![]() |
चित्रांकन वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी |
![]() |
अज्ञेय जी |
अज्ञेय का साहित्य परम्परा, प्रयोग और आधुनिकता का
मिश्रण है। वे रचना में सम्प्रेषण और वैयक्तिक अभिव्यक्ति को महत्व देते हैं। उनके
अनुसार ‘‘यदि हम आधुनिकता की चर्चा साहित्य और कलाओं के संदर्भ में
करते हैं तो इन दोनों को जोड़कर, रखना अनिवार्य हो जाता है।
साहित्य और कला मूलतः एक सम्प्रेषण है। इस सम्प्रेषण में वे भाषा का प्रयोग एक तीर
की भाँति करते हैं। (केन्द्र और परिधि) अज्ञेय समय-समय पर इस तीर को पैना भी करते रहते
हैं। इस संबंध में अज्ञेय की अवधारणा स्पष्ट है वे कहते हैं- ‘‘मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। भाषा का
उपयोग में ऐसे ढंग से करना चाहता हूं कि वह नए प्राणों से दीप्त हो उठे।’’ य़ही कारण है कि भाषा
के परिमार्जन में अज्ञेय निरन्तर प्रयोग करते रहे हैं। आज हम प्रयोगों के प्रति
दुराग्रह रखकर शब्दों के प्रयोग में भाषा के परिष्कार और परिमार्जन को लेकर चिंतित
हो जाते हैं। अज्ञेय उसे बड़ी सहजता से लेते हैं। अज्ञेय शब्दों की गरिमा में
विश्वास रखते हैं वे कहते हैं- शब्द का आत्यंतिक या अपौरूषेय अर्थ नहीं है। अर्थ
वही है, उतना ही है जितना हम उसे देते हैं। उनके अनुसार शब्द का
अर्थ एक सर्वथा मानवीय अविष्कार है। जिसे वह अभिव्यक्ति के सफल सम्प्रेषण हेतु
प्रयुक्त करता है।
अज्ञेय के कवि रूप की
बात की जाए तो उसमें अखिल विश्व अपने श्रेष्ठतम रूप में संपदित होता है। उनकी
कविताओं में उनका युग प्रतिबिम्बित होता है जो परम्पराओं को सहेजे हुए स्वंय को अद्यतन
करता रहता है। अज्ञेय की काव्य यात्रा जहां ‘भग्नदूत’ और ‘चिंता’ काव्य संग्रहों की गीतात्मक
कविताओं से प्रारंभ होती है वहीं वे इत्यलम्, हरी घास पर क्षण पर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे,अरी ओ करूणामय प्रभा, सागर मुद्रा, आँगन के पार द्वार और कितनी नावों में कितनी बार
द्वारा आधुनिक हिन्दी कविता को सर्वथा नया मोड़ देते हैं। कवि मन संवेदनशील होता है
परन्तु अज्ञेय में एक सजग बौद्धिकता की उपस्थिति उनकी संवेदना को नियंत्रित करती
है। यही नहीं उनकी कविताओं में स्वर वैविध्य व बिम्ब प्रयोग भी उनकी बौद्धिकता का
ही परिचायक है। अज्ञेय की कविताओं में निजी अनुभूतियां शब्दों का आकार लेती है।साथ
ही अज्ञेय परिवेश से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। इस संदर्भ में वे कहते हैं- ‘‘आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है- जो कि वह स्वयं है और जितना ही
अच्छा लेखक है, उतना ही अधिक वह अपना परिवेश है।”वे
कहते हैं अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अनावश्यक आड़म्बर की आवश्यकता नहीं होती वरन्
संवेदनाएं तो मौन में भी प्रखरित होती हैं। इसी को लेकर वे कहते हैं- ‘‘मौन भी अभिव्यंजना है,जितना तुम्हारा सच है…उतना ही कहो। (जितना तुम्हारा सच है।)
अज्ञेय शब्दों के चतुर
शिल्पी हैं। प्रयोगधर्मिता से जहां वे तारसप्तक बुनकर नया इतिहास रचते हैं वहीं
रंगों और सौन्दर्य से वे बिम्बों की सजीव
झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। भोर का ये बावरा अहेरी, अपनी बौद्धिकता की कनियों
से हरी घांस पर कविता की शबनम खिलाता है। कवि होने के साथ ही अज्ञेय ऐसे कथाकार और
चिंतक भी हैं जिन्होंने तमाम तरह के विरोधों को झेलकर भी सतत् नवोन्मेषी प्रयोग
साहित्य में किये हैं। अज्ञेय आधुनिक लेखक और पाठक दोनों को अपनी रचनाधर्मिता से
प्रभावित करते हैं। अज्ञेय अन्तर्मुखी है वे बनने से पहले गुनते हैं। यही गुनना और
घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से चुनाव हम ‘शेखरः एक जीवनी, ‘नदी के द्वीप’ और ‘अपने-अपने अजनबी’ में देखते हैं। अपनी रचनाओं में कभी वे श्लील और अश्लील पर
प्रश्न करते हैं तो कभी चेतन अवचेतन मन का द्वन्द्व अपनी रचनाओं में दिखाते हैं।
शेखर एक जीवनी तो चेतन अवचेतन मन के तनाव, संवाद और जिज्ञासाओं की
प्रश्नावली है जिसे अज्ञेय अपने रचनाकर्म से उद्घाटित करते हैं।
![]() |
डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर राजस्थान
ई-मेल:vimlesh27
मो:09414777259
|
“सुनो कवि। भावनाएं नहीं है सोती,
भावनाएं खाद है केवल
जरा उनको दबा ऱखो
जरा सा और पकने दो, ताने और
तचने दो..”…..

बड़े कलात्मक ढंग से आपने अज्ञेय जी को केन्द्रित कर लिखा है.सारगर्भित रूप में अज्ञेय को उपरी तौर पर जानने और भीतर से जानने की गुत्थियां यहाँ उकेर दी है.आलेख कई स्थानों पर समीक्षात्मक भी हो पड़ा है.विमलेश जी लगातार लिखतीं रहे.
जवाब देंहटाएं