शोध:नवजागरण के सन्दर्भ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और बाल कृष्ण भट्ट के गद्य / रंजन पाण्डेय,दिल्ली

      साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            
'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश

चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
साहित्य में जीवनवाद की प्रतिष्ठा आधुनिक नवजागरण की एक महत्वपूर्ण देन है। नवजागरण के फलस्वरूप हिन्दी साहित्य और भारतीय संस्कृति में आत्मचेतना और व्यक्तित्व चेतना का संचार हुआ। इस आधुनिक चेतना का प्रथम उन्मेष बालकृष्ण भट्ट भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रतापनारायण मिश्र आदि के लेखों गद्य और पद्य रचनाओं में दृष्टव्य है। यहाँ पर हमारा विशेष ध्यान बालकृष्ण भट्ट और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की गद्य रचनाओं विशेषतः पत्र-पत्रिकाओं पर ही रहेगा, क्योंकि इन लेखकों का अधिकांश गद्य पत्र-पत्रिकाओं में ही मुखरित हुआ है। 



नवजागरण जन्य भाषा-सम्बन्धी परिवर्तनों के विशेष संदर्भ में भारतेन्दु युग भाषा आंदोलन का और उसके ग्रा“य रूप के ग्रहण का युग रहा है। कुछ विद्वान मानते हैं कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की शैली सहज हिन्दी की शैली है। डॉ. विनय मोहन शर्मा कहते हैं कि ‘सहज हिन्दी की शैली जिसे भारतेन्दु ने अपनाया और जो शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ और राजा लक्ष्मण सिंह के अतिवाद के बीच की शैली थी’।1 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सहज शैली की वकालत तो करते थे परन्तु वे इसके इतर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का भी प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। प्रोफेसर वीर भारत तलवार तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘‘उनके अपने लेखन की भाषा हमेशा, शुरू से ही संस्कृतनिष्ठ रही।’’2 यह आरोप काफी कड़ा है। इसका एक आशय यह भी निकलता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही प्रयोग करते थे जबकि कमला प्रसाद द्वारा सम्पादित उनके प्रतिनिधि संकलन में सहज हिन्दी के भी उदाहरण मिल जाएंगे। हाँ इतना स्वीकार करना पडे़गा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जो संस्कृतनिष्ठ भाषा प्रयोग करते थे वह काफी दुरूह थी। लॉर्ड मेयो की हत्या के बाद कविवचन सुधा में में वे लिखते हैं- ‘‘आज दिन हम उसके मरण का वृत्तांत लिखते हैं, जिसके भुज की छाँह में सब प्रजा सुख से कालक्षेप करती थी।’’3 इसके बाद ‘राजभक्ति का मूल कहाँ है?’ नामक लेख में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इससे भी क्लिष्ट हिन्दी का प्रयोग करते हैं और लिखते हैं- ‘‘सम्प्रति राजकोट में एक अन्याय हुआ है। उसे हम लोग अपने पाठकगण के अवलोकन निमित्त प्रकाश करते हैं। गत अक्टोवर मास में जॉकी नामक एक भृत्य राजकोट के पार्श्ववर्ती एक कूप के किनारे बैठकर दन्तधावन करता था।’’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबंधों में इस तरह के उदाहरण सर्वत्र नहीं ढूँढे़ जा सकते, इसलिए तलवार जी का कथन एकतरफा कहा जा सकता है। इस तरह के गद्य की तुलना बालकृष्ण भट्ट के गद्य से की जाए तो इस तरह के उदाहरण ढूँढ़ निकालना दुश्कर होगा। बालकृष्ण भट्ट जी गद्य की अभिव्यंजना शक्ति को बढ़ाने के लिये विभिन्न भाषाओं के शब्द-समूहों को ग्रहण करते थे। इसलिये जहाँ तक शब्द-चयन का प्रश्न है, ठेठ बोलचाल के शब्द, संस्कृत के शब्द, फारसी के शब्द, अंग्रेजी के शब्द उनके गद्य में व्यापक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के तौर पर ‘जवानी की उमंगे’ शीर्षक निबंध का एक अंश द्रष्टव्य है- ‘‘इसलिये नई उमंगवालों को इस बनावट कृमि से अपने को बचाने की बड़ी चौकसी रखना उचित है। किसी बुद्धिमान गंभीर महाशय का कथन है ‘आलवेज एंडिवर टु द रीयली वाट यू वुड विश टुअपियर’ हमेशा इस बात की कोशिश करते रहो कि तुम लोगों में अपने को वैसा ही जाहिर करो जैसा तुम वास्तव में भीतर से हो।’’5 बालकृष्ण भट्ट जी का दृष्टिकोण भाषा के संदर्भ में हमेशा से ही समन्वयवादी रहा है। दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करने का पक्ष लेते हुए वे तर्क देते हैं- ‘‘---पृथ्वी की और भाषाओं में यही नियम पाया जाता है कि दूसरी भाषा के शब्द को बेधड़क अपना कर लेते हैं जैसा कोई किसी लड़के को गोद ले वैसा ही वह शब्द उसी भाषा का होकर रह जाता है। एक दूसरी विचित्र बात यह भी है कि एक भाषा का शब्द जब दूसरी भाषा में जाता है तो बहुधा अपने शुद्ध रूप में कभी नहीं रहता और जब ऐसा अशुद्ध शब्द भी दूसरी भाषा में अच्छी तरह मिल जाता है तो फिर उसके शुद्ध करने का प्रयत्न भी व्यर्थ ही है क्योंकि बोलने वालों के मन या जबान पर जो एक बार चढ़ गया वह कभी नहीं निकल सकता।’’6

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी 
अब नवजागरण के अन्य प्रमुख सवालों पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और बालकृष्ण भट्ट जी के गद्य की तुलना करते हैं। सर्वप्रथम धर्म के सवाल पर यदि विचार किया जाए तो दोनों की राय कुछ मसलों पर अलग थी। भारतेन्दु जी धार्मिक कर्मकांडों का समर्थन करते देखे जा सकते हैं। उन्होंने धार्मिक विषयों से संबंधित लेखों में धार्मिक उपवास, व्रत, त्यौहार, स्नान और धार्मिक अनुष्ठानों आदि का पुरजोर समर्थन किया है। इस दृष्टि से उनके ‘कार्तिक कर्म विधि’ और ‘मार्गशीर्ष महिमा’ जैसे ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। उनकी दृष्टि में भगवद्स्मरण और स्नान ही मुख्य धर्म है। उनकी दृष्टि में ‘‘तुला के सूर्य में कार्तिक में जो लोग प्रातः स्नान करते हैं, वे महापातकी हों तो भी मुक्त होते हैं।’’---- कार्तिक स्नान करने वाले को यम का भय नहीं बल्कि ब्रह्महत्या आदि का पाप भी नहीं होता।’’7 ‘मार्गशीर्ष महिमा’ में वे कहते हैं- ‘‘जो कोई अगहन में कपूर का दिया बालता है, उसको अश्वमेघ का फल मिलता है। जो घी और तेल से दिया बालते हैं वे सब पापों से छूट के हजार सूर्य समान ज्योति पाते हैं। जो चौदस के दिन कदंब को दही चढ़ाते हैं उनको इस लोक में संतान और उस लोक में परमपद मिलता है।’’8 बालकृष्ण भट्ट धर्म की इस तरह की कर्मकाण्ड वाली मान्यताओं को महत्व नहीं देते हैं, उल्टा इन सब की घोर निन्दा करते हैं। उनका कहना है- ‘‘इस टूटी हुई दिशा में भी हम लोगों का जितना खर्च धर्म सम्बन्ध कामों में होता है उतना और बातों से नहीं।’’9 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की उपरोक्त परलोक साधने वाली बात का जवाब वे कुछ तरह से देते हैं-’’ कोई इनसे कह भर दे कि इस बात के करने से परलोक सुधरता है, स्वर्ग की सीढ़ी लग जाएगी बस खट-खट चढ़ते चले जाओगे तो आगा पीछा कुछ न देख इसका ख्याल कभी न करेंगे कि परलोक और परमार्थ भाड़ में जाय यह लोक बनावें।’’----- हिन्दू कौम की ऐसी ही दो-चार बातों में इस समय के धूर्त, लालची, स्वार्थ परायण ब्राह्मणों को अपना मतलब साधने के लिये मौका दे दिया।’’10 एक स्थान पर बालकृष्ण भट्ट जी हिन्दू धर्म के वा“याडम्बर की कठोर आलोचना करते हुए कहते हैें कि - ‘‘पुरूष मैथुन कोई पाप ही नहीं क्योंकि इसकी तो चलन हो गई। क्या भया जो यह (अन्नेचुरल) अप्राकृतिक है, रहा गुप्त व्यभिचार सो उसी के छिपाने की हिकमत यह लम्बा तिलक, लम्बी धोती और लम्बी माला है।’’11 इस विषय में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की राय स्पष्ट नहीं है। वे इन बातों पर टिप्पणी करने से बचते हुए दिखाई देते हैं। धार्मिक पाखण्ड और उसमें छुपी बुराईयों के कर्त्ता-धर्त्ता गुरूओं, महन्तों पर भारतेन्दु यह कहकर बचाव करते हैं कि - ‘‘अब यह स्वभाव छोड़ देना चाहिए।’’12

बालकृष्ण भट्ट जी 
धार्मिक एकता के प्रश्न पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का दृष्टिकोण वैष्णवधर्म की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। इस पर प्रोफेसर वीर भारत तलवार का कहना है कि - ‘‘भारतेन्दु ने वैष्णव धर्म के साथ दूसरे हिन्दू धर्म का यहां तक कि ईसाइयों और सिक्खों तक का मेल बैठाने की भावना प्रकट की।’’13 बालकृष्ण भट्ट का इस संबंध में दृष्टिकोण अलग है। वे जिस धार्मिक एकता पर बल देते थे उसमें धार्मिक मतान्तर का कड़ा विरोध है। वे कहते हैं- ‘‘शैव के सैकड़ों भेद तो वैष्णवों के हजारों जिनकी परस्पर ईर्ष्या की ऐसी दृढ़ गाँठ पड़ी है कि एक दूसरे का मुख देखना रबा नहीं मानते। रामोपासक चाहते हैं कृष्णोपासक का उच्छेद हो जाए कृष्णोपासक आपस में ही कट मरते हैं।’’14 धार्मिक एकता में जिस बात पर आप दोनों का साम्य है वह है मुसलमानों आदि जातियों के समान्तर अपने को संगठित करना। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का इस संबंध में मत है कि - ‘‘जिस मत में हिन्दू मत अब चलता है उस भाव से आगे नहीं चलेगा। अब हम लोगों के शरीर का बल न्यून हो गया, विदेशी शिक्षाओं से मनोवृत्ति बदल गई, जीविका और धन उपार्जन के हेतु अब हम लोगों की पाँच-पाँच, छः-छः पहर पसीना चुआना पडे़गा, रेल पर इधर से उधर कलकत्ते से लाहौर और बंबई से शिमला दौड़ना पडे़गा, सिविल सर्विस का, बैरिस्टर का, इंजीनियर का इम्तिहान देेने को विलायत जाना होगा, बिना यह सब किये काम नहीं चलेगा, क्योंकि देखिए, क्रिस्तान, मुसलमान, पारसी यही हाकिम हुए जाते हैं हम लोगों की दशा दिन-दिन हीन हुई जाती है।’’15 इसी तरह का आशय बालकृष्ण भट्ट जी का भी है कि - ‘‘जैसे सभी मुसलमान आपस में संगठित हैं सभी अंग्रेज (ईसाई) संगठित है, उसी तरह सभी हिन्दुओं को भी संगठित होना चाहिए। हिन्दू एक ही जाति है- आर्य जाति और एक ही धर्म-स्मार्त धर्म। इसी बुनियादी एकता पर नगर-नगर गांव-गांव में हिन्दू समाज बनने चाहिए।’’16

नवजागरण के प्रमुख नेता दयानन्द सरस्वती के विचारों से दोनों का दृष्टिकोण अलग था। इस संदर्भ में प्रोफेसर वीर भारत तलवार का कथन काफी हद स्वीकार किया जा सकता है कि - ‘‘हिन्दी नवजागरण के लेखकों की सामाजिक-धार्मिक चेतना ब्राह्मों और आर्यों के सुधार आंदोलन के समर्थन में नहीं उनके विरोध और प्रतिक्रिया में उभरी थी---। दयानन्द सरस्वती के विचारों में विरोध जताते हुए बाल कृष्ण भट्ट जी कहते हैं कि - ‘‘दयानन्द जी के सिद्धांत में कुछ ऐसी अटकल पच्चू चीजें हैं जो मेरे गले के नीचे नहीं उतरती---।’’18 बालकृष्ण भट्ट जी दयानन्द की वेदों की उत्पत्ति सम्बन्धी मान्यता को भ्रामक मानते हैं। उनकी दृष्टि में आर्य भारतीय ही थे। वेदों को भगवद्रचना मानने की दयानन्द जी की विचारधारा को कटघरे में खड़ा करते हैं और कहते हैं- ‘‘---स्वामी जी यह नहीं सोचते कि ज्ञान-विज्ञान के इस युग में लोग वैसी ही अंधी भेडे़ अब नहीं है कि गड्डे में गिर लेने या किसी प्रकार की दैवी शक्ति मानने में लोग छनकते हैं।’’19 आगे वे कहते हैें- ‘‘अब रही आर्य समाज और ब्रह्मसमाज जो आर्य समाज स्वामी दयानन्द के हाथों गिरों हो गई है सनातन परम्परा को एकबारगी उलट देना चाहती है। ब्रह्मोसमाज यही चाहती है कि किसी तरह हिन्दूपन की बू मुल्क से दूर रहे।’’20 

वस्तुतः दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म के पक्ष में आवाज बुलन्द की। सनातनी धर्मावलम्बियों की धार्मिक कट्टरता, रूढ़िप्रियता का विरोध किया और उदार सामाजिक संस्कारों के लिए संघर्ष किया। वैदिक समाज की संरचना में ही ‘व्यक्ति’ की भूमिका को रख कर देखा। इसी के समान्तर सनातनियों, हिन्दुत्ववादियों ने ‘हिन्दू धर्म’ की पुनर्प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश की। जातिवादी पत्रकारिताएँ बड़े पैमाने पर उपजीं। इनमें कई तरह के प्रकाशन थे। इन दोनों से भिन्न ज्यादा व्यापक लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य की पत्रकारिता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने वैष्णवधर्म की उदारवादी धारा का विकास किया, जबकि दयानन्द सरस्वती के सांस्कृतिक संप्रेषण में भक्ति आंदोलन का पूरी तरह बहिष्कार था। वैदिक एकेश्वरवाद और आर्य संस्कृति पर बल दिया। भारतेन्दु ने दयानन्द के दृष्टिकोण से असहमति व्यक्त करते हुए पुरोहितों की रूढ़िवादिता का विरोध किया, ईश्वर भक्ति और वैष्णव भक्ति उपासना पद्धति का समर्थन करते हुए भक्ति आंदोलन के सांस्कृतिक जागरण से अपने को जोड़ा। 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और दयानन्द की धारणाओं का हिन्दी भाषा साहित्य और पत्रकारिता पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की वैष्णव भक्ति नवोदित पूँजीवादी उदारतावादी दृष्टिकोण से जुड़ी थी। जबकि दयानन्द का दृष्टिकोण पुनरूत्थानवादी था। 19वीं शताब्दी की हिन्दी पत्रकारिता में विचारात्मक संघर्ष का पहला बिन्दु धर्म था। धर्म की व्याख्या अन्य धर्मों के प्रति दृष्टिकोण धर्माधिकारियों की भूमिका और धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप ये सभी मुद्दे बहस के केन्द्र में थे। भारतेन्दु मण्डल के लेखकों ने सनातनियों और आर्य समाजियों के दृष्टिकोण से अपने को अलगाया। संस्कृति को धर्म के साथ एकमेव करने की सख्त आलोचना की। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की उदारवादी दृष्टि थी परन्तु वैष्णव धर्म को अन्य धर्मों के बनिस्पद श्रेष्ठ मानते थे। 

धर्मनिरपेक्ष चिंतन को आधार बनाकर लेखन करने वाले भट्ट थे। उन्होंने ‘इन्दु’ (1913 जनवरी अंक) में ‘संस्कृत की संकुचित दशा’ शीर्षक लेख में लिखा- ‘‘सच पूछो तो हिन्दुस्तान की अधोगति का एक हेतु हमारा धर्म, मजहब भी हो रहा है। जिसमें हम ऐसे जकड़ लिये गये हैं कि आगे सिर फैला ही नहीं सकते।’’   

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने राजा राम मोहन राय की तरह ही सामाजिक सुधार के विषयों को चयन किया, पर हिन्दू धर्म की उदारतावादी व्याख्याओं का इस्तेमाल वे इसके लिये पद्धति के रूप में आवश्यक नहीं मानते थे। उन्होंने सांस्कृतिक सम्प्रेषण को राजनीतिक संप्रेषण से जोड़कर देखा। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने संप्रेषण के लिये जो विषय चुने वे मूलतः सांस्कृतिक प्रश्न थे, जिनका समाज सुधार से संबंध था। सांस्कृतिक संप्रेषण के लिये चुने गये विषयों में से थे- बाल विवाह से हानि, जन्मपत्री मिलाने की अशास्त्रता, बालकों की शिक्षा, अंग्रेजी फैशन से शराब की आदत, भ्रूण हत्या, फूट और बैर, बहुजातित्व और बहुभक्तित्व, जन्मभूमि, इससे स्नेह और इसे सुधारने की आवश्यकता का वर्णन, नशा, अदालत, स्वदेशी, हिन्दुस्तान की वस्तु और हिन्दुस्तानियों को व्यवहार इसकी आवश्यकता, इसके गुण, इसके न होने से हानि का वर्णन। इनमें स्वेदशी और देशप्रेम राजनीतिक संप्रेषण के अंग हैं। समूची संप्रेषण प्रक्रिया और संप्रेषण नीति के मूल में ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इन विषयों को सुझाया। लोकतांत्रिक समाज की विशिष्टता थी कि सभी देवी-देवताओं को मानने वाले और सभी जाति के लोगों से ईश्वरोपासना और जातिगत संस्कारों के मानने न मानने की स्वतंत्रता और गारंटी दे। इसलिये इन्होंने ‘बहुजातित्व और बहुभक्तिवाद’ पर बल दिया, लेकिन बाद में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सभी भक्तों को वैष्णव धर्म में समाहित होने की वजह देते दिखाई देते हैं। 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सांस्कृतिक-संप्रेषण के लिये जातीय गीत, जातीय संगीत, पुस्तिकाएँ नाटक की विधा का देशज भाषा में प्रयोग करने पर बल देते थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की संप्रेषण नीति कुछ मायनों में राजा राममोहन राव का वृहद संस्करण थी। राजा राममोहन ने सांस्कृतिक संप्रेषण के लिये जिन विषयों और संप्रेषण उपायोें का चयन किया उसमें हिंदू धर्म को शामिल किया, जबकि भारतेन्दु ने सांस्कृतिक -संप्रेषण की प्रक्रिया में हिन्दू धर्म को गैर जरूरी समझा। उसकी धारणाओं का इस्तेमाल नहीं किया। भारतेन्दु के यहाँ हिन्दू बोध के बजाय नागरिक बोध, व्यक्तिबोध, और सामुदायिक बोध पर बल है। 

जहाँ तक सामाजिक सुधार का प्रश्न है तो भारतेन्दु और भट्ट दोनों ही परम्परागत सामाजिक विधान में सुधार और परिवर्तन के पक्षधर थे। हाँ, इतना अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि सामाजिक व्यवस्था का नये आधारों पर पुननिर्माण का विचार उन लोगों के भीतर नहीं आया था। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी बलिया व्याख्यान में कहते हैं कि - ‘‘फलानी बात उन बुद्धिमान महर्षियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के जो अनुकूल और उपकारी हो उनको ग्रहण कीजिए। बहुत सी बातें जो समाज - विरूद्ध मानी हैं किन्तु धर्मशास्त्रें में जिनका विधान है, उनको चलाइए।’’21 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तलाक, स्त्री-पुरूष का पारस्परिक सम्मति से विवाह और विधवा विवाह आदि का जोर-शोर से समर्थन किया है। उनकी प्रगतिशील सामाजिक दृष्टि का परिचय इस कथन से मिलता है- ‘‘विधवा गर्भ गिरावैं, पंडित जी या बाबू साहब यह सह लेंगे वरं चुपचाप उपाय भी करा देंगे, पाप को नित्य छिपावैंगे, अन्ततोगत्वा निकल ही जायें तो संतोष करेंगे, पर विधवा का विधिपूर्वक विवाह न हो फूट सहेंगे, आंजी न सहेंगे।’’22 आगे की पंक्ति में वे केशवचन्द्र सेन और दयानन्द का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि -‘‘इन दोष को इन दोनों ने निःसंदेह दूर करना चाहा।’’23

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सामाजिक एकता लाने के लिये प्रयास किये और इसके लिये वे साम्प्रदायिक आधार पर पफ़ैल रहे वैमनस्य को समाप्त करने के लिये आ“वाहन करते है’ ‘‘भाई हिन्दुओं! तुम भी मत मतान्तर का आग्रह छोड़ों। आपस में प्रेम बढ़ाओं, इस महामंत्र का जाप करो। जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का हो, वह हिन्दू। हिन्दू की सहायता करो, बंगाली, मराठा, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्रह्मों, मुसलमान सब एक हाथ पकड़ों।’’24 इन पंक्तियों को देखकर यह कहा जा सकता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उद्देश्य राष्ट्रीयता और देशोेन्नति की भावना लोगों में उत्पन्न करना ही था। भारतेन्दु ने जातीय उन्नति के लिये अपने परिचय के सभी साहित्यकारों से अनुरोध किया।25 कि वे लोक-प्रचलित कजली, चैती, होली-सॉझी, विरहा आदि गीतों में सामाजिक रूढ़ियों और कुप्रथाओं के विरूद्ध प्रचार करें। इनमें प्रमुख विषय इस प्रकार थे-26 बाल्य विवाह जन्मपत्री की विधि, अंग्रेजों फैशन, पफ़ूट बैर में दुर्गुण तथा बहुजातित्व और बहुभक्तित्व के दोष। 

पंडितों की स्वार्थपरकता और ज्ञान-विहीनता क पोल ‘सबै जाति की’ और ‘‘जाति-विवेकिनी सभा’’ जैसे प्रहसनों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने खोली।27 इसी प्रकार बा“य रूप से साधुवेष धारण कर निन्दित कुकर्मों के व्यसनी, व्यक्तियों पर ‘कार्तिक स्नान’ नामक निबंध में बालकृष्ण भट्ट जी ने फब्तियां कसीं- ‘‘ये कौन हैं? काक चेष्टा बक ध्यानी। हाथ में गोमुखी मन में सुमुखी। आहा! आप हैं! बड़ी देर बाद पहचाने गये। अभी नई उमंग है इश्क के कूचे में पांव रखा है। ग्यारह महीने परखते-परखते किसी तरह कातिक आया तो अब क्यों जी की जी ही में रहे।’’28

स्त्रियों पर हो रहे शोषण और उन्हें पुरूषों से हीन समझे जाने की मनोवृत्ति पर भारतेन्दु जी के विचार बालकृष्ण भट्ट के ही समान हैं। नारियाँ निसंगतः पुरूषों से हीन हैं, इस तरह के रूढ़िवादी विचारों का इस युग के लेखकों ने पुरजोर खंडन किया है। भट्ट जी इसकी भयंकर निन्दा करते हुए कहते हैं कि - ‘‘हमारे यहां के ग्रंथकार और धर्मशास्त्र पढ़ने वालों की कुण्ठित बुद्धि में न जाने क्यों नहीं समाया हुआ था कि स्त्रियाँ केवल दोष की खान हैं गुण उनमें कुछ हई नहीं। इसी में चुन-चुनकर उन्हें जहाँ तक ढूँढे़ मिला दोष ही दोष इनके लिखे गये और जहाँ तक इनके हक में बुराई और अत्याचार करते बना अपने भरसक न चूके और उन्हें हर तरह पर घटाया।’’29 अपने लेखों के द्वारा हमेशा ही बालकृष्ण भट्ट जी ने नारियों को उनके सामाजिक अधिकार छीनने की भर्त्सना की। स्त्री उत्थान के प्रबल समर्थक बाल कृष्ण भट्ट जी इस स्त्री उत्थान के लिये स्त्री शिक्षा को महत्व देते थे। उस स्त्री-शिक्षा में प्रेमसागर जैसी रचनाओं को एक सिरे से नकारते हैं। आपने हिन्दी-प्रदीप में ‘औरतों का पर्दा अवध पंच से’, ‘पति-पत्नी’, ‘स्त्रियाँ और उनकी शिक्षा’, ‘पुरूष अहेरी स्त्रिया अहेर हैं’, ‘स्त्रियाँ’, ‘हमारी भारत ललनाएं’, ‘महिला स्वातन्=य’ आदि लेख लिखे। स्त्रियों के पिछडे़पन के लिये मनु के सिद्धांतों की आलोचना करते हैं- ‘‘स्त्रियाँ किस लिए हैं? ----हमारे शास्त्रें के अनुसार मर्द को सुख पहुँचाना इसका मुख्य काम है---- ‘न स्त्री स्वातन्=यमर्हति’ मनु के इस वाक्य का यही प्रयोजन सिद्ध होता है। बचपन से बुढ़ापे तक बिना इससे काम न चलता देख मनु महाराज ने यह लिख दिया कि मर्द इनको अपने ताँबे में रखकर अपना काम निकाला करे।’’30 

इसके अतिरिक्त बाल कृष्ण भट्ट ने बहु विवाह, बेमेल विवाह, संयुक्त कुटुम्ब, विरोधी लेख भी लिखे। देश की उन्नति में बहुत संतान को एक प्रमुख अवरोधक के रूप में देखते हैं और कहते हैं- ‘‘भारतवासी यदि कचर-पचर बच्चे पैदा न करें आगे पैर बढ़ावें तो देश का उत्थान हो जाए’’31 दहेज प्रथा को सामाजिक प्रतिष्ठा के निर्माणकारी के रूप में नहीं वरन् उसे नष्ट करने वाले कारक को रूप में देखते हैं- ‘‘खाने को जुरता नहीं लड़की ब्याहना है, एक हजार हो तो ब्याही जाय----जायदाद गीरो रख दी, रूपया कर्ज लिया और मनमानता खर्च की। दो तीन वर्ष में ब्याज का ब्याज जोड़ते-जोड़ते हजार के दो हजार हुए जायदाद गीरो थी ही एक-दो-तीन बोल गई खूब नाक की लाज रही।32 

रंजन पाण्डेय
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
मो- 9555850412
ई-मेल:ranjandu86@gmail.com
बालकृष्ण भट्ट सामाजिक सुधार के लिये जो भी लेख लिखते थे उनमें स्पष्टवादिता और राष्ट्रीयता का पुट हमेशा से ही रहता था और यही उन लेखों की महत्वपूर्ण विशेषता भी थी। समाज सुधार के लिये जिन दो तत्वों को वे बेहद महत्वपूर्ण मानते थे वह था देशानुराग और सहानुभूति।33 भट्ट जी समाज को तीन श्रेणियों (उत्तम श्रेणी, मध्यम श्रेणी, निम्न श्रेणी) में बांटकर समाज सुधार का सारा दारोमदार मध्यम श्रेणी के समाज पर डालते हैं, क्योंकि उनकी नज़र में उत्तम श्रेणी भोग विलास में लिप्त रहती है, जबकि निम्न श्रेणी का उद्देश्य सिर्फ कदहा भरना ही है।34 उनके नारी विषयक जितने भी निबंध है उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाल विवाह का हर संभव विरोध करते हैं और उसे ही सारी समस्याओं के मूल के रूप में देखते हैं। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और बालकृष्ण भट्ट जी के गद्य में नवजागरण के प्रमुख सवालों के सम्बन्ध में समाज सुधार, धार्मिक कुरीतियों, स्त्री स्वतंत्रता के मसलों पर दोनों के विरोध करने का तरीका निश्चित रूप से अलग था जो उनके व्यक्तित्व की देन थी। 


संदर्भ ग्रंथ सूची

1- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास (अष्टम भाग) हिन्दी साहित्य का अभ्युत्थानः भारतेन्दु काल
संपादक- डॉ. विनय मोहन शर्मा, पृष्ठ 268 प्रकाशन, नागिरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
2- रस्साकशी-प्रो. वीर भारत तलवार, पृष्ठ 85 सारांश प्रकाशन, नई दिल्ली संस्करण-2002 ई
3- कविवचन सुधा-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र_ फरवरी 1872 ई
4- कविवचन सुधा-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र_ जुलाई 1872 ई
5- हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास (अष्टम भाग) संपादक- डॉú विनय मोहन शर्मा, पृष्ठ 269
प्रकाशन, नागिरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
6- भाषाओं का परिवर्तन ‘निबंध’- हिन्दी प्रदीप जून 1885 ई हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत पृष्ठ 29-30
बालकृष्ण भट्ट संपादक-सत्य प्रकाश मिश्र
7- रस्साकशी-प्रो. वीर भारत तलवार, पृष्ठ 172 सारांश प्रकाशन, नई दिल्ली संस्करण-2002 ईú
8- वही, पृष्ठ 172
9- हिन्दी प्रदीप, मार्च 1909ई
10- हिन्दी प्रदीप, मार्च 1909 ई
11- हिन्दी प्रदीप, जून 1879 ई पृष्ठ 1-2
12- भारतेन्दु समग्र-पृष्ठ 974
13- रस्साकशी-प्रो. वीर भारत तलवार, पृष्ठ 179
14- हिन्दी प्रदीप, जनवरी 1880, पृष्ठ 2
15- भारतेन्दु समग्र-पृष्ठ 976
16- हिन्दी प्रदीप, नवम्बर 1882 ई
17- रस्साकशी-प्रो.वीर भारत तलवार, पृष्ठ-155
18- हिन्दी प्रदीप, जनवरी 1885 ई. पृष्ठ-7
19- हिन्दी प्रदीप, दिसम्बर, 1879 ई.
20- हिन्दी प्रदीप, फरवरी, 1880 ई.
21- बलिया व्याख्यान-भारतेन्दु ग्रंथावली भाग-3, पृष्ठ-901
22- भारतेन्दु ग्रंथावली भाग-3 पृष्ठ 836
23- वही
24- वही, पृष्ठ 902
25- कविवचन सुधा - मई 1879 ई. में जारी एक विज्ञप्ति द्वारा।
26- भारतेन्दु ग्रंथावली, भाग-3, पृष्ठ - 936, 937
27- वही, पृष्ठ 819-820
28- हिन्दी प्रदीप, अगस्त 1894 ई. ‘कार्तिक स्नान’ निबंध
29- भट्ट निबन्धमाला-सम्पादक धन×जय भट्ट ‘सरल’, पृष्ठ-22
30- हिन्दी प्रदीप, जुलाई 1891
31- बालकृष्ण भट्ट की जीवनी-महादेव भट्ट पेज-10
32- हिन्दी प्रदीप, जुलाई 1880, पृष्ठ-9
33- वही, पृष्ठ 6-7
34- हिन्दी प्रदीप, जुलाई 1888, पृष्ठ 1-2

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