शोध आलेख : राकेश कबीर के काव्य लोक में अभिव्यक्त संवेदनात्मक वैविध्य / करुणा सैनी

राकेश कबीर के काव्य लोक में अभिव्यक्त संवेदनात्मक वैविध्य
- करुणा सैनी


शोध सार : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर वह अपने भावों को भिन्न-भिन्न रूप से व्यक्त करता है। उसी का एक माध्यम या साहित्यिक रूप काव्य है। जिसमें वह अपने भावों और विचारों को एक माला में गुथता हुआ चला जाता है। काव्य इसी यात्रा के अनुभवों का माध्यम भर नहीं है, वह कवि के उस उत्कंठा और आह्लाद के साथ शुरू होता है, और काव्य को जन्म देता है। राकेश कबीर का काव्य-लोक भी इन्हीं अनुभूतियों से ओतप्रोत है, जहां पहले पहल कुछ अनुभूतियां कच्ची-पक्की जरूर होती हैं, किसी रचनाकार की शिल्प एवं शैली भले परिपक्व न हों, लेकिन वह धीरे-धीरे प्रत्येक स्तर पर परिपक्व होने लगती है, अर्थात् इससे यह समझा जा सकता है, कि परिपक्वता साधना से ही आती है, उसके लिए रचनाकार को अपने रचना लोक में निरंतर साधना रत रहना होता है, जो एक उत्कृष्ट काव्य की उपज करता है। प्रस्तुत शोध आलेख में राकेश कबीर के काव्य लोक में अभिव्यक्त संवेदनात्मक वैविध्य को उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास है।

बीज शब्द : काव्य, लोक, ग्रामीण, पर्यावरण, प्रकृति, संवेदना, नदियां, प्रकोप, विकास, वैश्वीकरण।

मूल आलेख : राकेश कबीर का काव्य गाँव और उसके आसपास के समाज में व्याप्त विषमताओं को लेकर गहनतम रूप से क्षुब्ध है, साथ ही ये प्रकृति और पर्यावरण के होते ह्रास से दुखी और हताश हैं। वे अपनी कविताओं और गाँव के संदर्भ में लिखते हैं-“मेरी जन्मभूमि गाँव में है और गाँव मेरे हृदय में बहुत गहरे बसा है। हरे-भरे खेत, खलिहान, नदी तालाब, कुएं, गाय, भैंस, बकरियाँ और उनके चरवाहे रखवाले सभी की चिंता, सभी से प्रेम, उनकी स्मृतियाँ...गाँव-गिराँव की हर चीज दिल के बहुत करीब है और जब गाँव और गाँव के लोगों के साथ कुछ गलत होता है तो बहुत बुरा लगता है।”1 कवि का गाँव के प्रति लगाव को देखकर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किस प्रकार से कोई कवि अपना रचना लोक गढ़ता है उसकी प्रक्रिया उस भट्टी की तरह है, जहां अनुभवों का संसार पकता है, फिर वो पाठक को उससे रूबरू कराता है।

काव्य साहित्य की एक स्वायत्त विधा है, जिसमें कवि अपने भावों और विचारों को समय, समाज और मनुष्य से संबंध को सृजनात्मक अभिव्यक्ति देता है। किन्तु काव्य समय, समाज और मनुष्य से जुड़ा होकर भी अपनी सीमा से परे भी चला जाता है। तब कवि के लिए मशहूर हिन्दी की कहावत प्रचलित हो जाती है जहां ना पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि। साहित्य समाज का दर्पण है, समाज में रहते हुए ही लेखक, मनुष्य एवं उसकी समस्याओं को टटोल पाता है, वह अपनी प्रकृति से जुड़ पाता है। इसी संवेदना के रहते हुए राकेश कबीर का कवि मन मानवीय समस्याओं के साथ-साथ प्रकृति से भी बेहद लगाव रखता है, और उतना ही उसकी समस्याओं के लिए सजग भी रहता है। इसी अभिव्यक्ति को उन्होंने अपने काव्य में पिरोया है, उनके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें ‘नदियाँ बहती रहेंगी’, ‘नदियाँ ही राह बताएँगी’, ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ और ‘तुम तब आना’ हैं।

उनका काव्य लोक काफी विस्तृत है, उनके कवि कर्म में रिश्ते, प्रेम, दांपत्य जीवन, दोस्तों, कामकाजी जीवन की व्यस्तताओं, निजी जीवन के राग द्वेष और संघर्षों से लेकर प्रकृति, पर्यावरण, अजनबीयत, नए राजनीतिक व्याकरण के आँखों पर पट्टी बांधे, सामाजिक अन्याय और सांस्कृतिक अंधेपन में बटते, विनाशकारी विकास और उसके फलस्वरूप जीवन खोते हुए लोग, प्रकृति एवं प्राणी तक शामिल हैं। इस विस्तृत दायरे से हम जान पाते हैं कि राकेश जी जिस लोक की अभिव्यक्ति को अपनी विषय वस्तु बनाते हैं वह साधारण नहीं हैं। उनकी कविताएं अपने समय की जटिलताओं से टकराती हैं। उनकी कविताओं के संबंध में प्रो. दिनेश कुशवाह लिखते हैं -“उनकी कविताओं में एक सघन आत्मविश्वास है, जो उन्हें ‘हम न मरब, मरिहैं संसारा’ वाले कबीर के पास ले जाकर खड़ा करता है।”(2)

राकेश कबीर के काव्य का संवेदनात्मक धरातल व्यक्तिगत तौर पर विस्तृत एवं परिपक्व होता रहा। साथ ही अपने संग्रहों में उन्होंने विभिन्न विषयों पर कलम चलायी है। उनके संग्रहों में अभिव्यक्त हुई संवेदना प्रकृति के अधिक निकट है, जिसमें सूखती नदियाँ, बिखरते/ बिलखते पहाड़, दमघोंटू हवा और कटते जंगलों के प्रति गहरी संवेदना हैं। साथ ही विकास के नाम पर हो रहे हनन से गहरी क्षुब्धता भी है। उनके यहाँ प्रकृति के लिए तरह-तरह के बिंबों का प्रयोग हुआ है।

आज वैज्ञानिक विकास के चलते प्रौद्योगिकी नयी ऊंचाइयों पर है, इसका केन्द्र मनुष्य ही है, जिसके बिना शायद औद्योगिक विकास को गति मिलना असंभव था। उसने अपने लिए किए गए उपक्रम से अपने जीवन को सुगम बनाने और बनाए रखने का प्रयास किया है। इसके फलस्वरूप इसका दूसरा पहलू भी है वह है पर्यावरण। जिसे उसने विकास की दौड़ में इतना दूषित कर दिया है कि इसका फिर से उसी पटरी पर लौटना असंभव-सा हो गया। ये विकास का सिलसिला किसी दायरे में बंधा नहीं है ना ही इसकी कोई तय सीमा ही है। भारतीय विकास के संबंध में प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईनाथ का मानना है कि “भारतीय विकास का अनुभव पिछले साढ़े चार दशकों के दौरान चले इस तरह के पाखण्ड की दुर्गंध से भरा हुआ है। बड़े मुद्दों की लंबे समय के लिए उपेक्षा कर दीजिए और अंततः उसे आप 'बासी' कह कर खारिज कर सकते हैं। किसी को सचमुच परवाह नहीं।”(3)

विकास व औद्योगिकता ने भारतीय समाज को गाँव से शहरों में बाँट दिया है और उसके विकसित होने के अजेंडे भी अलग - अलग होते हैं, किंतु वास्तविकता उस आमजन तक पहुँच ही नहीं पाती है। इसी संदर्भ में पी. साईनाथ आगे कहते हैं “भारत की विकास प्रक्रिया में एक जबर्दस्त अजनतांत्रिक प्रवृत्ति दिखाई देती है। बहिष्कार की समाप्ति विचार गोष्ठियों तक ही सीमित नहीं है। वास्तविक जीवन में भी ज़मीन से संबंधित मुद्दों से किसानों को बहिष्कृत कर दिया गया है। जल तथा अन्य सामुदायिक संसाधनों पर नियंत्रण के मामले में किसानों की तेजी से लूट जारी है। आदिवासियों को जंगलों से अधिक से अधिक दूर रखा जा रहा है। बावजूद इसके अभिजात्य वर्ग की दृष्टि गरीबों और उनके अनुभवों को हिकारत से देखती है।”(4) इस कथन से स्पष्ट होता है कि समाज का प्रत्येक वर्ग विकास की इस प्रक्रिया के छलावे से बच नहीं सकता। राकेश कबीर की कविता ‘विकास तुम न आना’ इसी औद्योगिक और प्रोद्योगिक क्रांति से हुए नुकसान से आक्रांरांत है। विकास ने किस तरह से धरती, जंगलों, नदियों, पहाड़ों को जर्जर एवं बर्बाद कर दिया है। यह कविता बतलाती है कि जहरीली हवाएं, सुनसान होता बादलों का आसमान हम पर कहर बन कर बिखरेगा, जिससे मानव लाचार और बेघर हो जाएगा। वे चेतावनी देते हुए लिखते हैं –

“तुम आओगे तो ज़हरीली हो जाएँगी 
मंद-मंद बहती ये चंचल हवाएँ
तुम आओगे तो सुनसान हो जाएगा आसमान
बादलों की रिमझिम भी हमसे रूठ जाएगी
तुम आओगे तो बेघर हो जाएँगे
तमाम निर्दोष आज़ादखयाल चिरई-चुरूमन...”(5)

विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध प्रयोगों ने हर तरह के प्रदूषण को जन्म दिया है, जिसमें जल, वायु, और ध्वनि प्रदूषण प्रमुख हैं। औद्योगिक विकास ने ऊँची इमारतों के निर्माण के लिए जंगलों की असीमित कटाई होने से पर्यावरण में प्रदूषक तत्वों को स्थान मिला है, जिसके कारण हमें साँस संबंधी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। उड़ती धूल और दमघोंटू हवा से संबंधित राकेश जी की कविता ‘घुटती साँस’ में हम पाते हैं कि विकास से निसृत ये उड़ती धूल किस तरह से हमारी साँसों के लिए दमघोंटू बनती जा रही है। वे लिखते हैं-

“विकास के नारों से उड़ती धूल
इस कदर जम गई है
शहर के जिंदा दरख़्तों पर
कि दम घुट रहा है पत्ते-पत्ते का
साँसों के पहरुए तड़प रहे हैं
खुद ही साँस लेने को !”(6)

राकेश कबीर की संवेदनात्मक पृष्टभूमि प्रकृति और पर्यावरण तो है ही साथ ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर भी अपनी सूक्ष्म दृष्टि से व्यवस्था और उसकी गतिविधितों की शिनाख्त करते हैं। हम पाते हैं कि व्यवस्था में रहते हुए भी वे मनुष्य होने या बने रहने की अपनी भूमिका को नहीं भूलते।

नदियाँ गँवाह हैं उन तैरती लाशों की जिसकी शिनाख्त कोई नहीं करता, समाज में मौजूद प्रत्येक व्यक्ति उस अपरिचित लाश को न ही जानता है और न वह पहचानता। राकेश कबीर कविता के माध्यम से समाज में फैली सामाजिक एवं राजनिीतिम विकृतियों को बड़े ही आलोचनात्मक ढंग से दर्ज करते हैं, उनकी कविता किसी साधारण से प्रमुख विषयों को लिए हुए होती हैं। कविता में समाज की दशा बड़ी ही सुक्ष्म दृष्टि से दिखाई दे जाती है। उनकी कविता ‘नदी में एक मौत' कुछ इस प्रकार है-

“नदी में तैरती हुई लाश की गवाह
आज हजारों की तमाशबीन भीड़ तो है
लेकिन कल मार खाते वक़्त
आँखें बन्द थी दुनिया की

*************

मर के हल्की हुई
नदी में तैरती लाश
मुसहरों के शोषण की आख्यान है
जिनकी बकरियाँ घर से कदम निकालते ही
पड़ोसी के खेत में अतिक्रमण कर देती हैं।”(7)

कवि प्रश्न करते हुए आगे अपनी कविता में कहते हैं, कि नदियाँ तो जीवनदायिनी होती हैं, हर किसी के लिए , किन्तु आवागमन वालों ने उसे शमशान बना दिया हैं, जिसमें अपने निहित स्वार्थ के कारण मार कर फेंक दी जाती हैं लाशें। जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। वे कहते हैं-

“नदियों ने तो जीवन बाँटा था धरती पर
सबके लिए
आततायियों ने बहती नदी को
श्मशान बना रखा है
जिनमे मारकर फेंक दिए जाते हैं
कुछ गरीब स
हत्यारों की सुविधानुसार।”(8)

उनके काव्य के केंद्र में वह वर्ग हैं जो कभी अपने लिए आवाज उठाने में शायद ही सक्षम हो। ये वर्ग न अपने अधिकारों के लिए कभी साहस जुटा पाता न ही व्यवस्था इन्हें रुबरु होने का मौका देती है। विकास के नाम पर एक जाल सा बुन देती है। जो इस व्यवस्था रूपी जाल को पहचान लेता है या तो वो निकल जाता है या फिर उसका जीवन त्याग की आंधी में धकेल दिया जाता है। इस वर्ग को राकेश जी संवेदना के स्तर पर पहचानते व महसूस करते हैं, वे बार-बार व्यवस्था पर प्रश्न दागने से नहीं डरते बल्कि डटे रहते हैं। उनकी ये सहजता और सजगता कोविड संबंधी कविताओं में भी उभर कर आयी है। कोविड महामारी का समय प्रत्येक वर्ग के लिए भयावह रहा है, वह सब कुछ लेखक के लिए इतना दर्दनाक और मुश्किलों से भरा था, जिसे वे अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं,तथा तमाम मानवीय मूल्यों के खतरे में पड़ रहे मनुष्य को पहचानते हैं। उनकी कोविड और लॉकडाउन में हुई मुश्किलों से संबंधित संवेदनाओं को अपनी कविता ‘सब बंद रहेगा’, ‘सब पत्थर पत्थर’, ‘समय इफ़रात’, ‘दूर बहुत है घर’, ‘खुदा की चिट्ठी’, ‘कोरोना सनम’, ‘आल इज वेल’, ‘उनका दर्द’ आदि अन्य कविताएं कोविड महामारी का चित्र प्रस्तुत करती हैं। इन्हीं में से उसकी कविता ‘सन्नाटे की चीख’ जिसमें कवि कहते हैं कि सन्नाटा होने पर किस तरह प्रकृति अपनी चहलपहल करती हुई साफ-साफ दिखती है और वो चीख गहराती चली जाती है। वे कहते हैं-

“जब सन्नाटा चीख रहा
शहर की सड़कों पर
छुट्टे साँड़ की तरह
जब खामोशी पसर गई है
पूरी दुनिया पर
शुक्र है मेरे घर में
नई कोंपलों वाले पेड़ हैं
जिन पर कोयलों के
शिशु उड़ना सीख रहे हैं

***************

घुटने के बल खड़े
पकते गेहूँ के खेत में
भिनभिनाते हैं लाखों मच्छर
और तोड़ते हैं सन्नाटे की दीवार
बादलों वाली गहराती रात में
सन्नाटे की चीख भी
गहराती जाती है।”(9)

‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ काव्य संग्रह में पानी के विलुप्त होने के कारण नदियाँ अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में मुख्य नदियाँ अपना क्षेत्र सिकुड़ता हुआ देख रही हैं, उनका क्षेत्र पहले जैसा अब नहीं रहा। इसके साथ जब हम सहायक उप नदियों की जब बात करते हैं तो उनका क्षेत्र हमें नक्शे में ही दिखाई देता है, कुँवरवर्ती नदी कुछ इसी तरह की एक सहायक विलुप्त होती नदी है। कुँवरवर्ती जैसी नदियां इंसानी कचरे के बढ़ते प्रकोप से आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।

संग्रह में लोकतंत्र से उपजे टूटे सपनों से लेकर किसानों की मृत्यु तक, बढ़ते विकास से उपजी विडंबना और भूख, साथ ही खानाबदोशीय जीवन से उपजी संवेदना को व्यक्त करती कविताएं हैं। भारत देश प्राचीन समय से ही आस्था और विश्वास में फलता फूलता आया हैं, तब ही शायद प्रकृति को ईश्वर की देन मानकर उसे पूजना वह अपना परम कर्तव्य मानता है। भारतीय समाज में नदियों को देवी की संज्ञा दी जाती है, लेकिन नदियां फिर भी फल फूल नहीं रहीं वे दिन प्रतिदिन अपने आप को खत्म करती जा रही हैं और इन्हें खत्म करने का मुख्य कारण मानवीय गतिविधियां हैं। राकेश कबीर ने ‘कुँवरवर्ती’ नदी को कुँवारी लड़की के बिम्ब में प्रस्तुत किया है, कि कैसे प्रेम के विरह से उपजे आँसुओं के सैलाब से नदी का उद्भव हुआ होगा। किस प्रकार से कुँवरवर्ती अपना अस्तित्व मिटाकर नदी बन कर बह चलती है, इच्छामुक्त होकर हमें बौद्ध होने का महामार्ग दिखाती है। वे लिखते हैं-

“कुँवरवर्ती अपना अस्तित्व मिटाकर
नदी बन बह चली थी
मानवता को जीवन देने
जैसे बुद्ध ने त्यागकर सारे सुख
और लोभ-मोह के बंधन
खोजा था इच्छामुक्त जीवनपथ
जो है दुःखों से पार जाने का महामार्ग।”(10)

इसी तरह से उनकी एक अन्य कविता ‘भूख’ ‘आलू’ है।

राकेश कबीर के काव्य की एक विशेषता यह भी है कि उनकी कविता का संवाद कवि और पाठक को हर विपरीत परिस्थिति और व्यवस्था के होते हुए भी समाज के प्रति एक गहरी सजगता और जागरूकता रखता है। वे अपने काव्य संग्रह ‘तुम तब आना…’ की कविताओं के लिए लिखते हैं कि “वर्तमान परिस्थितियों से संवाद, बचपन की स्मृतियाँ, बार-बार उजड़ने-बसने का दर्द और धूर्त प्रवृत्ति के जातिवादियों, सत्तालोभियों और उनकी पद-लोलुपता से क्षोभ की भी अभिव्यक्ति हुई है। कई बार सामने वाले व्यक्तियों और परिस्थितियों से हार जाने की भावना मन में आती है, और निराशा होती है। जो हम हैं और हमारा वातावरण है वह निःसन्देह हमें और हमारी सोच को प्रभावित करता है। कल्पना के साथ मिश्रित होकर यह सारा वातावरण और परिस्थितियाँ हमारे सृजन के माध्यम से प्रस्तुत होती हैं।”(11) ये कहना उचित होगा कि काव्य परिस्थितिजन्य अर्जित अनुभवों और अपने देशकाल से परे नहीं होती, वह ही रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत होती है। राकेश जी की कविताओं के संवेदनात्मक अनुभव उनकी अपनी परिस्थिति और वातावरण का ही परिणाम रहा है। जिसमें वह जीवन के अनेक पक्षों को, जिनमें प्रकृति और प्राणी जगत को नवीन बिंबों में समेटते है। साथ ही राजनीतिक विषमताओं (नीति, अनीति, कुनीति) को अपनी कविताओं ‘छल’, ‘तमस’, ‘केंचुआ महल’, ‘एक और मांझी’, ‘लोमड़ियाँ’, ‘गुर्राहट’ और ‘वो अब भी गरिया रहे हैं’ आदि बिंबों के माध्यम प्रस्तुत करते हैं। इस संग्रह की उनकी कोविड संबंधी कविताएं भी हैं, जिनमें कोविड की लहर और उससे आए मौत के मंजर को अभिव्यक्त करते हैं, वे इस प्रकार हैं – ‘बदनाम हवाएं’, ‘लपटें’, ‘आँधियाँ’, और चार्वाक पुत्र ‘भुल्लन’ भी गुजर गए’ आदि हैं।

प्रकृति ने प्राणी जीवन के लिए पर्याप्त मात्रा में साधन उपलब्ध कराए हैं, लेकिन मनुष्य ने अपनी स्वार्थ प्रवृति के कारण दिन प्रतिदिन प्रकृति का ह्रास किया है। बीते पिछले सालों में कई प्राकृतिक आपदाओं के अलावा महामारियों ने मानव को बुरी तरह से क्षतिग्रसत किया है। जिसमें कोविड महामारी ने वैश्विक स्तर पर मानव जीवन पर अपना भयावह रूप छोड़ा है। इसी संदर्भ को इंगित करती राकेश कबीर जी की कविता ‘मुड़ के देखो जरा’ में मानव द्वारा किए गए प्रकृति के ह्रास से प्रभावित स्वयं मानव ने किस प्रकार प्रकृति के नजदीक पुनः पहुँच कर वह खुद को सुरक्षित महसूस किया है, यह बात कविता के माध्यम से समझी जा सकती है, वे लिखते हैं –

“आइसोलेशन में हफ्ते-भर से
अकेले साँसों के लिए जूझ रहे रामपाल को
याद आते हैं गड़हे और तालाब
महुआबारी और आम के विशाल बगीचे
गर्मियों की दोपहर में जहाँ
निखरी जमीन पर घनी छाँव में
सो जाते थे हरखू और आसरे काका
अँगोछे में आम और महुए भी बटोर लाते थे
रोटी और अमावट बनाने के वास्ते
लेकिन फसलें उगाने के लालच में
उजाड़ दिए गए सारे बगीचे
अब बन्द डिब्बों से साँसों की आस लगाए
बेहाल घूम रहे हैं हम सब।”(12)

कवि की कविताएं मानवीयता को दर्शाती है उनकी पंक्तियाँ यह सिद्ध कर देती हैं कि प्रकृति ही मानवीयता को बचा पाएगी। जो मनुष्य आज अपनी लालची प्रवृति से प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा है,वह निश्चित तौर पर अपने जीवन को स्वयं समाप्त करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है।

कोविड महामारी में पनपी बीभत्स दशा किस प्रकार चारों ओर कवि को देखने को मिलती है एक कविता ‘ये सब क्या है?’ में देखा जा सकता है –

“दुनिया के कोने-कोने में
वायरस है
घर के बाहर कड़क धूप है
घरों के अंदर पसरा अवसाद है
मन के भीतर डर है,दुख है
गुरबत में जी रहे इंसानों की
आँखों में आँसू और
आतें मरोड़ती भूख है।”(13)

किसी भी समाज की संवेदनाएं आपात स्थिति में पता चलती हैं और यह स्थिति कोविड जैसी महामारी में देखने को मिली, जिसमें जीवन बचाने के लिए लोग जूझ रहे थे, कहीं दवाइयाँ, आक्सीजन तो कहीं पेट की भूख आदि, मनुष्य जीवन गहरे अवसाद की दशा में प्रवेश कर चुका था, कवि की दृष्टि उस भयावह स्थिति को भांप लेती है और ‘जाके पाँव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ की कहावत को उलट साबित करते हैं, वे उस भयावह दशा से परिचित हैं।

निष्कर्ष : अंत में कहा जा सकता है कि साहित्य समाज की ही अभिव्यक्त अनुभूतियों का दर्पण है। साहित्य की विविध विधाओं में से काव्य अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम रहा है। राकेश कबीर की कविताओं का लोक किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता, वे विविध विषयों को अपनी अनुभूतियों में पिरोकर कविताओं में व्यक्त करते हैं। वे विकास को स्वीकार करते हैं बशर्ते विकास प्रकृति को निगल कर न आया हो, उनकी कविताएं संसार को सचेत करती हुई सिद्ध होती हैं। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे कबीर की परिपाटी को भरने का कार्य कर रहे हैं, कबीर भक्तिकाल में समाज को सचेत कर रहे थे, और राकेश कबीर इक्कीसवीं सदी में विविध विषयों को उठाकर समाज के समक्ष रखकर सचेत कर रहे हैं। प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन ही आने वाली विनाश की संभावनाओं को कम या फिर खत्म कर सकता है, जहां मनुष्य अपने जरूरत तक ही साधनों का उपयोग करे, बशर्तें उसमें लालच की प्रवृत्ति जन्म न ले।

संदर्भ :
  1. राकेश कबीर, नदियाँ बहती रहेंगी, गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट एवं अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण -2018, पृ. 2
  2. राकेश कबीर, कुँवरवर्ती कैसे बहे, कलमकार पब्लिशर्स प्रा.लि.,नई दिल्ली, द्वि.स.-2023, पृ. 5
  3. पी साईनाथ, अनु. आनंद स्वरूप वर्मा, तीसरी फसल, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, प्र. हि. स. 2023, पृ. 424
  4. वही पृ. 425
  5. राकेश कबीर, नदियाँ बहती रहेंगी, गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट एवं अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, प्र. स.-2018, पृ. 16
  6. वही पृ. 21
  7. राकेश कबीर, नदियाँ ही राह बताएँगी, गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट एवं अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, प्र. स.-2021 , पृ. 44
  8. वही पृ. 45
  9. वही पृ. 91
  10. राकेश कबीर, कुँवरवर्ती कैसे बहे, कलमकार पब्लिशर्स प्रा.लि., नई दिल्ली, द्वि. स.-2021, पृ. 29
  11. राकेश कबीर, तुम तब आना, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला सं.- 2023, पृ. 9
  12. वही पृ.149-150
  13. वही पृ. 157

करुणा सैनी
पीएचडी (शोधार्थी), हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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