म्ह भाई सू्वा!
- हेमंत कुमार
ऊपर अम्बर की आँखें धुली-धुली हैं। नीचे धरती भीजकर जैसे धूज रही है ,हरियल साड़ी एकदम तरबतर, घास के रोएँ खड़े और मोती बिंधे! साँझ की बेला। सुरंगा सिंदूरी सूरज काळी कळायण बादळी की ओट से झाँक रहा है। जैसे सँझ्या की माँग का हिंगळू फैल गया हो। होले-होले हवा की उठती हिलोर से हिलती डालियाँ अपने रात के संगी पंछियों को झाला दे रही हैं।
बीच में किसी काम से उठना हुआ। इतने में सूरज आथूणे (पश्चिम) क्षितिज की ओट हो गया है। सातू-संझ्या का अध साँवला, बावला अंधेरा अपने-पराए का भेद बिसरा कर चारुमेर पसर गया है। भादवे की तेरस के चाँद को गोद खिलाने को उतावला आसमान। पास के हनुमान मंदिर और सूर्य मंदिर में आरती चल रही है। नगाड़े, घड़ावल और घंटा ध्वनि का समवेत स्वर रळमिल कर कानों में जाना-पहचाना पर अनाम रस घोल रहा है। आज तेरस है। भादवे उतरते की तेरस। उजला पाख। तेरस का त्योहार मेरे गाँव का राष्ट्रीय त्योहार है। इस दिन समूचा गाँव 'पूरना बाबा' की धोक देता है। 'पूरण पुराण' की कथा तो फिर कभी बाँचेंगे। पर मन सोचता है हमारे पुरखों ने हमारी मुट्ठी में इतने त्योहार क्यों भर दिए। आज तेरस,कल अनंत चौदस, परसों पूनौ और पल्लै दिन कनागत (श्राद्ध) शुरू हो रहा है, फिर नोरते (नवरात्र)! जितने बार (दिन) नहीं उनसे बधीक त्योहार। क्या हमारे पुरखे चटोरे थे! इतने रसना रस रसिक कि सोमवार, मंगलवार के सात वारों के अलावा एक आठवाँ वार और सिरज दिया -जीमणवार! क्या उनकी जीभ जरा भी बस कतणी (नियंत्रण) की न थी! कभी चूरमा, कभी सीरा (हलवा), कभी लापसी, कभी नमकीन लूपरी पर मुट्ठी भर देसण चीणी, कभी मोठ-बाजरे के थाळी भरे खीचड़े पर तिरियाँ-मिरयाँ तैरते घी में घुळती शक्कर की महकती मिठास! शक्करपारे, गुलगुले और गणगौर के फळ कौन भूल सकता है। आज कोई इतना मीठा खाए तो उसे शूगर ही क्या शूगर की नानी हो जाए। खुद डायबिटीज को डायबिटीज हो जाए! उन्हें न होती थी तो फिर इतनी सारी चीनी, शक्कर वगैरह जाती कहाँ थी! मुझे लगता है जीभ में।
गाँव की एक ऐसी ही मीठबोली जीभ मुझे याद है। याद उन दिनों की जब उम्र कच्ची पर रिश्ते पक्के थे। घर का विस्तार पड़ोस तक और पड़ोस गाँव भर तक पसरा रहता था। जिन्दगी के कोरे कागद पर जो शुरूआती आड़ी-टेढ़ी लकीरें उस ऊजड़ मगर अपणायत भरे गाँव ने खींच दीं, वे मिटाए न मिटेंगी। अगर कोई जिंदगी की हथेली को हाथ में लेकर आहिस्ता छुए तो उसे ये गँवई लकीरें रड़कती महसूस होंगी।
वह काठ की कठपुतली नहीं, माँटी की मटपुतली थी। घर-खेत व ढँढवाय (मवेशी) का बेथाग खोरसा (काम) करते- करते देह एकदम सपाट सुँतवाँ रह गई थीं। पर जीवन की वसंत वेला में तो यह काय- कलेवर कुछ अलग ही रहा होगा। विधाता के पास मिट्टी जरा कम थी उस मूरत को थापते बखत। सो अंग -प्रत्यंग बड़ा नाप-चोख कर बनाया गया। चुटकी भर मिट्टी भी बेसी न लगी। एक-एक अंग तराशा हुआ और संतुलित। कहीं कोई मीन-मेख की गुंजाइश नहीं।
मुझे लगता है माँटी की उस मोहिनी मूरत को गढ़ने वाला भगवान जरूर पक्का चिलमेड़ी था। मूरत बनाकर पकने को आँवे की आँच पर रख और खुद चिलम सारने लगा शायद। सो मूरत कुछ ज्यादा ही पक गई। पर ऐसा श्याम सौंदर्य कि किशन कन्हैया गर अपनी राधारानी का बाना धारें तो शायद ऐसे ही दिखाई दें।
करोड़ खरचो या कोड़ी। राम मिलाए जोड़ी। जैसे भगवान वैसी उनकी भगवती। जब भाग लिखने का टेम आया तो बेमाता (भाग्य लिखनेवाली देवी) ने वह भी भागते-भागते लिखा श्यात्। जगत्पिता के लिए रसोवड़ा बनाने की जल्दबाजी रही होगी सो आधा भाग अपना मिलाया तो आधा किसी और का। देह देहातिन की और मन महारानी का। भाग में जो भरतार लिखा वह भी चिलमी, नाम भी वही भगवान। हाथ का कारीगर ऐसा कि आँख बंद कर भी काम करे तो आँख वाले को मात दे। बढ़ई के काम में बेजोड़। लकड़ी खुद जैसे जेळी-गंडासी, दंताळी, खसिए में ढलने को आतुर। बसूला लकड़ी पर ऐसे चले कि एक-दो भचके (प्रहार) में सही आकार ले ले। रंदा फूसके जैसे बारीक छूँतके छीलता हुआ लकड़ी को गोरा, चिकना और गोल आकार देने को आतुर।
उस जमाने में ब्याह कच्ची उम्र में ही हो जाया करते थे। तीजू मासी भी जब भुगान जी खाती को ब्याह कर आई होंगी तो यही कोई बारह -तेरह बरस की 'बाल-बीनणी' रहीं होंगी। मुकलावे (गौने) के बाद तो सासरे में रहना ही रहना था। मन कैसे लगे- न किसी को जाने, न पहचाने। जमाना मरज्याणा ऐसा कि सास, ससुर, देवर, जेठ, जेठानी यहाँ तक कि गाय-भैंस के सामने भी हाथ भर लम्बा घूमटा काढ़ कर रहना पड़े। पता नहीं कौन बडेरा किधर घूमता हुआ कब दिख जाए। ऐसे में किससे बोलें, किससे बतियाएँ! पास बैठने, हथाई करने की तो कौन कहे पति नाम के प्राणी का तो नाम ही जबान पर न लिया जा सके। ऐसे में ससुराल में ही च्याराना (चवन्नी) भर मायका मिल गया तीजू मासी को।
दरअसल तीजू मासी 'बनाई' गाँव से थीं। मेरी ताई भी बनाई की थीं। एक खातण (जांगिड़/बढ़ई), एक बामणी। तो क्या हुआ! पीहर तो पीहर होता है। वहाँ की तो चिड़कली से भी बहन लगे। उधर से तो काला कौआ भी उडाण भरे तो लगे कि माँ जाया भाई मिलने आ रहा है।
स्त्री सिरहाना किधर ही करके सोए , कान और आँख हमेशा पीहर की ओर ही लगे रहते हैं। काळी-पीळी आँधी उठे कि बादळी घिरे, काळजा कोसों फलांग कर मायके की दहलीज पहुँच जाता है। यह बात ठीक है कि पीहर तो माँ-बाप और भाई- भौजाई से होता है। पर बहने भी तो एक ही चेहरे की दो आँखें होती हैं। साथ हँसें, साथ रोएँ। एक में त्यामणा (तिनका) रड़के तो दोनों पनियाएँ।
बाद में जब हमारी माँ ब्याह कर आईं तो वे भी इन दो बहनों के साथ तीजी बहन बन कर शामिल हो गईं। तीजू मासी और ताई का पी..ई..र (पीहर) 'बनाई' तो माँ का नानेरा (ननिहाल)। बहनापे के लिए इतना सूत्र तो पर्याप्त था। कहते हैं कि जब एक दराँती (हँसिया) बेचने आई लुहारी के मुख से 'फला गाँव की दाँतली ले लो' की आवाज़ सुन किसी दुखियारी ने कहाँ कि जिस गाँव की तू दराँती बेच रही है, वहाँ का तो मेरा चिंप्या (चिमटा) है। इस नाते तू मेरी भाण (बहन) हुई। आ बैठ। बात यह है कि घर की चारदीवारी की कैद के अदीठ दरूजे पर जड़ा अदृश्य ताळा कान व मुँह की जुड़वाँ कूँची (चाभी) से खुलता है। घर-गिरस्ती और गाँव-गुवाड़ी की सब बातें इन्हीं दो जुगल-जंत्रों के सहारे संचार करती हैं। घुटन कोई न कोई निरसन की राह निकाल लेती है। फिर स्त्री तो संवाद की सनातन सूत्रधार है।
जब ताई दूसरे गाँव भोजासर बस गई तो माँ के साथ तीजू मासी का संबंध और घनिष्ठ हो गया। उनकी जो पुरानी से पुरानी याद है, उसमें भी वे ढलती प्रोढावस्था की ही थीं। सिंगार का उन्हें भौत शौक था। गोट लगी काँचली, घेरदार घाघरे पर जाळ जड़ी ओढ़नी में वे किसी मूर्तिकार की मूर्ति सी नजर आतीं। मेले में नाण (नाइन) के सिर की चौकी पर सजी काठ की गणगौर मूरत से होड़ लेता पतला मुँह, छीदे दाँत (बीच में स्पेस वाले), माथे पर सलवटों के शाश्वत त्रिपुण्ड के बीच बिचाली में लाल टीकी (बिंदी), सिर पर बौर, नैणों काजळ। साँवली कलाइयों में लाख की चूड़ियाँ, हथेलियाँ मेंहदी रंग राची। पूरा हाथ मांडने का टाइम न भी मिले तो भी अंगुलियों के पौर और हथेली के बीच में गहरा रचा रुपिया सोहता। पैरों में चाँदी के कडूले होते। ऐड़ी की तरफ से फिड्डी और सामने से जड़ाऊ जूतियाँ! वे आतीं तो अकूत मिठास उनकी दरम्यानी देह में मूर्तिमान हो चला आता। खाली हाथ तो वे कभी आतीं ही न थीं। ओढ़नी के छोर में चिटकी, बतासे या मखाने का परसाद गाँठ बाँधकर टुक्की में खोंस लातीं या गुलगुलों-शक्करपारों, चौथ के व्रत पर बनी चूरमें की पिंडियों से भरा बाटका (कटोरा) आँचल से ढाँपे चलीं आतीं। चूँकि माँ को परघर जाने में सदा से संकोच रहा है। बहुत जरूरी न होता तो वे कहीं न जातीं। लेकिन तीजू मासी हर बार- तिंवार, बहू-बेटी के पी....र- सासरे आने-जाने, बरत उजणने (उद्यापन), रातीजुग्गे आदि के एक-दो दिन बाद जब भी उन्हें ओसाण (अवसर) आता लावणा लेकर चली आतीं। वे जितनी सुंदर और सजीधजी होती थीं उतनी ही मिठमुँही। गढ़ते समय उनकी जीभ पर बेमाता ने जैसे कोई कनोई (हलवाई) बिठा दिया था जो हर वक्त चिन्ने - चिन्नेक (नन्हें) लाड्डू, दूधपेड़े या जलेबी बनाकर उनकी गुलाबी जीभ पर धरता जाता। उनकी बोली बानी उसी मिठास और ममता से तर-बतर रहतीं। हम चिटकी-पतासे के लोभ से खिंच जब भी उनके धोक (चरणस्पर्श) खाते वे सिर पर हाथ फिरातीं हुई आशीषतीं जातीं - 'राजी रह मेरा चान (चाँद), मेरा सूवा (तोता), मेरा चिड़कल्या, मेरा बिच्या…'
जब बहने मायके से ससुराल लौट रहीं होतीं तो भी तीजू मासी बिना नागा उन्हें फीस-काँचळी और दो-पाँच रुपया देने आतीं तो खड़ी-खड़ी उनसे सासरे के समचार लेतीं। बैठने को कहते तो कहतीं - ' म्ह (हाँ) भाई सूवा' बैठ क्या जाऊँ उँवार (दैर) हो रही थी, फिर भी सोचा स्यातेक (जरा देर को) जाकर आती हूँ।' यह स्यातेक कभी आधे घंटे, कभी पौन घंटे और कभी-कभी घंटे भर में बदल जाती पर बैठने को कहने पर वही जवाब होता ," ना भाई सूवा उँवार हो रही है।'
सूवा, चान, चिड़कली उनके प्रिय सम्बोधन थे और 'म्ह भाई सूवा' तो तकियाकलाम बन चुका था। सूवा के लमसम ही उनके मुँह से ' हाँ लाडी (लाडले)' का संबोधन भी निकलता। फिर भी लाडी से सूवा सवाया था।
सुभाव उनका बेहद सरल और सीधा। बाकी औरतें कभी-कभार छोटी-मोटी बात को लेकर जब आपस में राँडा-चुण्डा करतीं, एक दूसरे के पूत मारतीं, नैहर से सासरे तक के कच्चे चिट्ठे खोलकर एक-दूसरी के कान के कीड़े झाड़तीं, तब तीजू मासी 'बाई ऐ बास्ते (आग) लागो' भर कहकर मौन हो घर में घुस जातीं और बाहर तभी निकलतीं जब वह काँयभू (काँव-काँव) हफ्ते -दो हफ्ते से लेकर महीनों के अबोले में बदल कर शांत हो जातीं। झगड़ना उनके स्वभाव में न था। उनकी जीभ 'मेरी सोक (सौत)' कहने के लिए नहीं, 'मेरा सूवा' कहने के लिए बनी थीं।
उनकी सरलता के कारण लोग चुहल करने से भी न चूकते। एक बार व्रत का दातुन (निमंत्रण) पाकर जीमने गई किसी पेटू जिमक्कड़ को ढेर सारे लड्डू एक साथ थाली में भरे देख तीजू मासी ने पूछा , " मेरा सूवा उठ्या (जूठा) रह ज्यासी न!"
उसने पलटकर जवाब दिया, " तू चिंता मत कर। मैं खाती-खाती सै (सब) खा ज्यास्यूँ।"
जोर का ठहाका लगा क्योंकि 'खाती- खाती' का एक मतलब एक-एक कर खाने से था तो दूसरा अर्थ सभी खातियों (जाँगिड़, मासी इसी बिरादरी की थीं) को खा जाना से भी था।
जब तक हिम्मत रही तीजू मासी जब-तब घर आतीं-जातीं रहीं। धीरे-धीरे हाड-गोडे जवाब देने लगे तो उनका आना भी छूटता गया। मगर हर होली -दीवाली पर राम-राम करने जाते तो वे बहुत कोड (लाड़) करतीं। माँ के बारे में पूछतीं, सब भाई-बहनों का समचार लेतीं। राजी (खुश) रहने से लेकर मोकळी (खूब) कमाई करने के ढेरों आशीर्वाद से अशीषतीं। काले फ्रेम के मोटे चश्मे से उनकी आँखों में आत्मा का निर्मल उजास झाँकता। जैसे कमजोर देह से भेळी (एकत्र) होकर आत्मा दो आँखों के दीयों में उजाला बनकर आ बैठी हो।
ईर्ष्याहीन मेहनती सुभाव, सबसे मेलजोल रखनेवाले मुलाकाती मन, काया के रोम-रोम में रमी करुणा, भरापूरा परिवार, भगवान ने किसी चीज की कमी न रखी उनके जीवन में। अपने सुभाव और श्रम से जीवन में उन्होंने सुख के उजले रंग भरे। ईर्ष्या, झगड़े और मनमुटाव के मटमैले रंगों से उन्होंने जिन्दगी की चादर को अछूता रखा। पर जब देह कमजोर पड़ती जा रही थी, मिठास मन और जीभ तक सिमट गया था। कमजोर काया ने शक्करपारे बनाने और बाँटने की जीवटता खो दी थी। तब उन्हें अशक्त जान दुःख दबे पाँव आकर सिरहाने बैठ गया। पहले चुपके से बोरला परे कर माँग का हिंगळू पौंछ लिया। फिर मौका पा आँखों के सामने ही जवान पुत्रवधू को छीन लिया। फिर दुख कंठ की हिचकियों से होता हुआ आँख की दो तळाइयों में ठहर कर बैठ गया। उस साँवळी मिट्टी की मूरत को हड्डियों के ढाँचे में बदलते हुए एक दिन दुख बोला -
" सदा न संग सहेलियाँ, सदा न राजा देश।
सदा न जुग में जीवणा,सदा न काळा केश।
सदा न फूलै केतकी, सदा न सावण होय।
सदा न विपदा रह सके, सदा न सुख भी कोय।
सदा न मौज बसंत री, सदा न ग्रीसम भाण।
सदा न जोबण थिर रहे, सदा न संपत माण।
सदा न काहू के रही, गळ प्रीतम की बाँह।
ढळतां-ढळता ढळ गई, तरवर की सी छाँह।।"
तीजू मासी ने आखिरी बार दुख से कहा शायद , " म्ह भाई सूवा!" और…आँख मूँद ली सदा के लिए। गाँव के हर घर के आले में देवता के सामने रखा कड़वा तेल पीकर मीठा उजास बाँटनेवाला काली मिट्टी का चिक्कट दीवा भभक कर बुझ गया उस दिन।
क्या ऐसा भी होता है?
"म्ह भाई सूवा!"
ग्राम- मीरण
सहायक आचार्य (हिंदी), श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालय, सीकर (राजस्थान)
94144 83959

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