शिल्प कला:बस्सी की रामरेवाड़ियां/ नटवर त्रिपाठी

(देवाझुलनी ग्यारस आने के साथ ही जनमानस में रामरेवाड़ियां को याद किये जाने का मौसम आ गया है।हमारी लोक विरासत का अमूल्य हिस्सा है ये रामरेवाड़ियां -सम्पादक )
(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा ही लिए गए हैं-सम्पादक )

चित्तौड़गढ़ में बस्सी के प्रसिद्ध सुथार गत दो माह से लकड़ी के बेवाण बनाने में जुटे हैं और बसायती सुथार मोहल्ले में उत्सवी माहोल है। बस्सी के सुथार लकड़ी के आकर्षक हस्त शिल्प के लिए राजस्थान और उसके बाहर जाने जाते हैं। भादवा बुध एकादशी को पूरे भारतवर्ष में देवझूलनी एकादशी का पर्व मनाया जाता हैं और प्रत्येक मन्दिर के देव की झांकी निकाल कर उन्हें अपने-अपने जगह के सरोवर में स्नान कराया जाता है। जिस बेवाण (विमान) में देव को बिठा कर सवारी निकाली जाती है, इस अंचल में उसे रामरेवाड़ी कही जाती है। ये सुथार ही रामरेवाड़ियां बनाते हैं। 

रामरेवाड़ियां (बेवाण) बनाने का गौरव बस्सी के कारीगरों को गत चार सदी से हासिल है। सावन और भादौ महिनें में सब के सब क्या 80 वर्ष के और क्या प्रौढ़ और किशोर सुथार बस रामरेड़ियां बनाने का ही काम करते हैं। इन दिनों यहां थोक में रामरेवाड़ियां बन रही हैं, परंपरागत और अब अधुनातन भी। दो हजार से 60 हजार तक और इससे भी अधिक मूल्य की रामरेवाड़ियां यहां बन रही है। दक्षिणी नीम, सेमल, छाल तथा चमेली की लकड़ी के बेवाण 4-5 हजार में और शीशम, सागवान के तथा हाथी, शेर, मोर आदि के नक्काशी वाले बेवाण 20 से 60 हजार तक बिक जाते हैं। लगभग डेढ़ दर्जन परिवारों के दो दर्जन से अधिक कारीगर अभी बेवाण ही बना रहे हैं, परन्तु इनमें से जमनालाल, द्वारका, अवन्तिलाल, रामनिवास, बोतलाल, मदनलाल, गोपाल, दौलतराम, शिवलाल की कारीगरी और काम की बात ही निराली है।

ये सब कारीगर अनन्त चतुर्दशी से धड़ल्ले से रामरेवाड़ियां बनातेे हैं, एक पखवाड़े बाद देवझूलनी एकादशी का महापर्व जो है। कुछ बेवाण आर्डर से बनाये जाते हैं तो अधिकतर सहज ही। लोग यहां आते हैं और पसंद कर बेवाण ले जाते हैं। द्वारका तथा जमनालाल की नक्काशी तथा रामनिवासी की नक्काशी और मीनाकारी की बात ही कुछ और है। इनकी बनी रामरेवाड़ियां इतनी  आकर्षक लगती है कि आंखे फटी की फटी रह जाये। 

मेवाड़ और मालवा के मन्दिरों में बस्सी के हाथ के बने बेवाण ही प्रचलित हैं। प्रयोग में आते-आते बेवाणों की टूट-फूट और रंग-रोगन भी ये ही शिल्पी करते हैं। आठ, छः और चार खम के बेवाण 4000 से 8000 रू. तक बनते हैं। बोतलाल, द्वारका, जमनालाल और रामनिवास बेवाण के निष्णात कारीगर बताते हैं कि बेवाण ढ़ाई फुट के ‘पागों-थम्बों पर टिकता है। बेवाण का सबसे नीचे का हिस्सा ‘कन्दड़ी की तार’ का पाटिया, ऊपर का हिस्सा ‘तलाबा की धार’ कहलाता है। पटिए से सटे खड़े छोटे पाटिए पिथी की भितीयां, विमान के आगे के भाग को ‘अगाड़ा पम्बा’ पीछे के हिस्से को पिछवाई तथा सामने के हत्थों पर गरूड़ और हनुमान उत्कीर्ण होते हैं। भगवान के सामान रखने के ‘आल्या’ नीचे ‘घोडली’ तथा बैठके पर सुन्दर मेहराब होती है, जहां पर राधा-कृष्ण, मोर-बाघ के चित्र अंकित रहते हैं। सबसे ऊपर लकड़ी के छज्जे कंगूरे और शिखर पर भलकिया-कलश रहता है। भगवान के आसन को ‘बैठका’ कहा जाता है। लोग बस्सी को राम-रेवाड़ी वाला गांव से जानते हैं। 

विमान की चित्रकारी बहुत भव्य होती है। आधे से ज्यादा समय तो चित्रकारी में ही चला जाता है। चित्रकारी और काष्ठकारी दोनों पर समान अधिकार रखने वाले ये चित्रकार अधिकतर देवी-देवताओं की चित्राकृतयां, बेल-बूंटे और पशु-पक्षी उत्कीर्ण करते हैं। विमान-बेवाण का प्रत्येक हिस्सा चटक रंगों से भरा-पूरा रहता है। यूं तो ये 36 रंगों को प्रयुक्त करते हैं परन्तु मूल रंग तो वही लाल, पीले, सिन्दूरी, जामूनी, आसमानी, काला तथा सफेद हैं। विमान बनाते-बनाते युवा सुरेश बताता है कि किसी एक हिस्से पर करीब 16 बार हाथ जाता है तो रंगो का उभार स्वतः आ जाता है और निखार देखने को मिलता है। हाथ के बनाए रंग 35-40 वर्ष भी ताज़गी भरे रहते हैं। अब बाजारू ऐशियन पेन्ट्स का इस्तेमाल होता है। 

बोतलाल, जमनालाल, शंकर लाल, मांगीलाल, अवन्तिलाल, रामनिवास, रतनलाल, देवीलाल तथा मदनलाल की बेवाण कार्यों में खास महारत है। युवाओं में सूरज और मांगी लाल के काम मॅंुह बोलते हैं। महिलाऐं चित्रकारी में सहयोग करती है। शिल्पकारों को अपनी बहूबेटियों को काम सीखाने में एतराज नहीं है। माताजी, देवी-देवताओं, प्रतीकों, प्रकृति, फूल-पत्तियों और डिब्बों तथा कलात्मक चीजों पर चित्रकारी में महिलाऐं भी निष्णात हैं। कंकड़-पत्थरो से रंग बनाने में महिलाओं की भूमिका रही है। काष्ठकृति बन जाने के बाद उसके सीजण्ड करने और रंग का कार्य करने में महिलाओं का अहं योगदान रहता है।
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नटवर त्रिपाठी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़ 
म़ो: 09460364940
ई-मेल:-natwar.tripathi@gmail.com

नटवर त्रिपाठी

(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय 

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