों में मौजूद सोहर, कजरी, बिरहा, होरी, मेला-गीत, विवाह-गीत, विदाई-गीत जैसे शामिल हैं तो दूसरी ओर सामाजिक हाशिये की संस्कृति को रेखांकित करते श्रम-गीत भी हैं जो निम्न कही जाने वाली जातियों से जुड़े हैं। इसी दौर में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लोक संस्कृति के अध्ययन को नई दिशा से समझने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने आधुनिक गद्य की पूर्ववर्ती परंपरा की पड़ताल करते हुए ब्रज में शिष्ट और अशिष्ट साहित्य की बात उठाई। आचार्य शुक्ल की साहित्य की 'शिक्षित जनता' वाली परिभाषा से एक इंगित यह भी निकलता है कि 'हिंदी शिष्ट साहित्य', लोक-भाषा और लोक-संस्कृति से दूर हो गया।[v]

हिन्दी राष्ट्रवाद से जुड़े संस्थागत प्रयासों ने भी लोक साहित्य के संरक्षण में दिलचस्प भूमिका निभाई। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दुस्तानी एकेडमी जैसी अलग-अलग वैचारिक रुझानों वाली संस्थाओं ने खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में लोक साहित्य के अध्ययन को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसके संकलन और प्रकाशन को बढ़ावा दिया। नए राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के दौर में बिहार में भोजपुरी अकादमी, मैथिली अकादमी और मगही अकादमी की स्थापना हुई तथा 1978 में बिहार के विश्वविद्यालयों में भोजपुरी और मैथिली के अध्ययन-अध्यापन के लिए विभाग खोले गए। इन अकादमियों व विभागों की स्थापना क्षेत्रीय भाषाओं (भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, बज्जिका) को प्रोत्साहन देने के लिए की गई थी, ताकि उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संजोया जा सके और उन्हें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई जा सके।[vi]

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शुकराना: बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और साहित्यांगन

आज़ादी के बाद भारतीय समाज, साहित्य और संस्कृति को लेकर लोक कलाओं और कलाकारों के नज़रिए में बदलाव आया। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में लोक साहित्य को भी शामिल करते हुए उसे संकलित करने, उसका भाष्य करने का कार्य पुनः शुरू हुआ। आरा से निकलने वाली ‘भोजपुरी’ पत्रिका (1947 से 1952) को अलग-अलग संपादकों (1947– महेंद्र कुमार, आचार्य महेंद्र शास्त्री; 1952– रघुवंश नारायण सिंह) ने निकाला, जिसे भोजपुरी संस्कृति के दिलचस्प स्रोत की तरह पढ़ा जा सकता है।

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शुकराना: भोजपुरी आकादमी, पटना

1948 में स्थापित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के उद्देश्यों में लोकगीतों का संग्रह भी महत्वपूर्ण था। नलिन विलोचन शर्मा ने 1959 में‘लोककथा कोश’, ‘लोक साहित्य: आकार साहित्य सूची’ और ‘लोकगाथा-परिचय' नाम से तीन खंडों में बिहार की लोकभाषाओं जैसे भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका तथा इस क्षेत्र की आदिवासी भाषाओं के लोक साहित्य और संस्कृति को सूचीबद्ध करने का प्रयास किया। उन्होंने लिखा—“इस कथा-कोश के आधार पर विभिन्न कथाओं का स्रोतान्वेषण तथा कथानक-रूढ़ि विवेचन संभव हो सकेगा। हिन्दी क्षेत्र की अन्य विभाषाओं तथा हिंदीतर भारतीय भाषाओं की लोककथाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन के लिए भी यह उपादेय सिद्ध होगा।” इस खंड में भोजपुरी, मैथिली, मगही और आदिवासी क्षेत्र की लोककलाओं एवं कथाओं की सूची संक्षिप्त परिचय के साथ दी गई है। इस सिलसिले में व्यक्तिगत प्रयास भी उल्लेखनीय रहे। डॉ. हरिशंकर उपाध्याय और गणेश उपाध्याय ने भारतीय लोकसंस्कृति शोध संस्थान से भोजपुरी संदर्भों की एक फेहरिस्त 1994 में तैयार की। यह फेहरिस्त मुख्यतः तीन भागों में विभाजित है- भोजपुरी : एक परिचय, भोजपुरी लोक साहित्य ग्रंथों की सूची, भारतीय लोकसंस्कृति शोध संस्थान का संक्षिप्त वर्णन। इसमें पुस्तकों की सूची के साथ-साथ भोजपुरी पत्रिकाओं, भोजपुरी क्षेत्र में और उसके लिए काम करने वाले संगठनों, लोक-व्यक्तित्वों, व्यक्तियों, भोजपुरी शब्दकोशों तथा मुहावरा-कोश की भी फेहरिस्त दी गई है। इसके अलावा भोजपुरी क्षेत्रों के प्रमुख मेलों, दर्शनीय स्थलों और संन्यासियों की भी सूची है। पं. गणेश चौबे ने भोजपुरी भाषा, साहित्य और लोक संस्कृति संबंधी विपुल लेखन किया, उन्होंने 1968 के आस-पास इंडियन पब्लिकेशन, कलकत्ता की प्रसिद्ध पत्रिका कीफोकलोर के लिए ‘बिहार इन फोकलोर स्टडी: ऐन एंथ्रोलॉजी’ का संपादन प्रो. एल. पी. विद्यार्थी के साथ किया। उनका दूसरा महत्वपूर्ण संपादित कार्य ‘भोजपुरी प्रकाशन के सइ बरिस’ है, जो 1983 में प्रकाशित हुआ। इसमें 1982 से 1983 तक प्रकाशित भोजपुरी लोक साहित्य का परिचय सहित संकलन किया गया है। हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रतिष्ठित पत्रिका सम्मेलन पत्रिका ने लोक-संस्कृति अंक (1973) प्रकाशित किया जो हिंदी क्षेत्र के त्योहार, रीति-रिवाज़ और लोक-परंपराओं पर केंद्रित था। इसी तरह हिन्दुस्तानी अकादमी से 1971 में डॉ. श्रीधर मिश्र की पुस्तक‘भोजपुरी लोक साहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन’ का प्रकाशन हुआ, जो भोजपुरी भाषा और लोकसंस्कृति पर शोध और अध्ययन के लिए एक प्राथमिक संदर्भ साबित हुई। इस पूरे दौर में कुछ और महत्वपूर्ण अध्ययन-संकलन सामने आए, मसलन : डॉ. उदयनारायण तिवारी (भोजपुरी भाषा और साहित्य 1954, लोकसंस्कृति की रूपरेखा 2009), डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय(लोक साहित्य की भूमिका 1957, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन 1960, भोजपुरी लोकगीत (दो खंड), 1990 तथा भोजपुरी लोकसंगीत 2011), सत्यव्रत सिन्हा (भोजपुरी लोकगाथा’- 1957), दुर्गाशंकर सिंह (भोजपुरी लोकगीत में करुण रस 1944,भोजपुरी के कवि और काव्य 1958) और रविशंकर उपाध्याय (भोजपुरी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, 1985)। इसके अलावा 1979 में ‘अँजोर’ नामक भोजपुरी पत्रिका लंबे समय तक प्रकाशित होती रही, जिसमें भोजपुरी लोक संस्कृति की धरोहरों का भंडार है। कर्मेन्दु शिशिर (भोजपुरी होरी गीत दो भाग, 1983& 1985), विन्ध्यवासिनी देवी (बिहार के संस्कार गीत, 2001) तथा हंस कुमार तिवारी और राधावल्लभ शर्मा (भोजपुरी संस्कार-गीत 1977) इसी शृंखला की कड़ियाँ हैं।

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आज के समय को डिजिटल युग कहा जाता है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ठिकानों के बेइंतहा बढ़ाव और पहुँच ने सामान्य अवाम को अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का ठिकाना मुहैया कराया है। अभिव्यक्ति की इस व्यापक और विविध दुनिया में लोक संस्कृति का हिस्सा काफी है। इसलिए लोक साहित्य के प्राथमिक स्रोतों के लिहाज से डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म बहुत उर्वर ठिकानों की तरह सामने आए हैं। छपाई की दुनिया से बाहर रह गया मौखिक साहित्य और समुदाय डिजिटल में सीधी अभिव्यक्ति हासिल कर सका। भोजपुरी के लिए ‘साहित्यांगन’, ‘जोगीरा.कॉम’, ‘आखर’ और ‘पुरबिया तान’ जैसे प्लेटफार्म इसी परिघटना का हिस्सा हैं। इसके अलावा, स्थानीय नाट्य मंडलियाँ मसलन इप्टा पटना, जन नाट्य मंच पटना, हिरावल, निर्माण कला मंच, प्रतिश्रुति, पटना, संकल्प, बलिया इत्यादि भी भोजपुरी लोक संस्कृति के प्रदर्शन के जरिए डिजिटल मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करते हैं। इस नए डिजिटल दौर में सालाना आयोजित होने वाले सांस्कृतिक जलसे भी काफ़ी महत्त्व रखते हैं, जो डिजिटल दुनिया और लोक संस्कृति का मुखामुखम रचते हैं। मसलन, जोगिया (जनूबी पट्टी, कुशीनगर) में होने वाला सालाना जलसा ‘लोकरंग’ लोकसंस्कृति का महत्वपूर्ण आयोजन है। यह आयोजन मुख्यतः भोजपुरी को केंद्र में रखकर किया जाता है, परंतु विविध भाषाओं और उनकी लोकसंस्कृति के रूपों को भी इसमें यथावत जगह मिलती है। इस आयोजन को छपित दुनिया में एक स्मारिका/पुस्तक-पत्रिका के जरिए उत्तर-जीवन मिलता है जो लोकरंग नाम से निकलती है।

II

वाणी के बोल, सं. साहित्य वाचस्पति शास्त्री सर्वेन्द्रपति त्रिपाठी, सर्वेन्द्र प्रकाशन, पटना 1928. 
इस पुस्तक में कहावतें, लोकगीत और जीवनानुभव संग्रहीत हैं। यह भाषाई समृद्धि और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करती है।

महेन्दर मिसिर, रामनाथ पाण्डेय, भोजपुरी, विकास भवन, रतनपुरा, छपरा, 1954 
इसमें लोकप्रिय लोककवि महेन्दर मिसिर के जीवन और रचनाओं का परिचय है। कृति उनकी गीत-परंपरा, सांस्कृतिक योगदान और भोजपुरी लोककाव्य की धरोहर को समेटती है।

लालच जीव के जवाल, सं. जगदीश, एम. ए. ‘शास्त्री’, भोजपुरी भूषण भगवती प्रकाशन, 1955 
इसमें लोभ और लालच पर आधारित कहानियाँ और गीत शामिल हैं। यह सामाजिक चेतना और नैतिक शिक्षा का प्रचार करती है।

मोती के घवद, डॉ. कमला प्रसाद मिश्र ‘विप्र’, भोजपुरी साहित्य मंडल, बक्सर, 1960. 
इसमें लोकजीवन की कहानियाँ, समाजिक संघर्ष और सांस्कृतिक विविधता का चित्रण है। भाषा की सरलता और कथ्य की गहराई इसे उल्लेखनीय बनाती है।

बिसराम के बिरहे, सं. ईश्वरचंद्र सिन्हा, भोजपुरी संसद, वाराणसी 1965 
यह संकलन बिरहा लोकगीत की परंपरा को उजागर करता है, जो बिरहा गायक बिसराम की रचनाओं पर केंद्रित है। इसमें विरह, पीड़ा और संवेदना की गहन अभिव्यक्ति मिलती है, जो भोजपुरी लोकसंगीत की प्रमुख विधा है।

चम्पारन के गीत, सं. बलदेव प्रसाद श्रीवास्तव, श्री भारतेंदु प्रकाशन मोतिहारी, 1969. 
इसमें चम्पारन क्षेत्र के लोकगीतों का संग्रह है, जिसमें ग्रामीण जीवन, कृषि, पर्व-त्योहार और सामाजिक संबंधों को दर्शाया गया है। यह पुस्तक क्षेत्रीय लोकसंस्कृति और लोकगीतों की विविधता को संकलित करती है।

व्रत कथा, सं. रामबली पाण्डेय, भोजपुरी संसद, वाराणसी, 1970 
इसमें विभिन्न व्रत-उपवासों से जुड़ी कथाएँ और गीत शामिल हैं। यह धार्मिक आस्था और लोकधर्म का अमूल्य दस्तावेज है।

भोजपुरी संस्कार गीत, सं. विजय बलियाटिक, भोजपुरी संसद, वाराणसी, 1974 
इसमें विभिन्न संस्कारों जन्म, विवाह, मृत्यु आदि से जुड़े भोजपुरी गीतों का संग्रह है। इस संकलन संकलन लोकसमाज की धार्मिकता, परंपरा और रीति-रिवाजों को संरक्षित करता है। यह लोकजीवन के भावनात्मक आयामों को उजागर करता है।

गाँव के गीत, सं. विमन कुमार सिंह ‘विमलेश’, भोजपुरी समाज सिवान, सारन, 1974 
यह गाँवों में गाए जाने वाले विभिन्न लोकगीतों का संकलन है। विवाह, पर्व-त्योहार और दैनिक जीवन की झलक इसमें मिलती है। यह लोकधरोहर के संरक्षण का प्रयास है।

गुरुम्हा, डॉ. रामविचार पाण्डेय, भोजपुरी साहित्य मंडल, बलिया, 1974. 
इस लोकगीत में लोकजीवन, लोकगीत और परंपरा का सहज चित्रण है। पुस्तक भोजपुरी समाज की सांस्कृतिक स्मृतियों और जीवनदृष्टि को सामने लाती है।

एगो रहन राजा, सं. डॉ. अर्जुन दास केसरी, लोक वार्ता शोध संस्थान, मीरजापुर, 1979 
इसमें पारंपरिक लोककथाएँ और किस्से संकलित हैं। ये कथाएँ लोकसमाज की नैतिकता, न्यायप्रियता और जीवन-शैली का परिचय देती हैं।

भोजपुरी लोरिकी. सं. & प्र. डॉ. श्याम मनोहर पाण्डेय, साहित्य भवन प्रा. लि. इलाहबाद 1979 
भोजपुरी की पारम्परिक शैली में वीरगाथात्मक काव्य है, जो लोककाव्य की मौखिक परम्परा और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सामने लाने की कोशिश करती है। इसमें लोरिक और चन्दा के पारंपरिक लोक गाथा का विवरण और विवेचन है ।

धरती के भगवान, प्रो. उनकांत वर्मा, जयदुर्गा प्रेस, पटना, 1979 
इसमें किसान, मजदूर और श्रमिक वर्ग के संघर्ष और महत्ता को दर्शाया गया है। पुस्तक लोकसमाज की जीवन-दृष्टि और श्रम-संस्कृति की महिमा को रेखांकित करती है।

मैरेज सॉग्स फ्रॉम भोजपुरी रीजन, सम्पा. अनु. चंद्रमणिसिंह, चंपा लाल रांका एंड कंपनी, जयपुर, 1979 
यह पुस्तक भोजपुरी क्षेत्र के विवाह गीतों का संकलन है। चंद्रमणि सिंह ने इन्हें संपादित और अनुवादित किया है। यह संग्रह विवाह संबंधी उत्सवों, रस्मों और लोकभावनाओं को दर्शाता है। इन गीतों में हास्य, प्रेम, श्रद्धा और सामाजिक चेतना का मिश्रण है। द्विभाषी रूप से प्रस्तुत होने के कारण यह विदेशी पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए भी सुलभ है। यह पुस्तक भोजपुरिया सांस्कृतिक जीवन, लोकगीत और विवाह परंपराओं को समझने का मूल्यवान साधन है।

भिखारी ठाकुर ग्रंथावली (खंड 1 और 2),सं.शीलनाथ ठाकुर और गौरी शंकर ठाकुर, लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम, कुतुबपुर, सारन, 1979, 1986. 
भिखारी ठाकुर की रचनाओं के इस संकलन में लोकगीत, नाटक और कविताएँ शामिल हैं। यह रचनावली भोजपुरी रंगमंच और साहित्य के इतिहास को समझने में महत्वपूर्ण दस्तावेज मानी जाती है। इस पुस्तक में सामाजिक सरोकार और ग्रामीण जीवन की समस्याओं और आकांक्षाओं को समाहित किया गया है।

लोरिकायन, सं. डॉ. अर्जुनदास केसरी, कन्हैया लाल और रामगोविंद दास, लोकरुचि प्रकाशन, मीरजापुर 1980 
इसमें लोरिककी वीरगाथा और लोककथा का विस्तार है। यह भोजपुरी मौखिक महाकाव्य परंपरा का महत्वपूर्ण दस्तावेज है और लोकसाहित्य का अमूल्य स्रोत है।

एगो राजा रहले, राम दुलारी, भोजपुरी संस्थान, पटना, 1980
यह लोककथाओं और कथात्मक गीतों का संग्रह है, जो ग्रामीण समाज की आदर्श कल्पना और नैतिक मूल्यों को प्रकट करता है। यह लोकसंस्कृति की अमर धरोहर है।

भोजपुरी मुहावरा संग्रह, शास्त्री सर्वेंद्रपति त्रिपाठी, सर्वेन्द्र प्रकाशन, पटना, 1982
यह पुस्तक भोजपुरी के प्रचलित मुहावरों का संकलन है। भाषा की जीवंतता, व्यंग्य, हास्य और सामाजिक अनुभवों को दर्शाती है। यह संग्रह भोजपुरी भाषा के गहन अध्ययन और भाषा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए महत्त्वपूर्ण है।

भोजपुरी गीतांजलि, श्रीधर नाथ दूबे, चौसा, भोजपुर, 1982
इस पुस्तक में भोजपुरी लोकभावना और गीतात्मकता चित्रण है,. जो ग्रामीण जीवन की संवेदनाओं, प्रेम, विरह और उत्सवों के गीतों को संजोती है। इसमें भोजपुरी काव्य परंपरा का इतिहास को रेखांकित किया है।

भोजपुरी नीति–कथा, सं. डॉ. रसिकबिहारी ओझा ‘निर्भीक’, भोजपुरी अकादमी, पटना, 1983
इस संकलन में नीति और शिक्षाप्रद लोककथाओं का संकलन है, जो लोकज्ञान, नैतिक शिक्षा और जीवन-दर्शन को सरल भाषा में प्रस्तुत करती है। यह लोककथाओं की शैक्षणिक भूमिका को स्पष्ट करती है।

भोजपुरी फ़िल्मी गीत, सं. मोती बी ए., जवाहर प्रकाशन, देवरिया, 1984
यह पुस्तक भोजपुरी फिल्मों में गाए गए गीतों का संग्रह है। इसमें लोकधुनों और आधुनिक संगीत का सुंदर तालमेल है। भोजपुरी सिनेमा के संगीत संसार को संरक्षित करने का एक उपकम है।

भोजपुरी लोकसंगीत, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय और डॉ. रविशंकर उपाध्याय, भारतीय लोक-संस्कृति शोध-संस्थान वाराणसी, 1985.
इसमें भोजपुरी लोकसंगीत की विभिन्न विधाओं का शोधपरक अध्ययन के साथ –साथ गीतों की संरचना, सामाजिक उपयोग और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करता है। यह लोकसंगीत अध्ययन की स्रोत है।

जनवासा, कुबेर नाथ मिश्र ‘विचित्र’, नवल प्रिंटिंग, प्रेस देवरिया 1988
इसमें ग्रामीण जीवन, सामाजिक संघर्ष और मानवीय संवेदनाओं का यथार्थ चित्रण है। भोजपुरी साहित्य में ग्राम्य जीवन की विविधताओं और संस्कृति के गहन पहलुओं को समझने का स्रोत है।

भोजपुरी फोक सॉग्स फ्रॉम बलिया, डॉ. हरि एस. उपाध्याय, इंडिया इंटरप्रीसेस, युएसए, 1988
यह पुस्तक उत्तर-भारत के बलिया क्षेत्र के भोजपुरी लोकगीतों का संग्रह है। द्विभाषी पाठकों के लिए भी सुलभ है। इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों का समावेश है। लेखक ने गीतों के साथ उनकी पृष्ठभूमि, रीति-रिवाज और सांस्कृतिक महत्व का विश्लेषण किया है। यह संग्रह लोकजीवनमें आदर्श, प्रेम, श्रद्धा और हास्य को उजागर करता है। बलिया क्षेत्र की बोलियों, शब्दावली और लोकधुनों की विविधता को समझने के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण स्रोत है।

खैरा पीपर कबहूँ न डोले, डॉ. सुरेश चन्द्र द्विवेदी, गौरव प्रकाशन, इलाहबाद, 1990
यह ग्रामीण प्रतीकों और जीवन की स्थिरता पर आधारित गीतों का संग्रह है। पुस्तक का शीर्षक लोकविश्वास और सांस्कृतिक स्थायित्व का प्रतीक है और यह ग्रामीण जीवन की चेतना को सहज प्रस्तुत करता है।

चोखार कॅँहरवा, बा. रामदेव सिंह ‘कलाधर’, ’नवराष्ट्रप्रिंटर्स कानपुर, 1990
यह पुस्तक भोजपुरी लोकधारा की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें कृति लोकगीतों, रीति-रिवाजों और परंपरा की रंगीन छटा प्रस्तुत करती है। इसमें क्षेत्रीय बोली की मधुरता और जनजीवन की मिठास झलकती है।

विजेन्द्र अनिल के गीत, संरचना प्रकाशन, आरा 1993
इसमें कवि विजेन्द्र अनिल के गीत संकलित हैं। गीतों में ग्रामीण जीवन, प्रेम, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता का सुंदर चित्रण है।

भोजपुरी रिडल्स फ्रॉम नार्थ इंडिया, वॉल्यू I& II, सं. डॉ. हरि शंकर उपाध्याय, इंडियन फोल्क कल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट, वाराणसी, 1992 & इंडिया इंटरप्राइजेज़, युएसए, 1993
यह द्विभाषी संग्रह उत्तर भारत के भोजपुरी पहेलियों को संग्रहित किया गया है। इसमें लोककथाओं, हास्य और बुद्धिमत्ता से भरी पहेलियों का समावेश है। लेखक ने पहेलियों के अर्थ, व्याख्या और सांस्कृतिक संदर्भ की जानकारी दी है। यह खंड भोजपुरी समाज की मानसिकता, व्यवहार और जीवन शैली को उजागर करता है। पहेलियों में आम जीवन, प्रकृति, परिवार और समाज के विषय शामिल हैं। शोधकर्ताओं और भाषाविदों के लिए यह पुस्तक अमूल्य है। यह भोजपुरियामौखिक परंपरा और लोकसाहित्य के अध्ययन को गहराई प्रदान करती है।

भोजपुरी के विवाह गीत, सं. भगवान सिंह भास्कर,भास्कर साहित्य भारती,सिवान, 1994
भोजपुरी विवाह गीतों का महत्वपूर्ण संकलन है जो दहेज सम्बन्धी, सामाजिक रीति-रिवाज और उत्सवी लोकभावनाको उपजीव्य बनाती है। यह विवाह संस्कार की सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित करती है।

भोजपुरी और अवधी कहावतें, सं. डॉ. हरिशंकर उपाध्याय, इंडिया इंटरप्राइजेज, अमेरिका 1994
यह पुस्तक भोजपुरी और अवधी कहावतों का संकलन है। इसमें ग्रामीण जनजीवन की गहरी अनुभूतियाँ, सामाजिक व्यंग्य और लोकज्ञान को केंद्र में रखा गया है, जो ग्रंथ भारतीय प्रवासी समाज के लिए भी उपयोगी है।

मंगल गीत, सं. भगवान सिंह ‘भास्कर’, साहित्य भारती, सिवान, 1995
यह विवाह, गृहप्रवेश और मांगलिक अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों का संग्रह है। इसे लोकसंस्कार और सामाजिक उत्सवों का प्रतिनिधि ग्रंथ कहा जा सकता है।

भोजपुरी लोकगीतन के संसार, सं. महेंद्र सिंह प्रभाकर (तबला), भोजपुरी प्रसार परिषद्, आरा, 1995.
इसमें भोजपुरी लोकगीतों के विविध रूपों को संकलित गया है, जो लोकजीवन के सुख-दुःख, पर्व-त्योहार और परम्परा का नक्श-ओ-निगार है जिसे लोकसंगीत-चिंतन का मूल्यवान स्रोतभी कहा जा सकता है।

हिन्दू फैमली एंड भोजपुरी सॉग्स, सं. डॉ. हरि एस. उपाध्याय, इंडिया इंटरप्राइजेज़, युएसए, 1996
यह पुस्तक हिंदू परिवार और भोजपुरिया गीतों के बीच संबंधों की विवेचना करती है। इसमें विवाह, जन्म, त्यौहार और पारिवारिक जीवन से संबंधित गीतों का संग्रह है। लेखक ने गीतों के सामाजिक और धार्मिक संदर्भ का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। पुस्तक में पारिवारिक मूल्यों, संस्कारों और भोजपुरिया समाज के रीति-रिवाजों का चित्रण मिलता है। द्विभाषी प्रस्तुति से यह शोधकर्ताओं और सामान्य पाठकों दोनों के लिए उपयोगी है। गीतों में भावनाओं, प्रेम, मातृत्व और सांस्कृतिक आदर्शों की झलक मिलती है।

बगिया में बोले कोइलिया, अज्ञात,भास्कर साहित्य, सिवान, 2000
यह गीत संग्रह गाँव संबंधी परिवेश की ग्रामीण सम्वेदनाओं को व्यक्त करता है। इसमें कोयल के रूपक के माध्यम से प्रेम, विरह और प्रकृति की मधुरता के साथ भोजपुरी लोक संवेदनाओं को सहेजा गया है।

भोजपुरी ग्राम गीत, कृष्णदेव उपाध्याय, हिन्दी साहित्य सम्मलेन, इलाहबाद, 2000
इस पुस्तक में भोजपुरी ग्रामीण परिवेश के पारंपरिक गीतों का संकलन है, जो खेती, विवाह, उत्सव और लोकाचार से जुड़े गीतों को संरक्षित करने का प्रयास है। यह लोकसंगीत और संस्कृति का स्रोत है।

बगिया में बोले कोइलिया, अज्ञात,भास्कर साहित्य, सिवान, 2000
यह गीत संग्रह गाँव संबंधी परिवेश की ग्रामीण सम्वेदनाओं को व्यक्त करता है। इसमें कोयल के रूपक के माध्यम से प्रेम, विरह और प्रकृति की मधुरता के साथ भोजपुरी लोक संवेदनाओं को सहेजा गया है।

कथा दादी–नानी के, सं. परमेश्वर दूबे ‘शाहाबादी’ और डॉ. रसिक बिहारी ओझा ‘निर्भीक’, लोकवार्ता शोध संस्थान, सोनभद्र, 2001.
इसमें दादी--नानी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियाँ और लोककथाएँ संकलित हैं। ये कथाएँ सामाजिक मूल्य, नैतिक शिक्षा और ग्रामीण जीवन का परिचय देती हैं।

बसेला मटीये में परान, अनजान, हिंदुस्तान प्रिंटर्स, भभुआ, 2001
यह पुस्तक भोजपुरी जनजीवन से आत्मीयता मिटटी सम्बन्धी गीतों पर केन्द्रित है। ग्रामीण संस्कृति, लोक परंपरा और जीवन की संघर्षशीलता का इसमें चित्रण है। भाषा और संवेदना के मेल से यह रचना लोकमन से जुड़ती है।

पुरइन पात, सं. डॉ. चितरंजन मिश्र, और अरुणेश नीरन, विश्विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2002
इसमें भोजपुरी लोकगीतों और कविताओं का संकलन और विश्लेषण है।

थरुहट के लोकगीत, सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’, श्रीमंत प्रकाशन, सारन, 2002
इसमें थरुहट क्षेत्र के लोकगीतों का संग्रह है। यह क्षेत्रीय लोकसंस्कृति की विविधता और विशिष्टता का दस्तावेज है।

त्रिपथगा, लोकभूषण डॉ. श्रीमती राजेश्वरी शांडिल्य, अखिल भारतीय, लखनऊ, 2002
इसमें भोजपुरी साहित्य और लोकधरोहर की विविध धारा का चित्रण है। यह लोकजीवन और साहित्यिक संवेदना का संगम है।

चुनलगीत, सं कृपाशंकर शुक्ल, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2003

इसमें भोजपुरी लोकगीतों का चयनित संग्रह है जो ग्रामीण संस्कृति, प्रेम, विरह और जीवनानुभव की झलक प्रस्तुत करता है। यह कृति लोकगीतों की विधागतशुद्धताके सहारे सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने की कोशिश करती है।

नये पुराने लोक रंग, सं. लोकभूषण डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य, राजश्री प्रकाशन, लखनऊ, 2003
इस संकलन में भोजपुरी लोकसंगीत सम्बन्धी नए और पुराने ज़माने के गीतके साथ –साथ कहावतें और समाजिक रीतिरिवाज़ को संकलित किया गया है।

मास्टर अजीज के कीर्तन, पहिल खंड, सं. एम जब्बार आलम और, नागेन्द्र प्रसाद सिंह, विश्व भोजपुरी सम्मेलन, नई दिल्ली, 2003
इसमें मास्टर अजीज के भक्ति गीत और कीर्तन शामिल हैं। यह धार्मिक लोकसंगीत की जीवंत परंपरा और ग्रामीण भक्ति संस्कृति का दस्तावेज है।

अंतर्मन में बसी एकता, ब्रह्मानंद शुक्ल, सुधा संस्मृति संस्थान, गोरखपुर, 2005
इस भोजपुरी कविता-संग्रह में मानवीय एकता, सह-अस्त्तिव और आत्मिक शांति की खोज को केन्द्रीय विषय बनाकर व्यक्तिगत अनुभवों को सामाजिक सन्दर्भोंसे जोड़ा गया है।

हीरा के जोगीरा, हीरा प्रसाद ठाकुर, राज कुमार, प्रकाशन, आरा, 2007
इसमें जोगीरा गीतों का संकलन है जो हास्य, व्यंग्य और लोकमस्ती का अनूठा उदाहरण है। यह पुस्तक भोजपुरी लोकगीत परंपरा का जीवंत दस्तावेज है।

नाई चालीसा, हीरा प्रसाद ठाकुर, राज कुमार प्रकाशन, आरा 2008
इसमें जाति व्यवस्था से उत्पन्न व्यवसायों खासकर नाइ जाति के जीवन की सामाजिक स्थिति पर आधारित चौपाई छंदों का संग्रह है। यह ग्रामीण जीवन और सामाजिक संरचना का जीवंत दस्तावेज है।

छठ परमेसरी, सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’, भोजपुरी साहित्य संस्थान, पटना, 2009
भोजपुरी समाज के प्रमुख पर्व छठ से जुड़े गीतों और परंपराओं का संग्रह है। इस ग्रंथ में लोकभक्ति, आस्था और प्रकृति पूजा का सुंदर चित्रण है। यह लोकधर्म और संस्कृति का मूल्यवान दस्तावेज है।

हम कबीर के बानी, सं. अरविन्द कुमार, संरचना प्रकाशन, आरा, 2009
इसमें संत कबीर की वाणी को भोजपुरी में प्रस्तुत किया गया है। यह कृति भक्ति परंपरा, लोकनीति और सामाजिक संदेश को आमजन तक पहुँचाने का सार्थक प्रयास है।

चंपारण के गीत, लव शर्मा ‘प्रशांत’, भोजपुरी साहित्य संस्थान, पटना, 2010
यह पुस्तक चंपारण क्षेत्र के लोकगीतों का संग्रह है, जिसमें चंपारण की सांस्कृतिक धरोहर, लोकभावना और लोकसंगीत की विविधता को संरक्षित करती है। इसमें ग्रामीण जीवन और परंपराओं की सहज झलक मिलती है।

क से कैथी, श्री कृष्णा जी पाण्डेय, आखर भोजपुरी प्रकाशन, 2011
की यह रचना से प्रकाशित। इसमें कैथी लिपि का परिचय, महत्व और उपयोगिता प्रस्तुत की गई है। यह पुस्तक भोजपुरी भाषा और लिपि अध्ययन में सहायक और लोकलेखन परंपरा की जानकारी देने वाली है।

भोजपुरी–उड़िया लोकोक्तियाँ, सं. प्रो. हरिश्चंद्र मिश्र, आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल, 2012
इस पुस्तक में भोजपुरी और उड़िया भाषाओं की लोक-प्रचलितउक्तियों का तुलनात्मक अध्ययन है। यह पुस्तक भाषाई-सांस्कृतिक सेतु का निर्माण करती है जिसमें जनजीवन की गहराई और लोक अनुभवों का तस्वीर मिलती है।

भोजपुरी विवाहोत्सव गीत, डॉ. लक्ष्मी श्रीवास्तव ‘अणु’, माँ तारा प्रिंटर्स पटना, 2012
यह पुस्तक विवाह अवसर पर गाए जाने वाले भोजपुरी गीतों का संग्रह के साथ-साथ गीत संकलन विवाह परम्परा, लोकरीतियों और उत्सवी वातावरण को अभिव्यक्त करती है। यह पुस्तक सांस्कृतिक अध्ययन और लोकसाहित्य के शोधार्थियों के लिए उपयोगी है।

भोजपुर अनुगूँज, बेंकट गोपाल, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, भोजपुर, 2013
भोजपुर क्षेत्र की सांस्कृतिक गूँज को संरक्षित करने वाली इस किताब में शिक्षा, लोकगीत, परंपरा और क्षेत्रीय साहित्य का परिचय दिया गया है। यह संकलन स्थानीय साहित्यिक विरासत का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।

कवना बने रहलू ए कोइलरि, सं. जगन्नाथ मिश्र और श्रीमती मीना मिश्रा, संपादित पुस्तक विश्व, सम्मलेन, पटना 2017
इसमें प्रेम, विरह और ग्रामीण भावनाओं से जुड़े लोकगीत संकलित हैं। यह भोजपुरी लोकभावना की कोमल अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक स्मृतियों का दर्पण है।

रुनुकी झुनुकी बेटी, सं. श्रीमती मीना मिश्रा और जगन्नाथ मिश्र, भास्कर समिति, आरा, 2017
इसमें भोजपुरी में महिलाओं से जुड़े व्रत – त्यौहार सम्बन्धी गीतों और भावनाओं का संग्रह है। यह ग्रामीण परिवारिक जीवन और स्नेह की मधुरता को दर्शाती है।

भोजपुरी लोककथा मंजूषा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहबाद, 2018
यह पुस्तक भोजपुरी क्षेत्र की प्रचलित लोककथाओं का संग्रह है,जिसे लोकबुद्धि, नैतिक मूल्यों और ग्रामीण कल्पनाशीलता का परिचायक कहा जा सकता है। इसमें कथाओं के माध्यम से समाज की जीवनदृष्टि और सांस्कृतिक को केंद्र में रखा गया है।

भोजपुरी लोकोक्ति सागर, डॉ. अर्जुन तिवारी, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज 2019
इसमें भोजपुरी की समृद्ध लोकोक्तियों का संकलन है। यह पुस्तक ग्रामीण जीवन की गहराई, सामाजिक अनुभव और लोकज्ञान को उजागर करती है। यह लोकोक्तियों के सांस्कृतिक महत्व और भाषाई विविधता को संरक्षित करती है।

कलसा भइले उजियार, डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल, भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2021
इसमें भोजपुरी लोकजीवन, पर्व-त्योहार और सामाजिक परंपराओं का साहित्यिक चित्रण है। ये रचनाएँ सांस्कृतिक मूल्यों और ग्रामीण अनुभव की जीवंत अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती हैं।

महेन्द्र मिसिर के चुनिंदा भोजपुरी गीत, सं. भगवती प्रसाद द्विवेदी, सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2021
इसमें महेन्द्रमिसिर के प्रमुख गीत संकलित हैं। यह संग्रह भोजपुरी लोककाव्य की अमूल्य धरोहर और ग्रामीण भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है।

भोजपुरी कविता, भजन एवं लोकगीत संग्रह, सं. पं. ब्रह्म दयाल पाण्डेय‘दयाल’, वाशिष्ठ्पुरी, आरा, उपलब्ध नहीं
इस संग्रह में पारंपरिक भोजपुरी कविताएँ, भजन और लोकगीत शामिल हैं। इसमें धार्मिक आस्था, लोकजीवन की भावनाएँ और सांस्कृतिक परंपराओं का काव्यात्मक विवरण है। यह लोकगीत भोजपुरी लोकसाहित्य के हिफ़ाज़त की महत्त्वपूर्ण पहल है।

भोजपुरी के रसगर गीत, सं. तुलसीदास, लोक साहित्य संगम,बिहिया, भोजपुर, उपलब्ध नहीं
इस संग्रह में भोजपुरी लोकगीतों की विविध विधाओं का संकलन है। इस संकलन में ग्रामीण जीवन की मिठास, प्रेम और सामाजिक संबंधों को उजागर करता है। इसमें भाषा की सरलता और भावनाओं की सहजता है।

चोखा, पं. महेंद्र शास्त्री, राहुल पुस्तकालय, सारन, उपलब्ध नहीं
यह रचना भोजपुरी साहित्य की संवेदनशील और लोकाभिव्यक्ति मूलक धारा को सामने लाती है। इसमें जनजीवन, संघर्ष और परंपराओं की गूंज है। यह पुस्तक लोकसंस्कृति के जीवंत स्वरूप का परिचायक है।

सोरठी बृजभार, बाबू महादेव प्रसाद सिंह, बंबई प्रेस, बम्बई
इसमें सोरठी लोकगाथा का विस्तृत स्वरूप है। यह वीरता, प्रेम और संघर्ष की महागाथा प्रस्तुत करती है।

संदर्भ :
[i]आभार : यह लेखभारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसन्धानपरिषद्, नई दिल्ली द्वारा वित्तपोषित शोध परियोजना 'An Intermedia Digital Archive of Folk Culture in North India, C. 1930-2020' का हिस्सा है।
2. आभार : भोजपुरी साहित्यांगन, आखर, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, भोजपुरी अकादमी, पटना.
[ii] विस्तृत अध्ययन के लिए ओम प्रकाश केजरीवाल की पुस्तक देखें।
[iii]वैश्विक स्तर पर लोक संस्कृति के अध्ययं की रवायत के लिए देखें: भूमिका, शर्मा, श्री हंसकुमार तिवारी और राधावल्लभ, भोजपुरी संस्कार-गीत, बिहार राष्ट्रभाषा – परिषद, पटना, 2011.
[iv]देखें, आखर पर नबीन कुमार और शशि रंजन मिश्र का लेख।
[v]देखें : मृत्युंजय, हिन्दी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया, राजकमल प्रकाशन, 2016
[vi]इनके प्रकाशनों की सूची और कार्य-प्रणाली को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि इनकी दूरी लोकजीवन से बनी रही। यही कारण है कि भाषा-अकादमियाँ ऐसी संस्थाएँ बन गई हैं, जो भाषा के मानकीकरण, नियमन और शुद्धिकरण पर बल देती हैं और इस प्रकार शक्ति-संरचनाओं का हिस्सा बनती चली गईं, जो यह तय करती हैं कि किन भाषाई रूपों को "वैध" या "प्रामाणिक" माना जाए और किन्हें नहीं।

मृत्युंजय
भारतीय भाषा कार्यक्रम, सीएसडीएस, दिल्ली
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प्रभात कुमार
सहायक आचार्य, सीएसडीएस, दिल्ली
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आशुतोष कुमार पाण्डेय
भारतीय भाषा कार्यक्रम, सीएसडीएस, दिल्ली

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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