सम्पादकीय:कोई कालीन कोई चदरिया

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 फरवरी-2014 

चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
कुछ ही दिन तो बीतें हैं जब गणतन्त्र-दिवस पर शहर के एक विद्यालय में झंडा फहराकर बच्चों को कहानी सुनायी थी। हर बार सुनाता हूँ; इस बार भी सुनायी। बच्चे सामने होते हैं तो कहानीकार होना सार्थक हो जाता है। ऐसे में कहानी की बनावट-बुनावट दिल से होती है और दिमाग तो बस कुछ कसीदाकारी का हुनर दिखाने के लिए आता है और चंद बेल-बूटे बनाकर ठहर जाता है। वैसे जब बच्चों के लिए कहानियों के कालीन-चादरें बुनता हूँ तो धागे बहुत नाज़ुक रखता हूँ। जानता हूँ कि इस पर वे मासूम बैठेंगे जिन्हें सच या झूठ जो भी सुनाऊंगा वो उनके यकीन के बदन से शायद उम्र भर वाबस्ता रहेगा । और फिर अवसर गणतंत्र-दिवस का हो तो कहानी का यकीन मुल्क के मंदिर में जैसे बिछ-सा जाता है। क्या करूँ , एक अदना-सा किस्सागो कर भी क्या सकता है ? बस बच्चों का मन बहलाते-बहलाते मुल्क और इंसानियत से मोहब्बत का कोई कालीन कोई चदरिया भी बिछा देता हूँ । इस उम्मीद के साथ कि न जाने कौन-सा मासूम किसी कालीन में सुनहरे-रुपहले बेल-बूटे जड़कर सारी दुनिया को चकित कर देगा या फिर कोई नन्हा फ़रिश्ता किसी चदरिया को इस जतन से ओढ़ेगा कि दुनिया  देखेगी कि ज्यों की त्यों चदरिया कैसे धरी जाती है।

                 लेकिन इन दिनों जो हालात हैं वो कई बार ऐसे सवाल खड़े करते हैं कि अपनी ही कहानियां बहुत  लाचार नज़र आतीं हैं। लगता है न जाने कब सब कुछ भरभराकर गिर पड़ेगा। कई बार लगता है कि यह रचनात्मकता में विस्फोट का दौर है। कितनी किताबें छप रहीं हैं, कितने साहित्यिक आयोजन हो रहें हैं और तो और पुस्तक मेले भी अब गली-गली, शहर-शहर डेरा डाल रहे हैं। साहित्यिक पुरस्कार-सम्मान तो इतने हैं कि एक किताब-नौ सम्मान तो अपने शैशव काल में ही पा जाती है। लेकिन फिर घूंघट के पट खुलते हैं और सत्य के दर्शन करता हूँ तो चक्कर आने लगते हैं। जब देखता हूँ कि हर मज़मे का मुहाफ़िज़ फ़रेब की महफ़िल में इस क़दर मदहोश है कि यह भी भूल बैठा है कि उसका असल काम क्या था। जिस दौर में कहानियां और कविताएँ राजनैतिक प्रतिबद्धता की दासियां बनकर अवैध वैचारिक संतानों को जन्म दे रहीं हों और उनके अपने राज-समाज उन्हें धन्य-धन्य कहकर गले लगा रहे हों; जब  किताबें छपवाना पैसा फेंक तमाशा देख वाला खेल बन चुका हो; जब साहित्यिक आयोजनों में उपस्थिति का आधार प्रतिभा न होकर आयोजकों से मधुर संबन्ध हो ; जब सम्मान और पुरस्कार खरीदे-बेचे जा रहे  हों और समूचा साहित्य भी समाज का दर्पण न होकर अपनी-अपनी आस्थाओं का फोटो फ्रेम बन चुका हो तब  अपनी कहानियों में संवेदना के सुर भरता हूँ तो सोचता हूँ कि इस दौर में संवेदना का अस्तित्व मेरी कहानियों के सुर को सार्थक करेगा या फिर झूठ की नगरिया में अस्वीकृति की अर्थी पर रखकर इसे किसी शमशान पठाया जायेगा ?

                 लेकिन क्या करूँ ? बच्चों को कहानियां सुनाता हूँ या फिर पाठकों के लिए कुछ रचता हूँ तो सब कुछ भूल जाता हूँ। भूल जाता हूँ कि हमारा देश अतीत की महानता के गुण तो गाता है लेकिन वर्तमान की साँसों में तो टुच्चापन ही आरोह-अवरोह साध रहा है। भूल जाता हूँ कि सियासत की बिसात पर बादशाहों पर वार से पहले बचने के लिए शह दी जाती है और प्यादे तो किस्मत में पिटना ही लिखवाकर लाये हैं। भूल जाता हूँ कि देवताओं के दर्शन भी हैसियत के मुताबिक होते हैं। भूल जाता हूँ कि  इलाज़, शिक्षा, रोटी, कपड़ा, मकान,  सड़क, पानी, बिजली, रोज़गार, संपत्ति, विपत्ति, इज्ज़त, साधन, ईधन, क़ैद, मुक्ति, धर्म, न्याय, खेत, जंगल,धरती, आसमान, आग, हवा, सपने और भूख-प्यास  भी तय करने का हक़ मालिकों की मुट्ठियों में क़ैद है। भूल जाता हूँ कि आंदोलनों से सम्राट बदले जाते हैं हालात नहीं बदले जाते। भूल जाता हूँ कि कविताएँ ऐय्याश चुटकुलों से हार जातीं हैं। भूल जाता हूँ कि कहानियां लिखना आये न आये बेचना आना चाहिये। भूल जाता हूँ.… न जाने क्या-क्या भूल जाता हूँ ....
             
सम्पादक 
अशोक जमनानी
लेकिन फिर भी कई लोग सत्य और संवेदना का सूत और रेशम लेकर कहानियों-कविताओं के कालीन-चादरें बुन रहें हैं । यह जानते हुए भी कि कालीन लूट लिए जाएंगे और लुटरे रेशम बाँट लेंगे आपस में और जाने से पहले वे सब मिलकर खादी की हर एक चादर का हर एक धागा इस तरह खीचेंगे कि सारी  चादरें  तार-तार हो जाएं क्योंकि वे जानते हैं कि नई पीढ़ी में रेशम की लूट को आदर्श की तरह स्थापित करना हो तो खादी की चादरों को तार-तार  करना कितना ज़रूरी है।

                         लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है अगले गणतंत्र दिवस पर बच्चों का मन बहलाते-बहलाते कोई कालीन कोई चदरिया मुल्क और इंसानियत से मोहब्बत की फिर बिछाऊंगा । इसी  उम्मीद के साथ कि न जाने कौन-सा मासूम किसी कालीन में सुनहरे-रुपहले बेल-बूटे जड़कर सारी दुनिया को चकित कर देगा या फिर कोई नन्हा फ़रिश्ता किसी चदरिया को इस जतन से ओढ़ेगा कि दुनिया  देखेगी कि ज्यों की त्यों चदरिया कैसे धरी जाती है ....... .... मुझे ऐसा क्यों लगता है कि सारे लुटरे हार जाएंगे कविताओं से ……… कहानियों से …… 

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1 टिप्पणियाँ

  1. वर्त्तमान दौर में जहाँ धूल फाँकना और धूल चटाना राजनीति का आवश्यक आयाम मान लिया गया है और अन्धेरगर्दी को व्यावसायिकता का अपरिहार्य अंग, ऐसे में कलम के शूरवीरों के दायित्व और भूमिका को रेखांकित किया जाना और भी ज़रूरी हो जाता है। सहज जीवन के वज़ूद से उठती आस्था पर यह उम्मीद भारी पड़ती है कि 'सारे लुटरे हार जाएंगे कविताओं से ……… कहानियों से '…...साधुवाद !

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