- नीरज कुमार श्रीमाली
स्कूल में मुझे केमिस्ट्री फूटी आँख नहीं सुहाती थी। मै अक्सर सोचता था कि इन बड़ी-बड़ी समीकरणों को, जिनको में तोते की तरह रटता आया हूँ, उनका दैनिक जीवन में क्या उपयोग है? अब कही जाके के पता चला की सारा भौकाल तो इन रसायनों का है, जो न केवल अपनी उंगलियों पर हमें नचाते है, बल्कि आसमान से तारो को तोड़ लाने और चाँद पर ले जाने का साहस भी जगाते है। दरअसल खुसरो ने जिस दरिया में डूबने का अंदेशा जताया है, वो पानी का नहीं बल्कि इन्ही रसायनों का है। शिरी-फरहाद, लैला-मझनूं, रोमियो-जुलीयट और हीर-रांझा जैसे इशकज़ादो को इन्ही रसायनों ने इतिहास में अमर बनाया है। वैसे ऐतिहात न बरता जाए, तो ये रसायन किसी पागलखाने में आपका दाखिला भी करवा सकते है या फिर मेहरबानी रही तो गलती से दार्शनिक, सन्यासी, शायर या वैज्ञानिक भी बना सकते है । कुल मिलाकर सारा मामला केमिकल लोचे का है ।
प्रेम से भरे नग्मे, फिल्मे, उपन्यास, या फिर कहानियाँ, किसे नहीं सुहाती? लेकिन फिर भी सारी दुनियां को प्रेमियों से बैर होता है । इस बात की पूरी तस्दीक रखी जाती है कि अपने घर में किसी को भी प्रेमरोग न हो। अगर हो भी जाए तो समय रहते उसका इलाज कर दिया जाता है, लेकिन कुछ प्रेमी लाइलाज होते है । उन्ही पर तो लिखे जाते है अफ़साने, जिसे सुनने के लिए हर कोई बेताब होता है। जो अफ़साना मुकम्मल हो जाए, उसे लोग भुला देते है, लेकिन नाकाम इश्क के किस्से ज्यादा मशहूर होते है। जिस दिन अखबार में किसी नाकाम इश्क के पेड़ या फिर पंखे से लटकने की खबर छपती है, उस दिन पान से लेकर पंसारी की दूकान और चाय की थडी से लेकर हर चबूतरे पर उसी की चर्चा होती है । उस दिन तो मेढकों की टर्र-टर्र में भी उन्ही के किस्से होते है और झींगुर भी रात भर उन्ही के नाम का रोना रोते है । कबीरदास ने ठीक ही कहा है-
"प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय"
भले ही रसायन विज्ञान में आपकी रूचि न हो, पर प्रेम के रसायन के विषय में तो जरुर होगी । चलिए, आज आपकी जिज्ञासा को शांत किए देते है । शुरुआत करते है एक सवाल से, देवियों और सज्जनों, आपसे पहला सवाल, लाख टके का, क्या आपने कभी किसी से प्रेम किया हैं ? फंस गए ! जरुर किया होगा, भले एक तरफ़ा हो। जरा दिमाग पर जोर डालिए, क्या होता था जब वो आपके सामने आती और आँखों से आँखे चार होती थी ? धड़कने बढ़ जाती थी, पेट में तितलियाँ उड़ने लगती थी और मीठे-मीठे दर्द के साथ एक अजीब सी बैचैनी छाई रहती थी । आँखों से उसका चेहरा गायब ही नहीं होता था, रात-रात भर नींद नहीं आती थी और मन में एक ही लालसा बनी रहती थी कि अगली मुलाक़ात कब होगी। ये कमाल है “डोपामाइन” नाम के रसायन का जिसे 'खुशी का हार्मोन' भी कहा जाता है। “नॉरएड्रेनेलिन” नाम का रसायन इसमें एक और तडका लगा देता है, और वो है ख़यालों में खोए रहने का, सोते जागते बस उसी का ख्याल। दरअसल पहले प्यार की शुरुआत ही रासायनिक प्रक्रिया से होती है। वैसे “सेरोटोनिन” नाम का रसायन आपके दिमाग को सुकून देता है, लेकिन पहले प्यार की भनक लगते ही इसका स्तर कम होने लगता है, नतीजा सुकून अब बैचेनी और जूनून में बदल जाता है । अब इसका ठीकरा किसी पर तो फोड़ना ही पड़ेगा, इसीलिए अधिकांश मामलों में बड़े बुजुर्ग इसे दिल का कसूर कहकर पल्ल्ला झाड लेते है ।
अगर गुटर-गूं से बात गलबहियाँ तक पहुँच जाए तो आगे की जिम्मेदारी “ऑक्सीटोसिन” संभालता है, वही जिसे विज्ञान की भाषा में “लव हार्मोन' भी कहा जाता है । इसका मूल काम दो लोगों के बीच के भावनात्मक बंधन को मजबूत बनाना है। स्पर्श और आलिंगन के समय इसका झरना फूट पड़ता है, जो नायक और नायिका के मध्य आपसी विश्वास और सुरक्षा की भावना पैदा करता है । अब, जबकी साथ जीने-मरने की कसमें खायी जा चुकी हो, तो वफ़ा की उम्मीद करना लाज़मी है। वफ़ादारी की जिम्मेदारी लेता है “वेसोप्रेसिन”, पर महँगाई के इस दौर में ये भी कोई गारंटी वगैरह नहीं देता, खासकर नायकों के मामले में । मौसी कहती है “मर्द तो बगीचे का भौरा होता है” कभी इस फूल पर तो कभी उस फूल पर, पता नहीं कब और किस फूल का चटख रंग इसकी नीयत बदल दे ।
दिलचस्प बात यह है कि प्रेम के विभिन्न चरणों में अलग-अलग रसायन कमान सँभालते हैं। आकर्षण के चरण में डोपामाइन और नॉरएड्रेनालिन हावी होते हैं, जबकि खबर पक्की होने के चरण में ऑक्सीटोसिन और वेसोप्रेसिन। इन सब के बीच में जो मीठा-मीठा दर्द बना रहता है, वो माया है एंडोर्फिन्स की, जो एक प्रकार का प्राकृतिक दर्द निवारक हैं।
चलिए अब बात करते हैं बायोलॉजी के सबसे बदमाश रसायनों की। ये रसायन है टेस्टोस्टेरोन और एस्ट्रोजन। पहले बात हो जाए “टेस्टोस्टेरोन” की। वैसे जैव विकास की प्रक्रिया में इस रसायन का विकास मादा तक अपने जीनों की पहुँच सुनिश्चित करने के लिए हुआ है, लेकिन इसकी तासीर में थोड़ी गड़बड़ी है। यही वो रसायन है जो लड़कों को बदमाश, नालायक, बिगड़ैल, खिलंदड, आशिक, जिद्दी, जुनूनी, आक्रामक और कभी-कभार गलती से क्रांतिकारी बना देता है। यह पैक भी लगवाता है, सिगरेट के धुएं के छल्ले भी बनवाता है, धूम का राइडर बनाता है और आए दिन पंगे भी करवाता है। यही वह केमिकल है जो डोले शोले बनाने, डेरिंग करने, डांस करने, और डैशिंग दिखने को प्रेरित करता है।
वैसे इसका खास काम तो डैडी बनाना है लेकिन देखिए, यह कितनी सारी मसखरियां करता है। इतनी सारी खूबियों के बावजूद इसकी दो बड़ी कमियां है। यह मर्दों को गंजा करता है और उनके हृदय को कमजोर भी करता है। आपने नोटिस किया होगा कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं लंबी उम्र तक जीती है, जबकि पुरुष पहले ही विदा हो लेते हैं, इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार भी यही केमिकल है। उम्र बढ़ने के साथ शरीर में इसकी मात्रा कम हो जाती है और यही वजह है की पुरुष अपनी यायावरी को कम कर परिवार, पत्नी और बच्चों पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। अगर टेस्टोस्टरॉन की मात्रा कम न होती तो पुरुषों कि यायावरी जीवन भर जारी रहती।
तो भैया बायोलॉजिस्ट होने के नाते इस रसायन का जस्टिफिकेशन देना तो बनता है। टेस्टोस्टेरोन की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि में वही “सर्वाइवलऑफ़ द फिटेस्ट” का कांसेप्ट है। जीवों का लैंगिक व्यवहार एक जटिल प्रक्रिया है जिसका अंतिम उद्देश्य अगली पीढ़ी तक जीन पहुंचाना होता है। जब मादा के पास एक से अधिक विकल्प हो तो वह ऐसे नर का वरण करेगी जो उसकी अगली पीढ़ी के लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटा सके। जिन नरों में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा अधिक होती है वे न केवल शारीरिक रूप से मजबुत होते हैं बल्कि वे अधिक आक्रामक भी होते हैं। उनमें जोखिम उठाने की प्रवृत्ति के साथ-साथ नेतृत्व की क्षमता भी होती हैं। यही वे गुण है जो उन्हें अपनी भावी पीढ़ी के लिए अधिक संसाधन जुटाने में सहायता करते हैं।
लैंगिक जनन करने वाले सभी जीवो में इस हार्मोन की भूमिका निर्णायक हो जाती है, लेकिन बात जब होमो सेपियंस की आती है, तब थोड़ा सा पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस होती है। जनन उर्वरकता और शारीरिक लक्षणों तक तो ठीक है, लेकिन होमो सेपियंस में मादाओं के लिए शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक क्षमता की निर्णायक भूमिका होती है। अब, जबकि हम गुफाओं में नहीं रहते है, शिकार नहीं करते है और इस दौर में, जहाँ ज़ोमेटो वाले कुछ ही मिनटों में मन चाहा व्यंजन घर पर पहुंचा देते है, नरों को ताकतवर और आक्रामक होने की आवश्यकता नहीं रही, लेकिन टेस्टोस्टरोन अपनी वही पुरानी करतूतें लेकर बैठा हुआ है, जिनकी अब उतनी जरुरत नहीं रही । हमारे मस्तिषक ने इस बदमाश रसायन को नोटिस कर लिया है। इसे ठीक कर लिया जाएगा, लेकिन इसमें करोड़ों साल लग जाएंगे। जैव विकास की प्रक्रिया बहुत ही धीमी एवं क्रमिक होती है।
जब जुलाई 1858 में चार्ल्स डार्विन का पेपर लिनियन सोसाइटी ऑफ़ लंदन मैं पहली बार पढ़ा गया, तब पादरी सैम्युअल विल्बरफोर्स ने इसका मजाक बनाते हुए कहा था कि क्या बेहूदा और बकवास पेपर है। क्या आप में से किसी ने अपने जीवन में बंदर को इंसान बनते देखा? खेर बिशप सैम्युल को मरने से पहले यह बात तो समझ में आ गई थी कि यह काम चुटकी बजाने जितना आसान नहीं। किसी जाति को इवॉल्व होने में करोड़ों साल लग जाते हैं।
चलिए अब बात करते है “एस्ट्रोजन” की । रेशमी जुल्फे, घुंघराली लटे, बालों का जुड़ा, झील जैसी नीली आंखें, पलको का शामियाना, पलकों को गिराना, पलकों को उठाना, आंखों का काजल, गुलाबी होंठ, गुलाबी गाल, गालों के गड्डे, कानों के झुमके और बालियां, होठों को दबाना, लजाना, मुस्कुराना, रूठना, गुस्सा करना, और चेहरे का लाल पीला या सुर्ख होना, इनमें से एक का भी संबंध मादा जननांगो से नहीं है, फिर भी ताज्जुब है कि आशिकों, शायरों, कवियों और गीतकारों ने इस पर हजारों नगमे लिख डाले।
दरअसल चेहरे की बनावट, कातिलाना अदाएं, और नजाकत नर को आकर्षित करती है। ये सभी मादा के जनन स्वास्थ्य का परिचायक है, और यह जादू है “एस्ट्रोजन” का, जिससे बचना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है, बिलकुल डॉन की तरह । मादा के जींस अच्छी तरह से जानते हैं, की इन सारी खूबियों का कब, कैसे और किस पर इस्तेमाल करना है। उनके मस्तिष्क को एक-एक बात की सटीक जानकारी मिल जाती है कि नर ने उनकी किस बात को नोटिस किया, भले ही मादा ने नर को देखा तक ना हो। तो कुल मिलाकर यह मामला है आकर्षण का, ताकि एक बेहतर कांबिनेशन बने और जीन प्रवाह सुनिश्चित हो सके।í
लेकिन मानव के लैंगिक व्यवहार को किसी एक थ्योरी से समझना आसान नहीं। मामला गणित की तरह नहीं कि एक ही फार्मूले से काम चल जाए। यह जरूरी नहीं की हमेशा दो खूबसूरत होमो सेपियंस का ही कांबिनेशन बने। लड़की खूबसूरत और लड़का सामान्य भी हो सकता है। कुछ मामलों में सुंदरता से भी ज्यादा, समय और संपर्क निर्णायक हो जाते हैं। मतलब आप अपने स्कूल कॉलेज या कार्यस्थल पर किसके साथ ज्यादा समय बिता रहे हैं और कब वह संपर्क आकर्षण में बदल जाए, अनुमान लगाना मुश्किल है।
वैसे एस्ट्रोजन का मूल काम है स्त्री के शरीर को गर्भ धारण करने के लिए तथा शिशु को पोषण देने के लिए तैयार करना, लेकिन इसका एक और पहलूँ भी है। जब एक महिला के गर्भाशय में उसकी पुत्री विकसित हो रही होती है, तो लगभग तीसरे महीने के दौरान ही उस मादा शिशु में भी स्वयं का गर्भाशय विकसित हो जाता है, साथ ही उसमें वह अंडाणु भी बन जाते हैं जिससे उसकी स्वयं की बच्ची जन्म लेने वाली है। यानी हर बच्ची अपनी नानी के शरीर में ही जन्म ले चुकी होती है। तभी तो, डिलीवरी से लेकर उसके बड़े होने तक की सारी देखभाल नानी ही तो करती है, क्योंकि नानी के जींस अच्छी तरह से जानते हैं कि उसकी बेटी की बेटी, उसके ही शरीर का अंश है, और यही कारण है कि जैव विकास की प्रक्रिया ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं की लंबी उम्र को चुना। ये सारा कमाल है एस्ट्रोजन का, जो न केवल महिलाओं की मांसपेशियों और हड्डियों को मजबूत बनाता है बल्कि उनके हृदय को स्वस्थ भी रखता है।
जाते-जाते आपका एक और भ्रम दूर किए देता हूँ। टीवी में आपने महिलाओं को आकर्षित करने वाले इत्रों के विज्ञापन तो जरुर देखे होंगे। क्या वास्तव में ऐसे रसायन होते है जो किसी भी मादा को मदहोश कर दे? तो इसका जवाब है हाँ, होते है, लेकिन रुकीए जनाब, थोडा सबर कीजिए। ये रसायन हम इंसानों में नहीं होते बल्कि कीटों में पाए जाते है जिन्हें “फेरोमंस” कहा जाता है । एक बार जब ये रसायन हवा में छोड़ दीए जाते है तो इसके तिलिस्म से कोई भी बच नहीं सकता। आप इसे कामदेव का अचूक बाण कह सकते है । इंसानों में इसकी खोज जारी है। अभी तक हमें बस इतना ही पता चला है कि हमारा पसीना कुछ हद तक फेरोमंस की तरह काम कर सकता है । उम्मीद है किसी दिन हम इंसान कृत्रिम फेरोमंस भी बना लेंगे, आखिर दुनिया उम्मीद पर ही तो कायम है ।

काश ये हार्मोन सारी उम्र पैदा होते रहते तो हम भी इस लव के समुंदर में आज भी गोते लगा लेते 😁😁
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन।
जवाब देंहटाएंपूरे लेख में कहानी, एक कविता की तरह चलती रही है ।
पढ़कर मज़ा आया ।
यह लेख वास्तव में विज्ञान का साहित्य, के रूप में विज्ञान और समाज का दस्तावेज है।
बहुत खूब महत्वपूर्ण जानकारी
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
जवाब देंहटाएंShandar
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