शोध:‘पद्मावत’ में प्रतिबिंबित भारतीय समाज एवं संस्कृति/जितेश कुमार

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'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
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शोध:‘पद्मावत’ में प्रतिबिंबित भारतीय समाज एवं संस्कृति/जितेश कुमार(पूर्णिया)

चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
मलिक मुहम्मद जायसी हिंदी प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। हिंदी के प्रबंध-काव्यकारों में उनका स्थान महŸवपूर्ण है। ‘पद्मावत’ के रूप में उनके अंतस की प्रेम-पीड़ा कथा का आधार लेकर साकार हो उठी है। अवधी भाषा में रचित उनका यह महाकाव्य सूफी काव्यधारा का प्रतिनिधि-ग्रंथ है जिसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का चित्रण किया गया है। अन्य प्रेमाख्यान काव्यों से इतर ‘पद्मावत’ दो महान् संस्कृतियों के आस-पास की कथा को अपना आधार बनाती है। हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के मध्य सूफीवाद की परिकल्पना इसे महान् काव्य बनाती है। जायसी ने इस महाकाव्य में भारतीय समाज एवं संस्कृति के लगभग प्रत्येक पहलुओं पर ध्यान दिया है। इस प्रेमाख्यान में उन्होंने यहाँ के समाज को ही प्रतिबिंबित किया है। भारतीय संस्कृति की परंपराओं को, आस्थाओं को, लोकविश्वासों को आधार बनाकर जायसी ने अपूर्व काव्य-कौशल का परिचय दिया है। यह कुशलता तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब जायसी जैसे मुस्लिम कवि हिंदू संस्कृति और संस्कारों की बात करते हैं। महाकाव्य के प्रत्येक खंडों में चित्रित हिंदू परंपराओं को देखने से यह कतई नहीं लगता है कि जायसी हिंदू-धर्म के जानकार नहीं हैं। यहाँ आचार्य का शुक्ल का कथन द्रष्टव्य है- ‘हिंदू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।’1

          किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन-व्यापारों या सामाजिक संबंधों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करनेवाले आदर्शों को संस्कृति नाम दिया गया है। ‘संस्कृति धीरे-धीरे विकसित होनेवाली एक कृत्रिम किंतु अनिवार्य स्थिति है जो कि मूलतः नैसर्गिक न होकर भी निरंतर विकसित होती हुई परिस्थितियों के प्रति प्रकृत या स्वाभाविक हो जाती है।’2 जायसी भारतीय संस्कृति को काफी नजदीक से देखते हैं। भारतीय समाज में पैठ बनाते हैं। उनके रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों में दखल देते हैं। इन संस्कारों को ही वे अपने महाकाव्य में समायोजित करते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि भारतीय संस्कृति को वे काफी नजदीक से देखते हैं। भारतीय समाज में पैठ बनाते हैं। उनके रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों में दखल देते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि भारतीय संस्कृति का मूल आधार आध्यात्मिकता रही है। प्रेमाख्यान के उपसंहार में जायसी ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि कहीं-न-कहीं यह प्रेम-कथा अध्यात्म के रंग में रंगा है। दूसरे शब्दों में, इसे सूफीवाद का प्रभाव भी माना जाता है-

       ‘मैं एहि अरथ पंडितन बूझा। कहा कि हम किछु और न सूझा।।
       चौदह भुवन जो तर उपराहीं। ते सब मानस के घट माँही।।
       तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल बुधि पद्मिनी चीन्हा।।
       गुरु सूवा जेहि पंथ दिखावा। बिन गुरु जगत को निरगुन पावा।।
       नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोइ न येहि चित बंधा।।
       राघव दूत होइ सैतानू। माया अलादीन सुलतानू।।
       प्रेमकथा एहि भाँति विचारेहु। बूझि लेहू जो बुझे पारेहु।।

  जायसी ने उपसंहार में तन, मन, हृदय, बुद्धि, गुरु, जगत्, निर्गुण ब्रह्म आदि के आधार पर भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के साथ महाकाव्य की कथावस्तु को जोड़ने का विनम्र प्रयास किया है। लोक आस्थाओं और परंपराओं को जायसी अपने मनोनुकूल विभिन्न प्रसंगों में स्थान देते हैं। धार्मिक-स्नानों की एक सुदीर्घ परंपरा भारतीय संस्कृति में रही है। बादशाह दूती खंड और चित्तौड़ आगमन खं डमें जायसी ने नदी-स्नान की कही है-

            ‘बन बन हेरेऊँ वनखंडा। जल जल नदी अठारह गंडा।।
             गै असवारि परथमै, मिलै चले सब भाइ।।  
             नदी अठारह गंडा मिली समुद्र कहँ जाइ।।

अठारह गंडा अर्थात् नदियों में स्नान की बात करते हैं। कामरूप कामेच्छा जादू-टोना भारतीय संस्कार में आज भी बसा है। जायसी इसे भी आधार बनाते हैं-

              ‘एहि कर गुरु चमारिन लोना। सिखा कांवरु पाढ़न टोना।’

यह प्रसिद्ध है कि लोना चमारिन कामरुप की प्रसिद्ध जादूगरिनी थी। इन लोकविश्वासों या अंधविश्वासों में जायसी खुद को डुबाते हैं और पाते हैं कि इनकी जड़ें गहरी हैं-
              ‘राज बार अस गुनी न चाहिये, जेहि टोना कै खोज।
              एहि चेतक औ विद्या, छला सौ राजा भोज।।’

दान-पुण्य इष्टार्थ की पूर्ति के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि दान करने से भंडार घटता नहीं है। 
           
‘धनपति उहइ जेहिक संसारू। सबहि देह नित घट न भंडारू।।’

भारतीय समाज में तावीज, गंडा, जंत्र पहनने का प्रचलन रहा है। मंत्रोत्कीर्ण अंगूठी में भी इतनी मानी जाती थी कि उसे धारण करके व्यक्ति अतिमानवीय शक्तियों को भी वशीभूत कर सकता है, जो कि ‘पद्मावत’ में आए सुलेमान की अंगूठी से संबंधित उल्लेख से प्रकट है।

             ‘हाथ सुलेमा केरि अंगूठी। जग कहँ जिअन दीन्ह तेहि मूठी।।’

‘पद्मावत’ में भारतीय समाज के आर्थिक जीवन को भी दिखाया गया है। इसके अंतर्गत सिंहलद्वीप के हाट-बाजारों के वर्णन समकालीन व्यापार की अवस्था को प्रकाश में लाते हैं। कवि के अनुसार वहाँ का व्यापार उच्च-स्तर का था तथा थोक क्रय-विक्रय के सौदे लाखों और करोड़ों के होते थे।

            ‘पै सुठि ऊँच वनिज तहँ केरा। धनी पाउ निधनी मुख हेरा।।
            लाख करोरन्हि वस्तु बिकाई। सहसन्हि केर न कोइ ओनाई।।

बच्चों को प्रायः पाँच वर्ष में शिक्षा देने की बात का पता चलता है।
            ‘पाँच बरिस महँ भज सो बारी। दीन्ह पुरान पढ़े बैसारी।।’

समाजिक उत्सव तथा लोक-जीवन का विवरण जायसी ने ‘लाइव कमेंट्री’ की तरह किया है। दीपावली का वर्णन वे इन शब्दों में करते हैं-

          ‘अबहूँ  निठुर आब यहि बारा। परब देवारी होइ संसारा।
           सखि झूमक गावै अंग मोरी। हौ झुराव बिछुरी जेहि जोरी।।

स्त्रियों के सोलह शृंगार का वर्णन भी जायसी करते हैं।
          ‘पुनि सोरह सिंगार जस चारिहुं जोग कुलीन।
           दीरघ चारि-चारि लघु चारि सुभर चहुँ खीन।।’

यात्रा के विचार से संबंधित निर्देश ‘पद्मावत’ में रत्नसेन विदाई खंड के प्रसंग पर मिलता है जिसमें दिनों के दिक्शूल से संबंधित विवरण के साथ-साथ योगिनी-चक्र के विचार को भी रखा गया है। ऐसा लगता है कि लोकविश्वास के प्रचलन के कारण ही युग का गणक यह आत्मविश्वासपूर्वक कह सकता था कि अमुक दिन चलना शुभ है अथवा अशुभ।

         ‘आदित सूक पछिऊँ दिसी राहू। बिहकै दखिन लंक दिसी डाहू।।
          सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगल बुद्ध उŸार दिसी कालू।।
          अवसि चला चाहै जौ कोई। ओखद कहौं रोग कहँ सोई।।
          मंगर चलत भेलु मुख घना। चलिअ सोम देखिय दरपना।। 
          आदित घी तंबोर मुख मंडिय। बावभिरंग सनीचर खंडीय।।’

भारतीय पारिवारिक जीवन में संस्कारों का विशेष महत्व है। पद्मावती के जन्म पर जब नामकरण संस्कार हुआ तब ‘देवी पूजन’ का लोकाचार जायसी ने दिखाया है। विवाह के अवसर पर होनेवाले लोकाचारों का उल्लेख तथा विवाह के अवसर पर पंडित की भूमिका का वर्णन भी उन्होंने किया है।  निश्चय ही जायसी ने हिंदू जन-जीवन को निकट से देखा-परखा था। इसीलिए उन्होंने हिंदू रीति-रिवाजों, जीवन पद्धति, लोक मान्यताओं, परंपराओं, व्रत-त्योहार आदि का विशद वर्णन किया है। कहीं-कहीं भारतीय परंपराओं से इतर भी वे गये हैं। इस्लाम का प्रभाव भी तत्कालीन भारतीय परंपराओं से इतर भी वे गये हैं। हिंदू धर्म में पाँच तत्वों से सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है, लेकिन जायसी ने इस्लाम मतानुसार चार तत्वों की प्रधानता ही स्वीकार किया है-

         ‘कीन्हेसि अगिनी पवन जल खेहा। कीन्हेसि बहुतेइ रंग उरेहा।।

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में-‘मुसलमानी मत में केवल चार तत्वों से सृष्टि मानी जाती है।’3हिंदू धर्म के चौरासी लाख योनियों के स्थान पर जायसी ने अठारह हजार योनियों का जिक्र किया है।

         ‘चौदह भुवन पूर कै साजू। सइस अठारह भूँजइ राजू।।’

यहाँ भी वासुदेवशरण अग्रवाल मानते हैं-‘इस्लाम के अनुसार योनियों की संख्या अठारह है, हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियाँ हैं।’4 यहाँ यह स्वीकार करना होगा कि जायसी ने ‘पद्मावत’ में इस्लाम मत के दर्शनों का कुछेक जगह विस्तार दिया है। हिंदू प्रेम-कथा का आधार रखते हुए हिंदू-परंपराओं का जिक्र करने से कथा में रोचकता के साथ-साथ विश्वसनीयता भी आ गई है।‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ की सत्यता का प्रमाण जायसी ने पद्मावत में सिंहलगढ़ और चित्तौड़गढ़ का वर्णन करके समाज दर्शन में कुछ उज्ज्वल मानदंडों की स्थापना की है। कितना आकर्षण है इन वर्णनों में-

           ‘है चितउर हिंदुन के माता, गाढ़ परे तजि जाइ न नाता।
           सातौ पंवरी कनक केवारा, सातहु पर बाजहि घरियारा।।
           खंड-खंड साज पलंग औ पीढ़ी, मानहु इन्द्र लोक कै सीढ़ी।।
           चान्दन बिरिछ सुहाई छाहां, अमृत कुंड भरे तेहि मांहा।।’

तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति में पारंपरिक विश्वासों, क्रियाकलापों की अधिकता है। यद्यपि ये परंपराएँ आज भी विद्यमान हैं। ‘पद्मावत’ में आज की परंपराओं को तलाशा जा सकता है। जायसी ने गुरु, अतिथि, माता-पिता के संदर्भ में भारतीय उच्च आदर्शों को दिखाया है। डॉ. रामचंद्र तिवारी मानते हैं-‘प्रेमिका की प्राप्ति के लिए नायक के अथक उद्योग का चित्रण करके उसने भारतीय समाज-मर्यादा का आदर्श उपस्थित किया है। पार्वती और महादेव को परीक्षक और सहायक कल्पित करके कवि ने भारतीय जन-जीवन के आदिम विश्वास को मूर्त किया है।’5

जायसी ने प्रेम के विभिन्न रूपों को ‘पद्मावत’ में स्थान दिया है।  
मातृ-स्नेहः    ‘विनवै रतन सेन कै माया। माथे छात पाट नित पाया।।
             विलसहु नौ लख लच्छि पियारी। राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी।।
जन्मभूमि-प्रेमः  ‘गवनचार पद्मावति सुना। उठा घसकि जिउ औ सिर धुना।।
              गहबर नैन आए भरि आँसू। छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू।।’
सखी-प्रेम:    ‘धनि रोवत रोवहिं सब सखी।’
परिवार प्रेम:   ‘रोवहुँ मात-पिता औ भाई। कोउ न टेक जौ कंत चलाई। 

जितेश कुमार
शोधार्थी, हिन्दी-विभाग, 
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 
अलीगढ़
कई आलेख,शोध-पत्र,
कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 
आकाशवाणी भागलपुर में बतौर कोम्पियर अनुभव। 
फिलहाल एएमयू से 
यूजीसी-जेआरएफ के तहत
‘डॉ. हरिवंशराय बच्चन की 
अनुवाद कला एवं प्रक्रिया’ 
विषय पर शोध-कार्य में
संलग्न हैं।
मो.-09457717788  
ई-मेल:jiteshkumar210@gmail.com

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तत्कालीन भारतीय समाज में सती प्रथा थी। जायसी ने इसी प्रथा का निबाह करते हुए रत्नसेन की मृत्यु के बाद पद्मावती और नागमती दोनों पत्नियों को सती करा दिया है, यहाँ तक कि जब अलाउद्दीन दुर्ग पर आक्रमण करता है, तो केवल हाथ मलता रह जाता है और बोल पड़ता है कि -‘यह संसार झूठा है।’
         ‘छार उठाइ लीन्ह एक मूठी, दीन्ह उड़ाइ परिथमी झूठी।’ 

‘बारहमासा’ गाने की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। जायसी ने भी पद्मावती में विरह की तीव्रता दिखाने के लिए ‘बारहमासा’ का भी चित्रण किया है।डॉ. कौसर यजदानी मानते हैं-‘जायसी ने ‘पद्मावत’ के पात्रों में सामाजिक अभीष्ट गुणों का पोषण कर सामाजिक आदर्श की स्थापना भी की है।’6

     कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जायसी ने पद्मावत में भारतीय समाज के संस्कारों को ही दिखाया है। इसके जरिए तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के अध्ययन में अपेक्षित सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। कवि समाज के विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से नज़र रखता है। इसका प्रमाण जायसी ने ‘पद्मावत’ में दिया है। निस्संदेह यह ‘महाकाव्य’ देश और काल की सीमा से परे एक कालजीवी रचना है जो हमारी मध्यकालीन परंपराओं से हमें अवगत कराता है।

संदर्भः
1. रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 59, संस्करण-2003, अशोक प्रकाशन, नई दिल्ली
2. डॉ. मदनगोपाल गुप्त, मध्यकालीन हिंदी काव्य में भारतीय संस्कृति, पृ. 41, संस्करण-फावरी 1968, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-7 से उद्धृत
3. वही, पृष्ठ-273 से उद्धृत
4. वही, पृष्ठ-273 से उद्धृत
5. डॉ. रामचंद्र तिवारी, मध्ययुगीन काव्य-साधना, पृ-96, प्रथम संस्करण-सितंबर 1962, विश्वविद्यालय प्रकाशन, गोरखपुर: वाराणसी
6. डॉ. कौसर यज़दानी, सूफी दर्शन एवं साधना, पृ. 342, प्रथम संस्करण-1987, जेन्युइन पब्लिकेशंस एंड मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।                                                    

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