यथासमय हम कहाँ समझे मुनि जिन विजय को/नटवर त्रिपाठी

  • असाधरण मां का अद्वितीय बेटा ऋणमल - मुनि जिन विजयी
  • By नटवर त्रिपाठी
 
चित्तौड़-अजमेर रेलमार्ग पर भीलवाड़ा जिले का गांव रूपाहेली भूतपूर्व मेवाड़ राज्य की जागीर का एक ठिकाना था। मुनि जिन विजय (पिता का दिया नाम किशनसिंह, मां का मुहबोला नाम ऋणमल) रूपाहेली मुनि का जन्म स्थल है। पंवार कुल में इनका जन्म हुआ। 10-11 वर्ष की अवस्था में इनके पिता बिरधीसिंह (बड़दसिंह) से और 13-14 वर्ष की आयु में माता श्रीमती नर्मदा कुंवर से विछोह होगया। अंग्रेजी सलतनत के साथ सैनिक विद्रोह में दादाजी तख्तसिंह और  परिजन काम आये। महा महोपाध्याय गौरीशंकरजी ओझा ने जानकारी दी कि सन् 1857के सैनिक विद्रोह के समय परिवार के लोग काम आये। बड़वा के बहिड़ो से मुनि जी ने अपने पूर्वजों का अनुसंधान किया।

सन् 1857 के गदर में भाग लेने वाले परिवारों पर ब्रिटिश सरकार की निगरानी रहती थी और उन्हें पकड़ कर सजा देने के महाराणाओं और जागीरदारों को आदेश थे। इनके पूर्वजों का गदर से सम्बन्ध होने से पीढ़ियां लुकाछिपी करती रही और ब्रिटिशर्स का कोपभाजन बनी रही। साधु वेश में दादा और परिजन गुजरात और अन्य राज्यों में भटकते रहे। उदयपुर दरबार में 1914 के सैनिक बलवे में भाग लेने वालों की भनक लगते ही पकड़े जाने व पूछताछ का भय बना रहता था। यहीं स्वतंत्रता के भाव अंकुरित होने लगे। पिताजी सिरोही राज्य में नौकरी करते और मां के पास किशनसिंह (मुनि जिन विजय) रहते थे। मां कभी कभी उपाश्रय जाती थी। रिणमल संवत् 1957 में यतिजी महाराज की सेवा निमित माताकी वेदना भरी अनुमति प्राप्त कर रूपाहेली से बानीण - बानसेन आगए। इसके बाद माता की क्या दशा हुई मुनिजी को नहीं मालूम। सन् 1921 में अकस्मात माता की इन्हें स्मृति आई तो उसकी सुधबुध लेने रूपाहेली पहुंचे। 

20-21 वर्ष के अन्तराल से रूपाहेली स्टेशन पर ज्योंही मुनिजी उतरे स्टेशन मास्टर ने उन्हें विस्मित भाव से देखा। पूछा कहां रहते हो, कहां जा रहे हो, किसके यहां आये हो? प्रश्न पर प्रश्न। और तार की घण्टी बजते मास्टर कमरे में चला गया। तीन-चार किलोमीटर मार्ग तय करते ही खेलने का वह मैदान आया जहां वे गेडीदड़ा, गुल्ली-डंडा खेलते थे। गांव की बावड़ी आई जिसमें लगाये जाने वाले गंठों की याद ताजा होगई। मंदिर आया और पुजारी भी विस्मय भाव से देखने लगा। उपाश्रय में अब कोई यति नहीं है। इतने में एक अजनबी भरभराती आवाज में बोला। इसको तुरंत रावले हाजिर करो। उसने कुछ कहने का मौका नहीं दिया और सीधे रावले चलने का ठाकुर सा. का हुक्म सुना दिया। 

महात्मा गांधी के असहकार आन्दोलन के मध्यनजर पढे़ लिखे लोगों पर कड़ी नजर थीं गढ़ और कचहरी पहचानी थी। मुनिजी का मन उद्विघ्न और उद्वेलित होगया। वहां खड़े लोग तीरछी नजरों से देख रहे थे। मुनिजी ने धीमे स्वर से हाथ जोड़ नमस्कार किया। नमस्कार का किसी ने ख्याल नहीं किया। पूछताछ हुई। बताया कि महात्मा गांधी ने विद्यापीठ स्थापित किया वहां लिखता पढ़ता हूं। वे चौंके और उनके वेश को घूरा। पूछाताछी की तीव्र स्वर ठाकुर चतुरसिंह जी के कान में पड़े। महाराणा उदयपुर के संपर्क से वे अनुभवी और विद्यानुरागी थे। इतिहास के जानकार थे और श्रेष्ठ पुस्तके पढ़ते थे। गौरीशंकर ओझा से उनके सम्बन्ध थे। 

दरी पर आसन देने के बाद विनम्र भाव से मेरा परिचय लिया। बताया मुनि जिन विजय हूं और आपका प्रजाजन हूं। राष्ट्रीय पुस्तकों और पत्रिकाओं से मुनि जी से उनके ज्ञान से परिचित ठाकुर की आंखे छलछला आई और कहा इस तुच्छ मनुष्य पर आपने अकल्पित असंभावित कृपा की है। यहां पधार कर करूणा की। वहां खड़ा नौकर चकित था और उसे समझ से बाहर मामला दिखलाई पड़ा। कुशलक्षेम और आवभगत के पलो के बाद एक कमरे में दरी गलीचे बिछवा दिये। जल, दूध और वांछित सुविधाऐं जुटा दो घण्टे की आज्ञा ले ठाकुर ने पुनः आने की सूचना दी। नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती पत्रिका यहां देख ठाकुर का स्वभाव समझने में मुनिजी को देर नहीं लगी। 

मुनीजी ने अपना आने का उद्धेश्य बताया और माताजी की जानकारी जाननी है और अपने पिता, दादा, परिजनों के जीवनवृत की कुछ बातें जाननी है। दो दशक से अधिक अंतराल में क्या कुछ बदल गया मुनिजी को क्या अता पता था। ठाकुर विस्मित। रात्रि अधिक होने पर विश्राम की कह अगले दिन बाते करने को कह ठाकुर देर रात अपने कक्ष में चले गये। अगले दिन मेरे घर परिवार के बारे में अनेक वृतान्त सुनाऐ और बताया कि आपकी माता ने आपको खोजने के प्रयत्न किए और बानीण पता किया पर कही पता नहीं चला। वह दृश्य साकार हो उठा जब रोती सिसकती, अपने प्यार और आंसूंओं से निलहाती वह करूणापूर्ण मूर्ति मानों खड़ी होकर मेरे सामने टकटकी लगाये देखरही है। मानों क्षीण आवाज में कह रही थी ‘भाई ऋणमल इस दुनियां में कोई तेरी मां भी थी, सिने तूझे जन्म देकर लालन-पालन करके बड़ा किया था।’

मां की खबर लेने गया अजीता नौकर आगया। उसका चेहरा अपशुकन बोल रहा था। अजीता के आंसूओं ने मुनिजी के हृदय पर वज्रपात किया। पता चला वि .स. 1976 को मां देवलोक होगई। सब उत्तर मिल गए। मुनिजी का हृदय बैठ गया। अगले दिन अहमदाबाद लौट गए। तब वे 35 वर्ष के होगये थे।

नटवर त्रिपाठी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़ 
म़ो: 09460364940
ई-मेल:-natwar.tripathi@gmail.com 
नटवर त्रिपाठी
(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय   

1 टिप्पणियाँ

  1. मुनि जी की स्मृति में अभी बालवाड़ी व पुस्तकालय स्थापित है ।

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