रचना आज=कुमार वीरेन्द्र+प्रेमचंद गांधी+नरेश चन्द्रकर+शिरीष कुमार मौर्य+मनोहर बाथम

फोटो ''प्रेम का दरिया'' ब्लॉग से उधार 
(युवा आलोचक कालूलाल कुलमी द्वारा की गयी यह समीक्षा पहली बार में ही यहीं छप रही है।-सम्पादक )

हर युग की रचनाधर्मी पीढ़ी अपनी रचनात्मक परम्परा को उत्तरोतर विकसित करने में विश्वास रखती है। उसका यही विश्वास समय संदर्भ के साथ रचनात्मकता को समृद्ध करता चलता है। वहां आरोप-प्रत्यारोप को कोई स्थान नहीं होता वहां ,वरन वहां रचनात्मकता ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। इस रचनात्मकता की पहचान करने के लिए लीलाधर मंडलोई ने युवा कवियों की कविताओं का एक संकलन तैयार किया है। इस संकलन में कुमार वीरेन्द्र, प्रेमचंद गांधी, नरेश चन्द्रकर, शिरीष कुमार मौर्य, मनोहर बाथम की कविताएं चुनी हैं। क्या यह अज्ञेय के तारसप्तक की याद दिलाता है? या प्रगतिशील काव्यधारा के पंचभूतों की! सबसे बड़ा सवाल विभाजन की सीमाओं को लांघते हुए अपने समय की रचनात्मक प्रतिभाओं की पहचान करना होता है, न कि प्रतिरोधी धाराएं खड़ी कर मठाधीशी करना। अगर इस संकलन पर विचार करे तो इस संग्रह की कविताएं ‘बात बोलेगी,बात खोलेगी भेद‘ की तरह हैं। या ‘जितना तुम्हारा सत्य है उतना ही कहो‘ यहां अतिरिक्त न तो संपादक की तरफ से हैं न रचनाकार की तरफ से न आलोचकों की तरफ से, जितना सत्य है वह स्वयं रचना की रचनात्मक अभिव्यक्ति है।

हर मनुष्य के भीतर एक नदी बहती है। मनुष्य अपने को उसके सहारे संसार के साथ जोड़ता जाता है और अपने राग-विराग को विस्तृत करते हुए अपना अनुभव जगत समृद्ध करता है। कुमार वीरेन्द्र की कविताएं शहरी जीवन के दुखों और स्मृति के सहारे अपने को अपनो से जोड़ने की कोशिश है। शहर की बीहड़ता जिंदगी और भीड़ में मनुष्य को अपने को बनाये रखने के लिए बाहर और भीतर दोनों स्तरों पर लड़ना होता है

‘जाने ऐसे कितने जीवों को नऐ ढंग से रहना पडे़गा
हमारे आने के बाद
जिनके बारे में नहीं जानते
जैसे तिलचट्टे,मकड़े,कनगोजर,केंचुए वगैरह
जिन्हें जितना पृथ्वी से जुड़ना होता है उतना ही मनुष्य से
मेरे परिवार ने भी नहीं सोचा और अपेक्षा भी नहीं रखी
इसी तरह दिन-दिन में गुजरता रहा रात-रात में
कभी दिन रात में रात दिन में
और चूहों को जैसा जीना था जीते रहे
तिलचट्टे, मकड़े, कनगोजर,केंचुए भी।‘  
गांव से शहर जाने पर मनुष्य को जीने के लिए जिन समस्याओं का सामना करना होता है 

उनमें उसे तिलचट्टो तक से लड़ना होता है। वहां उसके साथ न जाने कितने अकेलेपन होते हैं? फिर भी वह वहां जीवन की लड़ाई लड़ता चलता है। कुमार वीरेन्द्र की कविताएं मुम्बई शहर का विराट चित्र रचती है। यह लगभग हर महानगर के हालात हैं। जिस तरह से महानगर फैलते हैं उससे यही लगता है कि एक दिन वह फट जाएगा और उसके बाद सारा कुछ नष्ट हो जाएगा। विकास और विस्थापन के इस विराट संग्राम में वही लोग खतरे में हैं जो कमजोर हैं। जिनके पास पावर नहीं है। लेकिन वे महानगर में रहते हुए भी अपने मनुष्य को जीवित रखे हुए हैं। वे वहां अपने को स्मृतियों के सहारे अपने अतीत से जोड़े हुए हैं। अपने वर्तमान को निरंतर अतीत की स्मृतियों से सींच रहे हैं और मनुष्य की जय यात्रा को आगे की और बढ़ा रहे हैं। आलोचक विजय कुमार वीरेन्द्र की कविताओं को महानगर के तलछट की आवाज कहते हैं। वे जो दूर दराज से महानगरों में रोजगार करने आते हैं। जब वे वहां आते हैं तो उनको वहां की जिंदगी की भयावहता का आभास होता है, कैसे वे वहां कदम-कदम पर संघर्ष करते हैं।

‘मेरे पास कोई काम नहीं था/और ढूँढते थक गया था
ऐसे में तुम्हारा जन्म होना था/मुम्बई जैसे शहर में

दिमाग काम नहीं कर रहा था/अपनों के चेहरों से नकाब हट गए थे
कि तुम्हारी बहन और उस माँ को लेकर/जाने कहाँ जाना पड़े
जिसके अंदर तुम एक आकार ले रही थी‘  पृसं-44

प्रेमचंद गांधी की कविताओं पर विचार करते हुए कात्यायनी इतावली कवि इयुजीनियो मोन्ताले का कथन उद्धत करते हुए कहती है कि उनकी कविताएं तर्क की उपस्थिति में देखा गया स्वप्न है। जीवन की साधारण सी बातों के माध्यम से यह कवि जीवन के विराट प्रसंगों को रचता चलता है। कहीं भी बड़बोलापन नहीं, बस अपनी बात कहने का आत्मीय स्वभाव। जिस कवि की कविताओं को पढ़ते हुए मराठी के प्रसिद्ध कवि नारायण सर्वे की कविताओं की याद आये उस कवि के जीवन संघर्ष को उसकी कविताओं में महसूस किया जा सकता है। 

एक जोड़ी आँख से भी/काजल के बहने का
मतलब
एक दुनिया का नष्ट हो जाना।
और किसी की भी आँखें/कैसे देख सकती हैं
नष्ट होती दुनिया।  

पाश ने कहा था कि सबसे खतरनाक होता है किसी के सपनों का मर जाना। आज की इस चैंधती चमक में न जाने कितने लोगों के सपने नष्ट हो जाते हैं और किसी को अहसास भी नहीं होता। सत्ता में बैठे लोग कहते हैं कि विकास होगा तो किसान तो मरेंगे ही! कवि के यहां सब लोगों और कुछ लोगों के सपनों में कोई भेद नहीं है। इस कवि के यहां प्रगतिशीलता का अपना कोई पूर्वनिर्धारित पैमाना नहीं है। केदारनाथ अग्रवाल ने कहा कि जो लोग सिर्फ राजनीतिक कविताओं को ही प्रगतिशील कविता मानते हैं वह कविता की दुनिया को सीमित करते हैं। कवि कविता किसी पर भी लिख सकता है। जो उसे सुंदर लगे जिसमें उसका मन लगे, जो उसके मन को छू जाये। यहां भी कवि जीवन के हर क्षेत्र में पवेश करता है। 

वह यहां की सामाजिक संरचना की विदू्रपताओं को कविताओं में व्यक्त करता है। दुनिया का हर महान् रचनाकार अपने समय की सीमाओं को अतिक्रमित करता चलता है। वह रचनात्मकता के नये-नये क्षितिजों की तलाश करता चलता है। हर तरह के रहस्य को भेदता हुआ अपनी रचना को उदात्त बनाता है। ‘इस कवि की कविताओं को पढ़ते हुए चमक-दमक नहीं, बल्कि आप अपने आप को एक ऐसी ताकत के साथ एकात्म महसूस करें, जो आपको पेड़ की जड़ों तक ले जाये,जिससे आप दर्द से भरे चेहरों को स्पर्श कर सके और अपने लोगों की नसों में उस ताकत का संचार कर सके। महत्वपूर्ण यह है कि आप एक कवि के साथ अनन्त, अनगढ़ और थरथराते हुए विश्व में यात्रा कर सकें, कुछ इस तरह की अनुभूति के साथ, जो आपने अपने बचपन में महसूस की होगी।‘ पृसं-47,48

ध्यान से सुना/छैनी हथौड़े का यह संगीत
खो जाओ/ मेहनत और कारीगरी की इस सिम्फनी में
एक आदमी तराश रहा है विधाता को

तमाम तरह के अस्मिता विमर्श की सीमाओं को लांघते हुए कवि मनुष्य की मुक्ति में ही सभ्यता की मुक्ति देखता है। उसके लिए समाज का वर्ग-विहीन स्वरुप ही उसे कारगर नजर आता है। वहां परजीवी के लिए कोई स्थान नहीं है वहां श्रम करनेवालों को ही उनके अधिकार हैं। आज के समय की विडम्बना पर कवि कहता है कि
‘शहीदों/मैं पूरे देश की ओर से
आपसे क्षमा चाहता हूँ 
हमें माफ करना/हम परजीवी हो गये हैं
अपने पैरों पर खड़े रहने का
हमारे भीतर माद्धा नहीं रहा/हमारे घुटनों ने चूम ली है जमीन
और हाथ उठ गये हैं निराशा में आसमान की और‘ पृसं-62

यह कितना बड़ा सच है कि हमारी पीढ़ी अपने इतिहास के बारे में नहीं जानती! वह बाजार की एक उपभोक्ता मात्र है। वह पशु की भाषा में संबोधित है। उसने भाषा में मनुष्य होने की पहचान खो दी है। धूमिल कहते हैं कविता भाषा में मनुष्य होने की तमीज है। वह निर्णायक नहीं, महज बाजार की नियामक है। उसके पास अपने अतीत गौरवशाली क्षणों के बारे में विचार करने का न तो विवेक है न ही समय।

नरेश चन्द्रकर की कविताएं बहुत कम शब्दों में विनम्र आवाज की कविताएॅ हैं। 

...वे हाथ हैं-जिनको तोड़ना है रोटी के कौर
हाथ.... जिनको सहलाना है दर्द से झुकी पीठ को
हाथ... जिनको दुलारना है बच्चों के गाल
हाथ... जिन्होंने तय की है
कंदराओं से अब तक की विजय-यात्राएं 
हम सिर्फ गाड़ियां ही नहीं है हाथ की....

वे कलकता के हाथ रिक्शाचालक हो या फिर अहमदाबाद के या धरती की किसी भी जगह पर श्रम कर रहे मजदूर उनके हाथ महज हाथ नहीं हैं उनके पीछे एक पूरी दुनिया है। ये वही हाथ है जिन्होंने पहली बार रास्ता बनाने लिए धरती को सपाट किया होगा। मनुष्य की विजय यात्रा में मनुष्य के हाथों का सर्जन सबसे सुंदर है। जिस वैचारिक द्धढ़ता के साथ यह कवि अपनी उपस्थिति दर्ज करता है। अपने काव्य बोध के निर्माण में जिस परम्परा का योग रहा उसे वह बहुत विनम्रता से स्वीकार करता है। लीलाधर मंडलोई की कविता को उद्धत करते हुए कहता है

अस्थियों को कहा होगा जिसने/फूल
देखा होगा उसी ने/ मनुष्य के भीतर/फूलों को
मैंने चुनी पिता की अस्थियाँ
मैंने भी कहा फूल

अपनी परम्परा की तरह अपने समय से संवाद करना कवि अपना फर्ज समझता है। वह अपने को अकेला नहीं अपने जन के साथ रखना चाहता है। वह अकेला विरागी होकर नहीं जीना चाहता! वह अपनी कविता में कईं लोगों की आवाज पंसद करता है। उसे नितांत एकांत की न तो कविता और न ही जीवन पंसद है। ‘दुखा‘ की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कवि अपने को उसकी पीड़ा के साथ जोड़ता है। उसको अपने घर लेकर आता है। लेकिन दुखा को अपनी जिंदगी की हकीकत मालूम है। वह फिर वहीं चल देता है। यह न जाने कितने दुखा की कहानी है।

कविता कागज के फूल नहीं बल्कि हमें रक्त की यात्रा कराती रहे। आखिर हम केवल रचना की दुनिया में नहीं रहते, सचमुच की दुनिया में रहते हैं। तो फिर कविता भी सचमुच की हो। मुझे सचमुच की दुनिया की कवितायेँ  और वे कवि पंसद हैं जो सामान्य भीड़ का हिस्सा हैं। जो सामान्य जीवन की रोजमर्रा की चक्की में पिसते हैं।.....जो अपनी निजी पहचान का घर फूँक कर सबके सामने आ खड़े होते हैं। पृसं-83,84

कवि के लिए कविता सिर्फ किताबों का अंबार लगाने से नहीं है। कविता कवि को परेशान करती है। उसमें तूफान पैदा करती है। उसे आगे बढ़ने का साहस प्रदान करती है। उसे हकीकत की दुनिया में हकीकत में जीने की तमीज सीखती है।

‘अपने नाम तार और चिट्ठिया देखना चाहता हूं प्रतिदिन
सबके बीच में पहचाना जाना चाहता हूं
अनजान लोगों और राहों से टकराना चाहता हूं
किसी से भी अकेले नहीं छूट जाना चाहता हूं
....
मैं ईश्वर के नाम पर बॅट रही इस दुनिया में
बच्चे की तरह हॅसना चाहता हूँ ।‘

हर तरह की मनुष्य विरोधी प्रवृति को नकारते हुए कवि इस दुनिया में सबके बीच रहना चाहता है। वह बच्चे की तरह रहना चाहता है। उसे इस सरलता के समक्ष किसी तरह की विभाजित दुनिया स्वीकार नहीं है।

शिरीष कुमार मौर्य की कविताओं पर लिखते हुए पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि शिरीष की कविताएं ताजा, निर्मल व अकुंठित सौंदर्य की कविताएँ हैं। उनमें जीवन-द्रव्य की सांद्रता है और आत्मतत्त्व की उदात्तता है। यह आत्मतत्त्व उन्हीं का है जो अपने बीजों को पनपने के लिए बहुत दूर उड़ाने में विश्वास रखते हैं। जहां इसका पूरा विश्वास है कि ठोकरे इंसान को चलना सीखाती है। 

‘जो उससे अलग
अपना एक संसार बना लेते हैं?
दादी कहती थी- सबसे भाग्यशाली और सफल होते हैं
वे वृक्ष/ जो अपने बीजों को पनपने के लिए कहीं दूर उड़ा देते हैं‘

प्रकृति की तरह मनुष्य का सर्वांगिण विकास स्वतंत्र वातावरण में ही होता है। किसी भी तरह की जड़ता का निर्वाह करते हुए वह अपने विकास को कुंठित ही करता है। वे लोग जो किसी न किसी तरह समाज में अपने को परिवर्तन के लिए लगाये हुए हैं और वे अपने पर इसका भरोसा रखे हैं कि उनकी मेहनत एक दिन रंग लाएगी! वे शहर के लोग हो या फिर गांव के! कवि उनको बहुत महत्व देता है।

मेरे शहर के अँधेरों  से
खुशनुमा दिन की तरह निकलते मेरे साथी/मेरे शहर की जान है
....
मेरे शहर के बाशिंदो/इन्हें पहचानों
ये जो निकले हैं दुनिया बदलने/दुनिया/कभी नहीं बदल पायेगी इन्हें।

युवा वायु की तरह होता है। वही समाज के स्वास्थ को दिशा देता है। समाज उसके कंधो पर ही अपनी राहें तलाश करता है। रचनाकार का सरोकार उसी के प्रति है जो दुनिया को बदलने की जज्बा रखता है। उसे यकीन है कि वह दुनिया को बदलता चलेगा दुनिया उसे अपनी जड़ता का शिकार कभी नहीं कर सकती! आज के समय की समस्या पर विचार करते हुए कवि इस सवाल पर गंभीरता से विचार करता है कि आज का संकट विचार का संकट है। स्मृति और विचार विहीन समय में कवि उन्हीं को बचाने की आकांक्षा रखता है। अपनी काव्य परम्परा को गहरे से याद करते हुए कवि इस बात को बखूबी जानता है कि कविता अपनी यात्रा में परम्परा से सदैव समृद्ध होती है। आज भी उसे उसी की जरुरत है। बाबा नागार्जुन की बीहड़ता या कबीर की तीखी आलोचकीय वाणी! कविता को संकटों का सामना ऐसे ही करना हैं। अंधेरे समय में गीत नहीं होंगे ऐसा नहीं है। अंधेरे समय में अंधेरे के गीत होंगे! कवि गिद्ध पक्षी के खत्म होने की पीड़ा ऐसे व्यक्त करता है कि उसके खत्म होने का मानी साफ-सुथरे भविष्य का खत्म होना है। वह पक्षी दिखने में सुंदर नहीं है पर वह कभी किसी के घर में नहीं उतरता था वह वहीं उतरता था जहां वह हजारों मिल दूर से भी मरे हुए पशुओं की गंध आती थी।

बहुत कम समझा गया उन्हें इस दुनिया में/ठुकराया गया सबसे ज्यादा
जिंदगी का रोना रोते लोगों क बीच/वे चुपचाप अपना काम करते रहे
....
हालांकि उनके बिना भी/बढ़ता ही जाएगा जिंदगी का ये कारवां 
लेकिन उसके साथ ही असहनीय होती जाएगी/मृत्यु की सड़ांध 
हमारी दुनिया यह किसी परिन्दे का नहीं/एक साफ-सुथरे भविष्य का 
विदा हो जाना है।

मनोहर बाथम इस किताब में संकलित अंतिम कवि है। मनोहर बाथम की कविताएं सरहद की कविताएं हैं। सीमा सुरक्षा बल की नौकरी करते हुए कवि जिस अकेलेपन से गुजरता है उसी को कविता में दर्ज करता चलता है। मनोहर बाथम कहते हैं कि‘प्रहरी का जीवन एक ऐसे अंधकार में होता है जिसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं जानता। उसके लिए वह देश पर प्राण न्यौछावर करनेवाला करने वाला एक आदर्श प्रतीक है। किन्तु उसका अकेलापन और अज्ञातवास कौन जानता है?‘ वह इस अज्ञातवास को कैसे काटता है? उसके लिए यादे, प्रकृति,खत, समुद्र की लहरें,सारा कुछ जिसके सहारे वह अपने समय को काटता है। वह अपनी राष्ट्र भक्ति का वचन को निभाता है। इस जालिम दुनिया में निहत्थे और निरपराधी लोग ही मारे जाते रहे हैं। एक गूंगा  क्या कर सकता है।

‘कल की ही तो बात है/उस जालिम के बम से 
चीखों से सारी बस्ती गूँजी / कहते हैं पहली और आखिरी बार
गूंगा भी ‘अम्मी‘पुकारते/चीखा।‘

यह कैसी दुनिया हैं जिसमें गूॅगा पहली और आखिरी बार चीखता है। प्रकृति ने पहले ही उसे आवाज नहीं दी,इस जालिम दुनिया ने उससे उसकी जिंदगी ही छीन ली। दुनिया में सरहदों पर जितना खर्च हो रहा है वह इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए बहुत है। वे तमाम लोग जो इस हिंसा का शिकार हो रहे, वे चाहे दुनिया में कहीं के भी हो, वे किसी के अपराधी नहीं है। लेकिन उनको इसका शिकार होना होता है। जिस मनुष्य को जीवन नहीं दिया जा सकता, तब उसकी जिंदगी छिनने का हक किसी को भी नहीं है।

डॉ.कालूलाल कुलमी
युवा समीक्षक
ई-मेल:paati.kalu@gmail.com

मनोहर बाथम की कविताएं एक सैनिक की निगाह से दुनिया को देखना है। एक माॅ अपने बेटे की मौत के चालीस साल बाद उसकी कब्र पर फातिहा पढ़ने आती है! उसको इतना समय इस कारण लगा क्योंकि पहले जहां देश था वहां एक दिन रातों-रात सरहद बना दी गई और उसके बाद उस सरहद को पार करने में उसे चालीस बरस का समय लगा। चालीस बरस क्या होते है इसको बताने की आवश्यकता नहीं है। अपने बेटे की याद इतनी गहरी थी कि चालीस बरस का समय भी उस घाव को नहीं भर पाया। उसने एक-एक पल कैसे बिताया होगा वही जानती है। सैनिक के जीवन में भी कुछ ऐसा ही अकेलापन और दुख होता है जिसे साधारण मनुष्य अनुभूत नहीं कर सकता!

इस संकलन में जिन पाँच  कवियों को लिया गया है उनकी कवितायेँ अपनी विशिष्टता लिए हुए है। हर कवि की अपनी खास पहचान है। यह कविताएं पढ़ते हुए समझा जा सकता है।

रचना आज (पाँच कवियों की विशिष्ट कविताओं का संग्रह)
संपादन एवं संयोजन: लीलाधर मंडलोई
अनुभव प्रकाशन, दिल्ली
प्रसं-2010
मूल्य- 200 रुपये  
  

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