समीक्षा:‘एक देश और मरे हुए लोग’ का वर्तमान कविता परिवेश में दख़ल / डॉ. राजेन्द्र सिंघवी

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                फरवरी-2014 

चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
‘अब बहुत हो गया/यह रही कलम और ये रहे छंद/
मैं जा रहा हूँ/ सदियों से राह तकते/पथरायी 
आँखों वाले/ उस आदमी के पास/(न रोको कोई, पृ. 16)

अर्थात् साहित्य अब सामाजिक सक्रियता की ओर बढ़ना चाहता है। परिवर्तन की अदम्य चाह में कवि ‘एक्टिविस्ट’ के तौर पर ‘कलम की ताकत’ को नई भूमिका में 21वीं सदी में प्रस्तुत कर रहा है। नई सदी के पहले दशक के उभरते युवा कवि ‘विमलेश त्रिपाठी’ का काव्य संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ का आरंभ मुक्तिबोध की प्रेरणा से होता है, जहाँ ‘मर गया देश और जीवित रह गए तुम’ कवि का जीवित रहना अभिशप्त है, यदि वह विद्रुपताओं पर मौन रहे, स्वार्थ के आदर्श लिबास में हो, बौद्धिक जुगाली में व्यस्त होकर विचारहीन यांत्रिक सभ्यता का हिस्सा बन गया हो।

विमलेश त्रिपाठी का कविता संग्रह पाँच खण्डों में विभक्त हैं - इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुःख-सुख का संगीत, कविता नहीं तथा एक देश और मरे हुए लोग। यह कवि उस दौर का साक्षी है जहाँ मनुष्य के अमानवीकरण की गति में तीव्रता आई है। वैचारिक दृष्टि से समाजवाद का स्वप्न ध्वस्त हुआ है तो यांत्रिक सभ्यता का कहर भी विद्यमान है। मानवता को खूंटियों पर टाँग देने का प्रयास हो रहा हो, तब युवा कवि का न केवल आक्रोश व्यक्त होता है, बल्कि वह उस विचारहीनता को चुनौती देता है, जिसका संकेत मुक्तिबोध ने अपने आदर्शवादी मन को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘अब तक क्या किया। जीवन क्या जिंया। उदरंभरि बन अनात्म बन गए। भूतों की शादी में कनात से तन गए।’

कवि इस सदी के उस विस्मयकारी यथार्थ का सामना करता है, जहाँ दुनियाँ ‘शॉपिंग काम्पलेक्स’ में अपनी शांति खोज रही है। पदार्थों में निवेश मनुष्य से ज्यादा हो गया है। मनुष्यता को निगलने वाला समय तेजी से आगे बढ़ रहा है। तब कवि का स्तर अपने अन्दर ‘हाँफता हुआ बूढ़ा गाँव’ तलाश करता है, जिसमें अभी तक वे सब चीजें बची हुई हैं, जो मनुष्य के लिए जरूरी है। कवि उसे बचाना चाहता है-

सपने में कोई शहर नहीं आया कभी। नींद जब खुली तो
हर बार गांव से शहर आया। मैं एक गाँव और वही रहा अब  
तक / कोलकाता नहीं बन सका.........। (एक गाँव हूँ, पृ. 10)

‘एक देश और मरे हुए लोग’ (कविता संग्रह)
- विमलेश त्रिपाठी
- बोधि प्रकाशन, जयपुर।
- प्रथम संस्करण, 2013
- मूल्य 99/-
कवि का ‘कोलकाता’ नहीं बन पाना, उस स्रोत को बनाये रखने की कोशिश है, जो जीवन का मूल रस है। इसी कारण ‘त्रिलोचन’ की ‘चंपा’ काले अक्षर चीन्हना नहीं चाहती तथा कवि को भी कलकत्ता जाने से रोकती है - कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी। कलकत्ते पर बजर गिरे।’ भूमण्डीकरण और यांत्रिक जीवन से दूर सहज मानवीय संबंधों की तलाश में कवि निकलता है तो उसे अपने गाँव की स्मृति आती है, जहाँ कभी चिड़िया के साथ उड़ता हुआ घूमना, रंगीन मछलियों के साथ तैरना अथवा हरी दूब के साथ रहना याद आता है, किन्तु कोलकाता आने के साथ अब आम के बगीचे, पानी से भरी नहर, खेत, बस्ते की धूल आदि सब पीछे छुट गए हैं और गाँव की दशा भी पूँजीवादी सभ्यता के कहर में कुछ इस तरह हो गई है-

गाँव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढे।
स्त्रियाँ गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए।
जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता।
जंतसार की जगह गूंजता है मोबाईल का रिंगटोन।                                                                 (इस तरह मैं, पृ. 29)

आर्थिक उदारीकरण और पूँजीवादी मानस से त्रासदी का चित्रण कवि ने ‘यह नहीं शहर’, ‘खिड़की पर फदगुदिया’, ‘एक गाँव हूँ’, ‘कहीं जाऊंगा नहीं’, ‘इस तरह मैं’, आदि कविताओं में हुआ है। परंतु कवि अपनी पीड़ा को यहीं समाप्त नहीं करता, वरन् आजादी के साठ साल मनाती उस पीढ़ी से सवाल करता है-

क्या चाहिए इन बच्चों को /मोबाइल /लैपटॉप /पॉर्न किताबें /
कम्प्यूटर /या हवा और पानी / और रोटी/ जो
अब तक नहीं पहुँच पाई है साबुत /और हमें गर्व
है कि हमने पिछले साल ही / आजादी का छठवां दशक
मनाया है।     (एक देश और मरे हुए लोग, पृ. 144)

आजादी के साठ साल पूरे हो जाने पर भी हवा, पानी और रोटी की समस्या हल नहीं होना, उस भ्रष्ट तंत्र का चेहरा प्रस्तुत करता है, जिसका प्रभाव इस दशक तक जारी है। कवि का आक्रोश देर तक संयमित नहीं रह पाता। मनुष्य के राक्षस बनने की प्रक्रिया पर कवि उस विचारहीन, बेढाल, निर्द्वन्द्व अथवा मरे हुए लोगों की भाँति पीढ़ी पर व्यंग्य करता है इंतजार करता है-

मैं इंतजार में था / कि शब्द किस तरह बारूद और बंदूक 
में ढलेंगे / कब उन शक्लों में ढलेंगे /जिनका सदियों से
कर रहा मैं इंतजार।                   (वही, पृ. 136)

कवि का यह आक्रोश ‘धूमिल’ के उस प्रश्न की तरह है, जो संसद से पूछता है कि वह तीसरा व्यक्ति कौन है जो रोटी से खेलता है? संसद मौन है। कवि विमलेश त्रिपाठी का मानना है कि राजनीतिक व्यवस्था भी मरे हुए लोगों का जमघट है। इसी कारण यह दृश्य है-

गूंजता अट्टहास / होते थे चुनाव / जीतती थीं पार्टियाँ
होते थे जश्न / देश की जनता मर रही थी हर रोज /भय से
दुःख से / मक्कारी से / कि अब और कोई रास्ता नहीं
बचा था।                 (वही, पृ. 137)

नई सदी में यदि हमने कुछ खोया है तो वह है - रिश्तों की बुनियाद। दरकते रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और आत्मीयता, इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। कवि आने वाली पीढ़ी को रिश्तों को नदी के पानी की तरह बचाने और प्रेम-पत्रों की तरह सहेजने की बात कहता है। जब कभी रिश्ते टूटने लगे तब वह कहता है-

और पड़ने लगे /गाँठ कोई अगर / तो मेरी ओर नहीं
अपने पूर्वजों की ओर देखना  / जिनने सब सहकर भी
अपने बीच की आँच को असंख्य वर्षों तक बचाए रखा।
                                                (अंकुर के लिए, पृ. 63)

कवि की उक्त आकांक्षा ‘सपने’, ‘बहुत ज़माने पहले की ‘बारिश’, ‘ओझा बाबा को याद करते हुए’, ‘तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन’, ‘घर’, ‘हम बचे रहेंगे’, आदि कविताओं में भी प्रकट होती है।

विगत दशक में ‘स्त्री-पीड़ा’ की व्यापक चर्चा हुई है, स्त्री-चेतना की मुखर अभिव्यक्ति से कविताओं का कथ्य मौलिकता से प्रस्तुत हुआ है। भारतीय समाज की मध्यकालीन मानसिकता से बेटियों को सदैव अपनी भावनाओं को दफन करना पड़ता है। ‘बड़ी होती बेटी’ के लिए समाज के बंधनों को मदन कश्यप ने लिखा-‘कलेजे में दबा रहे दुःख /भूख और विचारों को मारना सीखो  /अपने को अपने भीतर गाड़ना सीखो।   (तद्भव, अंक 16, पृ. 108) कवि विमलेश त्रिपाठी ने उस वर्ग को ‘बिना नाम की नदियाँ’, कहा है। सदैव स्नेह, प्यार और स्निग्धता की निर्मल धारा बहाने वाली इन बेटियों को हमारे समाज ने कभी मान नहीं दिया। कवि के शब्दों में वे बिना नाम की नदियाँ हैं। सदियों से बहती आ रही सतत्। कवि उन बंधनों की समाप्ति चाहता है-

उन्हें जरूरत उस मृत्यु की /जिसके बाद सचमुच का
जीवन शुरू होता है।     (होस्टल की लड़कियाँ, पृ. 49)

कवि यह भी प्रश्न उठाता है-

क्या कभी भाईयों ने भी व्रत रखे /अपनी बहनों 
के लिए।           (बहनें, पृ. 39)

कविता संग्रह की अन्य कविताओं यथा- ‘उस लड़की की हँसी’, ‘माँ के लिए’, ‘अगर भेजना’, ‘एक स्त्री के लिए’, ‘आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर’ आदि में स्त्री-पीड़ा लैंगिक भेद और स्त्री-सम्मान के प्रश्नों को उठाते हुए उसकी मार्मिक पीड़ा को अपने स्तर में प्रकट किया है। बेटी अपने बाबुल से कहती है-

भेजना मुझे तो भेजना मेरे बाबुल /उस लोहार 
के पास भेजना / जो मेरी सदियों से बेड़ियों
को पिघला सके।    (अगर भेजना, पृ. 42)

कैसी विडम्बना है कि सभ्य होने का दंभ भरने वाली यह मानव जाति इक्कीसवीं सदी में भी जातीय उन्माद, धार्मिक असहिष्णुता और नक्सली हिंसा का सामना कर रही है। यह परिणाम तथाकथित बुद्धिजीवी संकुचित मानसिकता का कारण है जो सभ्यता को धर्म और जाति के आवरण में परिभाषित करती है। आज की पीढ़ी इन बंधनों को तोड़ना चाहती है। कवि भी उस भावना को प्रकट करते हुए सैफूदीन को ईद की मुबारकबाद देने के बदले अपने पूर्वजों के मानसिक संकोच को प्रकट करता है-

मेरे पिता ने कभी सिवइयाँ नहीं खाई /तुम्हारे घर /
माँ ने हमेशा तुम्हें दूसरे कप में चाय दिया /
तुम घर के भीतर कभी नहीं गए मेरे /   (तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन, पृ. 61)

सभ्यताओं को जब ‘धर्म’ का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया गया है। अंध-श्रद्धा ने मानवीय कटूता को जन्म दे दिया। कभी अत्यधिक मांग ने किसी का हक छीना तो ‘नक्सली’ चिंताओं ने समाज की व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगा दिए। जातीय उन्माद, प्रतिहिंसा के भाव और प्रतिशोध की चिनगारी लिए इस नई सदी का प्रवेश हुआ। सांप्रदायिक विद्वेष की परिणति को अष्टभुजा शुक्ल ने ‘बस्ती एक धीमा शहर है’ में लिखा - कि कहीं मिलता है आधा जला हुआ दुपट्टा। कहीं आधा जला हुआ खिलौना/ कहीं अधजली बीड़ी/ कहीं दमकलों के पाइप/ कहीं रिलजले/ कहीं कहीं तो केवल जलन मालूम होते हैं। (तद्भव, अंक 10)। कवि विमलेश त्रिपाठी ने सत्तर के दशक का हमारा समाज और मानवता की नियति का जो शब्द-चित्र खींचा है, वह भी कुछ कम नहीं है 

सत्तर के दशक की / एक रईस और खानदानी महिला के नाम 
के साथ / सड़क पर बेतहाशा भागते-छुपते /मासूम और तथाकथित 
नक्सलियों की लोहे की गोलियों से छलनी हुई लाशों लिखी होती हैं
सन चौरासी का डर / गुजरात की शर्म /और उस औरत का पेट लिखा होता है /
जिससे निकाल कर एक बच्चे को / एक कभी न बुझती हुई /
आग में झोंक दिया गया था।        (एक पागल आदमी की चिट्टी, पृ. 105)

ऐसे विकट दौर में बुद्धिजीवी वर्ग अनिर्णय का शिकार है। वह लाभ का सौदा दिखने पर दौड़ लगाता है। आडम्बर व खुशामद की दुनिया में अपनी मानता है। मानसिक गुलामी को वह ‘सुविधा’ समझता है, गंतव्य उसे ज्ञात नहीं, विसंगतियों पर मौन-प्रतिक्रिया देता है। तब कवि अपने आपको बुद्धिमान कहलाना पसन्द नहीं करता। त्रासद व्यंग्य करते हुए कहता है-

आज के समय में बुद्धिमान होना / बेईमान और 
बेशरम होना है / इसीलिए है भंते बुद्धिमानों  
की दुनिया में / मैं मूर्ख रहकर ही जीना चाहता हूं। 
(स्वीकार, पृ. 15)

कवि का यह दुःख ‘न रोको कोई’, ‘यदि दे सको’, ‘जिंदा रहूंगा’ ‘इस बार सच’ आदि में प्रकट होता है तो वह घोषणा भी कर देता है-

कलम बंद करो / मंच से उतरो  / चलो इस देश की
अंधेरी गलियों में / सुनो उस आदमी की बात / उसको 
भी बोलने का मौका दो कोई।    (न रोको कोई, पृ. 16)

कवि की बैचेनी स्पष्टतः महसूस की जा सकती है, उसकी पृष्ठभूमि में, राम की शक्ति पूजा के राजीव नयन, अथवा मुक्ति बोध को ‘ब्रह्मराक्षस’ दिखाई देता है। यह कवि लाचार नहीं, बल्कि व्यवस्था को बदलने के लिए आतुर नजर आता है। वह अपने क्रोध के बाहर आने की प्रतीक्षा में है-

क से अपने क्रोध के बाहर आने की /
क से कर रहा प्रतीक्षा  /       (क से कवि मैं, पृ. 76)

‘नकार’ कविता नहीं, ‘क्या करोगे मेरा’, ‘बचा सका अगर’ आदि कविताओं में कवि को शब्द-संग्राम अब अपर्याप्त लगने लगा है। उसकी दृष्टि में केवल कविता इन समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि उससे बाहर आकर कुछ करने की छटपटाहट है-

एक गुमनाम कवि मैं /अंततः /एक चौराहे पर खड़ा होकर /
जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूँ  /देश / देश और लोकतंत्र /
कि कविता और कविता.......!   (एक देश और मरे हुए लोग, पृ. 152)


देश को बचाने की उत्कट भावना के साथ कवि की दृष्टि पर्यावरण की त्रासदी पर भी गई है। ‘मैं एक पेड़’, ‘पेड़ से कहता हूँ’, 'धरती को बचाने के लिए’, ‘खिड़की पर फदगुरिया’, आदि कविताओं में उस भयावह संकेत को उजागर किया गया है, जब पेड़ों की जगह ‘कक्रीट के जंगल’ देखने को मिलेंगे। कवि की चिंता स्पष्ट है-

और कि आखिर /पेड़ भी गिरेगा एक दिन /
पेड़ की जगह /उग आएगी एक इमारत शानदार /
मैं देखता खड़ा रहूंगा /घर की अकेली खिड़की से।
(मैं एक पेड़, पृ. 22)

संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए एक पाठक को कवि का तिक्त जीवन, पीड़ा और गहरी संवेदना के साथ ‘मुक्ति बोध की तड़प’ महसूस होती है, बीच-बीच में प्रकृति प्रेम, वैज्ञानिक बोध भी प्रकट होता है। समस्याओं से समाधान के लिए कवि जब मंच से उतर कर लोहा लेता है तब वह कोई ‘एक्टीविस्ट’ दिखता है। कविता में सीधी-सपाट तीव्र भाव बोध वाली शब्दावली उन नए कवियों के लिए प्रेरणादायी है, जो बेवजह उसे जटिल बना रहे हैं। कभी-कभी कवि ने अपने विचारों को भावावेश के कारण एक से अधिक बार प्रकट कर दिया है अथवा अनावश्यक विस्तार भी दे दिया है। यही नहीं आक्रोश के क्षणों में ‘असंयत शब्दावली’ का भी प्रयोग किया है, जिससे बचा जा सकता था, यथा-

एक ऐसा समय था वह  / जब मंच पर एक आदमी नैतिकता 
की उल्टी करता /और रात में बन जाता एक खूंखार दैत्य /
किसी मजबूर लड़की के साथ रात बिताता।  (एक देश और मरे हुए लोग, पं. 137)

लेकिन उसे भावों की तीव्रता के क्षणों का आभास भी माना जा सकता है। कवि ने कहीं कोलाजनुमा कविता का शिल्प भी बुना है, जैसे- ‘क से कवि मैं’। इसी प्रकार लुप्त होते गीतितत्व की झलक ‘जीवन का शोक गीत’ में दिखाई देती है। लम्बी कविताएँ स्पष्टतः मुक्तिबोध की परम्परा का अनुसरण है, यहाँ तक कि निहित भावों में भी समानता है। भाषा में आँचलिकता का पुट सरसता प्रदान कर रहा है। प्रयोगवादी कविता की तरह कहीं- कहीं शब्द चमत्कार भी अधिक हो गया है, जैस कि ‘पानी’ कविता में।

अंतिम खण्ड ‘एक देश और मरे हुए लोग’ में फैंटेसी है, जिसके सहारे कवि ने अपने कथ्य को पाठकों तक गहरी और पैनी धार से पहुंचाया है। संबोधन शैली में हे भंते। आकृष्ट करता है। बहुत अच्छे ढंग से अपनी बात कहने के बाद भी कवि का यह कथन कि एक शब्द साझा करने में / करनी पड़ती सदियों की यात्राएँ / और मैं हूं कि लाख कोशिश के बाद भी / वह कर नहीं पाता’ उनकी विनम्रता का द्योतक है। ‘बोधि प्रकाशन’ का आकर्षण मुद्रण सदैव प्रशंसनीय रहता है। मूल्य मात्र 99/- है। मेरा स्पष्ट मत है कि यह कविता संग्रह वर्तमान परिवेश को बखूबी उजागर करने के साथ विसंगतियों के समाधान का विकल्प प्रस्तुत करती है।



डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी: 
युवा समीक्षकमहाराणा प्रताप राजकीय, स्नातकोत्तर महाविद्यालयचित्तौड़गढ़ में हिन्दी प्राध्यापक हैं। आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर शोध भी किया है। स्पिक मैकेचित्तौड़गढ़ के उपाध्यक्ष हैं। अपनी माटी में  प्रबंध सम्पादक हैं। शैक्षिक अनुसंधान और समीक्षा आदि में विशेष रूचि रही है। मो.नं.+91-9828608270, डाक का पता:-सी-79, प्रताप नगरचित्तौड़गढ़ ,ब्लॉगई-मेल Print Friendly and PDF

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