आलेख:लयात्मक-कविता के अद्भुत कवि भवानी प्रसाद मिश्र / डॉ. जे. आत्माराम

                 साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
    'अपनी माटी'
         (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
    वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014

चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव 
ऐतिहासिक दृष्टि से दूसरा सप्तक (1951) और उसके बाद की कविता को नई कविता कहा जाता है। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा सप्तक के पहले कवि हैं और नई कविता के प्रतिष्ठित रचनाकार भी। भवानी प्रसाद मिश्र का पहला काव्य-संग्रह गीतफ़रोश (1956) भी इसी दौर में प्रकाशित हुआ था। नई कविता के इस काल में गीतफ़रोश के समान सशक्त कविताओं का दूसरा काव्य-संग्रह तब तक आया भी नहीं था। इस कारण गीतफ़रोश दिनों काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इस संग्रह में सतपुड़ा के जंगल, नर्मदा के चित्र, सन्नाटा, आषाढ़, मेघदूत जैसी प्रकृति पर नए ढंग से लिखी गई कई कविताएँ तो थीं ही, इसके अतिरिक्त, घर की याद, बाहिर की होली, तेरा जन्म दिन जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती भावपूर्ण कविताएँ भी थीं । आधुनिक हिन्दी साहित्य में गीतफ़रोश की कविताओं का महत्व इतना अधिक है कि आज भी उन रचनाओं को याद किये बिना नई कविता की चर्चा पूरी नहीं होती । लेकिन गीतफ़रोश में तो भवानी प्रसाद मिश्र के कवि-जीवन के आरंभिक दौर की कविताएँ हैं, उनमें भी कई कविताएँ आज़ादी से पहले लिखी हुई कविताएं हैं, उनसे अधिक गहरी एवं परिपक्व कविताएँ आपातकाल और उसके बाद के समय में लिखी गई हैं, इस दृष्टि से तूस की आग (1985) अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में  भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर शोध कर चुकी डॉ. स्मिता मिश्र का यह कथन बहुत सही है कि  गीतफ़रोश के रूप में प्रसिद्ध उनके उस व्यक्तित्व को पाठक एक बारगी भूल जाता है जब वह तूस की आग पढ़ता है ।1 (गीतफ़रोश : संवेदाना और शिल्प, डॉ. स्मितामिश्र, पृ. 19) । निश्चय ही संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से  तूस की आग भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है। इस काव्य-संग्रह की कविताओं के माध्यम से भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य-चेतना का भी परिचय मिलता है। 


नयी कविता की प्रमुख विशेषताओं को बताते हुए आलोचक लक्ष्मीकांत वर्मा ने उकी पाँच मुख्य प्रवृत्तियों की चर्चा की है, पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ की स्वीकृति के साथ-साथ कवि अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है । दूसरी प्रवृत्ति व्यक्ति-अभिव्यक्ति की स्वच्छंद प्रवृत्ति है, जिसमें आत्मानुभूति की समस्त संवेदना को बिना किसी आग्रह के रखने की चेष्टा की जाती है । तीसरी प्रवृत्ति आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक दृष्टि की है, जिसमें वर्तमान कटुताओं और विषमताओं के प्रति कवि की व्यंग्यपूर्ण भानवाएं व्यक्त हुई हैं । चौथी प्रवृत्ति ऐसे कवियों की है, जिसमें रस और रोमांच के साथ-साथ आधुनिकता और समसामयिकता का प्रतिनिधित्व संपूर्ण रूप में व्यक्त हुआ है । पांचवी प्रवृत्ति उस चित्रमयता और अनुशासित शिल्प की भी है, जो आधुनिकता के संदर्भ में होते हुए भी समस्त यथार्थ को केवल विंबात्मक रूप में ग्रहण करता है । यथार्थवादी अहंवाद के कवियों में अज्ञेय, गजानन माधव मुक्तिबोध, कुँवर नारायण, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना इत्यादि की रचनाएं आती हैं । व्यक्ति-अभिव्यक्ति का प्रवृत्ति प्रभाकर माचवे और मदन वात्स्याययन में है, रस, रोमांच और यथार्थ का संकेत रूप गिरिजाकुमार माधुर, नेमिचंद्र जैन और धर्मवीर भारती में हैं । आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र और विजयदेवनारायण साही  की रचनाएं आती है । चित्रमयता और अनुशासित शिल्प के अंतर्गत जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ प्रस्तुत होती हैं ।2 (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृ. 191)
 
भवानी प्रसाद मिश्र आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक प्रवृत्ति के कवि तो हैं ही साथ ही लयात्मक-कविता के अद्भुत कवि भी हैं । उनकी कविता में शब्द के स्तर पर ही नहीं अर्थ के स्तर पर भी लयात्मकता है । यहाँ शब्द की लय का अभिप्राय कविता की छंदोबद्धता से है तो अर्थ की लय का अभिप्राय सही पाठ-विधि से है जो कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों को उभारने में काफी सहायक होती है । इस दृष्टि से भवानीप्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता कवि (1930) पंक्तियों को याद किया जा सकता है -

कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए ।
फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ ।
(कवि, गीतफ़रोश, पृ. 1)


भवानी प्रसाद मिश्र सरल और सहज शब्दों में गहरी बात व्यक्त करने वाले कवि हैं । उनकी काविता हमेशा पाठक से बात-चीत करती हुई प्रतीत होती है । उनके कहन में जो सादगी है वह गीतफ़रोश से लेकर तूस की आग तक सभी में बरकरार रही है । उनकी कविताओं में यथार्थ के चित्रण के साथ-साथ व्यंग्य एवं विडंबना का अंकन भी हुआ है । उदाहरण के लिए तूस की आग की निम्न कविता देखिए -

एक वसंत में
दो बैल
चर गये थे
मेरा गुलज़ार का गुलज़ार

मगर
ऐसा तो नहीं हुआ
कि मैंने
फिर नहीं रोपे
फूल-पौधे !
(एक वसंत में, तूस की आग, पृ. 70)

तूस की आग भवानी प्रसाद मिश्र के चिंतन का परिपक्व-फल है । इस पुस्तक का प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात अर्थात् 15 अगस्त, 1985 को हुआ । 1913 में जन्मे भवानी प्रसाद मिश्र की मृत्यु 20 फरवरी, 1985 को हुई थी । इससे पहले शरीर कविता और फसलें और फूल कविता-संग्रह 1984 में प्रकाशित हो चुके थे । भवाऩी प्रसाद मिश्र अपने जीवन के अंतिम दिनों में प्रकृति के विभिन्न रूपों का कारुणिक चित्रण किया है । इस दृष्टि से भी तूस की आग उल्लेखनीय है । इस संग्रह की रात की छांह में, उदास आकाश, न जंगल न मंगल, धरती की आंख, बूढ़ी अमराई, पहाड़ी-नदी, पत्ते आज आदि कविताओं में जिस प्रकार प्रकृति का यथार्थपरक चित्रण हुआ है, वह उनके आरंभिक कविताओँ में भी नहीं है ।

तूस की आग में कुल 70 कविताएँ हैं । इनमें लगभाग आधी कविताएँ केवल प्रकृति पर ही है । कई कविताओं में नदियाँ और पहाड़, खेत और मैदान, लता और पंछी, किरन और फूल का भिन्न-भिन्न प्रकार से चित्रण हुआ है । इस संग्रह में रात की छांह है, तो भोर का छोर भी है,  इसमें हमदम सूरज, तो प्यासा दिन उदास आकाश हैं तो और शामें भी  हैं। प्रकृति विभिन्न रूप का इतना वैविध्यपूर्ण अंकन भवानी प्रसाद मिश्र के अलावा केवल केदाननाथ अग्रवाल की कविताओं में ही देखने को मिलता है ।  तूस की आग की एक और विशेषता है - कथ्य की व्यापकता । इसमें ऐसी कई कविताएं हैं, जहाँ भवानी प्रसाद मिश्र भारतीय परंपरा के वैशिष्ट्य को आधुनिक संदर्भों के साथ जोड़ा है । वे कबीर, तुलसी, सूर, मीराँ ही नहीं शंकराचार्य के चिंतन को भी नये संदर्भों से जोड़ कर उनका प्रत्याख्यान करते हैं ।

घर में तो कलह है
घर के बाहर है
हर पाने लाय चीज़
अब समझ में आ रहा है
कहना शंकराचार्य का
जिसने घर छोड़ा उसने डर छोड़ा
और छुड़ाया डर दूसरों का !
( घरे बाहिरे, तूस की आग, पृ. 106-107)

तूस की आग में भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं जहाँ भारतीय परंपरा का बखान करती ही वहीं अपने युग के सत्य और यथार्थ को भी उद्घाटित करती हैं । ऐसा ही एक अहम सवाल है जल, जंगल ज़मीन का । भवानी प्रसाद मिश्र दिनोंदिन घटते जंगलों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते हैं । वे मानते हैं कि जंगलों का नष्ट होना न केवल पर्यावरण के लिए बल्कि मानव-सभ्यता एवं संस्कृति के लिए भी अंमगलकारी है । जंगल को नष्ट होते देख उनका दुखी मन कहता है -

नगाड़े
और नाच
और रात
कब से नहीं
सुने देखे
देखना-सुनना हो
तो कहां जायें
अब कहां है
जंगल में मंगल
बल्कि कहो
बल्कि कहो
वहां है जंगल
कहाँ है मंगल
(न जंगल न मंगल, तूस की आग पृ. 64)

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी वाद सं बंधी कविता नहीं है । उनकी कविता आम-आदमी की कविता है । उनकी कविता मज़दूर-किसान की कविता है, शब्द और श्रम की कविता है । भवानी प्रसाद मिश्र की कविता आम-आदमी के नाम पर नारेबाजी करने वाली कविता नहीं है, बल्कि आम आदमी की चिंता को उन्हीं के शब्दों में बयां करती मानव-मूल्य की कविता है ।

किसकी बात करें
कवि की
किसान की
शब्द की श्रम की

या पैसे की बाज़ार की
राजनीति की चालाकी की
सरासर झूठ की
ड़ंड़े के बल पर कराये जा रहे
श्रम की
चुनना मुझे हैं

पहली बात प्रतिक्रियावाद
कहलाएगी
दूसरी विज्ञानवाद  !
(विकल्प, तूस की आग, पृ. 63)

नदियाँ हमारे जीवन एवं संस्कृति का आधार होती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र इस बात को बड़ी गंभीरता से लेते हैं । और नर्मदा नदी के साथ तो भवानी प्रसाद मिश्र का घनिष्ट संबंध भी रहा है । नर्मदा नदी, जिसके समीप बसे गाँव टिगरिया में भवानी प्रसाद जी का जन्म हुआ था, सदा उनके प्रेरणा एवं शक्ति का स्रोत रही है । भवानी प्रसाद मिश्र ने कई कविताएँ नर्मदा नदी पर न्यौछावर की हैं ।  तूस के आग में भी नर्मदा नदी पर उनकी कुछ कविताएं हैं  ।

मैंने एक दिन
चुपचाप देर तक बैठे-बैठे
नर्मदा के किनारे
जाना कि
नदियों का जन्म
रात में हुआ है

आर प्रकाश होते-होते  तक
वे बह कर चली गयीं
वनों से होकर
मैदानों तक
वे रात  में भी चलीं,
और दिन को भी जारी रखीं
उन्होंने अपनी यात्रा
(एक दिन जाना, तूस की आग पृ 46)

भवानी प्रसाद मिश्र भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के कवि हैं । उनकी कविता भारत की सांस्कृतिक-चेतना का बोध कराती है । मानवता का संदेश देती भारतीय संस्कृति में ऐसे कई विराज हैं, जिन्हें भवानी प्रसाद मिश्र हर मनुष्य को करके देखना की अनुशंसा करते हैं । उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियाँ देखिए -

लेकर जल
मंजे चमकते लोटे में
अतिथि के पांव घुलाओं
लेकर आदर से उसे अपने आगे-आगे
स्वच्छ आसन पर बैठाओं
और फिल पिलाओं उसे ठंड़ा जल
बने तो हल्की-सी सुगंध
या मिठास मिलाकर उसमें
अपने मन की
फिर पूछो कुशल प्रश्न
पूछों केसे आये
     (कर के देखना चाहिए, तूस की आग, पृ. 33)

प्रायः भवानी प्रसाद मिश्र को गाँधीवादी कवि कहा जाता है । क्योंकि उनकी कई कविताओं के मूल में गाँधीवाद चिंतन हैं । दूसरा कारण यह भी है कि उन्होंने गांधी-दर्शन के आधार पर गांधी पंचशती की रचना की, गाँधी वाङ्ग्मय का संपादन भी किया और कविता से बाहर, अपने निजी जीवन में भी गाँधीवादी जीवन-शैली अपनाया ।  जिसके चलते कई आलोचकों एवं साहित्यकारों ने उन्हें गांधीवादी कवि घोषित कर दिया है । इसमे दो राय नहीं कि भवानी प्रसाद मिश्र के आरंभिक काविताओं में गांधीवादी-चिंतन का प्रभाव है । किंतु उनका संपूर्ण साहित्य गाँधीवादी साहित्य है, यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता । कम से कम आपातकाल के दौरान लिखी त्रिकाल संध्या की कविताएं और उनके बाद के समय में लिखी कविताओं को देख कर तो बिल्कुल ही नहीं । हाँ, उनकी कविताओं को मानवतावादी कविताएं ज़रूर कहा जा सकता है । क्योंकि उनकी कई कविताओं में गाँधीवादी आदर्श नहीं है, बल्कि ये यथार्थ की तीखी चेतना और मनुष्य के बौद्धिक चिंतन व संवेदाऩाओं से अनुप्राणित हैं ।  इस दृष्टि से भी तूस की आग महत्वपूर्ण है । तूस का आग को पढ़ते हुए कभी-कभी यह आभास होता है कि गाँधीवादी विचारों के प्रति भवानी प्रसाद मिश्र जी का जो अनुराग था, वह आज़ादी के बाद देश में व्याप्त परिस्थियों में तूस आग की भाँति जलते हुए नज़र आता है ।

जैसे फैलती है जाती है
लगभग बिना अनुमान दिये
तूस की आग
ऐसे उतर रहा है
मेरे भीतर-भीतर
कोई एक जलने और
जलाने वाला तत्व
जिसे मैंने अनुराग माना है
क्योंकि इतना जो जाना है मैंने 
कि मेरे भीतर
उतर नहीं सकता
ऐसी अलक्ष्य गति से
ऊष्मा देता हुआ धीरे-धीरे
समूचे मेरे अस्तित्व को
दूसरा तत्व
(तूस की आग, पृ. 9)

डॉ. जे. आत्माराम

हिन्दी प्राध्यापक, हिन्दी विभाग 

हैदराबाद विश्वविद्यालय
केन्द्रीय विश्वविद्यालय डॉ.घ.
गच्चीबावली, हैदराबाद- 500046 (आं.प्र.)
दूरभाष : 9440947501 (मोबाइल)
ई-मेल:atmaram.hcu@gmail.com
इस प्रकार पचास-बावन वर्ष के अपने साहित्यिक-जीवन में भवानी प्रसाद मिश्र ने हजारों कविताएँ लिखीं हैं और हिन्दी साहित्य को कई महत्वपूर्ण पुस्तकों से नवाजा भी है, जिनमें उनका पहला काव्य-संग्रह गीत-फरोश प्रकृति-प्रिय उनके व्यक्तित्व को उजागर करता है तो उनका अंतिम कविता संग्रह तूस की आग उनके समस्त जीवन के चिंतन के सार को उद्घाटित करता है । तूस की आग में उनका जीवन-दर्शन है, जिसे उन्होंने अपनाया । तूस की आग में उस प्रकृति चित्रण है, जिसे वे जीवनभर निहारते रहे । तूस की आग में भारतीय संस्कृति एवं परंपरा की बखान भी है, जिसके प्रति उनके मन में अटूट आस्था है । इस प्रकार तूस की आग अनेक कारणों से भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है । 

***
संदर्भ-पुस्तकें
1. गीतफ़रोश : संवेदाना और शिल्प, डॉ. स्मितामिश्र, पृ. 19
2. हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृ. 191 .
3. भवानी प्रसाद मिश्र रचनावली भाग -1, संपादक विजयबहादुर सिंह
4. तूस की आग , भवानी प्रसाद मिश्र
5. भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य-संसाह, कृष्णदत्त पालीवाल

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