साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
चिंतन के केंद्र में व्यक्ति और समाज के आने से आधुनिकता की शुरुआत मानी जाती
है| इनके अन्तःसम्बन्ध से आधुनिक काल की अधिकांश विचार प्रणालियाँ और शासन
व्यवस्थाएं प्रकाश में आईं| व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध सदैव एक से नहीं रहे| ये
सम्बन्ध कभी विरोधपूर्ण तो कभी सहयोगी रहे हैं| लोकतंत्र व्यक्ति और समाज के
सहयोगपूर्ण सम्बन्ध का लक्ष्य लेकर प्रकाश में आया| लोकतंत्र को सामान्यतः
राजतंत्र की विलोम शासन–प्रणाली के रूप में जाना जाता है| शासन-प्रणाली के
अतिरिक्त यह एक जीवन-दर्शन और विचार-प्रणाली भी है|
‘लोकतंत्र’ को परिभाषित करने के क्रम में सबसे
पहले जो विचार ज़हन में आता है, वह है अब्राहिम लिंकन का यह वाक्य –‘लोकतंत्र जनता
का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन प्रणाली है|’[1]
इसका मतलब हुआ वह शासन व्यवस्था जो जनता के लिए हो ,जनता ने ख़ुद जिसका निर्माण
किया हो और जो पूर्णतः जनता के हितों के लिए हो, लोकतंत्र कहलाती है |लोकतंत्र में
प्रमुख है ‘लोक’ और ‘लोक का अर्थ है-जनसामान्य|’[2]
‘लोकतंत्र को डेमोक्रेसी का पर्याय माना जाता है ’[3]और
‘डेमोक्रेसी में भी ‘डेमो’ का अर्थ जनता है|’[4]
इसलिए लोकतंत्र का सामान्य और अनिवार्य अर्थ हुआ –‘वह शासन तंत्र जिसमें जनसामान्य
की भागीदारी हो और जो जनता की ओर उन्मुख शासन
प्रणाली हो|’परन्तु लोकतंत्र का अर्थ केवल यहीं तक सीमित नहीं है| आगे चलकर
बुद्धिजीवियों ने इसका अर्थ -विस्तार किया| जेम्स बर्नहेम ने ‘लोकतंत्र’ को
परिभाषित करते हुए कहा है- “एक तो इसका प्रयोग सरकार के एक विशिष्ट रूप के लिए, पूंजीवादी संसदीय शासन
प्रणाली के रूप में होता है|...................दूसरा लोकतंत्र शब्द का प्रयोग
कुछ ठोस जनतांत्रिक अधिकारों के लिए होता है|”[5]
‘वहीं आम आदमी लोकतंत्र का
अर्थ एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था से समझता है,जिसमें हर व्यक्ति को एक निश्चित उम्र
के बाद वोट डालने का समान अधिकार हो ,जहाँ ईमानदारी से नियमित चुनाव हों|’[6] इससे यह
स्पष्ट हो जाता है कि ‘लोकतंत्र’ किसी वर्ग विशेष की सरकार न होकर एक लोक सरकार है| शासन का वह रूप जिसमें अपने शासकों का चुनाव जनता करती है|
लोकतंत्र
का जन्म एक आधुनिक घटना है,परन्तु इसके प्रकाश में आने से पहले भी किसी न किसी रूप
में यह मौजूद रही है| “Democracy is Established in Athens after the
overthrow of autocracy.”[7] (एथेंस में राजतन्त्र को हटाकर लोकतंत्र की
स्थापना ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुई|)वर्तमान स्थिति में पहुचनें की लोकतंत्र की एक सुदीर्घ विकास यात्रा रही है| 14
वीं-15वीं सदी में यूरोप में वैयक्तिक अधिकारों की मांग और 1789 की फ्रांसिसी
क्रांति से स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व जैसे तीन मूल्यों की स्थापना से होते
हुए, 1950 में संविधान की स्थापना के साथ भारत में स्थापित हुआ| जिसके तहत व्यस्क
मताधिकार दिया गया| साथ ही सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति,
धर्म की स्वतंत्रता देने के साथ-साथ प्रतिष्ठा और अवसर की समानता भी प्रदान करने
का संकल्प लिया गया|
स्वतंत्रता ,समानता
और बंधुत्व इन तीन संकल्पनाओं को लेकर ‘लोकतंत्र’ भारत में आया| ऐसी शासन प्रणाली
की इच्छा व्यक्त हुई जो अपनी कार्य-पद्धति से गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जाति,
धर्म, लिंग और भाषा के आधार पर व्याप्त सामाजिक भेदभाव, समाज में व्यापक रूप से
फैले भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानताओं को दूर करने के साथ-साथ विधि के शासन से न्याय
आधारित समाज की स्थापना करें| लेकिन ये बातें वर्तमान परिदृश्य में कहीं साकार होती
नहीं दिखती| आज ‘लोकतंत्र’ एक मोहक शब्द लगता है| इसकी मोहकता के कारण ही इसे हर
मर्ज़ की दवा मान लिया जाता है| लोकतंत्र के आते ही मानों सभी विषमताएं और दुख
तुरंत ही दूर हो जाएगें| लेकिन प्रायः यह देखा गया है कि यह शब्द केवल नारा बनकर
रह गया है| इस सन्दर्भ में किशन पटनायक कहते हैं -“लोकतंत्र एक पहेली है-विशेषकर ‘भारत के लिए’|..................आज़ादी व लोकतंत्र को आधी से अधिक सदी गुज़र जाने के बाद भी
करोड़ों मनुष्य कंगाली और फटेहाली में जीते हैं|”[8] क्योंकि “लोकतंत्र भरतीय भारतीय समाज के अन्दर से निकले
किसी लोकप्रिय दबाव का परिणाम नहीं था| ना ही इसे जनसाधारण ने राज्य से जीता था|
लोकतंत्र तो ख़ास तरह के बुद्धिजीवी प्रभु वर्ग की राजनीतिक पसंद के कारण जनता को
प्राप्त हुआ|”[9]
‘लोकतंत्र’ के
साथ-साथ ‘विडम्बना’ शब्द को व्याख्यायित करना भी आवश्यक है| ‘ ‘विडम्बना’ का
कोशीय अर्थ है – नक़ल उतरना|’[10]इसे हम
छद्म व्यव्हार भी कह सकते हैं | प्रायः इस शब्द के प्रयोग के तीन स्तर हैं- पहला
वक्र उक्ति ,दूसरा छद्म व्यव्हार और तीसरा किसी बड़ी समस्या को भी विडम्बना कह सकते
हैं| डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘विडम्बना’ शब्द के सन्दर्भ में कहा है –“व्यंग्य के साथ एक और शब्द का प्रयोग आजकल बहुत
होता है –‘विडम्बना’| विडम्बना दो विपरीत स्थितियों की या केवल रूपगत समानता को
कहते हैं| वह नक़ल है| वस्तु भिन्न हो लेकिन रूप सामान हो तो विडम्बना होगी|”[11] इस प्रकार शासन प्रणाली और जीवन में लोकतंत्र
के नाम पर होने वाले छद्म व्यवहार को
‘लोकतंत्र की विडम्बना’ कह सकते हैं|
रघुवीर सहाय की
काव्य-यात्रा स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की विचार-यात्रा है| शासन-प्रणाली के
रूप में लगभग पांच दशक के लोकतंत्र की विकास-यात्रा हमें रघुवीर सहाय के कवि-कर्म
में देखने को मिल जाती है| इस यात्रा में प्रारम्भ से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक
लगभग आधी सदी का भारतीय जनमानस नज़र आता है| ‘दूसरा सप्तक’ के वक्तव्य में रघुवीर
सहाय कहते हैं- “शमशेर बहादुर का यह कहना मुझे बराबर याद रहेगा कि ज़िंदगी में तीन चीज़ों की बड़ी
ज़रूरत है, ऑक्सीजन, मार्क्सवाद और अपनी वह शक्ल जो हम जनता में देखते हैं|”[12]उनकी कविताएँ भारतीय लोकतंत्र से जुड़े आम आदमी
की आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों से बुनी गई हैं | आज़ादी के बाद लगभग दो दशक मोह और
आशावाद में डूबे दिखाई देते हैं| भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इसी आशावादिता के कारण
एक नए भारत, एक नए समाज और एक नई राजनीति का स्वप्न देख रहा था| इतिहासकार सुनील
खिलनानी अपनी पुस्तक ‘भारतनामा’ में इस युग के विषय में कहते हैं –“उस युग में लोकतंत्र और समाज-सुधार की ऊँची-ऊँची
बातें खूब की जाती थी और शासन-पद्धति के तौर पर उस समय का भारतीय लोकतंत्र एक
मिसाल था| संसदीय और दलीय कार्य विधियों का अनुपालन करने में बड़े गर्व का एहसास
किया जाता था|”[13] परन्तु यह आशावाद अधिक समय तक न रह सका|
इसीलिए रघुवीर सहाय ने अपनी कविता ‘एक अधेड़ भारतीय आत्मा’ में कहा है-
“बीस बरस बीत गए
लालसा मनुष्य की तिलतिल कर
मिट गयी |
X X
X X X
X X X
X
टूटते टूटते
जिस जगह आकर विश्वास हो
जायेगा कि
बीस साल धोखा दिया गया
वहीँ मुझसे फिर कहा जाएगा
इस स्थिति का जिम्मेदार वह
तंत्र और नेतृत्व था, जिसने आज़ादी के बाद सामाजिक आधारों को बदले बगैर ‘लोकतंत्र’
की कल्पना की थी | इस लोकतंत्र के हवाले से उसने जनता की मुक्ति और विकास का वायदा
किया था | लेकिन समय बीतने के साथ ही इस तंत्र के लोकतान्त्रिक दावों की कलई खुलती
गई और इन दावों का असत्य प्रकट होता गया-
“दूर....................
राजधानी से कोई क़स्बा दोपहर
बाद छटपटाता है,
एक फटा कोट,एक हिलती
चौकी,एक लालटेन
दोनों,बाप मिस्तरी और बीस
बरस का नरेन
दोनों पहले से जानते हैं
पेंच की मरी हुई चूड़ियाँ
कविता की इन पंक्तियों में
रघुवीर सहाय ‘मिस्तरी’ बाप और ‘बीस बरस के नरेन’ के माध्यम से स्वतंत्र भारत में
जी रहीं दो पीढ़ियों का मूल्यांकन कर रहे हैं, जो पेंच के कसने की मजबूरी में
विफलता झेल रहें हैं | मरे हुए पेंच यानी अन्दर से घिसे हुए पेंच को आप कहीं भी कसे
वह कसेगा नहीँ | लोकतंत्र और आज़ादी का ढांचा तो खड़ा किया गया परन्तु उस ढांचे को
कसने वाला पेंच घिसा हुआ साबित हुआ | तात्पर्य यह है कि आधुनिकता और प्रगति की
घोषणाएं तो हुई परन्तु उन्हें संभव करने के लिए जो तरीके निकाले गए उन्हें
मुसद्दीलाल की जमात ने नष्ट कर डाला | असफलता और निराशा की इस विडम्बना ने घुटन और
यातना का नया आयाम पैदा किया | एक असुरक्षा का भाव पैदा किया | ‘आत्महत्या के
विरुद्ध’ में कवि कहता है-
“अस्पताल में मरीज छोड़कर आ नहीं सकता तीमारदार
आज स्थिति यह है कि कोई तीमारदार अस्पताल में
अपने मरीज़ को छोड़ कर घर नहीं लौट सकता क्योंकि असुरक्षा के इस वातावरण में इसकी
पूरी सम्भावना है कि दूसरे दिन अस्पताल में मरीज़ मिले ही नहीं | संभव है, वह निजि
स्वार्थ के लिए गायब कर दिया जाए या फिर उसके अंग निकाल लिए जाएँ | लोकतंत्र की यह
विडम्बना केवल आरंभिक दौर की ही नहीं थी, बल्कि आज भी यह स्थिति ज्यों की त्यों
बनी हुई | लोकतंत्र का सर्जन करने वाला मतदाता निरंतर इस असुरक्षा को महसूस करता
है | यह असुरक्षा साधनों के आभाव की असुरक्षा है | ‘कोई एक और मतदाता’ कविता में
रघुवीर सहाय कहते हैं-
“जब शाम होती है तब ख़त्म होता है मेरा काम
जब काम ख़त्म होता है तब शाम
ख़त्म होती है
रात तक दम तोड़ देता है
परिवार
इस विडम्बना ने सत्ता और
व्यक्ति के बीच एक तनाव पैदा किया जिसे रघुवीर सहाय ने महसूस किया | एक
साक्षात्कार में रघुवीर सहाय कहते हैं- “हम (सत्ता को)अपनी आज़ादी का एक हिस्सा इसलिए देते हैं कि वह
समाज का और राज्य का प्रबंध करे,उस हद तक सत्ता के और हमारे बीच एक रिश्ता बनता है
| वह रिश्ता तनाव का रिश्ता होगा | रचना इस तनाव का प्रतिनिधित्व करती है |”[18]
रघुवीर सहाय सत्ता की
राजनीति, नेताओं के छल-छद्म, भ्रष्टाचार को प्रकट करने वाले कवि रहें हैं | देश की
सुव्यवस्था एवं विकास के लिए लोकतंत्रात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया गया, लेकिन आज
लोकतंत्र राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बनकर रह गया है | भ्रष्ट राजनीति ने ‘लोकतंत्र’ में से ‘लोक’ को कहीं अमूर्त और अदृश्य अवधारणा
के रूप में बदल दिया है | ‘लोक’ जो कि लोकतंत्र का आधार होता है उससे उसकी शक्ल, उसका
अस्तित्व तथा उसका स्वर छीन लिया जाता है | इससे जनता भूख, अशिक्षा, रोगग्रस्त, निर्धनता
के बीच अपने आप को पाती है | देश की वर्तमान स्थिति को देखकर रघुवीर सहाय कहते है-
“लोकतंत्र
मोटे, बहुत मोटे तौर पर लोकतंत्र
ने हमें इंसान की शानदार जिंदगी और कुत्ते की मौत के बीच चाँप लिया है |”[19] इस बीच की स्थिति में रघुवीर सहाय एक तिलमिलाहट
अनुभव करते हैं | यह तिलमिलाहट केवल सत्ता के प्रति नहीं बल्कि उन तमाम लोगों के
प्रति भी है जो कुढ़ते हुए चुप रह जाती हैं परन्तु उचित कदम नहीं उठाते | ‘सभी
लुजलुजे हैं’ कविता में वे कहते हैं-
“खौखियाते हैं, किंकिंयाते हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लू में उल्लू हो जाते
हैं
मिनमिनाते हैं, कुडकुड़ाते
हैं............
झांय झांय करते हैं
रिरियाते हैं
X X X X X
जनता की ऐसी स्थिति इसलिए है-
“सभी लुजलुजे हैं,थुल थुल
हैं,
लिब लिब हैं,पिल पिल हैं,
लोकतंत्र में ‘लोक’ की
स्थिति यह हो गई है कि वह सब कुछ समझ कर भी अपने ही तंत्र में अपनी आवाज़ नहीं उठा
पाता | गली मुहल्लों में खड़े होकर बुराई तो कर सकता है, तू-तू, मैं-मैं तो कर सकता
है पर एक सशक्त आवाज़ में नहीं, रुलाई और रिरियाहट में |
लोकतंत्र का आज स्वरुप ही
बदल गया है | आज मध्यमवर्ग को सपने दिखाए जा रहें हैं| ‘नैनो गाड़ी उसके बजट में
उपलब्ध कराई जा रही है |’[22] वहीँ
दूसरी ओर लोग ठण्ड, गरीबी, भुखमरी से मर रहे हैं | इस वर्तमान व्यवस्था से रघुवीर
सहाय भी असहमति प्रकट करते हुए कहते हैं- “मैं मानता हूँ कि अगर अपने देश
के सन्दर्भ में देखें तो हमारे
यहाँ शक्ति का जो ढांचा बना हुआ है.....................ऊपर से नीचे तक इस सब को
यानी यह जो पूरी व्यवस्था है, इस सब को हम बिल्कुल बेकार और नाकामयाब मानते
हैं-यानी एक उद्देश्य के लिए नाकामयाब | उद्देश्य वही है-समता और मनुष्य के बीच
गैरबराबरी को मिटाने के लिए यह व्यवस्था बिल्कुल बेकार है |”[23]
लोकतंत्र में जहाँ ज़ोर देकर नागरिकों में समानता
की बात कही जाती है, वहीँ लोकतंत्र की यह विडम्बना बन जाती है कि वह नागरिकों को
इस समता का एहसास भी नहीं करवा पाती | इसीलिए ‘बूढ़े’ कविता में कवि कहते हैं-
“लोकतंत्र का मज़ाक बनते
देख रहे हैं, बेहद बूढ़े
कुछ कम बूढ़े कहें कि क्या
यह लोकतंत्र है ?
X X X X X
इनसे भी कम बूढों को नफ़रत है लोकतंत्र से
आज एक प्रश्नचिह्न लग गया है कि
क्या यह लोकतंत्र है ?क्योंकि देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था और मूल्य नष्ट होते
जा रहे हैं | लोकतंत्र का मखौल बनते देखते बूढों से लेकर लोकतंत्र से घृणा और फिर
आपस में ही घृणा करते लोगों के माध्यम से रघुवीर सहाय ने आज़ादी से लेकर हमारे
वर्तमान हालात को इन पंक्तियों में समेटा है |
जनता की समस्याओं को दूर
किए बिना कोई भी लोकतंत्र वास्तविक लोकतंत्र नहीं बन सकता और यह विडम्बना ही है कि
भूखी जनता की कराह सुनने वाले कानों की कमी होती जा रही है | आज इस लोकतंत्र में
‘राशन की चीनी खाकर चार बच्चे मर जाते हैं |’[25]
गरीब परिवार आए दिन ऐसी घटनाओं का शिकार हो रहा है | यह कैसा लोकतंत्र है ?
लोकतंत्र का मतलब है- बहुमत का शासन | यहाँ गरीबों का बहुमत है, इसलिए लोकतंत्र का
मतलब हुआ- गरीबों का शासन | परन्तु असलियत इसके विपरीत है | आज स्थिति ऐसी है कि
समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को जीवन बसर करने के लिए काफी कम साधन मिलते हैं
| उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने
में भी मुश्किलें आती हैं | आए दिन अखबारों में ख़बरें पढ़ी जा सकती हैं- ‘ठण्ड से
100 की मौत’[26] या भूख
से मरने वालों की संख्या बढ़ी | इन ख़बरों का आना आम बात बन गयी है | रघुवीर सहाय भी
अपने पत्रकारिता के अनुभव से कविता में खबर देते दिखाई देते हैं | उन्होंने समाज
के निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय तबके को ‘दिनमान’ से जोड़ा | पत्रकार होने के
कारण उन्हें राजनीति, समाज, खेल आदि सभी क्षेत्रों की जानकारी थी | अभावों में
मरते ‘जन’ को उन्होंने नज़दीक से देखा | इसलिए उन्होंने ख़बरों में कविता और
लोकतंत्र में तिल-तिल मरते ‘लोक’ को उजागर किया | ‘ठण्ड से मृत्यु’ कविता में कवि
इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
“फिर जाड़ा आया,फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू
से मरने की ख़बर आई |
X X X X X
वे खड़े रहते हैं तब नहीं
दिखते
क्योंकि फिर वह मुद्दा बन
जाती है | समय रहते तो जरूरतों को पूरा नहीं किया जाता मौत की ख़बरें आते ही
राजनीति में हलचल मच जाती है | रघुवीर सहाय मानते हैं कि इस देश में वास्तविक लोकतंत्र तभी आएगा जब किसी को भूखे पेट
सोने की ज़रूरत नहीं रहेगी | क्योंकि भूख, चिंतन की हत्या कर, चिंतन रहित समाज
बनाती है और इस चिंतन रहित समाज में प्रतिरोध नहीं हो सकता | जिससे सत्ता व्यवस्था
का एक छद्म शांति से निर्मित हो जाता है | जनता को मात्र भूख मिटाने के लिए रोटी
ही नहीं चाहिए बल्कि रोटी पैदा करने का अधिकार भी चाहिए | क्योंकि “उत्पादन के साधनों पर मालिकों का कब्ज़ा मजदूर वर्ग के लिए आर्थिक समानता
और शोषण से मुक्ति की सबसे बड़ी रुकावट है |”[28] रघुवीर सहाय मानते हैं कि “रोटी और रोटी पैदा करने
का अधिकार दो अलग-अलग चीज़े नहीं हैं | रोटी पैदा करने के साधनों पर अधिकार जीवन में पूरा हिस्सा लेने का राजनीतिक
अधिकार है और लोकतंत्र उस अधिकार पर अधिकार रखने की आज़ादी का नाम है |”[29] परन्तु यहाँ अधिकार तो मिलता है, रोटी भी दी
जाती है लेकिन गुलामी के बदले | ‘गुलामी’ कविता में कवि कहता है-
“अपनों की गुलामी
विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
और विदेशियों की गुलामी वे
अपने करते हों
जिनकी गुलामी तुम करते हो
तो वह भी क्या बुरी है
यह विडम्बना ही है कि जनता को इतना
भूखा रखा जा रहा है कि वह सोच भी नहीं पाए | ये जनप्रतिनिधि लोकतंत्र के प्रहरी
हैं लेकिन ये कैसे प्रहरी हैं जो सुरक्षा के बजाय शोषण कर रहे हैं | यह विडम्बना ही
है कि जनप्रतिनिधि नायक के रूप में नहीं खलनायक के रूप में सामने आते हैं | इस
संदर्भ में रजनी कोठारी ने कहा है- “कहने के लिए लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन माना जाता है
,लेकिन असलियत में वह अभिजनों का शासन साबित होता है |”[31] यह स्थिति करनी और कथनी के अंतर के कारण घटित
हुई है | बाहरी रूप और भीतरी वास्तविकता के इस अंतर को उभारते हुए रघुवीर सहाय ने
इस वर्तमान व्यवस्था के मनुष्य विरोधी दुहरे चरित्र को नंगा करने की लगातार कोशिश
की है | लोकतंत्र के नाम पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं और उपकरणों को भ्रष्ट करने वाले
जनप्रतिनिधियों के अश्लील चरित्र का खोखलापन उघाड़ते हुए ‘मेरा प्रतिनिधि’ कविता
में वे कहते हैं-
“सिंहासन ऊँचा
है,सभाध्यक्ष छोटा है,
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुंह बाएं बैठे लड़के सरकार
के
लूले काने बहरे विविध
प्रकार के
X X X X X
हंसती है सभा
तोंद मटका ठठाकर
अकेले अपराजित सदस्य की
व्यथा पर
फिर मेरी मृत्यु से डरकर
चिंचिंयाकर कहती है
“जिन लोगों के हाथ में
सत्ता है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और मुल्क पर हुकूमत करते हैं, वे
लोकतंत्र के अभिभावक नहीं रह गए हैं |”[33] संसद लोकतंत्र को कायम रखने की प्रतिनिधि
संस्था है, परन्तु भारत ज्यादातर गैरजिम्मेदार और भ्रष्टाचारी प्रतिनिधियों से भरा
है | स्वभावतः अधिकतम प्रतिनिधि शोषक, शासक दल के हैं, जिनके पूर्वग्रह और
मूर्खताओं के बीच जनता के सही प्रतिनिधि की आवाज़ दबा दी जाती है | क्योंकि यहाँ-
“संसद एक मंदिर है, जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं जा सकता,
दूधपिए मुंह पोंछे आ बैठे
जीवनदानी गोंद
दानी सदस्य तोंद सम्मुख धर
ये हैं हमारे जनप्रतिनिधि,
जनता ने ही इन्हें चुना है | चुनाव के अब वो मायने ही नहीं रह गए जो होने चाहिए |
इस सन्दर्भ में कृष्ण कुमार ने कहा है- “सत्य से निरंतर भाग रहे समाज में चुनाव अब इन्हीं दो विकल्पों के बीच रह गया
है कि सत्य को छिपा लिया जाए या बदल दिया जाए |”[35]
भले ही इन्हें हमने चुना है, लेकिन नेता से पहले ये नागरिक हैं, फिर नागरिक
नागरिक के बीच इतना फ़र्क क्यों ? क्यों ये जनप्रतिनिधि जनता का ही खून चूसने पर
तुले रहते हैं ? इन्हीं जनप्रतिनिधियों के राज में ‘रामदास’ जैसे आदमी का दिन दहाड़े क़त्ल कर
दिया जाता है |
‘रामदास’ कविता में लोगों के झुण्ड की जो निस्संगता है, वह
लोकतंत्र के चरित्र को सामने लाती है | ऐसी संस्कृति पैदा हो रही है जहाँ नाम
पुकारकर हत्या कर दी जाती है | ‘रामदास’ जानता था, उसकी हत्या होगी फिर भी वह अपने
साथ किसी को नहीं लेता | निहत्थे और मौन लोगों ने एक स्तब्धता पैदा कर रखी है | इस
कविता में सारी भीड़ मरे हुए लोगों की-सी भीड़ लगती है | न कोई संवेदना, न कोई
प्रतिक्रिया सिर्फ़ कह देना- “कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी |”[36] रघुवीर सहाय ने इस कविता के माध्यम से एक मरते
हुए समाज के लक्षणों की ओर संकेत किया है | यहाँ एक विराट भीड़ भरा समाज दिखाई देता
है, जिसकी जानकारी में और जिसकी शर्तों के बीच बिल्कुल आँखों के सामने रामदास की
हत्या की जाती है |
इस
हिंस्र लोकतंत्र में औरतों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है | लोकतंत्र में जहाँ
नारियों की समानता की बात कही जाती है वहीँ वह अपने आपको सबसे ज़्यादा असुरक्षित
महसूस करती है | महिलाओं के साथ गरिमा और समानता का व्यवहार लोकतंत्र की ज़रूरी
शर्त है पर इसका निर्वाह कितना हो पाता है, यह तत्कालीन सन्दर्भ में अच्छी तरह देखा
जा सकता है- ‘16 दिसम्बर 2012 को हुआ निर्भय कांड’ लोकतंत्र में स्त्रियों की
स्थिति को अच्छी तरह स्पष्ट करता है | ‘31 दिसम्बर 2008 को नववर्ष का जश्न मनाकर
लौटती मुंबई की दो युवतियों के साथ हुआ हादसा’[37]
भी इसी कड़ी का अहम् हिस्सा है | आये दिन सामने आने वाली ये घटनाएँ स्त्रियों के
सन्दर्भ में गरिमा और समानता जैसे मूल्यों को अंगूठा दिखाती नज़र आती हैं | जहाँ
महिलाओं की गरिमा की बात बड़े-बड़े मंचों पर की जाती है, वहीँ वह 40-45 लोगों की भीड़
का शिकार हो जाती है | विरोधों और उठापटक
के बाद मामला ठंडा हो जाता है | रघुवीर सहाय ने ‘नारी’ कविता में लोकतंत्र में
स्त्रियों की स्थिति को कुछ इस प्रकार प्रकट किया है-
“नारी बेचारी है
पुरुष की मारी है
तन से क्षुधित है
मन से मुदित है
लपक कर झपककर
1954 में लिखी गई इस कविता
की वास्तविकता आज भी दिखाई देती है | आज भी तमाम विरोधों के बाद अंत में चित्त हो जाती है | उसकी
आवाज़ दबा दी जाती है | इसके साथ ही-
“कई कोठरियां थी कतार में
उनमें से किसी में एक औरत
ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना
सुनाई दिया
उसी रोने से हमें जाननी थी
एक पूरी कथा
यह वास्तविकता है लोकतंत्र
में ‘औरत की जिंदगी’ की | ऐसे लोकतंत्र में भला बच्चे कैसे सुरक्षित रहें | रघुवीर
सहाय को बच्चों के यातनामय वर्तमान के साथ ही उनके डरावने भविष्य की भी चिंता है |
‘बड़ी हो रही लड़की’ कविता में रघुवीर सहाय इस चिंता को व्यक्त करते हुए करते हुए
कहते हैं-
“वह बड़ी होगी
डरी और दुबली रहेगी
और मैं न होऊंगा
X X X X
एक
और ही युग होगा
जिसमें ताकत ही ताकत होगी
भविष्य के प्रति उनकी यह
चिंता अकारण नहीं थी | रघुवीर सहाय ये जानते थे कि जो लोकतंत्र रोटी, सुरक्षा, स्वतंत्रता
जैसी बुनियादी चीज़े मुहैय्या नहीं करा सकता वह देश के भविष्य का क्या सोचेगा ?
स्वाधीन भारत निर्धनता, शोषण,
भ्रष्टाचार, बेकारी और असुरक्षा से घिरा हुआ है | इन सब से घिरा हुआ आदमी तिल-तिल
कर मरता है और इन सम्स्याओं को समझने सुलझाने के बदले सत्ता से आम आदमी को क्या
मिलता है? केवल हंसी और उपहास | सत्ता पक्ष वास्तविक समस्याओं की ही हंसी नहीं
उड़ाता अपितु उन्हें हंसी में उड़ाकर निरर्थक, अदृश्य और अमूर्त बना देता है | ‘आपकी
हंसी’ कविता में रघुवीर सहाय कहते हैं-
“निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हँसे
आम आदमी के जीवन को बद से
बदतर बनाया जा रहा है | ‘लोकतंत्र की मृत्यु’ केवल एक हास्यास्पद वाक्य बनकर रह
गया है | लोकतंत्र और उसके मूल्यों की हत्या करने के बाद राजनेता की हंसी भयावह बन
जाती है | दमन और उत्पीड़न की ताकत से लैस अधिनायक के सामने निहत्थे आम आदमी में
राजनेता की यह क्रूर हंसी सिहरन पैदा कर देती है, क्योंकि अकेली सोच, अकेले विचार
या अकेली आवाज़ को हमेशा ही दबा दिया जाता है | भाषा का एक ऐसा रूप निर्मित किया
जाता है, जो शासन के हित में हो |
जिस तरह जनता के लिए रोटी
आवश्यक है उसी तरह भाषा भी उसके लिए अनिवार्य है | हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा
माना गया | हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित तो किया गया लेकिन उसे
वास्तव में राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया | इससे हिंदी का वह रूप विकसित हुआ जो
सिर्फ़ अंग्रेजी की स्थानापन्न भाषा बनकर रह गया | रघुवीर सहाय ने इस स्थिति पर कहा
है-
“हमारी हिंदी एक दुहाजू
की नई बीवी है
बहुत बोलने वाली, बहुत खाने
वाली, बहुत सोने वाली
X X X X X X X
हमारी हिंदी सुहागिन है,
सती है, खुश है
उसकी साध यही है कि ख़सम से
पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले
ख़सम उससे बचे
इस लोकतंत्र में भाषा की
विडम्बना है कि वह वर्तमान अंग्रेजी की सिर्फ़ स्थानापन्न बनकर राष्ट्रभाषा घोषित
हुई | दोहरे चरित्र वाले चालाक सत्ताधारी ने हिंदी के उस रूप को प्रतिष्ठित करने
की कोशिश की है, जो जनता के बीच निर्मित नहीं हुआ था | स्वभावतः उन्होंने ऐसी भाषा
गढ़ी जो जनता की हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेजी के स्थान पर प्रयोग की जाने वाली हिंदी
थी | अतः जनता को जब तक अपने जीवन की भाषा में अपने अधिकारों के लिए संवाद का अवसर
नहीं मिलेगा तब तक राष्ट्रभाषा बनाने का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं होगा |
रघुवीर सहाय का लोकतंत्र
कोई प्रसन्न संसार नहीं है | उनकी कविता में एक हिंस्र आहट सुनाई देती है | यह
हिंस्र आहट गोली बारूद की अनुगूंज से भिन्न है | यह एक स्वाधीन मस्तिष्क और मनुष्य
को पराधीन बनाने की निशब्द हिंसा है | कभी रामदास के साथ शारीरिक हिंसा घटती है
|उसे अपनी हत्या की पूर्व सूचना है लेकिन वह अपनी रक्षा के लिए इस लोकतंत्र में कुछ
भी नहीं कर पाता | तो कभी जनप्रतिनिधियों की हंसी भी एक हिंसा का रूप धारण कर लेती
है | इस स्थिति से मुक्ति के लिए समाज को बदलना होगा | रघुवीर सहाय इस सन्दर्भ में
कहते है- “विराट भीड़ों के समाज को बदलने का सिर्फ़ एक साधन है, वह है
उस सत्ता का उपयोग जो समुदाय का एक-एक व्यक्ति अलग-अलग निर्णयों से कुछ हाथों में
देता है- सरकार जो राज्य की प्रतिनिधि है, जो समाज की प्रतिनिधि है, अधूरी, टूटी, नकली, मिलावटी, मूर्ख
जैसी भी वह हो सकती है, अकेला साधन भीड़ के हाथ में है |”[43] रघुवीर सहाय की कविताओं में लोकतंत्र की
विडम्बना हर स्तर पर प्रकट हुई है | उन्होंने अपने समाज और राजनीति से पाया कि
तत्कालीन परिस्थितियों में लोकतंत्र मात्र संज्ञा बनकर रह गया है जिसका कोई
सर्वनाम नहीं है | जबकि लोकतंत्र की उचित उपयोगिता उसके विशेषण में है | व्याकरण
के आभाव में लोकतंत्र का पूरा वाक्य ही बिखर गया है | परन्तु कवि भी इसका समाधान
प्रकट करने के बजाय राजनीति करने लगे हैं
| जब समाज का व्याख्याता कवि अपनी अभिव्यक्ति को समस्या प्रधान बना लेता है तो
समाधान के लिए आम जनता कहाँ जाए | दूसरों को कोसना आसन है परन्तु कवि का आम आदमी
बनकर समस्याओं का समाधान ढूंढना बड़ा मुश्किल है इसीलिए कवि केवल समस्याओं को सामने
रखकर अपने कर्म की इति श्री मान लेता है | इस विडंबना से मुक्ति का एक समाधान अपने
कर्तव्यों के पालन का एहसास है, जिसे न केवल कवि, नेता या जनता को निभाना है बल्कि
हर उस व्यक्ति को निभाना है जो सत्ता की क्रूरता का शिकार है | तभी लोकतंत्र अपनी
परिभाषा पर खरा उतर पायेगा और तभी उसकी विडम्बना दूर हो पायेगी |
सन्दर्भ:
[1] राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा-ओम प्रकाश
गाबा-मयूर पेपर बैक्स-संस्करण-2001-पृ.सं.-221
[2] हिंदी साहित्य कोश,भाग-1-ज्ञान मंडल लिमिटेड
वाराणसी-पुनर्मुद्रित संस्करण 2000- पृ.सं.-591
[3] हिंदी साहित्य कोश,भाग-1-ज्ञान मंडल लिमिटेड
वाराणसी-पुनर्मुद्रित संस्करण 2000- पृ.सं.-256
[4] हिंदी साहित्य कोश,भाग-1-ज्ञान मंडल लिमिटेड
वाराणसी-पुनर्मुद्रित संस्करण 2000- पृ.सं.-256
[5] The People’s front,The New Betrayal –James
Burnhem-Pioneer Publisher’s,New York-1937-P.G.-34
[6] आधुनिक राजनीति के
सिद्धांत,भाग-2-एम.पी.जैन.-ओरिएंट लॉन्गमैन लिमिटेड-संस्करण-1978-पृ.सं.-150
[7]
Democracy in Theory and Practice-Subrata Mukharjee and sushila
Ramaswamy-Macmilion-2005-P.G.-xiii
[8] भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि-गतिरोध,सम्भावना और
चुनौतियाँ-किशन पटनायक-राजकमल प्रकाशन- प्रथम संस्करण-2006-पृ.सं.-5
[9] भारतनामा-सुनील खिलनानी-राजकमल प्रकाशन-पहला
पेपर बैक्स संस्करण-2001-पृ.सं.-53
[10] बृहत् हिंदी कोष-ज्ञानमंडल लिमिटेड,
वाराणसी-पुनर्मुद्रित संस्करण-2000-पृ.सं.-1043
[11] देश के इस दौर में-डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी-राजकमल
प्रकाशन-2000-पृ.सं.-67
[12] दूसरा सप्तक-वक्तव्य-भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन-द्वितीय संस्करण-1970- पृ.सं.-138
[13] भारतनामा-सुनील खिलनानी-राजकमल प्रकाशन-पहला
पेपर बैक्स संस्करण-2001-पृ.सं.-59
[14] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-85-86
[15] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-21-22
[16] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-22
[17] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-68
[18] रघुवीर सहाय रचनावली-खंड-3-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-प्रथम संस्करण-2000-पृ.सं.-56
[19] आत्महत्या के विरुद्ध-वक्तव्य-रघुवीर
सहाय-राजकमल प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967
[20] सीढ़ियों पर धूप में-रघुवीर सहाय-भारतीय
ज्ञानपीठ,काशी-प्रथम संस्करण-1960-पृ.सं-140-141
[21] सीढ़ियों पर धूप में-रघुवीर सहाय-भारतीय
ज्ञानपीठ,काशी-प्रथम संस्करण-1960-पृ.सं-140-141
[22] हिन्दुस्तान-शुक्रवार,11 जनवरी 2008-पृ.सं.-1
[23] लिखने का कारण-रघुवीर सहाय रचनावली,खंड-3-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000
[24] कुछ पत्ते कुछ चिट्ठियां-रघुवीर सहाय
रचनावली,खंड-1-सम्पादक-सुरेश शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000- पृ.सं.-286
[25] IBN7-12 जनवरी,2008
[26] हिन्दुस्तान-3 जनवरी 2008-पृ.सं.-1
[27] एक समय था- रघुवीर सहाय रचनावली,खंड-1-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000-पृ.सं.328
[28] रघुवीर सहाय का कवि कर्म-सुरेश शर्मा-वाणी
प्रकाशन-संस्करण-2002-पृ.सं.-78
[29] रघुवीर सहाय रचनावली,खंड-4-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000-पृ.सं.-475
[30] एक समय था- रघुवीर सहाय रचनावली,खंड-1-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000-पृ.सं.314
[31] राजनीति कि किताब-संपादक-अभय कुमार दूबे-वाणी
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-2003-पृ.सं.-82
[32] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल
प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-16-17
[33] लोकतंत्र के तलबगार-जावीदआलम-अनुवाद अभय कुमार
दूब-वाणी प्रकाशन-प्रथम संस्करण-2007-पृ.सं.-9
[34] फिल्म के बाद चींख-आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर
सहाय-राजकमल प्रकाशन-प्रथम संस्करण-1967-पृ.सं.-75-76
[35] प्रतिपक्ष-अंक जनवरी 1991-पृ.सं.-17
[36] हंसों हंसों जल्दी हंसों-रघुवीर सहाय-नेशनल पब्लिशिंग
हॉउस-प्रथम संस्करण-1975-पृ.सं.-27
[37] हिन्दुस्तान-2 जनवरी 2008-पृ.सं.-1
[38] सीढ़ियों पर धूप में-रघुवीर सहाय-भारतीय
ज्ञानपीठ,काशी-प्रथम संस्करण-1960-पृ.सं-172
[39] औरत की जिंदगी-हंसों हंसों जल्दी हंसों-रघुवीर
सहाय-नेशनल पब्लिशिंग हॉउस-प्रथम संस्करण-1975-पृ.सं.-12
[40] हंसों हंसों जल्दी हंसों-रघुवीर सहाय-नेशनल
पब्लिशिंग हॉउस-प्रथम संस्करण-1975-पृ.सं.-23
[41] आपकी हंसी-हंसों हंसों जल्दी हंसों-रघुवीर
सहाय-नेशनल पब्लिशिंग हॉउस-प्रथम संस्करण-1975-पृ.सं.-16
[42] आत्महत्या के विरुद्ध-रघुवीर सहाय-राजकमल प्रकाशन-प्रथम
संस्करण-1967-पृ.सं.-78
[43] रघुवीर सहाय रचनावली,खंड-3-सम्पादक-सुरेश
शर्मा-राजकमल प्रकाशन-संस्करण-2000-पृ.सं.-102
बहुत ही सुंदर और व्यवस्थित आलेख । विद्यार्थी वर्ग के लिए भी बहुत उपयोगी ।
जवाब देंहटाएंBhut hi sundar prastuti hai. Aabhar
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें