अफ़लातून की डायरी (9) / विष्णु कुमार शर्मा

अफ़लातून की डायरी (9)
विष्णु कुमार शर्मा


अफ़लातून की डायरी 166
20.08.2025

प्रियंवद जी का नया उपन्यास ‘एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिम्फ़नी’ पिछले दिनों ख़त्म किया। 2019 में जब मैंने प्रियंवद जी का इन्टरव्यू लिया तब और उसके बाद भी एक दो जगह उन्होंने इस बात को कहा कि वे साहित्य और दर्शन को रला-मिला देना चाहते हैं और इस उपन्यास में हम देखते हैं कि ऐसा ही उन्होंने कर दिखाया है। वस्तुतः मुझे अब ऐसी ही रचनाएँ पसंद आती हैं जिनमें दर्शन हो या और साफ़ कहूँ तो दार्शनिक उक्तियाँ या जीवनोपयोगी सूत्र हों। प्रियंवद जी के इस उपन्यास के ठीक बाद मार्गरेट मिशेल का विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘गॉन विद द विंड’ पढ़ा। ‘गॉन विद द विंड’ में दार्शनिक उक्तियाँ न के बराबर हैं लेकिन इस उपन्यास ने भी बाँधकर रख दिया। खाना-पीना-नहाना-धोना सब भूल गया मैं। एक बार तो स्टेशन आ गया और ट्रेन से उतरना भूल गया मैं। ट्रेन चलने को हुई तब एक हाथ में बैग और दूजे हाथ में किताब लिए, जूतों को पैरों में अटकाए हुए कूदा। सस्पेंस जबर्दस्त है इसमें। जीवन दर्शन तो इसमें भी है ही लेकिन वह साफ़तौर पर नहीं कहा गया है।

तो पहले बात ‘एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिम्फ़नी’ की। यह पूरा उपन्यास ही दर्शन के आसपास बुना गया है। उपन्यास में एक पात्र मरणासन्न अवस्था में है और उसके परिजन सहित अनेक मित्र, सहयोगी व परिचित उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। इस प्रतीक्षा में उनकी सारी बातचीत के केंद्र में हैं मृत्यु का दर्शन। प्रियंवद जी के लिए मृत्यु हमेशा आकर्षक रही है। अपनी कई कहानियों में वे इस पर पहले लिख चुके हैं। मृत्यु का शिलालेख का जिक्र भी नया नहीं है बल्कि मैं कहूँगा बहुत रोचक और साहसिक कार्य है। हमारे घरों में मृत्यु पर कोई बात नहीं होती और कभी कोई बात चल निकले तो चुप करा दिया जाता है जबकि जीवन का अवश्यंभावी सत्य है यह। इससे बड़ा कोई सत्य नहीं। और इसकी तैयारी तो दूर चर्चा तक नहीं। और एक दिन मौत अचानक झपट्टा मारकर हमारे घर से अपना कोई शिकार उठा ले जाती है और हम रोते-बिलखते रह जाते हैं। गर कोई जवान मौत हो जाए तो हाहाकार मच जाता है। लोगों का मेला बारह दिन जुटता है और फिर दुनिया अपनी चाल, अपनी लय, अपनी गति में लौट जाती है। बिसूरते रह जाते हैं बस कुछ लोग जो सीधे मृतक से जुड़े थे, प्रभावित थे मसलन माँ-बाप, पति या पत्नी, भाई-बहन, बच्चे या कोई ख़ास दोस्त... बस। ईश्वर की इच्छा मान इसे स्वीकार करने को कहा जाता है। कौनसा ईश्वर? ईश्वर गर है तो वह ऐसा अन्याय करता? बूढ़े माँ-बाप से उनका बेटा या बेटी छीनता, पति या पत्नी से उसका हमसफ़र, बहन से उसका भाई या भाई से भाई या भाई से उसकी बहन, बच्चों से उनकी माँ या पिता। उपन्यास में प्रियंवद कुछ ऐसे ही यूनिवर्सल सवाल उठाते हैं जो हर तार्किक और विवेकपूर्ण मनुष्य में उठते रहे हैं, मसलन- “धरती पर कमज़ोर इंसानों के साथ अन्याय, अत्याचार, क्रूरता क्यों होती है? निर्मल मन वाले भले, नेक और उसकी उपासना करने वाले कष्ट क्यों पाते हैं? उसके (ईश्वर के) धूर्त धर्मगुरु, लालची दलाल और उसकी आलीशान इमारतें क्यों हैं?... ये सवाल भी पैदा होंगे कि इंसानों के बीच धर्म, जाति, नस्ल के भेद उसके नाम पर ही बनाए गए हैं और वह चुपचाप इसे कामयाब होते देख रहा है? तो क्या वह इतना बड़ा कायर है कि जो चाहे, जब चाहे, उसे किसी भी तरह कलंकित कर दे। उसकी नफ़रत फ़ैलाने वाली किताबों में, उसकी मूर्तियों में, उसके किस्सों में अधम लोग शरण लेते रहें? क्यों वह मनुष्य को उसके जन्म और होने की गरिमा से गिरा कर अपना गुलाम बनाने में ख़ुशी पाता है? ये भी सवाल उठेंगे कि क्यों इतने सारे ईश्वर हैं? हैं भी, तो क्यों आपस में एक-दूसरे से नफ़रत करते हैं, आपस में लड़ते मरते हैं, ऊपर आसमानों में भी और नीचे धरती पर भी?”

और प्रियंवद इसका उपाय भी बताते हैं- “एक ही उपाय है, ईश्वर की ताकत, प्रभाव, उसका इलाक़ा कम कर दो। वह इतना ही रह जाए जितना हम इंसानों का होता है। हम सब अपने ईश्वर के साथ बंद कमरे में जिएं।” और कारण भी- “इंसान जब तक अपने विवेक, ज्ञान और तर्क पर भरोसा नहीं करता, उसका इस्तेमाल नहीं करता, तब तक वह ईश्वर से चिपका रहता है।”

प्रियंवद कहते हैं “अगर हम ज़िन्दगी का सच समझ लें तो मौत का सच समझने में ग़लती नहीं करेंगे। इसके उलट भी कह सकते हैं, कि अगर मौत का सच समझ लें तो ज़िन्दगी का सच आसानी से समझ लेंगे उसे ज्यादा आसानी से जी सकेंगे।”

शुक्रिया शची मैम, पीएचडी के लिए प्रियंवद की कहानियों पर काम करने के लिए दबाव बनाने के लिए। उनका इंटरव्यू करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए।

शुक्रिया हिमांशु सर, प्रियंवद जी को लेकर मेरे मन में बैठे डर को कम करने के लिए क्योंकि फोन पर उनसे पहली बातचीत में उनकी कड़क आवाज से डर ही गया था मैं। आपने कहा कि वे नारियल की तरह हैं ऊपर से सख्त़ लेकिन भीतर से मुलायम।

डर अब भी थोड़ा तो लगता ही है लेकिन तब कम हो जाता है जब वे रूबरू होते ही हाथ पकड़कर बरबस खींच लेते हैं और कहते हैं कि अब आप हमारे साथ ही रहेंगे।

मैं कहूँगा कि स्पष्टता उनके व्यक्तित्व का केंद्रीय गुण है और स्वतंत्रता उनके जीवन का सबसे बड़ा मूल्य।

अफ़लातून की डायरी 167
24.08.2025

हिंदी विभाग में सीमा मैम के हाथों में ‘गॉन विद द विंड’ देखा। शीर्षक और कवर पेज पर एक सुंदर स्त्री की छवि ने आकर्षित किया। बहुत दिनों तक उन्हें इसे पढ़ते देखता रहा। स्टाफ में बस एक वे हैं जिनको मैंने पढ़ते देखा। वे चुपचाप पढ़ती रहती हैं। पहले कॉलेज का काम निपटाती हैं और समय मिले तो पढ़ती दीखती हैं। पढ़ता हुआ इंसान मेरे लिए दुनिया का सबसे सुंदर इंसान है और जिन हाथों में दिखती है किताब वे सबसे सुंदर हाथ। मैम इस उपन्यास को पूरा पढ़ चुकी थी, सो अब वह उनके हाथों में नहीं दिख रहा था। उस दिन वे ‘बनास जन’ का मृणाल पांडेय पर अंक पढ़ रही थी। मैंने थोड़ी चर्चा छेड़ी। वे अपनी ओर से कम बताती हैं। मैं कभी किसी रचना या किसी पात्र पर चर्चा शुरू करता हूँ तब वे बहुत उत्साह से अपना पढ़ा हुआ बताने लगती हैं। किसी-किसी रचना पर बात करते हुए उनके चेहरे पर बच्चों जैसा उत्साह व रसमग्नता दिखलाई पड़ती है। मैंने उन्हें मधु कांकरिया की ‘मेरी ढाका डायरी’ के बारे में बताया तो वे बोली कल ले आना। कुछ और साहित्य चर्चा चल निकली तब मैंने ‘गॉन विद द विंड’ के बारे में पूछा। बोली- इसे आप पढ़ेंगे तो जानेंगे कि उपन्यास क्या होता है? हमारे हिंदी उपन्यास कुछेक को छोड़ दें तो यूरोप और अमरीकी उपन्यासों के आगे क्यूँ नहीं टिकते? मैं कल ले आऊँगी।

अगले दिन किताबों का आदान-प्रदान हुआ। उन्होंने तो तीन दिन में पढ़कर लौटा दी लेकिन मेरी तीन दिन तक इस सात सौ पृष्ठ के उपन्यास को शुरू करने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। बीसेक पेज पढ़कर रुक गया कि कहीं समय तो ख़राब नहीं होगा। यूँ भी आजकल में फ़िक्शन न के बरोबर पढ़ता हूँ। फिर गूगल किया, उपन्यास की पृष्ठभूमि यानी अमरीकी गृहयुद्ध के बारे में पढ़ा, इस पर बनी फ़िल्म के बारे में पढ़ा। लेखिका मार्गरेट मिशेल के बारे में पढ़ा जिन्होंने अपने जीवन में यह एकमात्र पुस्तक लिखी। इसकी कालजयिता और लोकप्रियता के बारे में पढ़ा। पर एक लाइन जिसे मुझे इसे पढ़ने को मजबूर कर दिया वह यह थी कि अमरीका में बाइबिल के बाद सबसे ज्यादा पढ़ी जाने किताब है यह।

पढ़ना शुरू किया तो बस पढ़ता ही चला गया। जब समय मिलता तब ही पढ़ लेता। चाहे दस मिनट का ही समय मिले। उपन्यास की नायिका स्कारलेट ओ’ हारा और रेयत बटलर मेरे प्रिय पात्र बन गए। दोनों ही ग्रे कैरेक्टर हैं। स्कारलेट निहायत ही स्वार्थी लड़की है जो सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी, अपने सुख-चैन, अपने ऐशोआराम के बारे में सोचती है। स्कारलेट जिससे आप चाहते हुए भी अंत तक नफ़रत नहीं कर पाते हैं और बटलर जिससे अंत में आपको प्यार हो जाता है। मैं ऐशली को नहीं बटलर को ही इस उपन्यास का नायक कहूँगा। और मैलिनी के प्रति आप अंततः श्रद्धा से भर उठते हैं। युद्ध के बीच प्यार और स्कारलेट के जीवन संघर्ष की अद्भुत कहानी है ‘गॉन विद द विंड’।

यह उत्तरी और दक्षिणी अमरीका के बीच युद्ध की कहानी है जिसमें स्कारलेट की प्रेम-कहानी भी साथ-साथ चलती है। दक्षिणी अमरीका कृषि प्रधान क्षेत्र है जो कि दासों के श्रम पर फल-फूल रहा है। यहाँ का सामंती वर्ग दासों के श्रम के पसीने से परफ्यूम लगा रहा है; उनकी मेहनत से उपजी समृद्धि से शिकार, खेल, मनोरंजन, पार्टियों और आमोद-प्रमोद में मग्न है। वहीं उत्तरी अमरीकी जिन्हें दक्षिण वाले यांकी कहते हैं, उद्योग आधारित सभ्यता के लोग हैं और दास प्रथा के उन्मूलन के पक्ष में हैं। दास प्रथा तो इस गृहयुद्ध का एक बड़ा कारण था ही लेकिन इस संघर्ष के बीच मूल कारण था दोनों सभ्यताओं में श्रेष्ठताबोध। असल में दुनिया में जहाँ कहीं भी संघर्ष या युद्ध है, उसके मूल में यही कारण है। हम श्रेष्ठ हैं, दूसरा हमसे कमतर है। यह अहंकार ही संघर्ष का कारण है। यह युद्ध दक्षिणियों से उनका आराम, चैन-सुकून सब छीन लेता है। वे भूखे मरने को विवश हो जाते हैं। उन्हें ज़िंदगी की भयावहता का सामना करना पड़ता है। दासों की तरह अब उन्हें खेतों में काम करना पड़ता है। स्कारलेट इस सबसे निकलना चाहती है। वह पहले जैसी ज़िंदगी चाहती है और चाहती है कि ऐशली उसका हो, सिर्फ़ उसका। ऐशली जो कि अब मैलिनी का पति है।

अपने सुख की तलाश में वह तीन विवाह करती है। वह जान ही नहीं पाती कि ऐशली को लेकर उसकी चाह मृग-मरीचिका है। इस चक्कर में वह बटलर के प्यार को भी खो देती है। “तुम्हारे जाने के बाद मैं क्या करूँगी? स्कारलेट ने उसके चहरे की तरफ़ देखते हुए लाचारी भरे स्वर में पूछा। इसका जवाब तुम्हें अपने भीतर ही खोजना होगा ! रेयत ने एक गहरी सांस लेते हुए कहीं दूर देखते हुए कहा।”

अफ़लातून की डायरी 168
08.09.2025

पता नहीं इस देश में ही यह दिक्कत है या और कहीं भी है, लोग मित्रता तो कर लेते हैं लेकिन उसमें भी जब बराबरी का व्यवहार करते हुए मजाक कर लें तो उनका इगो हर्ट हो जाता है। और फिर तर्क ये कि हम उम्र में तुमसे इतने बड़े हैं। अरे भई, मजाक करते हो तो सहना भी सीखो। और फिर दोस्ती काहे करते हो? या दोस्ती डेट ऑफ़ बर्थ पूछकर किया करो। जिसमें दो धेले के भी लक्खण नहीं, उसे भी इस देश में सम्मान दो कि वह उमर में तुमसे बड़ा है। खाक बड़ा है? भाई-बहनों के बीच भी माता-पिता बचपन से ही इस बात का संस्कार डालने के लिए कटिबद्ध रहते हैं कि बड़े भाई या बहन का सम्मान करो। अरे, सम्मान की बजाय आप उनके बीच प्रेम का, बराबरी का रिश्ता क्यूँ नहीं डवलप कराते। और उस सम्मान के चक्कर में उनमें एक संकोच पैदा हो जाता है और अपने मन की बात भी वे घर में भाई-बहन के साथ शेयर न करके अपने दोस्तों से करते हैं। अपनी प्रोबल्म्स भी वे दोस्तों को बताते हैं। फिर आपका इमोशनल ड्रामा कि हर बात हमें तो इनके दोस्तों से पता चलती है, हम तुम्हारे कुछ हैं ही नहीं क्या? हमसे नहीं, कम से कम भाई-बहन को तो बता देता/देती।

अफ़लातून की डायरी 169
09.09.2025

ओशो के शिव-सूत्र पर प्रवचनों का संकलन पढ़ रहा हूँ। ओशो कहते हैं कि हम मंदिरों में मनोकामना लेकर जाते हैं, भगवान से सौदेबाजी करते हैं। मंदिर नहीं हुआ कोई बाजार या मॉल हो गया।

अभी दो दिन पहले हम गोवर्धन, बरसाना और नंदगाँव गए। कोई भक्ति-भाव से नहीं बस देखने की इच्छा थी। पहले दिन शाम को साढ़े सात बजे ट्रेन से गोवर्धन पहुँचे। एक गेस्टहाउस में कमरा लिया। खाना खाकर दानघाटी मंदिर गए। दर्शन किए। हमने कोई प्रसाद नहीं चढ़ाया। मुझे पता है कि कम से कम दस का नोट रखे बिना पुजारी प्रसाद के डिब्बे को हाथ भी नहीं लगाता। कलावा बाँधने के भी न्यूनतम दस रुपए तो है ही। आप पाँच सौ रुपए रखो कि झट से आपको माला भी पहना देगा, कलावा बाँधेगा। पीठ थपथपाएगा। अखंड ज्योति के लिए घी की राशि या बालभोग के लिए कोई राशि कबूलवाने का प्रयास करेगा। दर्शन के बाद हम यहाँ की मिठाई की प्रसिद्ध दुकान गिर्राज मिष्ठान भंडार पहुँचे। पत्नी व दोनों बच्चों ने कुल्हड़ वाला दूध पिया। यहाँ से हमने घर में प्रसाद वितरण के लिए आधा किलो सोहनपपड़ी ली।

अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो बरसाने पहुँचे। यहाँ भी हमने बस दर्शन किए, कोई प्रसाद, फूलमाला या भेंट-दक्षिणा नहीं चढ़ाई। वहाँ से नंदगाँव पहुँचे। वहाँ पुजारी हर पंद्रह मिनट में पट बंद किए दे रहा था। जैसे ही पचासेक दर्शनार्थी इकट्ठे होते वह पट खोल देता। कुछ कहानी-सी सुनाता और अंत में एक गाय के चारे के लिए पाँच सौ रुपए या साधुओं-ब्राह्मणों के भोजन के लिए दो सौ इक्यावन रुपए की राशि दान करने की अपील करता। लोग देना शुरू करते। और अंत में वह लगभग हर आदमी पर दबाव-सा बनाता जाता। कुछ नहीं तो सौ या पचास तो कम से कम दे।

पहले मैं इस बारे में सोचता था कि ये लोग कितने लालची हैं। धर्मं का धंधा बना रखा है। पर शिव सूत्र पर ओशो को पढ़ते हुए दूसरे एंगल से सोचा कि असल दोषी तो हम हैं। मंदिर को लेनदेन, सौदेबाजी, मनोकामना पूर्ति का साधन तो हमने बना रखा है। बेटे की नौकरी लग जाएगी तो सवामणि चढ़ाएँगे। बेटी का ब्याह हो जाएगा तो पाँच किलो की कढ़ाई चढ़ाएँगे। बहू के बेटा हो जाएगा तो रतिजगा कराएँगे, हमारा ट्रांसफर हो जाएगा पूजा-अनुष्ठान कराएँगे... मंदिर को बाजार तो हमने बना रखा है तब उस बाजार में तो व्यापारी और ठग ही मिलेंगे; साधुजन थोड़े न मिलेंगे।

अफ़लातून की डायरी 170
10.09.2025

ओशो के शिव सूत्र पर प्रवचन से कुछ सूत्र-
  • परमात्मा को रिझाना करीब-करीब स्त्री को रिझाने जैसा है। तुमने जल्दी की, कि तुम चूके।
  • साधक का अर्थ है : जिसने सार्थक की खोज शुरू की।
  • साधक को भीड़ से सावधान होना चाहिए।
  • ऐसा क्षण तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आता, जब तुम कह सको अब सब मेरे आस है। जिस दिन यह क्षण आएगा, उसी दिन दौड़ बंद हो जाएगी।
  • चित्त ही मंत्र है। मंत्र का अर्थ है जो बार-बार पुनरुक्त करने से शक्ति अर्जित करे; जिसकी पुनरुक्ति शक्ति बन जाए। जिस विचार को भी बार-बार पुनरुक्त करेंगे, वह धीरे-धीरे आचरण बन जाएगा। जो भी आप हैं, अनंत बार कुछ विचारों को दोहराए जाने का परिणाम हो।
  • गुरु का अर्थ है : जीवित शास्त्र। जीवित व्यक्ति को खोजो, जो तुम्हें राह दे सकें।
  • अविवेक माया है।
  • ध्यान रखो, जब तक तुम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो, तब तक तुम अहंकार से ग्रस्त हो।
  • बूढ़े आदमी चिड़चिड़े हो जाते हैं। वह चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है; वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है।
विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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