सम्पादकीय:पाँव-पाँव पत्थर-शीश-शीश छाया

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 दिसंबर-2013 


चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर 
अभी-अभी गुज़रे वक़्त के निशान पूरी तरह मिटे नहीं हैं ऐसे में पिछले कुछ दिनों को देखता हूँ तो लगता है आती हुई ठण्ड में पूरा देश बेजोड़ तमाशों की गर्मी से इस क़दर वाबस्ता रहा कि बेचारी ठंड ही ठंडी पड़ गयी। कैसे-कैसे रंग और कैसे-कैसे हुनरमंद तमाशागर। लेकिन 'वाह-वाह' का मौका कोई भी नहीं दे रहा था। हर तमाशे के बाद आह उठती और आह को तो एक उम्र चाहिए होती है असर के लिए। बस उस उम्र की कोई गुंजाइश बनती उससे पहले ही दूसरी आह आ खड़ी होती। अब बताइये बेचारी मुल्क की आवाम 'चेन्नई एक्सप्रेस' देखती या आहों को उम्र बांटती ?? हम महान देश के महान लोग हैं। आह भरते हैं और भूल जाते हैं। हमारी आह में असर हो ऐसा काम करना हमारी महान संस्कृति ने हमें कभी सिखाया था पर अब तो संस्कृति ही खारिज़ होकर किसी मसीहा की बाट देख रही है तो हमें क्या पड़ी है कि हम तमाशे का मज़ा छोड़कर बेवज़ह ही मसीहागिरी करने में वक़्त ख़राब करें।

और हुकम तमाशे भी कैसे-कैसे थे, कहीं बाबा सपरिवार जेल जा रहे हैं, कहीं दूसरों के मुख पर कालिख मलने में निष्णात पत्रकार अपने मुख की स्याही को सहज योग का नाम दे रहे थे, कहीं गुरु-चेला ऐसी शातिर चालें चल रहे कि सियासत के दिग्गज भी चिक्करहीं दिग्गज का दृश्य उत्पन्न करके फ़िर से अपनी-अपनी ज़मीन संभालने में जुट गए।  लेकिन खेल तो बाबा शतरंजी है इसलिए हुनर सतरंगी है और मज़ा शतरंगी है। फ़िर चुनावी चें-चें भी सुनी-गुनी गयी ताकि बुद्धि धुनि रहे। क्योंकि बुद्धि धुनि रहती है तो चें-चें के बाद पों-पों नहीं करती है। गोया मज़ा जारी है और जनता मस्त-मस्त हुई जा रही। सास बहू के सीरियल से ज्यादा टीआरपी समाचार चैनलों को मिल रही है। वैसे टीआरपी मिले न मिले समाचार चैनलों का कुछ बिगड़ता तो है नहीं। विज्ञापन उनको बदस्तूर मिलते रहते हैं। और ऐसे दौर में जब देश की गद्दियां दांव पर लगी हों तो विज्ञापन मिलते नहीं बरसते हैं। पर अपना तो जी जलता है। 

सम्पादक 
अशोक जमनानी
अपन ठहरे रचनाकार अपने को तो आयोजक बुलाकर गर्मी में भी सस्ती शॉल ओढ़ाकर जय-जय बोल देते हैं। मैं तो सोच रहा हूँ कि एक आंदोलन शॉल के बहिष्कार के लिए चला दूँ। लेकिन अपन आंदोलन क्या कर पाएंगे अरे,  अपने को तो कोई साहित्यकार भी नहीं मानेगा  ।लोग कहेंगे पहले 'कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है' के टक्कर का गीत लिखो  और बीच-बीच में कई चुटकले घुसेड़ो तब जाकर कवि कहलाओगे। हमने दुहाई दी , कहा हुज़ूर पहले जे पी का आंदोलन हुआ था तो कविता का विभाग दिनकर जैसे बड़े कवि के पास था थोड़ी तो नाक बचाने दो। लेकिन आंदोलन वाले बोले दिनकर को न हवाई जहाज का किराया मिला न पांच सितारा होटल में रुकवाया गया न उनको एडवान्स में पचास हज़ार मिले न उनका स्टिंग ऑपरेशन हुआ बताओ उनको कैसे आदर्श माना जा सकता है। हम कसम से कसमसा के रह गए। अब सोच रहा हूँ फ़ालतू बातें छोड़कर कुछ सार्थक लेखन कर लूँ। वरना तमाशे के इस दौर में कब तक सस्ती शॉल से अपना संदूक भरता रहूँगा। मैं नर्मदा किनारे रहता हूँ। सतपुड़ा के घने जंगल नर्मदा के साथ चलते हैं। इन जंगलों में पाँव पत्थरों पर होते हैं पर शीश पर छाया बनी रहती है। और हुकम तमाशे के इस दौर में जिन्हें साहित्य को तमाशा बनाने का हुनर आ जाता है उनके पाँव पत्थरों पर होते हैं पर शीश पर छाया बनी रहती है .......Print Friendly and PDF

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